पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 30 December 2009

कल क्या करेंगे, आज ही लिख लें

पलक झपकते वक्त कैसे गुजर जाता है, यह हम रोज देखते तो हैं लेकिन ज्यादातर लोग पंख लगाकर उड़ते वक्त को 31 दिसंबर की रात मनाए जाने वाले जश्न के दौरान ही समझ पाते हैं। एक पल पहले 09 और पल भर बाद ही 2010 का जन्म हो जाता है। वक्त को तो अपनी अहमियत पता है लेकिन हम में से ज्यादातर लोगों को वक्त का महत्व पता नहीं है या पता है, तब भी कल पर टालते जाते हैं। नदी की कलकल तो फिर भी हमें सुकून देती है, लेकिन वक्त के प्रति यह कल कल का खेल हमें जिंदगी की रेस में हार का मुंह दिखा सकता है, यह हम समझना ही नहीं चाहते।
नए साल के आगमन के साथ ही आकर्षक कैलेंडर, खूबसूरत डायरियों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है। उपहार में मिली डायरियों में कुछ तो इतनी सुंदर होती हैं कि लिखने की इच्छा नहीं होती, वैसे भी डायरी में हम नाम, पता, ब्लड ग्रुप आदि लिखने में तो तत्परता दिखाते हैं लेकिन वैसा उत्साह फिर हर रोज नजर नहीं आता। जनवरी बीतते-बीतते तो याद भी नहीं रहता कि हमने नए साल में क्या-क्या संकल्प लिए थे। 09 की डायरी को विदा करने से पहले उस पर आखिरी नजर डालेंगे तो पाएंगे लगभग पूरी डायरी खाली पड़ी है। आपने कुछ नहीं लिखा तो क्या फरवरी, मार्च आपके लिए रुके रहे? हम न जागे, तब भी सूरज समय पर जाग कर अपनी ड्यूटी पूरी करता है। हम खड़े रहें तब भी वक्त तो चलता ही रहता है। कल के लिए हमने जो सोचा है, उसे अपनी डायरी में आज ही लिख लें और उस लिखे हुए पर रोज नजर डालने की आदत भी डाल लें तो हमें साल बीत जाने का ज्यादा अफसोस नहीं होगा।
अब जब नए साल में जरूरी काम निपटाने की प्लानिंग बनाएंगे तो बीते साल में लिए संकल्प के बाद भी जो काम नहीं कर पाए, वे सब विक्रम-बेताल की कहानी की तरह हम से जवाब मांग रहे होंगे। ऐसे वक्त ही हमें अहसास होता है कि कल पर टाले जाने वाले काम हमें कितने भारी पड़ जाते हैं। गैस पर रखा दूध उफने, उससे पहले ही हम गैस बंद कर देते हैं, उस वक्त कल कर देंगे सोचना काम नहीं आता। टेलीफोन व बिजली आदि के बिल, बैंक से लिए लोन की किश्त, सिनेमा के टिकट आदि मामलों में हम कल का इंतजार नहीं करते। हमें पता होता है कि विलंब शुल्क, ब्याज पर पेनल्टी लगेगी और सेकंड शो वाला टिकट अगले शो में काम नहीं आएगा।
साबित यह हुआ कि हमें अभी, आज, कल और फिर कभी का फर्क तो पता है लेकिन हम आलस्य के ऐसे बीज बोते रहते हैं जिससे कल की बंजर भूमि पर परिणाम की फसल उग ही नहीं पाती। कहावत तो याद है 'काल करे सो आज कर....', लेकिन कार्यरूप में 'आज करे सो काल कर...' की शैली अपनाते हैं।
नए साल के पहले दिन ही तय कर लंे कि हमें आज क्या करना है, कल क्या करेंगे और इस साल कौनसे काम हर हालत में पूरे करने हैं। जो भी संकल्प लें यह याद रखें कि इन संकल्पों की याद दिलाने कोई नहीं आएगा। पेन आपका, डायरी आपकी, मर्जी आपकी और मन भी आपका! जो लाभ होगा, आपका ही होगा। रही नुकसान की बात तो बीते साल को याद कर लें, क्या-क्या सोचा था और क्या नहीं कर पाए। नए साल में बधाई के बदले बधाई देना तो प्रचलन है ही, अच्छा यह भी हो सकता है कि बीते साल जिन लोगों की किसी बात से हमारा मन दुखा या हमारे व्यवहार से खिन्न होकर किसी अजीज ने हमसे मुंह मोड़ लिया, उसे मनाएं। एक साल तो आपने कल-कल करते खो दिया, एक अच्छा मित्र तो न खोएं। कहा भी तो है आपका व्यवहार कैसा है, यह तब आसानी से पता चल सकता है, जब या तो आपका अजीज दोस्त आपा खो बैठे या आपके व्यवहार से प्रभावित होकर दुश्मन भी आपका दोस्त बन जाए। व्यावहारिक जीवन जीने का बड़ा आसान सा फंडा है, जैसा बोलेंगे, वैसा सुनेंगे। किसान तो जानता है कि कनक बोएगा तो सरसों की फसल नहीं ले सकता, फिर हम भी जान लें कि क्वआपं सुनने के लिए कम से कम 'तुम' तो कहना ही पड़ेगा। नए साल की डायरी में हर रोज नया संकल्प लिखने से बेहतर यह भी हो सकता है कि कोई एक संकल्प हर रोज लिखें। इससे कम से कम हमारी याददाश्त मजबूत होगी और लिखे हुए का पालन करने की कोशिश भी करेंगे।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 24 December 2009

पहले अपने लिए तो जीना सीख लीजिए

पुरानी फिल्म का गीत है- अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी दिल जमाने के लिए। एक हद तक तो मुझे गीत सही लगता है, लेकिन फिर इस प्रश्न का जवाब नहीं मिल पाता कि जो अपने लिए ही जीने का वक्त नहीं निकाल पाते, वे जमाने के लिए क्या जिएंगे? निश्चित ही अपने लिए जीने का मतलब घंटों टीवी के सामने बैठे रहना, दोस्तों के साथ पार्टी करना, बच्चों को होमवर्क कराना, सुबह से रात तक रसोइघर में व्यस्त रहना तो नहीं है।
दरअसल अपने लिए जीने की शुरुआत तो अब डॉक्टर के परामर्श से ही होती है। अचानक बेचैनी महसूस हो, चक्कर खाकर गिर पड़ें। परीक्षण और महंगी जांच के बाद जब डॉक्टर संतुलित आहार, मद्यपान निषेध, सलाद सेवन और नियमित मोर्निंग वॉक-योग आदि की सलाह देते हैं, तब अपने लिए जीने का क्रम शुरू होता है। ठीक भी है हमें खुद ज्ञान प्राप्त हो जाए तो हम सब महात्मा बुद्ध हो जाएं। रामायण लिखने से पहले तक वाल्मीकि क्या थे? उन्हें जब ज्ञान मिला कि ये सारे पाप आपके खाते में जमा हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने लिए जीना सीखा। अपने लिए जीना सीखकर वे देवत्व को प्राप्त कर सके तो कुछ वक्त अपने पर खर्च करके हम भी अपना बाकी जीवन तो बिना तनाव के जी ही सकते हैं।
चौबीस घंटों में हम अपने लिए कितना जी पाते हैं। हमारी कॉलोनी के आसपास गार्डन है। अपनी कोठी की छत पर भी खूब जगह है, हमें तो मोर्निंग वॉक तक का समय नहीं मिल पाता। और तो और इन गार्डन के आसपास रहने वाले अधिकांश लोग भी अपने लिए कुछ वक्त नहीं निकाल पाते। शायद हम सब ने ठान रखा है कि जब तक डाक्टर हिदायत दें, क्यों घूमें, क्यों संतुलित खानपान रखें। अपने दरवाजे पर मरीजों की कतार किस डॉक्टर को अच्छी नहीं लगती, लेकिन साफ दिल से दी गई उनकी सलाह को मानने की अपेक्षा हम डॉक्टर बदलना ज्यादा आसान समझते हैं, क्योंकि भगवान का दिया सब कुछ है हमारे पास। पैसे का गुरूर रखें लेकिन यह भूलें कि टेंशन फ्री लाइफ और निरोगी काया के लिए माया जरूरी नहीं है।
जरा संकल्प लेकर तो देखिए कि कम से कम सात दिन तो जल्दी उठकर घूमने जाना ही है। पहले दिन तो बड़ा मुश्किल लगेगा, इच्छा होगी बस पांच मिनट और सो लें, फिर उठ जाएंगे। भले ही मन मारकर उठें, लेकिन मोर्निंग वॉक से लौटकर जो ताजगी महसूस करेंगे तो मन ही मन खुद को कोसेंगे भी कि इतनी देर बाद क्यों समझ आई। प्रकृति हमारा इंतजार करती रहती है और हम हैं कि कुछ पल उसकी गोद में गुजारने की अपेक्षा महंगे अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में रहना ज्यादा पसंद करते हैं।
जमाने के लिए कुछ करें, अपने परिजनों के लिए तो जीना चाहते ही हैं। उन सब के सपने भी आप तभी पूरे कर सकते हैं जब अपने लिए जीना सीख लें। अब तक तो सोचने का भी वक्त नहीं मिला कि अपने लिए कितना जिए। हिसाब लगाने बैठेंगे तो सबके लिए वक्त लुटाते रहने में आपके एकाउंट में वक्त का बैलेंस जीरो ही नजर आएगा। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, जो वक्त बचा है, उसमें से हर रोज एक घंटा तो अपने पर खर्च कर सकते हैं। महंगाई के इस जमाने में अपने पर खर्च किए 60 मिनट के बदले डाक्टर के बिल में जितनी भी कमी आएगी, वह सारी राशि दोनों हाथों से लुटाइए अपनों पर।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 17 December 2009

अपने बारे में फीडबैक पता कीजिए

चाहे संबंध हो या व्यापार न चाहते हुए भी स्थिति ऐसी हो ही जाती है कि प्रोफेशनल होना ही पड़ता है। जो उत्पादक हैं वे अपने प्रॉडक्ट की बिक्री में बढ़ोतरी के लिए फीड बैक लेते हैं। संबंधों को तरोताजा बनाए रखने के लिए, ज्यादा से ज्यादा अपने प्रशंसकों तक पहुंचने के लिए सितारे और नेता भी फेसबुक, ब्लॉग, आरकुट आदि का सहारा ले रहे हैं। इस सब का उद्देश्य भी यही है कि वे जो कर रहे हैं उस पर प्रशंसकों की प्रतिक्रिया सकारात्मक भी है या नहीं। आशा के विपरीत परिणाम आने पर कंपनियां अपने प्रॉडक्ट की कमियां दूर कर लेती हैं। सितारे अपने फैसलों की, अपने काम की समीक्षा करते हैं, जनप्रतिनिधि जनभावना के खिलाफ कोई निर्णय लेने का साहस नहीं कर पाते। सारा खेल अब फीड बैक पर निर्धारित हो गया है। हमें अपने कार्य-व्यवहार के बारे में भी फीड बैक लेते रहना चाहिए। इससे खुद को और बेहतर इंसान तो बना ही सकते हैं। हालांकि मैंने अपने साथियों से कई बार अपने कार्य-व्यवहार पर फीड बेक देने को कहां, बिना नाम के अपना मत लिख कर देने को कहा लेकिन मुझे अब तक सफलता नहीं मिली।
ऐसा नहीं कि यह कोई नया तरीका है। सदियों से फीड बेक लिया जाता रहा है। राजतंत्र में कई राजा रात में वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल जानने निकला करते थे। पुलिस अधिकारी भी सामान्य वेशभूषा में कानून व्यवस्था देखने निकल जाते थे। जिले में ज्वाइन करने से पहले कई अधिकारी सामान्य नागरिक के रूप में घूम फिरकर शहर को अपने तरीके से समझ लेते थे। इस तरीके से उन्हें अपना काम करने, फैसला लेने में आसानी हो जाती थी।
ग्राहक और दुकानदार में सीधा संबंध होता है। वह प्रॉडक्ट पैसा देकर खरीदता है। प्रॉडक्ट में किसी तरह की खोट होने पर वह सबसे पहले दुकानदार को ही शिकायत करता है। कंपनी तक ग्राहकों की बात इन्हीं दुकानदारों या फीड बैक सिस्टम से पहुंचती है। प्राप्त फीड बैक के आधार पर महंगा शैंपू, दो रुपए के पाउच में गांव-ढाणी तक उपलब्ध कराने या निरंतर शिकायतों के कारण प्रॉडक्ट को माकेüट से हटाने का निर्णय लिया जाता है।
गंगानगर और हनुमानगढ़ क्षेत्र में वर्षों से अभिकर्ता के रूप में क्वभास्करं को निरंतर ऊंचाइयों पर ले जा रहे वरिष्ठ अभिकर्ताओं से अभी जब सीधे चर्चा का अवसर मिला तो मैंने क्वपचमेलं के संदर्भ में भी उनका एवं उनके क्षेत्र के पाठकों (ग्राहकों) का फीड बेक बताने का अनुरोध किया। एक अभिकर्ता साथी ने निभीüकता से प्रति प्रश्न किया आप सच सुनना पसंद करते हों तो बताता हूं कोई पाठक इसे पसंद नहीं करता। ज्ञान-ध्यान की बातों वाली किताबों की बाजार में कमी नहीं है। आपको इसकी जगह समाचार छापने चाहिए।
उनका कहना था मेरे अकेले का नहीं बाकी सभी अभिकर्ताओं का भी यही मत है। हमने आपको असल बात कह दी, आगे आपकी मर्जी। अब उन सब की नजरें मेरे चेहरे पर प्रतिक्रिया जवाब के रूप में तलाश रही थी।
मेरा यह जवाब सुनकर अभिकर्ताओं के चेहरे पर खुशी और विजयी भाव था कि आपके इस सुझाव को अगले सप्ताह से अमल में ले आएंगे। जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों के अंजान पाठकों के मुझे प्रति सप्ताह एसएमएस और सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती थी। उससे यह मान लेना घातक ही कहा जा सकता है कि पसंद करने वालों का प्रतिशत अधिक है। आलोचक भी आपका सच्चा हितैषी हो सकता है। हां में हां मिलाने वालों की भीड़ में कोई एक-दो ही ऐसे मिलते हैं जो हकीकत बताने का साहस रखते हों। उजली धूप को चांदनी जैसा बताने वालों की भीड़ में ऐसे निंदक ही आंख खोल सकते हैं कि जिसे आपके सामने चांदनी बताकर प्रचारित किया जा रहा है, वह तेज धूप है।
सुख-दुख की बातें तो अभी भी जारी रहेंगी लेकिन माध्यम बदला हुआ होगा। अब जब अपनी बात कहने, प्रतिक्रिया व्यक्त करने का ब्लॉग सबसे सरल, अच्छा माध्यम बनता जा रहा है तो इस स्तंभ को पसंद करने वाले पाठकों को भी कंप्यूटर, इंटरनेट फ्रेंडली होना पड़ेगा। यानी बुराई में भी एक अच्छाई है कि ब्लॉग दुनिया से अनभिज्ञ पाठक जब ब्लॉगिंग से जुड़ेंगे तो उनमें से कई खुद अपने ब्लॉग पर लिखना भी शुरू करेंगे। यह मुश्किल भी नहीं है। इस स्तंभ के एक नियमित पाठक चंद्र कुमार सोनी (एल मॉडल टाउन श्रीगंगानगर) अपने नाम से ब्लॉग लिखने लगे हैं। कॉलम और ब्लॉग को लेकर मित्रमंडली से होने वाली नियमित चर्चा का ही यह परिणाम रहा कि बीकानेर के पत्रकार मधु आचार्य (जनरंजन) जोधपुर से पानीपत पहुंचे पत्रकार ओम गौड़ (हमारी जाजम) आदि भी ब्लॉग लेखन के लिए प्रोत्साहित हुए और अब नियमित लिख भी रहे हैं। किसी मुद्दे को लेकर मन में कुछ लिखने की छटपटाहट हो लेकिन यह शंका भी घेरे रहे कि कोई समाचार पत्र छापेगा या नहीं तो ऐसे में खुद के ब्लॉग पर लिखना बड़ा आसान और मन को सुकून देने वाला तरीका है।

