पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 29 April 2009

पानी तो खूब है फिर हरियाली क्यों नहीं!

गर्मी के इन महीनों में शहर का सीना चीरकर गुजरते नेशनल हाइवे पर दूर-दूर तक पेड़ नजर नहीं आते टेंपों के इंतजार में खड़े लोगों को पहले पेड़ तलाशना पड़ता है। पेड़ मिल जाए तो पर्याप्त छांव नहीं मिलती क्योंकि पेड़ की उस छांव में समाजवाद पसरा होता है-स्ट्रीट डाग, बकरियां, अधलेटे भिखारी के बीच कोई वृद्ध टेंपों के इंतजार में पसीना पोंछता नजर आता है।ऐसा शहर बिरला ही होगा जहां पानी तो भरपूर है लेकिन उतनी हरियाली नहीं। आयोजन तो यहां खूब होते हैं पौधे लगाए ाी जाते हैं लेकिन वह पौधारोपण होता है भरपेट खाए व्यक्ति को भोजन पर आमंत्रित करने जैसा यानी बगीचों या जहां पहले से पौधे लगे हैं वही कुछ पौधे और लगा दिए जाते हैं। इसीलिए पूरा शहर तो हरा-भरा नजर नहीं आता, हरियाली के धब्बे जरूर दिखाई देते हैं।भीषण गर्मी के इन दिनों में पौधारोपण तो हो नहीं सकता लेकिन भ् जून को विश्व पर्यावरण दिवस से अभियान की प्लानिंग तो की ही जा सकती है। वन विभाग पर्याप्त पौधे जुटा ले, सामाजिक-व्यापारिक संगठन पौधारोपण करना भी चाहते हैं लेकिन बात आकर रुक जाती है महंगे ट्री गार्ड कैसे जुटाएं। वन विभाग, नगर परिषद, यूआईटी आदि को सक्रिय कर जिला प्रशासन सस्ते और बेहतर ट्री गार्ड बनवाने की पहल करे तो लागत मूल्य पर ट्री गार्ड दानदाताओं के माध्यम से प्रकृति प्रेमियों को उपलब्ध कराए जा सकते हैं। स्कूल-कॉलेजों को जोड़कर पूरे शहर और नेशनल हाइवे के दोनों तरफ पौधे लगाए जा सकते हैं। लोगों को अपने प्रियजनों की स्मृति में, शादी की सालगिरह, जन्मदिन आदि प्रसंगों पर भी पौधारोपण के लिए प्रेरित किया जा सकता है। हनुमानगढ़ में यदि नशे के खिलाफ अभियान चल सकता है तो यहां ग्रीन गंगानगर का अभियान क्यों नहीं चल सकता। ट्री गार्ड से भी ज्यादा जरूरी है इच्छाशक्ति की। जनभागीदारी के कायाZे को प्रेरित करने के लिए पहल तो जिला प्रशासन को ही करनी होगी।
संत सीचेवाला आए राह दिखाने
अज्ञान और असमंजस के अंधेरे को दूर करने के लिए ही संत पुरुषों का आगमन होता रहा है। पंजाब से आ रहे दूषित पानी से और किसी को इतनी चिंता नहीं हुई जितनी एक औंकार ट्रस्ट के संत बलवीरसिंह सीचेवाला को हुई। संतजी का यह कहना भी सही है कि पंजाब वाले क्यों चिंता करेंगे बीकानेर संभाग के इन जिलों की। बात भी सही है जिसका पेट दुख रहा है दवाई उसे ही मांगनी चाहिए। ऐसा हुआ नहीं इसलिए संत जी को आना पड़ा। जागना तो चुनाव लड़ रहे भावी सांसद को भी था, बाकी नेताओं को ाी जागना था, पानी की लड़ाई का झंडा थामने वाले माकपा विधायक बीकानेर में चुनावी संघर्ष में व्यस्त हैं। इतिहास ने फिर अपने को दोहराया ही है कि जब राजनीति और राजनेता को कुछ नहीं सूझता तब संत ही रास्ता दिखाते हैैं संत सीचेवाला ने यही तो किया है।
दुआ तो मिलेगी ही
अब तक पुलिस को बद्दुआ देने वाले सैकड़ों परिवारों की हनुमानगढ़ कलेक्टर को तो दुआ ही मिल रही होगी। वैसे तो दोनों जिलों में नशे का कारोबार धड़ल्ले से हो रहा है। पुलिस विभाग खानापूर्ति के लिए कार्रवाई भी करता रहता है लेकिन जिस तरह संगरिया में नशीली गोलियों के कारोबार का जिला प्रशासन ने पदाüफाश किया है इससे पुलिस एवं औषधि प्रशासन विभाग की çढलाई से भी पदाü उठा है। इस नशीले कारोबार में अब तक जिन लोगों के नाम सामने आए हैं वो कोई सामान्य परिवार से नहीं है और यही कारण इन दोनों विभागों की उदासीनता को भी मजबूत करने वाला हो सकता है। अच्छा तो यही होगा कि नशे की लत में फंसे जिले के युवाओं के परिवारों को राहत देने के लिए कलेक्टर नशा मुक्ति शिविरों की अध्यक्षता की अपेक्षा यह अभियान सतत चलाते रहे।
दमकलों का इंतजाम तो हो
गर्मी वाले इन महीनों में दोनों जिलों में अçग्नकांड की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। जिला प्रशासन को चाक-चौबंद होना ही चाहिए। इसके साथ ही उपखंड मुयालय वाले टिब्बी, रावतसर जैसे कस्बों के बारे में भी सोचना चाहिए जहां अनाज मंडियां भी हैं। यहां से अच्छा राजस्व भी प्राप्त होता है लेकिन फायर ब्रिगेड दस्ता नहीं हैं। होना तो यह चाहिए कि लोग घेराव आगजनी पर उतरे उससे पहले ही दमकलों की व्यवस्था हो जाए।
बात समझ आई या नहीं
दोनों जिलों में बारदाना जिला प्रशासन के लिए करंट इशु बना हुआ है। अनाज मंडी, गेहूं खरीदी जैसे मसलों से जिला प्रशासन का सीधा ताल्लुक तो नहीं है लेकिन गेहूं खरीदी में अग्रणी एफसीआई की उदासीनता का ही नतीजा है कि किसानों-व्यापारियों के असंतोष का सामना प्रशासन को करना पड़ रहा है। गेहूं खरीदी प्रारंभ होगी तो बारदाना भी थोक में लगेगा। इस बात में न समझने जैसी तो कोई बात है नहीं, फिर क्या एफसीआई में नासमझ स्टाफ की अधिकता हो गई हैै।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...