Friday 11 December 2009

समाज से लिया है तो कुछ चुकाएं भी

रिश्ते में हमारे एक भाई एक दोपहर स्कूल से जल्दी घर आ गए। कई दिनों से निजी स्कूल प्रबंधन जो मंशा स्कूल स्टाफ के सामने जाहिर करता रहा था आज उस पर अमल हो गया था। स्कूल भवन वाली जगह पर अब बड़ा कमर्शियल कांप्लेक्स बनेगा। चूंकि स्कूल सरकारी अनुदान से चल रहा था लिहाजा स्कूल स्टाफ का हिसाब-किताब भी प्रबंधन ने अपनी मर्जी से ही किया। ज्यादातर अध्यापक अन्य काम-धंधे से साइड बिजनेस के रूप में पहले से ही जुड़े थे इसलिए स्कूल बंद होने के निर्णय से उनके सामने आर्थिक संकट जैसी स्थिति नहीं बनी। इसके विपरीत स्कूल बंद होने की सूचना के साथ ही भाई ने बड़े उत्साह से एक निर्णय और सुना दिया कि बस इसी महीने से सब्जी का थोक व्यवसाय भी बंद करके अब पूरा समय बच्चों को ट्यूशन देने में लगाएंगे। जमा-जमाया बिजनेस बंद करने के उनके इस निर्णय का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी, समझा इसलिए नहीं सकते क्योंकि वे उम्र में सबसे बड़े थे। बच्चों को पढ़ाने के इस काम में भी यह निधाüरित कर दिया जो बच्चे फीस नहीं दे सकते उनसे नहीं लेंगे, बाकी बच्चे जो देंगे ले लेंगे।
गली-गली में जब कोचिंग सेंटर चल रहे हों तब इस तरह ट्यूशन से बेहतर आमदनी की उम्मीद करना कैसे सही हो सकता है। कामर्स के कुछ बच्चे आने लगे, पढ़ाने के तरीके के कारण उन बच्चों को कामर्स अब आसान लगने लगा। संध्या बढ़ने के साथ ही कुछ बच्चों ने परेशानी बताई- हमारे स्कूल में कई बातें कंप्यूटर से भी समझाते हैं। उन्होंने बच्चों की परेशानी में छुपे संकेत को समझ लिया। उम्र भ्8 की होने के बावजूद कंप्यूटर क्लास ज्वाइन की और अब बच्चों की जिज्ञासा का कंप्यूटर की भाषा में ही समाधान करते हैं। ट्यूशन के बाद बचा समय उन बच्चों के लिए रखते हैं जो सप्ताह में एक दिन पढ़ने का वक्त निकाल पाते हैं। अपने रिश्तेदारों से कपड़े व अन्य उपयोगी पुराना सामान एकत्र कर इन बच्चों को उपलब्ध करा देते हैं इस उतरन से ही इन बच्चों के सपने रंगीन हो जाते हैं।
इस तरह के प्रसंग कहीं न कहीं घटित होते ही रहते हैं जो हमें यह सोचने को भी बाध्य करते हैं कि क्या हम अपने रोज के काम या सेवानिवृति के बाद ऐसा कुछ नहीं कर सकते? क्या जीवन में पैसा ही सब कुछ होना चाहिए? अच्छा करने का जज्बा किसी भी उम्र में पैदा हो सकता है। जिनकी नजर अपनों से आगे देख ही नहीं पाती उन लोगों के लिए ही पैसा सब कुछ हो सकता है। इन पैसे वालों की भी तो पीड़ा जानिए जो बेफिक्री की नींद वाली एक रात के इंतजार में बिना गोलियांे के एक झपकी भी ठीक से नहीं ले पाते। एक इशारे में दुनिया खरीदने जितनी ताकत रखने के बाद भी दाल-रोटी के बदले लोकी और करेले के सूप पर गुजारा करते हैं। मुझे लगता है सब कुछ उपलब्ध होने के बाद भी जब इस सबसे मन उचट जाए तो मामला एश या केश का नहीं मन के फ्रेश होने का ही होता है।
'पा' में बच्चे बने महानायक हों, विज्ञापन फिल्म में बूढ़े के रूप में अपनी भावी सूरत से खुश होने वाले किंग खान हों या फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान पाने के बाद 81 की उम्र में खुद को 18 का महसूस करने वाली लताजी हों या ऐसी सारी हस्तियों के लिए आज भी पैसा ही सब कुछ है। यदि इसका जवाब हां में ही सुनना चाहें तो यह भी सोचना पड़ेगा कि इतनी उम्र के बाद भी यह सारे लोग पैसे के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं तो उम्र के इस पड़ाव पर समाजसेवा भी तो कर रहे हैं। जिस समाज ने इन्हें इस ऊंचाई पर पहुंचाया उसका अपने अंदाज में कर्ज भी तो उतार रहे हैं। हमें भी पैसा कमाने से कौन रोक रहा है लेकिन कितने लोग हैं जो कमाएं पैसे से सेवा का मेवा बांटने का काम कर पाते हैं?
शासकीय सेवा में रहते समाज के एक बड़े वर्ग की फिक्स लाइफ स्टाइल होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि समाज के लिए कुछ अच्छा करने की दिली इच्छा है पर क्या करें आफिस की झंझटों और बाकी बचे समय में पारिवारिक दायित्वों के कारण समय ही नहीं मिल पाता। जब यह वर्ग पूरे सम्मान के साथ सेवानिवृत होता है तब इनमें से कितने लोग समाज को कुछ वक्त दे पाते हैं। दिनचर्या तो बदल जाती है लेकिन मन नहीं बदल पाता। उल्टे-सीधे तरीकों से पैसा कमाने वालों का तो तनाव बढ़ जाता है, नए-नए रोग घेर लेते हैं, चिंता सताने लगती है इंकम के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। कहा भी तो गया है पहले इंसान सारा ध्यान पैसा कमाने में लगाता है और बाद में बीमारियों से राहत पाने के लिए इसी पैसे को पानी की तरह बहाता है।
हमें अगले पल की तो खबर होती नहीं और हम कल की खुशी के लिए आज को बर्बाद करने में लगे रहते हैं। कई बार हमने किस्से सुने हैं कि सड़क किनारे वर्षों से भीख मांगकर गुजारा करने वाले की लाश को उठाने आए लोगों ने उसका कंबल झटकाया तो उसके नीचे नोटों की गड्डियां जमी पाई। जो पैसा जमा करते-करते बिना सुख भोगे चले जाते हैं उनसे भी हम सीख नहीं पाते। कम से कम यह तो याद रख ही लें कि किसी की आंखों से बहते आंसू सोने की गिन्नी से नहीं आपके प्यार भरे स्पर्श से ही थम सकते हैं। रोते बच्चे को चुप कराना इतना ही आसान होता तो सारी मां-बहनें बच्चों को कंधे पर लेकर प्यार भरी थपकियां देने के बदले गले में सिक्के और नोटों की माला बनाकर डाल देतीं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 2 December 2009

काम तो कर ही रहे हैं, कुछ अच्छा भी किया क्या?

बेटा स्कूल से घर आया तो शर्ट पर धूल-मिट्टी के निशान थे। अस्त-व्यस्त ड्रेस से आभास तो ऐसा ही हो रहा था कि दोस्तों के साथ गुत्थमगुत्था होकर आया है। स्कूल बैग पलंग पर फेंका और हम कुछ पूछें इससे पहले खुद ही उत्साह के साथ बोल पड़ा- पता है मम्मी, मैंने और मेरे दोस्तों ने आज एक अच्छा काम किया है? आगे बताने से पहले वह हमारा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसके इस अच्छे काम को जानने की उससे दो गुनी उत्सुकता दिखाई, वह भी शायद ऐसी ही कुछ प्रतिक्रिया चाहता था। उसने उत्साह के साथ अपनी बात आगे बढ़ाई-हम तीन-चार दोस्त स्कूल से आ रहे थे। आगे चल रहे एक ऑटो वाले को एक अन्य वाहन ने टक्कर मार दी। आटो में फंसा ड्राइवर निकलने की कोशिश कर रहा था, आसपास के दुकानदार देख रहे थे, लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आया। हम दोस्तों ने सड़क पर ही बाइक तिरछी खड़ी की, बाकी वाहन घूमकर निकलते रहे। ऑटो से उस ड्राइवर को निकाला तो उसकी चोटों से खून बह रहा था। एक दोस्त को 108 पर एंबुलेंस के लिए कॉल करने को कहा। जैसे ही गाड़ी आई, उसमें उसे लिटाया, उसका ऑटो साइड में लगाया, इसी कारण घर आने में मुझे देरी हो गई।
कुछ देर पहले तक उसकी मम्मी के चेहरे पर चिंता की लकीरें थी कि बेटा अभी तक स्कूल से नहीं आया, लेकिन बेटे के मुंह से अच्छे काम का पूरा वृतांत सुनकर अब संतोष के भाव थे। जाहिर है कि उसके दोस्तों की भी उनके माता-पिता ने पीठ थपथपाई होगी।
मैंने भी उसके इस अच्छ काम की तारीफ की। फिर सोचा-पूछूं कि इससे पहले ऐसा कोई अच्छा काम कब किया था? शब्द बस मुंह से निकलने को ही थे कि होठों ने मेरी जुबान पर ताला लगा दिया? मेरा मन मुझसे ही सवाल कर रहा था कि यदि बेटे ने पूछ लिया-पापा आपने कब किया था ऐसा कोई अच्छा काम? क्या मैं उसे संतुष्ट कर पाऊंगा!
क्या मैं ही ऐसे किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे सकता या हममें से ज्यादातर मां-बाप के पास अपने बच्चों के ऐसे सवालों के जवाब नहीं हैं?
हम सब अपने बच्चों से तो यही अपेक्षा करते हैं कि वे संस्कारवान हों, हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरें। जो हम नहीं बन पाए, हम जो नहीं कर पाए वह सब हम अपने बच्चों से कराने की अपेक्षा उन पर थोपने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा करना अभिभावकों की अपेक्षा हो सकती है, लेकिन जब बच्चों की नजर में यह अपेक्षा ही तानाशाही बनती जाती है तब या तो बच्चे एकाकी हो जाते हैं या विद्रोही। ऐसे में या तो अभिभावक हताश हो जाते हैं या बच्चों के किसी अप्रत्याशित कदम से हाथों से तोते उड़ने जैसे हालात भी बन जाते हैं।
कहा तो यह भी जाता है कि बेटे के पैर में जब बाप का जूता आने लगे तो वह बेटा नहीं, दोस्त हो जाता है। ऐसे ही जब बेटी में स्त्रियोचित लक्षण नजर आने लगे तो मां को उसे अपनी सहेली मान लेना चाहिए। क्या ऐसा हम कर पाते हैं? घर-घर की कहानी का अंत इतना ही सुखद हो जाए तो सारे चैनलों को प्राइम टाइम में ढूंढे से दर्शक नहीं मिलें। कहीं हम ही लोग धारावाहिकों के पात्र बन जाते हैं तो ज्यादातर धारावाहिक के कथानक हमारे आसपास घटी घटनाओं से चुराए लगते हैं। अच्छा करें तो उसकी चर्चा कम होती है, यही नहीं उस कथा में बाकी लोगों का भी कम लगाव रहता है, लेकिन बुरा करने, बुरा सुनने में हमें बड़ा आनंद आता है।
हम लोग जिस भी पेशे में हैं, बेईमानी या ईमानदारी से अपना काम तो करते ही हैं। कोई दिन भर में 25-50 फाइलें निपटा देता है तो कोई एक फाइल लेकर बाकी कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेता है कि शाम को ऑफिस छोड़ने से पहले ही वह फाइल निपट पाती है। इस सारे काम का हमें मेहनताना मिलना भी तय ही रहता है। रूटीन के इस काम में क्या हम कोई अच्छा काम भी कर पाते हैं? सोचें या समीक्षा करने बैठें तो हैरत हो सकती है कि काम तो रोज किया लेकिन अच्छा काम कब किया याद ही नहीं आया। आसपास नजर दौड़ाएं, समीक्षा करें तो कई बार अपने उस पड़ोसी-सहकर्मी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि वह हर दो-चार दिन में कोई ऐसा काम कर दिखाता है जो उसे अगले कुछ दिनों तक ऊर्जा प्रदान करता है और हम उसके ऐसे काम को पागलपन मानकर खारिज करते रहते हैं। आप किसी के अच्छे काम से प्रेरित हों यह बाध्यता नहीं, आपने आज तक कोई अच्छा काम किया या नहीं इसका हिसाब किताब रखना भी जरूरी नहीं लेकिन आप के अपनों ने यदि कुछ अच्छा काम किया है तो उनकी पीठ थपथपाने में तत्परता तो दिखा ही सकते हैं। जो अच्छा करने के लिए उत्साहित हैं, वह तो अपना काम बताने के साथ उत्साहित करने वालों में आपका भी नाम लेगा ही। कम से कम इसी तरह हम सबका नाम अच्छा करने वालों की सूची में तो जुड़ ही जाएगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 25 November 2009

बुराई गिनाने वालों को गले लगाना सीखें

दोनों मित्रों में यूं तो खूब पटती थी लेकिन कॉलेज की पिकनिक से लौटने के बाद से बोलचाल बंद है। आमने-सामने होते हैं तो मुंह फुलाए रहते हैं। एक ने आकर अपना दुखड़ा मेरे सामने रोया। उसने जितना बताया, मैंने जो समझा वह यह कि उस मित्र ने अपने इस अजीज दोस्त को मित्रमंडली में उस वक्त टोककर चुप करा दिया था जब वह क्लास के ही एक अन्य साथी, जो वहां मौजूद नहीं था, की खिल्ली उड़ा रहा था। खिल्ली उड़ाने से रोकने वाले दोस्त ने इतना ही कहा था कि तुझमें हिम्मत है तो ये सारी बातें उसकी मौजूदगी में कर।
बात बिलकुल सही थी। ऐसे प्रसंग हमारे साथ भी कार्यालयों, पारिवारिक समारोह में होते ही हैं। कई लोग हां-हूं करते हैं और कुछ चटखारे लेकर उन बातों को पल भर में फैला देते हैं। बदनामी होती है उस शख्स की जिसने किसी के बारे में लूज टॉक की थी। उस शख्स की बाकी अच्छाइयां तो गौण हो जाती हैं और ऐसी बुराई उसके नाम से जुड़ जाती है। शायद इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने बहुत पहले ही कह दिया था-बुराई आदमी के आगे और अच्छाई उसके पीछे चलती है।
इस सहज सत्य को हम मरते दम तक भी समझने की कोशिश नहीं करते। इसीलिए जब हमारे मुंह पर ही कोई हमारी कमियां गिनाने लगता है तो हम ऐसे बिलबिला पड़ते हैं जैसे कटी अंगुली पर किसी ने मिर्च डाल दी हो। एक तो वैसे ही मधुर संबंध डायबिटीज का शिकार होते जा रहे हैं। ऐसे में परिवार में, कार्यालय में या किसी समारोह में अपना ही कोई साथी हमारी कमजोरी बताने लगता है तो बिना एक पल की देरी किए दिल की किताब में उसे ब्लैकलिस्टेड करने के साथ ही मोबाइल की फोनबुक से भी नाम, नंबर डिलीट कर देते हैं।
हनुमानगढ़, सूरतगढ़, श्रीगंगानगर सहित अभी पूरे राजस्थान में निकाय चुनाव हुए हैं। सभापति से लेकर पार्षद पद के लिए जितने भी प्रत्याशी मैदान में थे, इन सबने लोगों से मतों की गुहार के दौरान इसे अच्छी तरह समझा है कि जिन कॉलोनी, समाज वालों को वे अपना मानते रहे, वे भी कितनी छोटी-छोटी बातों की नाराजगी पाले हुए हैं। वैसे तो चुनाव मैदान में उतरने का मतलब ही है अपनी सात पीढ़ियों का अच्छा-बुरा इतिहास लोगों से जान लेना। आईने के सामने खड़े होकर हम नाक पर लगी कालिख, बालों में उलझा तिनका, शर्ट की मुड़ी हुई कॉलर आदि तो ठीक कर सकते हैं लेकिन खुद की बुराइयां पता करने की तो कोई दवाई ईजाद हुई ही नहीं। सोनोग्राफी मशीन भी ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं दे सकती। इन प्रत्याशियों ने मुस्कुराकर, गले मिलकर, चाय-नाश्ता भोजन के सहारे लोगों की नाराजी दूर करने की कोशिश भी की। ये प्रत्याशी जहां जा रहे थे, वहां उनसे पहले उनकी बुराई पहुंच रही थी, कुछ प्रत्याशी ऐसे भी थे जिनके पीछे उनकी अच्छाई चल रही थी।
जो हमारी बुराइयां, कमियां हमारे मुंह पर बताने की हिम्मत रखता है, हम उसे अपना दोस्त भले ही नहीं मानें लेकिन वह हमारा दुश्मन भी नहीं हो सकता। दुश्मन हमारे साथ दोस्त बनकर साथ चलते हैं लेकिन हमें उनकी असलियत जब पता चलती है, तब तक देर हो चुकी होती है। हम भूल जाते हैं कि मुंह पर झूठी तारीफ करने वालों की भीड़ में हमने उस सच्चे आलोचक को खो दिया है, जो अच्छा दोस्त साबित हो रहा था।
जरा याद करिए स्कूल, कॉलेज के दिन, नौकरी-व्यवसाय की शुरुआत के वक्त हमारे भी कुछ दोस्त हुआ करते थे, जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही स्वीकार भी लेते थे कि मुझे झूठी तारीफ करना नहीं आता। कुछ समय तक तो हम ऐसे मित्रों की झूठी प्रशंसा करते हुए कहते थे कि क्वमुंह पर ही खरी-खरी सुनाने की उसकी यही आदत मुझे पसंद हैं लेकिन आज जब उस वक्त को याद करें तो लगेगा हममें से ज्यादातर ने सबसे पहले ऐसे दोस्तों से ही किनारा किया है।
दोस्त ही क्यों, अपने परिजनों में हमें वे ही लोग पसंद नहीं आते जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही अपने अनुभव के आधार पर उस गलती को दुरुस्त करने या झूठ के जंजाल से निकलने का रास्ता भी बताते हैं। चूंकि हम ऐसे लोगों को एक झटके में ही खारिज कर चुके होते हैं, इसलिए उनकी सलाह-सुझाव को भी अनसुना कर देते हैं। यदि किसी की सलाह-सुझाव से हम अपनी गलती सुधार लेते हैं तो उस सलाह देने वाले का तो कोई लाभ होना नहीं है। बचपन में जब गिनती लिखने, जोड़-घटाव करने में हम गलतियां करते थे, तब गुरुजी कभी प्यार से, कभी फटकार और कभी मार से हमारी गलतियां हमसे ही ठीक कराते थे। आज जब मित्रों के बीच हमारा मैथ्स अच्छा होने, बिना केलकुलेटर की मदद से फटाफट हिसाब-किताब जोड़ लेने पर तारीफ होती है तो बड़े गर्व से कहते हैं-बचपन में सर ने मार-मार कर सवाल ठीक कराए, इसलिए आज गणित अच्छा है!
अभी जब हर मोड़ पर अपनी भूल का अहसास कराने वाले अपने ही मिलते हैं तो वे हमें दुश्मन नजर आते हैं।लेकिन झूठी तारीफ करने वाले दोस्तों की भीड़ में तो दुश्मन तलाशना मुश्किल ही रहता है जो आस्तीन के सांप की तरह हमारे साथ रहते हैं और मौका मिलते ही डसने से नहीं चूकते। मुगलों का इतिहास तो हम सभी ने पढ़ा ही है, जितने भी त�ता पलट हुए किसी न किसी बेटे-भाई ने ही इसे अंजाम देकर सत्ता प्राप्त की और सिंहासन पर बैठने के बाद फिर किसी भाई-बेटे ने उसके साथ भी वही सब दोहराया।
अगले हपते फैरूं,खम्मा घणी-सा...

Wednesday 18 November 2009

काम को ही पूजा बनाकर देखें

आधी रात का वक्त था जब श्रीगंगानगर से जयपुर के लिए चली निजी बस पल्लू स्थित उस ढाबे पर चाय-पानी के लिए रुकी। कुछ अंतराल के बाद एक के बाद एक बसें वहां रुकती गईं और यात्री चाय-नाश्ते-भोजन के लिए उतरते रहे। पहले टोकन लेने के लिए काउंटर पर भीड़ लगी और फिर ये यात्री चाय-काफी के लिए निर्धारित काउंटर पर पहुंच गए। मेरा ऑर्डर चूंकि कम शक्कर कॉफी का था इसलिए मुझे कुछ अतिरिक्त वक्त रुकना पड़ा। होटल का चाहे आर्डर मास्टर हो या पान दुकानदार बड़ी गजब की याद्दाश्त होती है इन लोगों की। उस काउंटर पर चाय उकालने के साथ ही मास्टर दाल तड़का, आलू-मटर, स्टफ टमाटर, गोभी-मटर भी आर्डर मुताबिक फटाफट प्लेट में डालता जा रहा था। आर्डर की इस फेहरिस्त में उसे लोगों से टोकन लेना भी याद था।
मुझे उस दस-पंद्रह मिनट के स्टाप, बसों की आवाजाही यात्रियों के आर्डर के बीच जो महसूस हुआ वह यह कि उस मास्टर का सारा ध्यान आर्डर मुताबिक सामान तैयार करने पर ही था। हल्की-फुल्की बातचीत में उसने जो कुछ बताया वह यह कि उसके काम के कारण ही ढाबा संचालक उसे खुश रखने के पूरे प्रयास भी करता है कि कहीं वह छोटी-मोटी बात पर छोड़ न जाए। समझने की बात यह है कि आज जिस भी क्षेत्र में हों यदि आप के काम या हुनर में दम है तो प्रशंसा और पुरस्कार तो आपके लिए कतार लगाकर खड़े रहेंगे।
दूर क्यों जाएं अपने सचिन तेंदुलकर को ही लें। सतत् 20 साल से देश के लिए क्रिकेट खेल रहे हैं, रिकार्ड के मामले विश्व में नंबर वन हैं। जमाना लताजी, अमिताभ, शाहरुख का दीवाना है और ये सब सचिन के फैन हैं। बात वही है काम में दम, चाहे खेल हो, चाय-पान की रेहड़ी, टेलर्स, गाड़ी सुधारने वाला मैकेनिक, गोलगप्पे, टमाटर सूप बेचने का ही काम क्यों न हो। क्या कारण है कि चाय-पान की दस दुकान छोड़कर हम वहीं जाते हैं, सूप भी किसी एक रेहड़ी वाले के यहां ही पीना पसंद करते हैं और एक जैसी दवाइयां सारे मेडिकल स्टोर पर मिलने के बावजूद किसी एक दुकान से ही खरीदते हैं। गोलगप्पे की एक साथ दो रेहड़ी लगी हो तब भी एक के यहां ग्राहकों का आलम यह रहता है कि मुफ्त में खिला रहा हो और दूसरे की आंखें ग्राहकों के लिए तरसती रहती हैं। बात वही है काम या आपके हुनर में दम। क्रिकेट में या सचिन के रिकार्ड में हो सकता है कई लोगों की दिलचस्पी नहीं भी हो लेकिन सचिन का लगातार 20 वर्ष निर्विवाद खेलते हुए रिकार्डो के शीर्ष पर पहुंचना यह तो सिखाता ही है कि हम चाहे क्षेत्र में हों अपने काम को पूजा समझें, धैर्य रखें, विवादों में न पड़ें, कार्यालयों में चलने वाली राजनीति में वक्त जाया न करें तो दुनिया की कोई ताकत हमें अपने क्षेत्र में आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। जहां काम ही आपकी पहचान हो वहां सिफारिश और रिश्तेदारी को नीचा ही देखना पड़ेगा। महज रिश्तेदारी से ही सफलता मिलती होती तो अभिषेक बच्चन को कभी से शाहरुख-सलमान से आगे हो जाना था। सचिन के साथ ही शुरुआत करने वाले उनके ही दोस्त विनोद कांबली को क्रिकेट छोड़कर लाफ्टर शो, सच का सामना, बिग बॉस जैसे कार्यक्रमों का सहारा नहीं लेना पड़ता।
'वर्क इज वर्शिप' का हम हर दो-चार दिन में तो इस्तेमाल कर ही लेते हैं लेकिन न तो पूजा निष्काम भाव से कर पाते हैं और न ही काम को पूजा की तरह करने की कोशिश में सफल हो पाते हैं। सुबह से ही रात तक काम में जुटे रहें लेकिन हमारा मन ही हमें शाबाशी न दे तो यह तो एक ही स्थान पर सुबह से रात तक दौड़ने जैसा ही होगा। काम के बाद आराम का अहसास तभी हो सकता है जब राम (पूजा) भाव ही उसे किया हो।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 11 November 2009

बोली में रहे मिठास तो रिश्तों में नहीं होगी खटास

अभी कुछ ऐसी मजबूरी हुई कि मुझे अपना एटीएम कार्ड पुनज् बनवाने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। एसबीबीजे स्टाफ ने कार्ड संबंधी कुछ विशेष जानकारी देने के लिए बैंक के टोल फ्री नंबर पर बात करने की सलाह दी। गुजरात स्थित इस कॉल सेंटर पर पदस्थ देवीदास ने आवश्यक जानकारी देने के लिए मुझसे जितनी देर बातचीत की, मुझे सीखने को मिला कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, उन्हें बेमतलब ही सही टोल फ्री नंबर डायल करके कॉल अटैंड करने वाले कर्मचारी के बोलचाल के सलीके से यह तो सीख ही लेना चाहिए कि हम रोजमर्रा के जीवन में क्या इतनी विनम्रता, आत्मीयता और संयम से बात कर पाते हैं। वैसे कॉल सैंटरों पर फोन लगाने वालों की कमी नहीं है, लेकिन ये नंबर क्वदोस्त बनाइएं वाले अधिक होते हैं।
कॉल सैंटर पर पदस्थ स्टाफ की भाषा में अति नाटकीयता नजर आती है, लेकिन हम जो पल-पल नाटक करते हैं, उससे तो कम ही होती है। जेब में रखा मोबाइल घनघनाते ही हैलो से पहले नंबर पर नजर डालते हैं, पल भर में तय कर लेते हैं कितने सच में, कितना झूठ मिलाकर पूरा सच बोलने का नाटक करना है।
हमारी हालत तो यह हो गई है कि जब हमारा काम कहीं अटक रहा हो तो बोली में जाने कहां से मिठास आ जाती है और जब हमें एहसास हो जाए कि सामने वाले का काम हमारी हां के बिना होगा नहीं तो कलफ लगे कपड़ों से ज्यादा हमारी जबान कड़क हो जाती है।
शासकीय कार्यालयों के स्टाफ को लेकर पता नहीं यह आम धारणा कितनी सही है कि बिना किसी स्वार्थ के कर्मचारी विनम्र होते ही नहीं। इस धारणा का दुर्भाग्यजनक पहलु यह भी है कि जो कर्मचारी अपने कर्म और वाणी से सबके प्रिय बने होते हैं, उनके प्रति भी कई बार लोग गलत धारणा बना लेते हैं। रही निजी कार्यालयों की बात तो अपने सहकर्मियों पर रौब गांठने के लिए वरिष्ठ साथी बेमतलब जबान को कड़क बनाए रखते हैं। बॉस को पता तक नहीं चल पाता कि उसके नाम से कार्यालय की आबोहवा कितनी प्रदूषित की जा रही है।
परेशानी यह है कि हम कड़क या कटु सत्य सुनना पसंद नहीं करते, लेकिन साथी-सहयोगियों से बात करते वक्त भाषा में विनम्रता भी नहीं रखना चाहते। कॉल सैंटर के देवीदास को 8 से 10 घंटे की ड्यूटी में कम से कम 300 फोन अटैंड करने होते हैं। हर कॉल 3 से पाँच मिनट की तो होती ही है तब भी वह न तो संयम खोता है और न ही भाषा का सम्मान कम होने देता है। दूसरी तरफ हम लोग सबसे कम संवाद घर में और सर्वाधिक दुकान-संस्थान में आपस में करते हैं। हम बोली को गोली की तरह इस्तेमाल करते वक्त यह भी याद नहीं रखते कि ऐसा पलटवार हम पर हो गया तो? हम भूल जाते हैं कि रिश्तों में खटास तभी बढ़ती है जब बोली में मिठास नहीं रहती। आपने तो जबान हिलाई, जो मुंह में आया बोल दिया और आगे बढ़ गए लेकिन आपके शब्दों से किसका, कितना खून जला यह एहसास नहीं होता। क्योंकि जो आहत हुआ है वह अपना खून जलाना पसंद करता है, लेकिन फांस बनकर सीने में चुभ रही आपकी बोली पर खुलकर कुछ कहना पसंद नहीं करता। मुझे कई बार साफ कहना-सुखी रहना वाला सिद्धांत अच्छा तो लगता है फिर सोचता हूं लोग कटु बोलना तो छोड़ नहीं सकते, लेकिन कटु सत्य सुनने की हिम्मत भी नहीं रखते। उन लोगों के लिए कड़वा सच पचा पाना और मुश्किल होता है जो दिल-दिमाग से छोटे होते हैं।
ऐसे में तो यही बेहतर है कि बोली के घाव पनपने ही नहीं दें और कड़वा सच बोलने से पहले मन ही मन यह आंकलन कर लें कि सुनने वाला सच सहन कर भी पाएगा या नहीं। मलेरिया से मुक्ति के लिए तो कुनैन की गोली मन मारकर खाई जा सकती है, लेकिन कड़वी बोली कितने लोग पचा पाते हैं?
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

ठंडे दिमाग से सोचें कौन खरा, कौन खोटा

हमारे वार्ड और शहर का भाग्यविधाता होने लायक कौन है? प्रमुख राजनीतिक दलों ने तो तय कर दिया है, परंतु शहर के विकास की कसौटी पर कौन-कितना खरा उतरेगा यह वक्त बताएगा। एक पखवाड़ा है मतदाताओं के पास अपना नुमाइंदा चुनने के लिए, इतना समय कम नहीं होता।
घोषित किए गए प्रत्याशी क्या वाकई आपका नेतृत्व कर सकेंगे? राजनीतिक दलों ने इन्हें जिन खासियत के आधार पर प्रत्याशी घोषित किया है अधिकांश वार्डों के मतदाता इन प्रत्याशियों का रिकार्ड बेहतर जानते हैं। कैसे नेताओं की नजर में चढ़े, कैसे जुगाड़ करके टिकट कबाड़ा यह गुणगान तो दलों के वे ही दावेदार कर रहे हैं जिन्हें योग्य नहीं माना गया। हमारे नहीं चाहने के बावजूद अच्छे लोगों के साथ सट्टा, जुआ, अवैध शराब बिक्री, शांतिभंग जैसे आपराधिक प्रकरणों में उलझे प्रत्याशी भी मैदान में आ ही रहे हैं। किसे चुनना, किसे खारिज करना यह आपका अधिकार है। शपथ पत्रों में कितना सच होता है, यह झूठ भी छिपा नहीं है। वैसे भी आपको इन सबका कच्चा चिट्ठा मुंहजबानी याद तो है ही। कई वाडोZ में यह स्थिति भी बन सकती है जितने प्रत्याशी हैं, उन सब में अच्छाई ढूंढने से नहीं मिलेगी। तब सबसे आसान तरीका तो यही है कि मतदान ही नहीं किया जाए, पर यह हल नहीं है। फिर हमें कम बुराई वाले को चुनने की मजबूरी का पालन करना पड़ सकता है। ऐसा करते समय उस प्रत्याशी पर पूरे वार्ड के मतदाताओं का इतना दबाव भी हो कि वह चुनाव जीतने पर अदृश्य न हो।
जिन प्रत्याशियों को विभिन्न दलों ने चुनाव लड़ाना तय किया है, वे आपके वार्ड की समस्याओं को जानते भी हैं या नहीं। परिषद की बैठकों में पांच साल गूंगे-बहरे तो नहीं बने रहेंगे? अंगूठा छाप होना कलंक माना जाता है, इसलिए गांव-ढाणी में आदिवासी परिवार भी अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाने लगे हैं। ऐसे में आपका प्रत्याशी अंगूठा छाप कैसे हो सकता है। वह भी तब जब उसके निर्वाचन का निर्णय करने वाले वार्ड के अधिकांश मतदाता 12वीं या उससे ज्यादा पढ़े लिखे हों। वोट मांगने जो भी आए उससे इतना पूछने की हिम्मत नहीं, हमारा हक है कि वह बताए कहां तक पढ़ा है, आपराधिक प्रकरणों की क्या स्थिति है और उसे क्यों जिताया जाए? 23 नवंबर तक सब कुछ आपके हाथ में हैं। गलत चुनाव किया तो पांच साल हाथ मलते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे।