Saturday 25 April 2009

नमस्कार का जवाब देने में बुराई तो नहीं

आप इतना रूखा बोलते होंगे, आपके आटिüकल्स से ऐसा तो नहीं लगता। भास्कर के हनुमानगढ़ निवासी एक प्रबुद्ध पाठक (98284-4422888) के इस एसएमएस ने मुझे मेरे व्यवहार में सुधार के लिए आइना दिखाने जैसा काम किया है। इस सारे मामले के जिक्र से पहले बाकी पाठकों के लिए भी सीखने की बात यह है कि आप अंजाने में भी ऐसा व्यवहार न करें, जिससे सामने वाले के मन में आपकी गलत छवि बन जाए। यदि ऐसा हो रहा हो तो अच्छाई इसी में है कि आप गलतफहमी तत्काल दूर कर दें और क्षमा मांगकर खुद की भूल को सुधारने का प्रयास भी करें।हुआ यूं कि हमारे उक्त प्रबुद्ध पाठक का एक समाचार के संदर्भ में मुझे फोन आया जबकि वे (Žयूरो कार्यालय हनुमानगढ़ में) पदस्थ स्टाफ के सदस्यों को भी जानते थे। मैंने उनकी बात सुनी, स्टाफ के एक वरिष्ठ सदस्य को कवरेज करा लेने के निर्देश देकर फोन बंद किया ही था कि उक्त एसएमएस प्राप्त हुआ। आसान तरीका तो यही था कि मैं एसएमएस की अनदेखी कर अपने बाकी काम निपटाता लेकिन जो भी लोग सार्वजनिक जीवन में हैं वे यदि ऐसा करने लग जाएं तो लंबा नहीं चल सकते। मैंने उन्हें फोन किया और सबसे पहले माफी मांगी कि मेरे व्यवहार से उनका मन दुखा। उदारमना पाठक ने मुझे माफ कर दिया, फोन करने पर आभार भी जताया। मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे यह बताएं कि मेरे व्यवहार में ऐसा क्या था जिससे उनका मन दुखा। मेरे बार-बार के आग्रह पर उन्होंने कहा कि `मैंने फोन पर बात शुरू करने से पहले तीन बार नमस्कार किया लेकिन आप यही दोहराते रहे काम की बात बताइए।ं फिर उनसे मैंने पूछा आपका काम हुआ या नहीं। उन्होंने कहा जी कुछ देर बाद ही आपके रिपोर्टर कवरेज के लिए आ गए थे। पूरी चर्चा से वे संतुष्ट नजर आए और उन्होंने कहा भी कि मुझे अच्छा नहीं लगा था, इसलिए एसएमएस कर दिया लेकिन अब माफ भी कर दिया है।यदि मैं उन प्रबुद्ध पाठक को फोन नहीं करता तो उनका तो यह परसेप्शन (धारणा) बन ही गया था कि आप इतना रूखा बोलते हैं। अखबार के एक भी पाठक का ऐसा परसेप्शन किसी एक व्यçक्त के बार में बनने का मतलब है पूरे स्टाफ को एक तराजू में तौलना और अखबार यानी एक ब्रांड के बारे में गलत छवि बनना। यह ऐसा ही है कि सफेदझक कपड़ों की अपेक्षा लोगों की नजर किसी कोने पर लगे छोटे से काले धŽबे पर ही जाए। हमारी संस्कृति और संस्कार इतने संवेदनशील हैं कि घर आए व्यçक्त से चाहे जितने प्रेम से बात कर लें। चाय-भोजन न कराएं लेकिन पानी के लिए नहीं पूछा तो सुनने को मिल सकता है उनके घर गए थे, पानी तक के लिए नहीं पूछा। मतलब यह कि आप सार्वजनिक जीवन में हों, किराना दुकान चलाते हों, ऑफिस में बॉस हो, आपको अपनों से काम लेना है या अपना प्रोडक्ट बेचना है तो डांट-फटकार से या दूसरे के प्रोडक्ट की खामियां गिनाकर आप अपना माल लंबे समय तक नहीं बेच सकते। इसके लिए तो यही जरूरी है कि आप अपने व्यवहार में सुधार की तरह अपने प्रोडक्ट में भी निरंतर सुधार करते रहें। जब अपनी गोद में अपरिचित बच्चे को लेने के लिए तुतलाती जबान में मुस्कुराते, ताली बजाते उस बच्चे का विश्वास जीतना चाहते हैं तो अपने परिचितों, सहकर्मियों, ग्राहकों से रूखा व्यवहार करके उनका दिल क्यों दुखाते हैं?