Thursday 5 November 2009

उस शुभचिंतक का भी कुछ आभार व्यक्त करें

बात ज्यादा पुरानी तो नहीं है लेकिन मेरे मित्र के परिजनों जितना आश्चर्य मुझे भी है कि क्या ऐसी घटना के बाद भी कोई सही सलामत बच सकता है। हनुमानगढ़ से श्रीगंगानगर की ओर आ रहे हमारे मित्र जिस कार को ड्राइव कर रहे थे, अचानक उसका संतुलन सामने अंधगति से आ रहे एक ट्रक से बचने के चक्कर में गड़बड़ा गया। कार में बैठे अन्य तीन मित्र भी हक्के-बक्के रह गए।
गाड़ी ड्राइव कर रहे मित्र ने इस बेहद मुश्किल स्थिति में भी धैर्य नहीं खोया। ट्रक से जैसे-तैसे कार बचाई तो आगे अंधेरी सड़क पर लोहे के सरिए लादे एक ट्रैक्टर-ट्राली बिगड़ी हालत में खड़ी थी। मित्र ने उसी सजगता के साथ गाड़ी विपरीत दिशा में तेजी से मोड़ दी। उस तरफ विशालकाय पेड़ था, एक पल की देरी उन सभी मित्रों की असमय मौत का कारण बन सकती थी। मित्र ने फिर त्वरित निर्णय लिया और बाकी मित्रों की भयमिçश्रत चीख को अनसुना करते हुए उसी तेजी से गाड़ी सीधे हाथ की तरफ मोड़ दी।
मात्र कुछ मिनट जीवन और मौत के बीच चले इस खेल में उन चारों मित्रों को असमय होने वाली मौत के बाद की स्थिति का तो अहसास करा ही दिया था। इससे बढ़कर, जीवन रूपी उपहार कितना अनमोल है, इसका पता भी इन्हीं कुछ मिनटों में उन्हें लग गया था।
हम सबके साथ भी ऐसा कुछ अप्रत्याशित कभी ना कभी तो घटित हुआ ही है। तभी हम इसे अपनों की दुआ, ईश्वर की कृपा तो कभी यह कहकर याद रख लेते हैं कि अभी जिंदगी बाकी है, इसीलिए बच गए। कोई माने या ना माने लेकिन मैं मानता हूं कि ऐसी कोई अदृश्य शक्ति या ताकत है जो ऐसे बुरे वक्त में हमारी रक्षा करती है। यह ठीक है कि जिस दिन मौत लिखी होगी हल्की सी ठोकर या पानी पीते वक्त लगा ठसका भी इसका कारण बन जाएगा, लेकिन जब लगे कि क्वबस उस वक्त तो मर ही जाते, किसी चमत्कार से ही बच गएं तो मान लीजिए यह चमत्कार ही वह अदृश्य शक्ति है।
कभी किसी दिन सिर्फ इसी उद्देश्य से कुछ पल आंखें मूंदकर सोचें तो सही कि कितनी बार हमें ऐसे चमत्कारों से जीवनदान मिला। तो कुछ पल के लिए बंद आंखों में हमें फूलमाला चढ़ी अपनी तस्वीर दो-चार कोनों में तो नजर आ ही जाएगी।
वह कौन है जो हमें बचाता है? न हमारे पास उसका पता है और न ही उसके बारे में ज्यादा कुछ पता है। पर कोई तो है जो हम पर बुरी नजर रखने वालों पर नजर रखता है। कई बार जब एक्सीडेंट में अंग भंग हो जाए, तब भी हमारा इस अदृश्य ताकत से विश्वास नहीं उठेगा।
बशर्ते हमारी सोच पॉजिटिव रहे। हमें यह सोचकर संतोष करना ही होगा कि ऑयल डिपो में लगी भीषण आग में कुछ लोगों की मौत के बाद भी यदि कुछ कर्मचारी सिर्फ घायल हुए तो यह ऊपर वाले की कृपा ही है।
जो हम पर कृपा करते हैं, क्या हम उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी रखते हैं? यदि हम मन से ऐसा करने लगें तो ईसाई समाज की तरह प्रभु की पल-पल होने वाली कृपा के प्रति हमारे मन में भी कृतज्ञता का भाव हिलोरे मारने लगेगा। अच्छा देखने, अच्छा करने, अच्छा सोचने की ओर अग्रसर होंगे तो हमारे साथ बुरा होने पर भी हम उसमें अच्छा ढूंढने की दृष्टि पा सकेंगे। इसीलिए तो हमारे पुरखे कह भी गए हैं-जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि! बीते हुए कल से सबक लेकर हम आने वाला कल तो बेहतर बना ही सकते हैं।
हमारे सुख-दुःख में जो मित्र-रिश्तेदार काम आते हैं, उनके प्रति तो हम फिर भी थैंक्स कहकर मैनर्स की कमी न होने का एहसास करा देते हैं लेकिन सुबह हमारे उठने से भी पूर्व से लेकर सोने के बाद तक जो जागता रहता है, उस अदृश्य शुभचिंतक के लिए हम क्या कर पाते हैं? मुझे लगता है उन्हीं लोगों को अच्छी नींद आती होगी जो रात को सोने से पहले प्रार्थना के माध्यम से अच्छे दिन के लिए आभार व्यक्त करने के साथ ही अगला दिन और बेहतर गुजरे, इसकी शुरुआत भी प्रार्थना से करते होंगे।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 28 October 2009

सोचिए तो सही आप में भी है कुछ खासियत

वही मसाले, वही कत्था-चूना, पान पत्ता भी वही लेकिन टेस्ट में फर्क था तो इसलिए कि शंकरलालजी की अनुपस्थिति में परिवार के अन्य सदस्य ने पान लगाया था। गौशाला रोड स्थित पान की दुकान पर अकसर पान खाते रहने के कारण नए हाथों से लगाए पान के टेस्ट में फर्क एक पल में ही पता चल गया। चार पीढ़ियों से बाबा पान भंडार इस कारोबार में है। शंकरलालजी भी उन चेहरों की भीड़ में एक ऐसा चेहरा हैं जिनकी पहचान उनकी खासियत के कारण है।
किसी एक कार्य को कई लोग अलग-अलग तरीकों से करते हैं, लेकिन उस काम को बेहतर तरीके से करने के कारण कोई एक ही पहचान बना पाता है। अफसोस तो यह है कि हमें अपने आसपास के लोगों की खासियत भी तब पता चलती है, जब तुलना की स्थिति बन जाए। बुरे से बुरे आदमी में भी एक अच्छी बात तो होती ही है। हमारी नजर और उसके भाग्य का दोष होता है कि बुराइयों के पहाड़ तले उसकी यह खासियत इतनी दबी होती है कि हमें नजर नहीं आती।
पानी पिलाने के लिए हर वक्त तैयार रहने, हर समय मुस्कराते हुए मिलने, किसी की निंदा के वक्त चुप्पी साधे रहने, चाय अच्छी बनाने या बिना खाना खाए नहीं आने देने, किसी भी परेशानी में सबसे पहले पहुंचने, गंभीर और अपरिचित घायल के लिए भी चाहे जब रक्तदान के लिए तत्पर रहने जैसे कई कारणों से परिवार के किसी एक सदस्य की पहचान बन जाती है। इसी पहचान की रिश्तेदारी में बढ़-चढ़कर मिसाल भी दी जाती है।
क्या कभी सोचा हमने जब उस व्यक्त ने शुरू-शुरू में यह कार्य किया था, तब हममें से ही कई लोगों ने हंसी भी उड़ाई थी, मजाक में 'पागल हैं जैसे शब्द भी उछाले थे और कई बार उसके उत्साह का सार्वजनिक रूप से मजाक भी उड़ाया था। क्योंकि तब उस छोटे से काम को हमने व्यापक नजरिए से नहीं देखा था। महाभारत के कथा प्रसंगों में जिक्र है योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जूठी पत्तलें उठाने का काम अपने लिए चुना था। स्वर्ण मंदिर में भी विश्व के सैकड़ों एनआरआई कुछ देर के लिए ही सही जूताघर में सेवा करके खुद को धन्य मानते हैं।
क्या हममें कोई खासियत है कि लोग हमें अपनी उस खासियत के कारण पहचानें? यूं तो समय की पाबंदी और कही हुई बात पूरी करना सबके लिए आसान नहीं, परंतु जिन लोगों ने इसे आदत बना लिया, उनके लिए ये सामान्य बात है। ऐसे में हम भी सोचें कि हम भीड़ का हिस्सा बनकर ही खत्म हो जाएंगे या अलग चेहरे के रूप में पहचान बनाएंगे। आज भी हमें अपने गांव, मोहल्ले के वो दादा, मामा, भुआजी, नानीजी याद हैं। मोहल्ले के किसी भी घर में शादी हो, भंडार की व्यवस्था उन्हें ही सौंपी जाती थी, शोक किसी भी परिवार में हो अथीü सजाने से लेकर चिता के लिए लड़कियां जमाने में उनकी ही सलाह मानी जाती थी। मोहल्ले में चाहे गाय ही अंतिम सांस ले रही हो गंगाजल नानीजी के घर से ही मिलता था। गांव में आने वाली बारात के लिए भुआजी खुद अपने विवेक से ही उस घर की बहू-बेटियों को इस अधिकार से हिदायत देती थीं कि बाहर से आए रिश्तेदार भी पहली बार तो यही मान लेते थे कि भुआजी ही घर की मुखिया हैं।
हम ऐसी कोई खासियत अपने में ढूंढ नहीं पाते तो उसके कई कारणों में एक कारण तो यही है कि हम कछुए की तरह खुद को खोल में समेटे रखते हैं, सामाजिक होना भूलते जा रहे हैं। इसीलिए दूसरों की खासियत देखकर भी खुद को बदलना नहीं चाहते। और तो और हम अपने बच्चों की खासियत को पहचानना भी भूलते जा रहे हैं. लिटिल चैंप, डांस इंडिया डांस जैसे रियलिटी शो हों या स्कूल, कॉलेज में किसी स्पर्द्धा में प्रथम आए स्टूडेंट। शायद ही कोई परिवार हो जो तत्काल रिएक्ट करता हो अपने बच्चों पर। क्षेत्र कोई सा हो शीर्ष पर कोई एक ही रहेगा और किसी एक में सारी ही खासियत हो यह भी संभव नहीं। अच्छा तो यही होगा कि हम खुद में और अपनों में खामियां तलाशने की अपेक्षा छोटी-मोटी खासियत को ढूंढने की कोशिश करें। क्वबाकी सब में सब कुछ हैं यह शोक मनाने से बेहतर तो यही होगा कि जो खासियत हम में है उसकी खुशी मनाएं और उसे ही अपनी पहचान बनाएं। साथी के पास 99 सिक्के हैं लेकिन हमारे पास एक ही सिक्का होना इसलिए भी खास है कि उस एक के बिना 99 सौ नहीं हो सकते।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 21 October 2009

उपहार के तराजू में भावनाओं का तौल क्यों!

अभी कई मित्रों-अधिकारियों के बीच दीपावली पर मिलने-मिलाने का अवसर आया। यह देखकर अच्छा लगा कि कई दिनों से स्टाफ के बीच बधाइयों के साथ ही मिठाइयों का दौर चल रहा था। ऐसे ही एक कार्यालय में मेरे सामने भी एक हाथ में मिठाई और दूसरे में ड्राईफ्रूट का खुला पैकेट लिए कर्मचारी खड़ा था। मैंने मिठाई का एक पीस लेते हुए सहज ही पूछ लिया कि ये किस खुशी में? अधिकारी मित्र का जवाब था। बस ऐसे ही!
अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने फिर कुरेदा। कोई तो कारण है, बताइए तो सही। उनका जवाब सुनकर अच्छा लगा कि दीपावली तो है ही खुशियां बांटने का पर्व। इन दिनों मुलाकात के लिए जितने भी लोग आए हैं, कोई ड्राईफ्रूट, मिठाई तो कोई चॉकलेट का गिफ्ट पैकेट भी बधाई के साथ देकर जा रहा है। आखिर हम कितना खाएंगे और कितने दिन तक खाएंगे? सोचा क्यों न अपने साथियों के बीच खुशियां बांटी जाएं, लिहाजा कई दिनों से यह दौर चल रहा है। कुछ पैकेट तो अनाथाश्रम में भी भिजवा दिए।
मैंने सहज रूप से कहा-ये तो हमारे लिए अच्छी खबर हो सकती है। उनका जवाब था, 'इसमें खबर जैसा क्या है? मैंने अपने पास से क्या किया, ये पद और ये त्योहार ही ऐसा है कि लोग अपनी आत्मीयता दिखाने का अवसर छोड़ना ही नहीं चाहते।'
बात छोटी सी है। मुझे जो अच्छा लगा वह यह कि खुशियों को बांटने के तरीके तो कई हैं, लेकिन क्या हम ऐसा भी कर पाते हैं? ऐसा नहीं कि स्टाफ के साथियों या अनाथाश्रम के बच्चों को मिठाई का स्वाद पता नहीं है, लेकिन उपहार वाली खुशियों को प्यार से अपनों में बांटना भी छोटी बात नहीं है। जब हम छोटे थे तब जन्मदिन पर मिली चाबी वाली कार भले ही सात दिन में खटारा कर दी हो, लेकिन अपने छोटे भाई-बहन के हाथ लगा लेने पर भी पूरा घर आसमान पर उठा लेते थे, क्योंकि वह हमें बर्थडे में मिला गिफ्ट जो था।
बड़े होने के साथ ही हममें समझ भी बढ़ती जाती है और तब बचपन के ऐसे किस्सों को याद कर हंसी भी आती है। संस्कारों, संवेदना और सामाजिक ताने-बाने के बीच अब फूल, मिठाई, गिफ्ट पैक जैसे उपहारों के सहारे हम सम्मान एवं खुशी व्यक्त करने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते। बात सिर्फ खुशी व्यक्त करने की ही नहीं है, अब तो रिश्तों की टूटन और मजबूती में भी उपहारों की अहमियत बढ़ती जा रही है।
विवाह समारोह हो, रक्षाबंधन, भाईदूज हो या जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ जैसे मंगल प्रसंग। हम सब अपेक्षा तो बहुत कुछ रखते हैं और जब अनुमान की तराजू पर उपहार का भार हल्का नजर आने लगता है तो मजबूत रिश्तों में भी दरार बढ़ने लग जाती है। शायद ऐसे ही कारणों से हमें वह निमंत्रण पत्र बहुत पसंद आते हैं जिनमें मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता है-आपका आशीर्वाद ही हमारे लिए उपहार है।
वर्ष में ऐसे कई अवसर आते हैं, जब हमें अपनी हैसियत या उससे भी आगे जाकर कुछ ना कुछ करना ही पड़ता है। यह सब समाज और रिश्तों की मजबूती के लिए अनिवार्य सा लगता है। जहां अपेक्षा अधिक हो, वहां महंगे से महंगे उपहार का मूल्य भी कम ही आंका जाता है। हमारे एक नजदीकी परिवार ने रिश्तों की अमरबेल को हरा-भरा रखने का अच्छा हल खोज रखा है। मुझे तो लगता है बाकी परिवारों को भी ऐसे ही कुछ मध्य मार्ग तलाशने चाहिएं। छोटे खर्च की बात हो तो परफ्यूम, किताब, पौधे, मूर्ति और बड़े खर्च की नौबत आए तो रिश्तेदार को फोन करके अपना बजट बता देते हैं और बड़ी विनम्रता से पूछ भी लेते हैं-आप चाहें तो यह राशि नकद दे दें जो आपके खर्चों में सहायक हो सकती है या इतनी ही राशि के आसपास की कोई ऐसी वस्तु ला दें जो अन्य कोई रिश्तेदार न दे रहे हों। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब तीन-चार रिश्तेदारों के बीच समझ बैठा कर उन्होंने भारी भरकम उपहार भेंट कर संबंधित रिश्तेदार का तनाव भी कम कर दिया।
कहने को तो यह बात उपहारों के आदान-प्रदान में सर्वसम्मत रास्ता निकालने की है, लेकिन जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में भी यदि इतना ही खुलापन आ जाए तो तनाव के साथ ठिठकने वाली रात के बाद का सूयोüदय तो राहत की रोशनी लेकर ही आएगा। हमारे साथ परेशानी यह है कि अकसर हम उपहारों के चक्कर में भावनाओं का तौल-मौल करने लग जाते हैं। जब हम किसी के लिए उपहार लेकर जाते हैं तो मन ही मन उधेड़बुन चलती रहती है कि सामने वाला हमारी भावनाओं को बेहतर समझ ले। पर क्या हम खुद अपनों की भावनाओं को समझ पाते हैं। हमें तो अपना दुःख पहाड़ और सुख राई के दाने सा लगता है। पराई थाली में अधिक घी नजर आने की ऐसी आदत पड़ी हुई है कि अच्छे मन से किए काम की भी मन से सराहना करने में इसलिए हिचकिचाते हैं कि हम उसमें कारण तलाशते रहते हैं। हमारा मन तो जैसा है, ठीक है हमारी नजर भी इतनी घाघ हो गई है कि रैपर उतारने से पहले ही उपहार का एक्सरे तो कर लेती हैं लेकिन भावनाओं की झंकार नहीं समझ पातीं। लिहाजा कई बार ये उपहार भी रिश्तों में तनातनी और तकरार का कारण बन जाते हैं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 14 October 2009

किसी चेहरे पर आप भी ला सकते हैं खुशियों की चमक

गोल बाजार में हम जिस दुकान से सजावट का सामान ले रहे थे, उससे कुछ आगे पटाखे की एक दुकान पर खरीदारी कर रहे सज्जन ने स्कूटर पर बैठे अपने पुत्र को फुलझड़ी का पैकेट यह कहते हुए थमाया कि देखो ये बड़ी वाली अच्छी है, तुम्हारा हाथ भी नहीं जलेगा। उसी दौरान स्कूटर के समीप हाथ फैलाए एक छोटा बच्चा कुछ भीख मिलने की हसरत में बार-बार उन सज्जन को छूकर कुछ देने का इशारा करने लगा। झुंझलाते हुए उन्होंने उसे झिड़क दिया। पटाखों को हसरत भरी निगाहों से देखता वह बच्चा आगे बढ़ा ही था कि स्कूटर पर बैठे बच्चे ने फुलझड़ी का पैकेट उसके हाथ पर रख दिया।
अपने बच्चे की इस हरकत पर एक पल के लिए तो उन सज्जन के चेहरे पर शिकन नजर आई, उनके हाथ फुलझड़ी का पैकेट छीनने के लिए उठे भी लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने उठे हुए हाथों में अपने बेटे का चेहरा लिया और झुककर उसका माथा चूम लिया। पापा के इस प्रेम से उस मासूम की खिलखिलाहट के साथ दोनों की आंखों की चमक बढ़ गई।
कुछ पल में इतना कुछ घटित हो गया। उन दोनों (पिता-पुत्र) के इस प्रसंग को कुछ और लोग भी देख रहे थे, उन सबकी मुस्कान ने खुशी के इस छोटे से प्रसंग को अनमोल बना दिया।
फुलझड़ी का एक पैकेट कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल से भी कम कीमत का था लेकिन जिस बच्चे को अप्रत्याशित रूप से यह मनचाहा उपहार मिला उसके चेहरे की खुशी ऐसी थी मानो पटाखे की पूरी दुकान मिल गई हो। वरना तो जले-अधजले पटाखों के कचरे में से बिना जले पटाखे ढूंढकर भी ये बच्चे दिवाली मनाते ही हैं।
रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कई बार महंगे खिलौने थाली पर चम्मच की थाप के सामने बौने साबित हो जाते हैं। कौन सी पहल, कौनसा पल, कब-किसके चेहरे पर मुस्कान ले आए यह अंदाज नहीं लगाया जा सकता, लेकिन क्या हम खुशी की छोटी सी कंकरी भी फेंकने का प्रयास करते हैं, जिंदगी को बोझ मान चुके अंजान लोगों के चेहरों पर खुशी की लहर के लिए।
जिंदगी के उल्लास को रोशनी की जगमग में और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले त्योहारों में दीपावली के मुकाबले कोई और त्योहार नहीं हो सकता। मुझे तो यह त्योहार लक्ष्मी के बहुरूपों में कांपिटिशन का त्योहार लगता है। जिसकी जेब भरी है वह और ज्यादा खर्च करने की उधेड़बुन में लगा रहता है और जिनके घर इस त्योहार पर भी बदरंग रहते हैं, वे सड़क से सातवें आसमान तक बिखरी रंगीनियों को देखते हुए दीपावली को शुभ बना लेते हैं। यह पर्व हमें अपनी हैसियत का आईना भी दिखाता है। ऐसे में भी वह मासूम बच्चा बिना किसी अपेक्षा के फुलझड़ी का पैकेट उस अधनंगे बच्चे के हाथों में रखकर खुश हो जाता है।
हमारे आसपास भी ऐसे बच्चों, परिवारों या आश्रमों में दया पर जिंदगी काट रहे लोगों की कमी नहीं है जिनके लिए दिवाली का मतलब उदासी ही है। मदर टेरेसा और महाभारत के कर्ण जैसे हम हो नहीं सकते लेकिन किसी एक चेहरे पर खुशी की लहर से हमें यह तो पता चल ही जाता है कि अनमोल खुशी पाने के लिए बहुत ज्यादा खर्च भी जरूरी नहीं है। दिन में चाय, सिगरेट, पाउच पर या पीने-पिलाने में एक दिन में कितना खर्च हो जाता है, हिसाब कहां रख पाते हैं लेकिन ईश्वर की कृपा, खुद के पुरुषार्थ से हम सक्षम हैं। हर दिन पांच रुपए भी बचाएं तो एक महीने या एक साल में अच्छी खासी रकम जमा हो सकती है। कौन पात्र है, कौन अपात्र, कौन आश्रम और दान की रकम का दुरुपयोग कर रहे हैं, दान के लिए सुपात्र कौन? ऐसी अनेक जिज्ञासाओं का जवाब फुलझड़ी का पैकेट भेंट करने वाले प्रसंग से मिल सकता है।
दीपावली से हजार गुना अच्छा त्योहार मुझे रंगों का पर्व लगता है। इन दोनों ही त्योहारों में खुशियों के रंग बिखरते हैं लेकिन एक में जितना खर्च उतनी खुशी तो दूसरे में बिना खर्च के भी खुशी ही खुशी। दिवाली में आईना हमारी हैसियत दिखा देता है और होली में हैसियत वाला भी फटे-पुराने कपड़ों में शान से घूमता है। बिना जेब वाले कपड़े होली पर ही अच्छे लगते हैं। रंग गुलाल रखने की हैसियत भी नहीं हो तो मुन्नाभाई की झप्पी से ही रंगों के इंद्रधनुष बिखर जाते हैं। अध्यात्म के नजरिए से देखें तो दीपावली हमें माया-मोह-बाहरी प्रदर्शन के बंधनों में जकड़ी खुशी का अहसास कराती है। दूसरी तरफ होली है जो हमें सिखाती है निर्भर होना। जो है उसे भी छोड़ो, त्याग और अंदर की खुशी पाने के लिए माया से दूर रहो, कैसे आए और कैसे संसार से जाना है? आत्मिक आनंद का यह रहस्य होली समझाती है।
इस दीपावली के स्वागत में खूब खर्च करें। लक्ष्मी हम सब के घर में आसन जमा कर बैठ जाए, ऐसे प्रयास करने में भी कोई हर्ज नहीं। बस, मिठाई खाते और रॉकेट छोड़ते वक्त एक नजर पासपड़ोस के घरों पर भी डाल लें। देखें तो सही वहां भी नन्हा सा दीपक टिमटिमा रहा है या नहीं। बुझते दीपक की रोशनी बढ़ाने के लिए भी तो हम तेल-घी डालने में देरी नहीं करते। किसी एक चेहरे पर आपकी उदारता से आई मुस्कान से मन को जो सुकून मिलेगा, वह दीपावली के भारी-भरकम गिफ्ट पर भारी पड़ेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 7 October 2009

श्रेय को भी बांटना सीखें

अभी भारत विकास परिषद के आयोजन राष्ट्रीय समूहगान स्पर्द्धा को देखने-सुनने-समझने का अवसर मिला। यूं देखा जाए तो इसमें श्रीगंगानगर, सूरतगढ़, हनुमानगढ़, बीकानेर आदि स्थानों पर हुई स्पर्द्धा में कुछ स्कूलों के दलों की भागीदारी थी। स्पर्द्धा में किसी एक दल का ही चयन प्रथम स्थान के लिए होना था। जो सीखने और जीवन के संदर्भ में समझने की बात है, वह यह कि किसी भी क्षेत्र में नंबर वन पर आने के लिए प्रयास तो सभी करते हैं लेकिन पहुंचता वही है जिसके प्रयास ज्यादा कारगर होते हैं। बाकी तो नंबर दो-तीन-चार रह जाते हैं। स्पर्द्धाओं का यह कड़वा सच है कि प्रथम रहे खिलाड़ी या टीम का नाम ही याद रहता है। इतिहास में भी तो ऐसा ही कुछ होता है। या तो हमें अकबर महान याद है अथवा कट्टर छवि वाला औरंगजेब। बाकी सम्राट-नवाब इतिहास के किस कोने में हैं याद नहीं।

नंबर वन तक पहुंचने के लिए सभी स्कूलों की टीम ने प्रस्तुति में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन प्रथम वाले मापदंड तक कोई एक टीम ही पहुंची। मुझे लगता है एक जैसे सामूहिक प्रयासों से यदि मनचाही सफलता प्राप्त की जा सकती है तो किसी एक कमजोर कड़ी के कारण शिखर तक पहुंचने से पहले पैर फिसल भी सकता है। कहीं बच्चों ने अच्छा गाया तो संगीत कमजोर था, कुछ बच्चों ने बिना म्यूजिक टीचर के ही तैयारी की, कहीं ड्रेसकोड आकर्षक नहीं था तो किसी दल के छात्रों के चेहरे पर गीतों के बोल वाला उत्साह नहीं था, किसी दल में गीत तैयार कराने वाले प्रशिक्षक की मेहनत कम नजर आई तो किसी दल के छात्र बस इसी भाव से मंच पर आए कि गीत प्रस्तुत करना है, कहीं छात्रों में उत्साह था लेकिन टीचर-प्रशिक्षक थके-थके से थे। ये सारी कमियां जहां न्यूनतम थीं, वही दल दर्शकों की नजर में नंबर वन बन गया था, निर्णयको ने बाद में जब निर्णय सुनाया तो दर्शकों के फैसले की पुष्टि भी हो गई। क्षेत्र चाहे गीत-संगीत का हो, खेल का मैदान हो या प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी की बात हो। किसी भी क्षेत्र में लक्ष्य प्राप्त के लिए यदि शत-प्रतिशत समर्पण नहीं है तो सफलता भी आधी अधूरी ही मिलेगी। किसी टीम को सफलता तभी मिलती है जब उसका प्रत्येक सदस्य अपना काम पूरे समर्पण से करे। लंका फतह करना इसीलिए आसान हो गया था कि हनुमान सहित सभी वानरों ने अपना काम समर्पण-भक्ति-आस्था से किया और समुद्र पर पुल बना डाला।
धर्मग्रंथों के ऐसे प्रसंग हमें सिखाते तो बहुत कुछ हैं लेकिन हमारा स्वभाव ऐसा है कि अपने आगे किसी अन्य का सहयोग श्रेष्ठ नजर ही नहीं आता। अच्छा हुआ तो मेरे कारण, काम बिगड़ा तो बाकी लोगों ने सहयोग नहीं किया, जिम्मेदारी नहीं समझी वगैरह....। ढेर सारे सदस्यों वाली टीम भी कई बार निर्धारित लक्ष्य तक इसलिए नहीं पहुंच पाती कि उसके सदस्यों में अपने ही साथियों की खामियां तलाशने का उत्साह अधिक रहता है।
बचपन में पढ़ी-सुनी यह कहानी हम सभी को याद है जो काम के नाम पर दिखावे और मन से किए प्रयास इन दोनों स्थितियों का सामना करने के बाद मिली सफलता को दर्शाती है। नदी किनारे के एक पेड़ पर चिçड़या का घोंसला था, चिçड़या के नवजात चूजे घोंसले में चीं-चीं करते उछलकूद कर रहे थे कि अचानक एक चूजा नदी में गिर गया। बहाव हल्का था लेकिन चिडिया को सूझ नहीं रहा था कि मुसीबत से कैसे निपटे। चिडिया ने अपने पड़ोसी बंदर भैया से सहयोग मांगा, उसने आश्वस्त किया मैं तुम्हारे चूजे को बचाने का प्रयास करता हूं। बंदर एक से दूसरे-तीसरे पेड़ पर छलांग लगाने लगा, नीचे वह नन्हा चूजा चिडिया की नजरों से दूर होता जा रहा था। उसने अनुरोध किया- बंदर भैया कुछ करो। उसका जवाब था- चिडिया बहन, तुम देख तो रही हो कितने प्रयास कर रहा हूं, आगे भगवान की मर्जी।
अब तक चिडिया मुसीबत का सामना करने का मन बना चुकी थी। ठंडे दिमाग से कुछ सोचा और पेड़ की सूखी-पतली टहनियां चोंच में दबाकर नदी में चूजे के आसपास डालने लगी। थोड़ी ही देर के इस सार्थक प्रयास का नतीजा यह हुआ कि चूजे के लिए वे तिनके डूबते का सहारा बन गए। जैसे-तैसे वह नन्हा उन तिनकों के सहारे किनारे की ओर आया। चिडिया ने उड़ान भरी और उसे पंजे में सहेज कर घोंसले में ले आई। इस कहानी का मुझे तो यही संदेश समझ आया है कि ईमानदारी से प्रयास किए जाएं तो देरी से ही सही सफलता मिलती जरूर है। सवाल ये उठता है कि हम ईमानदारी से प्रयास करते भी हैं या नहीं, हम तो नंबर वन पर रहने वालों से सीखने के बजाय सारा वक्त इसी उधेड़बुन में लगा देते हैं कि उसे यह सफलता किसकी सिफारिश से मिली।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 1 October 2009

अपनों की तारीफ करना भी तो सीखिए

गली में चल रहे मकान निर्माण कार्य में लगे मजदूर एक-दूसरे के सहयोग से अपना काम तेजी से निपटाने में लगे हुए थे। यूं तो एक मजदूर के लिए एक बोरी सीमेंट उठाना मुश्किल हो सकता है लेकिन वे दोनों आपस में बंधे हाथों पर दो बोरी सीमेंट अंदर रख रहे थे। साथी हाथ बढ़ाना की थीम से मुश्किल काम भी उनके लिए आसान हो गया था।

अनपढ़, निम्न वर्ग जैसी छवि का शिकार झुग्गी-झोपडियों में जिंदगी गुजारने वाला यह वर्ग हम सबके लिए पक्के-मनमाफिक मकान का सपना पूरा करने में जुटा रहता है। एक-दूसरे के सहयोग से इनकी मजदूरी भी चलती रहती है और जिंदगी भी। मुझे लगता है परिवार या व्यवसाय में भी एक-दूसरे के सहयोग बिना काम नहीं चल सकता। जिंदगी के सफर की यह गाड़ी भी तब ठीक तरह से चल सकती है, जब एक-दूसरे की खूबियों की सराहना के लिए शब्द सुरक्षित रखें न कि खामियां गिनाने में वक्त जाया करें। अपने दिल पर हाथ रखकर पूछेंगे तो मन की आवाज सुनाई देगी। हम ऐसा कर ही नहीं पाते।

परेशानी यह रहती है कि हमें अपना कार्य तो श्रेष्ठतम लगता है लेकिन तारीफ करना तो दूर हम तो बाकी लोगों के काम को नकारात्मक नजरिए से देखते हैं। नतीजा यह कि चाहे परिवार हो, कार्यालय हो या खुद का कारोबार। साथियों-परिजनों के सहयोग की अनदेखी, अच्छे कार्य की सराहना में कंजूसी हमारे संबंधों में भी खटास पैदा कर देती है। अज्ञात खौफ के कारण आपके सहयोगी अपनी पीड़ा व्यक्त तो नहीं करते लेकिन उसका असर उनके काम में नजर आने लगता है, जिम्मेदारी का भाव लापरवाही में तब्दील होता जाता है।

दूर क्यों जाएं अपनी पारिवारिक व्यवस्था ही देख लें। पुरुषों को दुकान, नौकरी, ऑफिस संभालना है तो महिलाओं का सूर्योदय किचन से और गुडनाइट भी किचन से ही होती है। स्कूल के लिए बच्चों को तैयार करने के साथ ही 'आज क्या बनाऊं' जैसे यक्ष प्रश्न से जूझती गृहिणियां परिवार के सभी सदस्यों की पसंद और टेस्ट का ध्यान रखते हुए खाने में जो भी बनाती हैं, अच्छा ही बनाती हैं।

अच्छे भोजन के लिए तो तारीफ के फूल नहीं झरते लेकिन जिस दिन चाय में शक्कर या सब्जी में नमक न हो, उस दिन बाकी परिजन आसमान सिर पर उठा लेते हैं। बिना नमक वाली सब्जी बाकी दिनों के अच्छे भोजन पर भारी पड़ जाती है। क्या बकवास सब्जी बनाई है, नमक ही नहीं डाला, खाने का मजा बिगड़ गया... जैसे उलाहनों की झड़ी लग जाती है। ढाई-तीन साल की उम्र में हम सबने बोलना सीख लिया था लेकिन हममें से ही ज्यादातर मरते दम तक यह नहीं सीख पाते कब, कहां, क्या, कैसे बोलना और कहां चुप रहना है। कम नमक की शिकायत का एक अंदाज यह भी तो हो सकता है- सब्जी तो बहुत टेस्टी बनी है, नमक शायद मुझे ही कुछ कम लग रहा है, हो सकता है काम के बोझ में तुम्हे न रहा हो। आए दिन हम विवाह समारोह में जाते हैं, भोजन भी करते हैं लेकिन याद रहती है वही डिश जिसमें कुछ कमी हो और बस उसी के आधार पर हम आलोचना के प्याज छीलने बैठ जाते हैं। यह भी याद नहीं रखते कि जिसने आपको प्रेम से आमंत्रित किया है, खाना उसने नहीं बनाया है और न ही उसका यह उद्देश्य रहा होगा। वह गलती यह कर लेता है कि आपसे पूछ लेता है कि खाना खाया या नहीं और आप दही भल्ले, सलाद या पनीर सब्जी की कमियां गिनाने बैठ जाते हैं। तब आप यह भूल जाते हैं कि किसी दिन आपके साथ भी ऐसा हो जाए तो?