बार संघ का दिल दुखा दिया
बात दिल दुखाने की ही चली है तो बार एसोसिएशन श्रीगंगानगर की आपात बैठक कोरम के अभाव में हो ही नहीं पाई। लिहाजा जिला-सत्र न्यायाधीश उमेशचंद्र शर्मा के खिलाफ मोर्चा खोलने का मन बनाने वालों का दिल भी दुखा होगा। बैठक में पर्याप्त उपस्थिति न होना यह भी संकेत हो सकता है कि बाकी सदस्य बात आगे बढ़ाने के मूड में नहीं हैं। बार संघ के पदाधिकारियों का भी दिल दुखा तो इसलिए कि डीजे ने लीक से हटकर मीडिया तक बात कही और सभी अदालतों में नोटिस बोर्ड पर भी अपना कथन चस्पा करा दिया। उच्च न्यायालय, सवोüच्च न्यायालय में भी बार संघ कार्यरत हैं, वहां की कई अच्छी बातें देर-सवेर जिला बार संघों तक भी पहुंचेंगी ही। तब संभव है अधिवक्ताओं के दिल नहीं दुखें।
दुकानदारों के दिल से भी पूछे कोई
दिल तो हनुमानगढ़ टाउन के स्टेशन रोड, शनिदेव मंदिर वाली गली, दुगाü कॉलोनी क्षेत्र के दुकानदारों का भी दुखा होगा, जब अवैध निर्माण तोड़ने वाला दस्ता पहुंचा था। अब अपने हाथों वह सारा निर्माण तोड़ते हुए भी इनका दिल दुख रहा है लेकिन जब सड़क का हिस्सा आजाद होगा तो फायदा किसी और क्षेत्र को नहीं, इन्हीं सभी दुकानदारों को ही मिलेगा। अच्छा हो कि इन आंसू बहाते दुकानदारों से बाकी क्षेत्र के लोगा भी सबक लें। चुनाव की व्यवस्तता से मुक्त होने के बाद दोनों जिलों के अधिकारियों को व्यस्त मागोZ, चौराहों को अतिक्रमण मुक्त कराने के लिए संबंधित क्षेत्र के व्यापारिक संगठनों को बुलाकर बात करनी ही चाहिए।
बैंकों में खाता खुल जाए तो
पढ़ने के मामले मेें जागरूकता की कमी एक न एक दिन दूर होगी ही लेकिन पढ़ाने वालों में भी या तो जागरूकता की कमी है या फिर उनकी हालत भी दांतों के बीच जुबान जैसी ही है। बीएड कॉलेज में पढ़ाने वाले हों या निजी स्कूल का स्टाफ, ऐसे सारे शैक्षणिक संस्थानों को संचालित करने वाले अपने स्टाफ को रखते तो ऊंची तनवाह पर हैं लेकिन देते हैं कम वेतन। पूरा परिवार जब किसी एक की तनवाह पर निर्भर हो तब समाज सुधार का ज्वालामुखी भी मजबूरी की मिट्टी से ठंडा हो जाता है। दोनों जिलों में चल रहे बीएड कॉलेजों सहित अन्य शिक्षण संस्थानों में ज्यादातर जगह कम तनवाह पर पढ़ाने वालों का बस एक ही सपना है कि उन्हें बैंक से तनवाह मिलने लग जाए। ऐसा होगा तो सारा झूठ, सच में बदल जाएगा। पर ऐसा भी तभी होगा जब कलेक्टरों को कुछ भले कार्य करने की इच्छा होगी।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...