कई मामलों में निजी कार्यालयों के कर्मचारी मुझे ज्यादा समझदार लगते हैं जो कई बार भांप लेते हैं कि बॉस को उनकी कही बात या किया गया काम समझ नहीं आ रहा है लेकिन चतुर मातहत 'आप मेरी बात नहीं समझें की अपेक्षा बड़ी विनम्रता से कह देता है, 'सर, मैं आपको समझा नहीं पा रहा हूँ' नौकरी हो या रिश्तों के नाजुक धागे इनकी मजबूती आप अपने अभिव्यçक्त कौशल से ही बनाए रख सकते हैं। कार्यालयों-व्यवसाय में तो फिर भी हम सब का यह प्रयास रहता है कि मातहत बेवजह नाराज न हों क्योंकि काम उनके सहयोग बिना हो भी नहीं सकता। बुखार की परवाह किए बिना कामवाली बाई झाडू-पोछा करने आ जाए तो तबीयत ठीक न होने तक काम पर नहीं आने की सलाह वाली मानवीयता भी हम दिखा देते हैं। ऐसी सारी उदारता के बीच हम अपनों के ही प्रति स�त कैसे हो सकते हैं? नजरिया तो यही होना चाहिए कि जो काम करेगा गलती उससे ही होगी, फिर बिना शक्कर की चाय, बिना नमक वाली सब्जी क्यों सिर चढ़कर बोलने लगती है?

किसी के काम में गलती निकालना, नाराजी व्यक्त करना तो बहुत आसान है लेकिन वही काम जब खुद करना पड़े तो? वक्त आने पर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना तो दूर एक कप चाय तक नहीं बना सकते और ऐसा दुस्साहस कर भी लें तो किचन खुद सारी कथा बयान कर देता है। फिर हमें अपनों के छोटे से काम की तारीफ क्यों नहीं करनी चाहिए। हम कार चलाने में चाहे जितने एक्सपर्ट हों लेकिन अचानक कार रुक जाए, इंजन भी आवाज न करे तो मैकेनिक को ही मदद के लिए बुलाना पड़ेगा। आपका काम महान है लेकिन दूसरे का काम भी घटिया नहीं है। दूसरों के काम की सराहना करने के लिए भी कुछ शब्द सुरक्षित रखिए ये शब्द आपकी पीठ पीछे प्रशंसा के पेड़ बनकर लहलहाते हैं।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 24 September 2009

संस्कार ही नहीं देंगे तो श्रद्धा कैसे पाएंगे

फोटो फ्रेम करने वाले की दुकान पर एक सज्जन टूटे कांच वाली तस्वीर लिए आए और शीशा कम से कम दाम में बदलने का अनुरोध करने लगे। तस्वीर की हालत बता रही थी कि महीनों से झाड़-पोंछ तक नहीं की गई है। उन दोनों की चर्चा में जो कुछ समझ आया वह यह कि तस्वीर उनकी माताजी की है और श्राद्ध की तिथि होने के कारण टूटा शीशा इसलिए बदलवाना पड़ रहा है कि कुछ रिश्तेदारों को भोजन पर बुलाया है, ऐसी तस्वीर अच्छी नहीं लगेगी।

एक सप्ताह पहले के इस प्रसंग ने मुझे कबीर की पंक्तियां याद दिला दी जिसका भाव यह था कि जीते जी तो मां-बाप को पूछते नहीं और मरे बाद उनके श्राद्ध पर खीर-पूरी का भोग लगाते हैं। हर वर्ष श्राद्ध पक्ष आता ही है, दिवंगत बुजुर्गों की हमें याद भी आती है, श्राद्ध कर्म भी करते हैं। श्राद्ध पक्ष वाली तिथि पर तो हमारा रोम-रोम दिवंगतों के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण रहता है लेकिन जब वे लोग जिंदा थे तब? तब तो उनके कमरे के सामने से दबे पांव निकल जाते थे। उनकी सलाह-समझाइश उक्ताहट पैदा करती थी।

सिर्फ श्राद्ध ही दिवंगतों की याद की औपचारिकता बनकर रह गए हैं ऐसा नहीं है। नवरात्रि के इन दिनों को नारी शक्ति पर्व के रूप में मनाने, नौ दिन उपवास रखकर देवी आराधना करने के बाद भी हमें बेटियों का महत्व समझ नहीं आ रहा है। कंजक पूजन करने के लिए हमें हर नन्हीं परी में देवी स्वरूप नजर आता है। हंसती-खिलखिलाती इन नासमझ बालिकाओं के कदम हमारे घर में कुछ ही देर के लिए पड़ते हैं, उतने में ही हम माता रानी की कृपा से भावविभोर हो जाते हैं। पूजन के लिए नौ कन्याओं को जुटाने के लिए एक सप्ताह से की जाने वाली मशक्कत भी हममें यह समझ पैदा नहीं करती कि बेटे से वंश चलाने का सपना भी तभी पूरा होगा जब परिवार में बहू आएगी। इन नौ दिनों में हम देवी के शçक्त रूप की आराधना तो इसी भावना से कर रहे हैं कि पौराणिक कथाओं में देवी के हाथों दानवों के संहार हमें रोमांचित करते हैं। अब उल्टा हो रहा है, बस पता चल जाए कि कोख में बेटी है, हममें से ही कई लोग पल भर में दानव नहीं बन जाते हैं?

कितना अफसोसजनक है कि न श्राद्ध हमें जीवित बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव याद दिला रहे हैं और न ही कम होती बेटियों के लिए नवरात्रि हमें कंजक पूजा का अर्थ बता पा रही है। हमारी चेतना कमरे में लगे स्विच बोर्ड से भी बदतर हो गई है। वहां तो फिर भी स्विच ऑन करने पर कमरा रोशन हो जाता है लेकिन हमारे तो दिमाग का बल्ब ही फ्यूज़ हो गया है। रूटीन लाइफ का हिस्सा बन गए हैं पर्व-त्यौहार! यही कारण है कि साल में एक बार वरिष्ठ नागरिक दिवस तो मनाना ही पड़ रहा है। बहू-बेटियों को संस्कारित करने के लिए भी प्रशिक्षण शिविर लगाने पड़ रहे हैं। जब हम ही संस्कारों को भूलते जा रहे हैं तो अपने बच्चों से किसी तरह की अपेक्षा करना कितना उचित होगा? इसलिए जरूरी है कि हम बच्चों को अच्छे संस्कार स्वयं के आचरण से दें, तभी तो बदले में उनसे हमें श्रद्धा मिलेगी।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

फोन/एसएमएस पर प्रतिक्रिया
बेटियों को बचाने के लिए आपने बहुत अच्छा लिखा है। ऐसा ही लिखते रहिए। कुछ तो असर होगा। 98281-94116, वेद प्रकाश शर्मा, मिस्त्री घडसाना
आपके सारे लेख का कलेक्शन कर रखा है। अच्छा लिखते हैं। छोटी सी बात को शब्दों में ढालना आता है। मैं प्रशंसक हूं, आपके लेखों का।
96024-12161, मोहित (एमआर), हनुमानगढ़
संस्कार दे कहां से, हम खुद संस्कार विहीन हैं, हम केवल नाटक करते हैं। साहित्य का भी असर इसलिए नहीं होता, क्योंकि वह भी पुरस्कार पाने के हिसाब से लिखा जा रहा है।
94145-64666, दीनदयाल शर्मा, बाल साहित्यकार, हनुमानगढ़
आज का पचमेल ज्यादा प्रसंगिक है। पूजन की क्या प्रासंगिकता है, यह याद दिलाता है पाठकों को।
98291-76391, विनोद स्वामी, परलीका
जो पढेगा जिनको पुत्र होने की चाहत होती है, उन्हें कुछ तो समझ आएगी।
91660-76645, सुरेंद्र कुमार सत्संगी, तहसीलदार नोहर
बेटियों को बचाने के लिए अच्छा लिखा है। लेकिन कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण दहेज प्रथा है, जब तक यह प्रथा खत्म नहीं होती, बेटियों के प्रति क्रूर रवैया भी खत्म नहीं होगा।
92142-64998, विनोद कौशिक, योग प्रशिक्षक, श्रीगंगानगर।

Wednesday 16 September 2009

अपने ही होते हैं आंसू बहाने वाले

फोन पर जानकारी मिली कि हमारे एक परिचित के बेटे की बाइक स्कूल से लौटते वक्त किसी अन्य वाहन चालक से टकरा गई है। हालांकि उनके बेटे को चोट वगैरह नहीं लगी थी लेकिन हमारा मन नहीं माना। क्योंकि जब किसी भी बच्चे के साथ कोई अनहोनी, अकल्पनीय घटना होती है तो हमें अपने बच्चों की चिंता सताने लगती है और जब कोई अंजान बच्चा उपलब्धियों के झंडे गाड़ता है, तब भी हमें तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच पर मुस्कुराते उस चेहरे में अपने बच्चे नजर आते हैं।
जितनी भी देर हम वहां बैठे मुझे रह-रहकर दिमाग में ये पंक्तियाँ याद आती रहीं, 'हम उन्हें ही रुलाते हैं जो हमारी परवाह करते हैं।' बाइक-लूना की टक्कर में गाड़ी ही डेमेज हुई थी, बच्चा सुरक्षित था। मां-बाप बेटे को हिदायत दे रहे थे- भगवान का शुक्र है कि कुछ नहीं हुआ। एक तरह से यह तेरे लिए चेतावनी है, गाड़ी धीरे चलाया कर!
परिजनों की समझाइश को अनसुनी करते हुए पुत्र बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था- मुझे चोट तो नहीं लगी न, आप लोग बेवजह परेशान हो जाते हैं। आपको तो यही लगता है मैं गाड़ी तेज चलाता हूं।
आंसुओं को बरबस रोकने की कोशिश करते और वाहेगुरु का शुक्रिया अदा करते हुए मां कह रही थी- पुत्तर तैनूं चोट तां नईं लग्गी, जे कुझ घट-वद हो जांदा तां की करदे? पुत्तर था कि हाथ में बंधे डोरे दिखाने के साथ ही बात को घुमा रहा था- माता रानी का डोरा बंधा है कैसे होता कम ज्यादा। मेरे फ्रेंड सही कह रहे थे, ये सितंबर महीना सभी के लिए खराब है।
एक्सीडेंट छोटा सा सही लेकिन हुआ तो था। मुझ सहित उसके परिजनों को तो यह दिन शुभ लग रहा था कि एक्सीडेंट के बाद भी वह सही सलामत था। हमारी सोच भी अपने शुभ-लाभ के मुताबिक तय होती है। किसी दिन कुछ अच्छा हो जाए तो दिन को सेहरा बांध देते हैं और कुछ अशुभ हो जाए तो उसी दिन के मुंह पर कालिख पोत देते हैं। कैलेंडर गवाह है कि रविवार के बाद सोमवार का आना तय है लेकिन हर सवाल के जवाब की फीस लेने वाले प्रकांड ज्योतिष भी यह दावा नहीं कर पाते कि अगला पल उनके लिए कैसा रहने वाला है। ऐसे में यदि हम अपने स्तर पर सजगता, सावधानी और समझ से काम लें तो हमें दिन को दोषी ठहराने का बहाना शायद ही ढूंढना पड़े। रही बात गंडे-ताबीज और माता रानी के डोरे की तो आंसुओं में भी आशीर्वाद की इबारत लिखने वाले मां-बाप से बड़े कोई देवी-देवता हो नही सकते। फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तमाम देवी-देवताओं ने भी मां-बाप का प्यार पाने के लिए जन्म लिया है। कच्चे धागों के प्रति तो हम अटूट विश्वास रखते हैं लेकिन मां-बाप की समझाइश में छुपी हमारे भविष्य की खुशहाली का एहसास हमारे मन को नहीं छू पाता। अपनों के आंसू हमें इसलिए अनमोल नहीं लगते क्योंकि वह हमारी खुशहाली के लिए बहाए जाते हैं।
शायद ही कोई परिवार हो जहां ऐसे दृश्य दिखाई न देते हों। जिसने नौ माह पेट में रखा, जन्म दिया, मुसीबतें झेल कर बड़ा किया, उस मां और हर सुख उपलब्ध करवाने वाले पिता की सीख और समझाइश पर झुंझलाते बच्चों को पेरेंट्स की आंखों में कैद खारे पानी का समंदर नजर नहीं आता। अब तो लगता है मदर्स डे, फादर्स डे, टीचर्स डे के लिए फूल और उपहार पर खर्च भी अधिकांश बच्चे इसीलिए करते हैं कि बाकी 364 दिनों के लिए फिर से अपने मन की करने, अपनों का दिल दुखाने का नया खाता शुरू कर सकें। उपहार भेंट कर आप अपनी भावना प्रदर्शित करना तो जानते हैं लेकिन जरूरी यह भी है कि अपनों की भावना को समझना भी सीखें।
दिल रोए और चेहरा मुस्कुराता नजर आए इसके लिए मां से बढ़िया और कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। बच्चे को लगी हल्की सी चोट पर रात भर जागने वाली मां की चिंता को बच्चे भले ही मजाक में उड़ा दें लेकिन क्वचोट तो नहीं लगीं यह पूछते वक्त भी वह अंदर ही अंदर रोती रहती हैं। ज्यादातर माएं तो अब 'मन ही मन रोना फिर भी मुस्कुराते रहना' इसलिए भी सीख गई हैं क्योंकि जिन बच्चों के हल्के से दर्द पर वे खाना-पीना भूल जाती हैं, उन बच्चों को पता ही नहीं है कि दर्द और आंसू क्या होते हैं।
किसी को भी रुलाना ज्यादा आसान है लेकिन हंसाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। अब तो चाहे पेट में गुदगुदी करो या पंजे में। कई लोगों के चेहरे पर हंसी तो दूर हलचल तक नजर नहीं आती। सब कुछ पाने की आपाधापी में हम परवाह करने वालों के आंसुओं को भी नजरअंदाज करने लगेंगे तो मिलने वाली खुशियां भी बदकिस्मती में बदलती जाएंगी। हमारे परिवारों में तो बेमतलब हंसना भी पागलपन की नजर से देखा जाता है। ऐसे में अपनी नासमझी से परिजनों के लिए आंसुओं को आमंत्रित करना समझदारी तो नहीं कही जा सकती।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

17 सितंबर के पचमेल पर पाठकों के विचार
अपनों का दर्द अपने लोगों को जब तक समझ आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है फिर वो अपने ही बहाते हैं आंसू

दीनदयाल शर्मा, साहित्यकार, हनुमानगढ़

भाईसाब, आप के पचमेल ने तो सचमुच भावुक कर दिया, मेरी संवेदनाओं को छूने वाला, बहुत अच्छा, अद्भुत है।

सीपी जोशी, उद्यमी

पचमेल भावपूर्ण है, सधी हुई भाषा में समाज को संस्कृत करने का अच्छा प्रयास है, अभिव्यक्ति भी लाजवाब, साधुवाद।

एसएन सोनी, राजस्थानी भाषा साहित्यकार, परलीका।

आपके कॉलम में निरंतर निखार आ रहा है। इसे सीधे रोजमर्रा के मुद्दे से जोडें, जैसे यह टॉपिक रखा है। इसमें धीरे-धीरे व्यंग्य का पुट आता जाएगा।

गंगासिंह, पूर्व कर्मचारी, 97832-२२१२२

आज का पचमेल तो बहुत बढ़िया है, दिल को छूने वाला है। बृहस्पतिवार का इंतजार रहता है।

ज्योतिष जगदीश सोनी, 93527-04003

ये लेख ऐसा है, बाकी कुछ पढूं ना पढूं इसे जरूर आंखों से गुजार लेता हूं। ये लेख बहुत भावुक करने वाला है, ऐसे ही लिखते रहिए।

जनार्दन स्वामी, को-ऑप। बैंक, हनुमानगढ़, 94623-94625

आप जमीन से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं, आज का लेख बहुत अच्छा है।

हरिराम बिश्नोई, एडवोकेट, 94149-53121

बहुत अच्छा लगा, मेरे बेटे को भी बहुत पसंद आया। आप रोज लिखें।

पत्रकार राजेंद्र उपाध्याय, सूरतगढ़

आपने अभिभावकों के दर्द के साथ ही बच्चों को भी समझाइश दी है।

टीकमचंद, व्यवसायी, श्रीगंगानगर।

Thursday 10 September 2009

सुख को परखने के लिए दुख उम्दा कसौटी

नए शहर में मेरे मित्र अधिकारी ने ज्वाइन तो कर लिया लेकिन कई दिनों से कोई खबर नहीं मिलने पर मैंने ही फोन लगा लिया। घर-परिवार की बातों के बाद जब नई जगह और नौकरी को लेकर जानकारी चाही तो उनकी बातचीत से लगा कि संसार में उनसे ज्यादा दुखी कोई और नहीं होगा। तनख्वाह में कमी नहीं सुविधाएं यथावत, रुतबा पहले जैसा ही। दिक्कत थी तो यह कि उन्हें शहर रास नहीं आ रहा था। इससे पहले वाले शहर की खासियत इस उत्साह से गिना रहे थे, जैसे वहां तीन साल नहीं पीढ़ियों से रहे हों।
मैं उनकी बातें सुनते-सुनते लगभग ऊबने लगा था लेकिन हां-हूं करता रहा तो इसलिए कि कुरेदा भी तो मैंने ही था। अचानक वो बोले-मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां पोस्टिंग होगी। बातचीत का सूत्र मैंने झपटते हुए पूछा यदि आपकी पहली पोस्टिंग वहां के बजाय इस शहर में हो जाती तो? इस तो का कुछ पल जवाब नहीं आया, मैंने फिर प्रश्न दोहराया। ठंडे स्वर में उनका जवाब था-नौकरी तो छोड़ नहीं सकते, ज्वाइन करते और क्या! अब उनकी भाषा किंतु, परंतु, फिर भी, लेकिन वाली हो गई। भाव यही था कि ये शहर वैसे इतना बुरा भी नहीं है।देश काल, परिस्थितियां बदल जाती हैं, लेकिन हम सबके साथ भी अक्सर ऐसा होता रहता है। कुल मिलाकर सारे मामलों में सुख-दुख जुड़ा होता है। वैसे देखा जाए तो सुख को परखने के लिए दुख से उम्दा कोई कसौटी है भी नहीं। हमें आंख के साथ आंसू याद रहते हैं, दिन के साथ रात, बहार के साथ पतझड़ की याद रहती है फिर सुख के दिनों में बेफिक्री की जिंदगी गुजारते वक्त यह याद क्यों नहीं रहता कि दरवाजे के पीछे दुबका हुआ दुख भी तो अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहा है।
अच्छा तो यही है कि पहले दुख हमारा आतिथ्य स्वीकारे क्योंकि वही तो हमें सुख की प्रतीक्षा करना सिखाता है। दुख में अकेला दिन ही 24 घंटे का हो जाता है लेकिन सुख में दिन-रात 12 घंटे के हो जाते हैं। दुख है कि काटे नहीं कटता और सुख पलक झपकते ही फुर्र हो जाता है। पता है कि कहने से दुख कम होगा नहीं, सहना हमें ही पड़ेगा फिर हंसते हुए भी तो ये दिन काट सकते हैं, दुख के दंश बिना सुख की अनुभूति भी कहां होती है। केदारनाथ और वैष्णोदेवी की यात्रा करने वाले थकते-हांफते-पसीना बहाते, दवाइयां खाते जैसे-तैसे दरबार में पहुंचते हैं। बस चौखट पर कदम रखते ही सारा दुख पलक झपकते हवा हो जाता है। जितने घंटे की यात्रा करके मंदिर तक पहुंचते हैं। चाहकर भी उतने वक्त मंदिर में नहीं रुक पाते। लौटते वक्त परेशानियों वाली वही ऊबड़-खाबड़ राह हमें दुखों से जूझने में अभ्यस्त कर चुकी होती है। ज्यादातर प्राचीन मंदिर और शक्तिपीठ पहाड़ों वाले रास्तों पर संभवतज् इसीलिए स्थापित हैं कि हम दुख के बाद मिलने वाले सुख को जान सकें।जो जिंदगी मिली है जब वही स्थायी नहीं है तो यह मानकर हताश होना भी ठीक नहीं कि दुख तो पीछा नहीं छोड़ेगा। अपने उत्पाद बेचने के लिए बड़ी कंपनियों ने एक के साथ एक फ्री की स्कीम अब चलाई है, हमें तो जन्म लेते ही सुख-दुख के उपहार साथ मिल जाते हैं। जो दुखी है वह सुख की लालसा में सूखे जा रहा है और जो सुखी है उसे इस चिंता में नींद नहीं आती कि कोई उसे सफलता के उस शिखर से नीचे न धकेल दे। कांटों से घिरा रहने के बाद भी गुलाब अपनी खूबसूरती और खुशबू बिखेरता रहता है। हम हैं कि अपना दुख सुनाने के लिए तो आतुर रहते हैं और जब सुख मिलता है तो चुटकी भर भी बांटना नहीं चाहते।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 2 September 2009

अच्छा करें या बुरा व्यर्थ नहीं जाएगा

जब हम दुखों से घिरे होते हैं तब अपेक्षा होती है कि लोग हमारी मदद न भी करें तो हमारा दुज्ख सुने और समझें। यह अपेक्षा भी जब पूरी नहीं होती तब हम कुछ इसी तरह नाराजगी व्यक्त करने से नहीं चूकते कि हमने कितना कुछ किया लेकिन हमारे लिए किसी ने कुछ नहीं किया। ऐसा उलाहना देने से पहले यह समीक्षा भी कर लें कि आपने जिनके लिए जो कुछ भी किया उसमें खुद का स्वार्थ कितना था।
आपने किसी के लिए कुछ निरपेक्ष भाव से किया है तो ऐसा भाव आएगा ही नहीं। यदि मन में ऐसा भाव आ जाए तो सब गुड़ गोबर हो गया। क्योंकि जब आपने किसी के लिए कुछ किया था तो आपको यह पता नहीं था कि भविष्य में आप पर दुखों बादल बरसेंगे और आप जिन्हें उपकृत कर रहे हैं वो राहत की छतरी आप पर तान कर खड़े रहेंगे।
हनुमान भक्त पं. विजयशंकर मेहता उज्जैन में जब किसी भी प्रसंग के दौरान अपना चिर-परिचित वाक्य दोहराते थे क्वकिया हुआ व्यर्थ नहीं जातां तब इन शब्दों की गंभीरता-गहराई कई सहकर्मियों को तत्काल समझ नहीं आती थी लेकिन मेरा मानना है यह बात जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है। पुलिसकर्मी अपने कार्य को ईमानदारी से न करे, स्कूल में कोई एक शिक्षक अपना कार्य समर्पण भाव से करें, किसान खेत में बीज बोए या धनाढ्य परिवार का बेटा नशाखोरी पर पैसा उड़ाए, किया हुआ व्यर्थ तो नहीं जाता। किसान ने जो किया तो फसल पाई, बिगड़ैल बेटे ने अपने जीवन के साथ ही परिवार की खुशियां तबाह कर डाली। स्कूल के दस-बारह शिक्षकों में कोई एक शिक्षक ही क्यों बच्चों में लोकप्रिय होता है इसे बच्चों से ज्यादा बाकी शिक्षक समझते हैं। एक पुलिसकर्मी की गैर जिम्मेदारी पूरे थाने, विभाग की नाक नीची करा देती है।
जिंदगी का जो उपहार मिला है इसके हर दिन का लेखा-जोखा हम ही लिखते हैं। हमारे कार्य-व्यवहार टेनिस की गेंद के समान है-जिस गति से हम दीवार की तरफ फेंकेंगे उसी गति से लौटेगी। सुख सदा साथ रहेगा इसकी गारंटी नहीं लेकिन दुज्ख पीछा नहीं छोड़ेगा यह तय है। इस सहज सत्य को हम समझने की कोशिश नहीं करते इसी कारण दूसरों के सुख हमें ज्यादा दुखी हैं। जब ईश्वर की कृपा होती है, अच्छा ही अच्छा होने लगता है, तब चार दिन की इस चांदनी में भूल जाते हैं कि शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष भी आने वाला है। चाहे जब होने वाली बिजली कटौती से वो लोग कम परेशान होते हैं जो अंधेरे को परास्त करने के इंतजाम मोमबत्ती, माचिस, इनवर्टर आदि तैयार रखते हैं। अंधेरे घुप्प कमरे में भी उन्हें माचिस, मोमबत्ती ढूंढने में परेशानी नहीं होती, क्योंकि पहले से पता होता है। बस इतना सा ही तो फंडा है सुख, दुःख बीच।
किया हुआ जब व्यर्थ नहीं जाता तो मानकर चलना चाहिए हमने कुछ अच्छा किया है तो देर-सवेर फल भी अच्छा ही मिलेगा। शबरी को उसकी तपस्या के बदले श्रीराम को जूठे बेर खिलाने का अधिकार मिला तो रावण ने जैसा किया उसे भी वैसा ही परिणाम मिला।
रोजमर्रा की जिंदगी में ही देख लें, गलत तरीकों से कमाई करके संपन्न होने का सपना पूरा जरूर हो जाए, लेकिन देर सवेर यही गलत कमाई पूरे परिवार के शारीरिक-मानसिक संताप का कारण भी बन जाती है, ऐसे कई किस्से हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं। घर में अभिभावक साल भर बच्चों को पढ़ाई, परीक्षा, कैरियर को लेकर आगाह करते रहते हैं, क्लास में टीचर्स भी बच्चों को बिना भेदभाव के पढ़ाते-समझाते हैं, लेकिन परीक्षा में क्लास के सभी स्टूडेंट तो टॉपर होते नहीं जिसने जैसा किया होता है वैसा ही परिणाम आता है। हम किसी के प्रति अपनापन रखें या बैरभाव यह तो चल जाएगा लेकिन किसी के लिए कुछ करें तो यह न भूलें कि बबूल बोएंगे तो उस पर आम तो नहीं लगेंगे। टिकट यदि जयपुर का लें और जमशेदपुर की यात्रा करना चाहें तो परिणाम का भी हमें ही सामना करना पड़ेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Friday 28 August 2009

याद तो करिए किनके सहयोग से आगे बढ़े हैं?

घर से सटे गार्डन में अनार-आम-अमरूद के बोझ से टहनियां जमीन पर झुकती नजर आने लगती हैं, तो मुझे ऐसा लगता है मानो घर मालिक का आभार व्यक्त कर रही हों- धन्यवाद आपका, जो आपकी देखभाल, संरक्षण ने हमें इस लायक बना दिया।

याद करिए आज से पांच-दस साल पहले जब ये सारे पौधे गार्डन में लगाए थे तब तो यह भरोसा भी नहीं था कि पौधे पनपेंगे या नहीं, फल भी आएंगे या नहीं। फिर भी हमने धूप, बारिश, तेज आंधी से नन्हें पौधों की प्राण रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब जब इन वृक्षों पर फलों की बहार है, तो आभार के बोझ से टहनियां झुकी-झुकी जाती हैं।

दूसरी तरफ आप हम हैं। हमें अपने दोस्तों-परिजनों से मिले अनपेक्षित व्यवहार, कटु प्रसंग तो बरसों बाद भी याद रहते हैं, लेकिन बुरे वक्त में जब ये ही सारे लोग हमारे पीछे चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे थे। हमारे दुख में अपना खाना-पीना भूलकर हर कदम पर साथ चले थे, तब हम थैंक्स तक नहीं कह पाते थे, वो वक्त हमें याद नहीं रहता। हम हैं कि थोड़ी सी उपलब्धि हांसिल होने पर, थोड़ा-सा भी अपने मनमाफिक न होने पर अपने ही लोगों की बाकी अच्छाईयों, हर मोड़ पर मिले सहयोग को पल भर में भुला देते हैं। बात जब अहसान याद दिलाने तक पहुंच जाए, तो हमें अपना किया तो याद आ जाता है, पर बाकी लोगों ने हमारे लिए जो करा वह याद नहीं आता।

उज्जैन में आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स को अटैंड करने के दौरान शिविर समापन के अंतिम दिन प्रशिक्षक ने सभी शिविरार्थियों को अंगूर के गुच्छे से एक-एक अंगूर इस हिदायत के साथ मुंह में रखने को दिया कि जब तक निर्देश न मिले, इसे चबाएं नहीं।

निर्देश मिला जरा सोचिए इस अंगूर में कितने बीज हैं, उन्हीं में से एक बीज अंकुरित हुआ। उसके अंगूर बनने तक प्रकृति ने हवा, पानी, धूप, छांव का निस्वार्थ सहयोग किया। किसान ने देखभाल की। जाने कितने हाथों के सहयोग, सेवा, उपकार लेता यह अंगूर अब आपके मुंह में है। क्या कभी ऐसे सारे गुमनाम सहयोगियों के प्रति आपका मन धन्यवाद भाव से प्रफुल्लित हुआ है?

जाहिर है बाकी शिविरार्थियों की तरह मेरा जवाब भी नहीं में था। बात छोटी सी, लेकिन कितनी गहरी है। हम प्रकृति को धन्यवाद दे ना दें पेड़ तो पत्थर खाकर भी फल ही देता है।

हर दिन तरक्की को लालायित हमारी जिंदगी के हर मोड़ पर, निरंतर ऊंचाइयों के शिखर तक पहुंचने में न जाने, किन-किन लोगों का सहयोग रहा है, वे सभी जड़ नहीं चैतन्य हैं। आप ही की तरह उनमें भी अपेक्षा का भाव है कि उनके सहयोग का आप भले ही ढिंढोरा न पीटे, लेकिन अपनों के बीच स्वीकार करने का साहस तो दिखाएं। हालत तो ऐसी है कि जब हम अपनी गलती ही आसानी से नहीं स्वीकार पाते तो साथियों के सहयोग को कैसे दस जनों के बीच कहें। हम भूल जाते हैं कि जिन लोगों के छोटे-छोटे सहयोग से हम बडे़ बने हैं, हम समाज की नजर में भले ही ऊंचे उठ जाएं, लेकिन उन सारे सहयोगियों की नजर में तो नीचे ही गिर जाते हैं।

घर के किसी कोने में रखे गमले में बड़ा होता मनी प्लांट का पौधा भी एक पतली सी लकड़ी और रस्सी के सहयोग से ही छत तक ऊंचा उठ पाता है पर क्या करें हमारा तो स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि मनी प्लांट की तारीफ तक ही सीमित रहते हैं। सच भी तो है मंदिर के दूर से नजर आने वाले स्वर्ण शिखर के लिए आस्था से सिर झुकाते वक्त हमें नींव के पत्थरों का त्याग नजर नहीं आता।

स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा पद, प्रतिष्ठा की हमारी इस फलती-फूलती बेल को न जाने कितनी पतली लकडियों का सहारा मिला, यह हमें याद तक नहीं है। कभी जब हम कुछ फुरसत में आंखें बंद कर के फ्लैश बेक में जाएं, तो ऐसे कई चेहरे, कई प्रसंग याद आ जाएंगे और लगेगा यदि उस दिन उनकी सलाह, सहयोग, आर्थिक मदद नहीं मिली होती, तो वह काम हो ही नहीं पाता। अस्पताल में जब आप लंबे वक्त बिस्तर पर थे, किसी परिजन के ऑपरेशन के वक्त कौन सबसे पहले खून देने को तैयार हुआ था, आधी रात में किसने आपको अपने वाहन से स्टेशन, अस्पताल तक छोड़ा था। आपके अचानक बाहर जाने की स्थिति में बच्चों को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी किसने पूरी की। परीक्षा हाल में पड़ोस की टेबल वाले किस परीक्षार्थी ने पेन मुहैया कराया था, ऐसे कई अनाम सहयोगियों को तो हम याद रख ही नहीं पाते। ऐसे लोगों ने जब हमारी मदद की थी, तब उनकी यह अपेक्षा तो कतई नहीं थी कि आप धन्यवाद कह कर उनके सहयोग का कर्ज उतारें, लेकिन यदि आप यह अपेक्षा रखते हैं कि सहयोग के बदले आप पर धन्यवाद के फूल बरसें तो आप को भी अपने सहयोगियों के प्रति धन्यवाद वाला दायित्व तो निभाना ही चाहिए। नेकी करो भूल जाओ-यह कहना तभी ठीक लगता है, जब अपेक्षा दुख का कारण न बने। जिन अनाम-अंजान लोगों ने आपकी तरक्की में बिना किसी अपेक्षा के सहयोग किया, उनके अहसान को उतारने का एक आसान तरीका यह भी हो सकता है कि हम भी किसी मोड़ पर किसी के काम आ जाएं, फिर जब खाली वक्त में अच्छे कामों का हिसाब-किताब करेंगे, तो ऐसे ही काम याद आएंगे। दुयोüधन और धर्मराज कहीं स्वर्ग या महाभारत में नहीं हमारे मन में ही आसन जमाए बैठे हैं। अच्छे बुरे का हिसाब मन की किताब में ही दर्ज होता है। जीते जी इस किताब के पन्ने पलटने की आदल डाल लें तो हमें खुद ही पता चल जाएगा कि हमारी सीट स्वर्ग में रिजर्व हो सकती है या नहीं।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

एक दिन बच्चा बनकर तो देखें

हम बड़ी आसानी से कह तो देते हैं बच्चे भगवान का रूप हैं। इसका मतलब थोड़ा बहुत समझते भी हैं, लेकिन बड़े होने का गरूर हमें उस बचपन की ओर जाने से रोकता है। बड़ा होना जितना आसान है उससे अधिक कांटों भरा है बड़े होकर भी बच्चा बनना। किसी एक दिन बच्चा बनकर देखें तो सही आसपास सब अच्छा ही अच्छा लगेगा। बच्चा तो खिलौने की जिद करते रोते-रोते सो जाता है और हम बड़ों के पास सारे सुख-साधन होने के बाद भी कुछ घंटों की नींद के लिए ध्यान शिविर, योग-आसन और डॉक्टरों का परामर्श लेना पड़ता है।

ये छोटी सी कविता लिखी तो थी दस-बारह साल पहले लेकिन अब लगता है काश हम फिर बच्चे हो जाएं तो कितना अच्छा हो। कई लोगों की तरह मेरी भी आदत रही है कि चाहे दीपावली का संदेश हो या सुख-दुख, उल्लास के एसएमएस कुछ अलग हट कर भेजूं वरना तो इसकी टोपी उसके सिर यानी फारवर्ड करना तो बेहद आसान तरीका है ही। तब दीपावली बधाई संदेश के लिए जो पंçक्तयां लिखी वो चार लाइनें कुछ इस तरह थीं-

समझदार होने से तो, बचपन ही भला है

ना यहां बाबरी मस्जिद, ना रामलला है।

अब जब हम जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं बचपन को तरसते हैं और जब उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी जब बच्चों की तरह हो जाते हैं तब हमारे बच्चे कभी दया दिखाते हैं तो कभी हंसते हैं।

बचपन के दिन भी कितने प्यारे होते हैं यह हम तब समझ पाते हैं, जब हम उस उम्र को काफी पीछे छोड़ आते हैं। अब तो समझदारी का आलम यह है कि पूजा करते वक्त अगरबत्ती और दीपक भी जलाते हैं तो पर्याप्त सतर्कता रखते हैं और बचपन में जलते दीपक और चिमनी पर भी झपट्टा मार देते थे। तब मन में न आग का भय होता था न हाथ जलने का। अब दस बार सोचते, हजार बार मन ही मन लाभ-हानि का गुना भाग करते हैं, तब कहीं एक डेढ़ इंच ओठ फैला पाते हैं, चाहकर भी ठहाका इसलिए नहीं लगा पाते कि लोग क्या कहेंगे। एक वक्त वह था जब कोई तुतलाती जुबान में बोलता, ताली बजा कर गर्दन हिलाकर थोड़ा सा अपनापन दिखाता हम अपना है या पराया जाने-समझे बिना हम दिल दे चुके सनम जैसे हो जाते थे।

अब जब हम ही किसी से बिना मतलब के नहीं मिलते, चिट्ठी लिखना तो दूर जब तक मजबूरी न हो फोन तक नहीं करते, जब तक कंफर्म नहीं हो जाए कि अगला अब दुनिया से जाने को ही है। तब तक तबीयत पूछने का वक्त नहीं निकाल पाते तो किसी और से भी यह अपेक्षा करना ठीक नहीं कि वो हमारी चिंता पाले।

किसी से घुलते-मिलते भी हैं तो इस सतर्कता के साथ कि हमारा हमपना बरकरार रहे इसलिए 'मैं से मुक्त नहीं हो पाते, जैसे दूध में चाय की पत्ती जो घुलते ही अपना ऐसा असर दिखाती है कि दूध को चाय हो जाना पड़ता है। लेकिन दूसरों से हमारी अपेक्षा रहती है कि वो हम से मिले भी तो दूध में पानी की तरह यानी हम बनें रहें। पानी का तो गुण ही है जिसमें मिला दो वैसा हो जाए। त्याग की बात करें तो दूध में मिला हो या दाल में पहले पानी ही जलता है। बचपन भी तो पानी जैसा ही लगता है जो जैसा हंस-बोले उसके साथ उसी भाव से मिल गए ट्रेन-बस में सहयात्री की गोद में खेलता बच्चा भी तब आपकी बाहों में आने को मचल पड़ता है जब वह आपकी आंखों में निश्छल प्रेम की भाषा पढ़ लेता है। उस बच्चे के मन में मैल नहीं होता क्योंकि वह नासमझ है और हम समझदार! ऊपर से जितने उजले अंदर से उतने ही काले-कलूटे। मन पर ये भेद का रंग उसी दिन से चढ़ना शुरू हो जाता है, जब हम अक्षर ज्ञान सीखना शुरू कर देते हैं। बोलते तो ग गणेश का हैं लेकिन दिमाग की हालत गोबर से भी बदतर होती जाती है। गोबर तो फिर भी घर-आंगन शुद्ध रखता है, लेकिन दिमाग में भरा गोबर अपना अच्छा भी चाहेगा तो दूसरों के बुरे की कामना के साथ। हालत ये हो जाती है कि मंदिर में भी हम आंखें मूंदकर अपने लिए सब कुछ मांगने की प्रार्थना के साथ दुश्मनों के नाश की कामना करना नहीं भूलते। भला हो भगवान का जो सबके आवेदन तत्काल स्वीकृत नहीं करता। वरना तो पड़ोस के मंदिर में हमारे लिए प्रार्थना कर रहे हमारे प्रतिस्पर्धी की अर्जी का भी तुरंत निराकरण हो जाता।

क्या यही अच्छा हो कि सप्ताह में नहीं तो महीने या साल के किसी एक दिन हम फिर से बच्चा बनकर देखें। वैसे बच्चा बनने की कोशिश तो हम अक्सर करते रहते हैं, लेकिन वह भी फरेब ही होता है। रोते हुए बच्चे को चुप कराने या अपनी गोद में लेने के लिए हम बच्चों जैसा अभिनय करके उस नासमझ को भी छल-फरेब का गंडा ताबीज बांध देते हैं। फिर कभी जब वही बच्चा हमारे हाथ फैलाने, गोली-चाकलेट दिखाने पर गोद में आने की आतुरता दिखाकर तत्काल बाद खिलखिलाता हुआ वापस मां के कंधे से चिपट जाता है, तो हमारे मुंह से बरबस निकल जाता है-पहले से कितना चंट, कितना शैतान हो गया है।

उस मासूम का चंट होना तो हमारी समझ में आ जाता है, लेकिन उसकी निर्भय, निर्विकार, निर्विचार, निष्पक्ष बाल सुलभ हरकतों से कुछ सीखना नहीं चाहते। बच्चे को भगवान का रूप शायद इसीलिए कहा जाता है कि उसके मन में न तो किसी के प्रति द्वेष होता है ना पाप, जो उसे जोर से चिल्लाकर अचानक डरा और रुला देता है, उसी की गोद में हिचकियां लेता बच्चा गहरी नींद में सो भी जाता है। नींद से जागने पर उसे तो यह याद भी नहीं रहता कि किस ने फटकारा किस ने दुलारा था। हम है कि सोने से पहले अगले का प्लान बनाकर सोते हैं किस को कैसे निपटाना है। उठते हैं तो मान-अपमान की गठरियां सिर पर लादे रहते हैं। पता है कि परेशानियां किसी न किसी बीमारी का रूप लेकर हमारे साथ कदम ताल करती रहेंगी, मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ेंगी। फिर भी हम अपने ही घर के दुधमुंहे बच्चों के निष्कपट भाव को न तो समझ पाते हैं न ही बच्चों की तरह अपने में मस्त रहना। हम जिस दिन सीख लेंगे तब सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी, पता नहीं हम कब बच्चे बनेंगे।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 13 August 2009

गलती स्वीकारने का साहस भी दिखाइए

आप यदि अपना काम पूरी ईमानदारी से करने का दावा करते हैं तो फिर काम में होने वाली गलतियों को स्वीकारने का साहस भी होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। हम हमेशा यही चाहते हैं कि अपने मित्रों-सहकर्मियों के सहयोग से यदि कुछ बहुत अच्छा हुआ है तो उसका सारा श्रेय तो सिर्फ हमारे खाते में दर्ज हो और किए गए काम में चूक हो गई है,तो उसके लिए कोई दूसरा दोषी नजर आए! हमारा यह चरित्र हमें कुछ देर के लिए तो आत्म संतुष्टि दिला सकता है, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे काम का मूल्यांकन करने वालों को भी तो नजर और दिमाग दे रखा है प्रकृति ने।स्कूल के दिनों में आप-हम सब इस हकीकत से गुजरें भी हैं, उस बाल मनोविज्ञान को हम ताउम्र साथ लेकर चलते हैं। इस कारण ही कथनी और करनी में अंतर जैसी हालत कमोबेश सभी के साथ रहती है। स्कूल में दिए होमवर्क के कठिन सवालों को हम अपने दोस्तों या परिवार के बड़े सदस्यों की सहायता से हल कर लेते थे, कॉपी चेक कराते वक्त हमें गुरुजी शाबाशी भी देते थे, तब हमें अपने लोगों से ली गई सहायता याद नहीं आती थी और न ही सफलता में सहयोग करने वालों का नाम बता पाने की इच्छा होती थी। जब कभी होमवर्क में गलतियां रह जाती थी या दिया हुआ काम जानबूझकर नहीं करते थे, तब क्लास में फटकार, पिटाई से बचने के लिए एक से एक नायाब बहानों की झड़ी लगा देते थे। गुरुजी के गुस्से से मुçक्त मिलने पर मन ही मन अपने झूठ से मिली सफलता पर खुश भी हो जाते थे। ये भूल जाते थे कि क्लास टीचर वर्षों से ऐसी बहानेबाजी और इसके पीछे की हकीकत समझते आ रहे हैं। पढ़-लिखकर ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद अब जब अचानक गुरुजी किसी मोड़ पर मिल जाते हैं, तो हमारा मन श्रद्धा से भर जाता है, स्कूली यादों को शेयर करते वक्त हम उस समय की बहानेबाजी के पीछे का सच अपनी शैतानी गिनाते हुए गर्व से बयान कर देते हैं।
उम्र का अंतर आ गया है, पद-नाम बदल गया है, परिस्थितियां बदल गई हैं, लेकिन जोड़-तोड़ कर श्रेय लेने की होड़ और अपनी गलती किसी ओर पर थोपने के मामले में हम आज भी नहीं बदले हैं। मनोविज्ञान में फर्क आया है, तो बस इतना कि गलत के खिलाफ बोलने की अपेक्षा चुप रहना हमें ज्यादा आसान लगता है। अपने हित में गलत को सही कराने के लिए हमें गलत तरीके अपनाना भी बड़ा सहज लगता है। हमारे एक परिचित अधिकारी ने अपने विभाग के कर्मचारियों की कार्यशैली और मनज्स्थिति का एक रोचक किस्सा बताया तो मुझे लगा कि स्कूल से कॉलेज की पढ़ाई, डिग्री, ओहदे के बाद भी हम सब बच्चे ही बने हुए हैं। किस्सा कुछ ऐसा है कि उनके एक सहकर्मी से लापरवाही के कारण फाइल में एक त्रुटि रह गई, दूसरे सहकर्मी ने भी फाइल में हुई उस भूल पर गौर नहीं किया। तीसरे कर्मचारी के पास फाइल पहुंची वहां भी यहीं हाल था। चौथे, पांचवें कर्मचारी ने भी पूरी फाइल गौर से देखी, लेकिन बस वही भूल नजर नहीं आई। एक के बाद एक लापरवाही के इस सिलसिले के साथ वह फाइल ओके कर के भेज दी गई। कुछ समय बाद वह जो छोटी सी लापरवाही थी महाभूल बनकर सामने आ गई। कार्यालय के रिकॉर्ड में दर्ज इस ऐतिहासिक भूल की जांच-पड़ताल शुरू हुई तो संबंधित सारे कर्मचारी उस चूक को स्वीकारने की बजाए यह सफाई देते नजर आए कि हमने अपने स्तर पर तो पूरी निष्ठा और लग्न से काम किया, ये गलती मेरी नहीं उसकी है।
ऐसी स्थितियों से हम सब को भी गुजरना ही पड़ता है, लेकिन हम कितनी बार सच का सामना करने या सच कहने का साहस जुटा पाते हैं। निर्जीव दीवारों, कुर्सी, टेबल से कभी गलतियां हो ही नहीं सकती, जो काम करेगा गलती उससे ही होगी फिर गलती स्वीकारने का साहस क्यों नहीं दिखा पाते। सीमा पर तैनात जवान को तो पता होता है निशाने में जरा सी चूक उसकी जान भी ले सकती है, जब वह साहस के साथ दुश्मनों को ढेर करने में लापरवाही नहीं बरतता तो हम रोजमर्रा के काम में वह बात क्यों नहीं ला सकते। हम अपनी गलती छुपाने में माहिर हैं, तो क्या कोई और हमारी असलियत पकड़ने में उस्ताद नहीं हो सकता। जिस वक्त हम नजर से नजर मिला कर झूठ को सच की तरह बोलने का नाटक करते हैं, उस वक्त यह भूल जाते हैं कि इस नाटक का एक दर्शक हमारा मन भी है, जो झूठ पर डालने के लिए किए अभिनय की असलियत समझता है। रोजमर्रा की जिंदगी में यदि अपनी गलती छुपाने के लिए दूसरों को दोषी ठहराने के बाद भी आराम से नींद आ रही है, एक पल को भी बेचैनी नहीं रहती तो मान लेना चाहिए कि अभिभावकों और शिक्षकों ने बालपन में हमारे मन में अच्छे इंसान वाले संस्कारों का जो पौधा लगाया था वह सूख चुका है और उसकी जगह कैक्टस पनप गया है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...