Thursday 16 April 2009

याद आ गई बचपन में पढ़ी कहानी की

बचपन में प्रारंभिक पढ़ाई के दौरान मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर (दो मुय पात्र अलगू चौधरी और जुमन शेख) अब तक याद है। जिला सत्र न्यायालय ने वर्क सस्पेंड के मामले में मीडिया तक अपनी बात पहुंचाकर एक बार फिर इस कहानी की याद दिला दी। जब कहानी का नायक पंच की कुर्सी पर बैठता है तो फैसला अपने अतिप्रिय दोस्त के खिलाफ सुनाने में भी नहीं हिचकता। अब तक की मेरी पत्रकारिता में यह यादगार अनुभव ही है कि अपनी बात कहने के लिए जिला सेशन न्यायालय मीडिया तक जाए। अमूमन प्रेस और न्याय जगत के बीच एक अघोषित लक्ष्मण रेखा है। बार संघ आदि तो फिर भी मीडिया तक अपनी बात पहुंचाते हैं लेकिन न्यायिक सेवा के छोटे से लेकर बड़े पदों का दायित्व संभालने वाले अधिकारी प्रेस से, सार्वजनिक समारोह से दूरी ही बनाकर रखते हैं। जाहिर है इसका भी एक मात्र उद्देश्य होता है न्याय जगत की गरिमा और पवित्रता बनाए रखना। राजस्थान में संभवतज् यह पहली ऐसी मिसाल है जो न्याय जगत में बेमिसाल ही कही जाएगी कि जिला एवं सेशन न्यायालय ने बार एसोसिएशन के वर्क सस्पेंड से चार दिनी गतिरोध और कथित सुलह को लेकर उपजे भ्रम को दूर करने के लिए खुद ही पहल की और मीडिया के माध्यम से आम जन एवं पक्षकारों को वस्तुस्थिति भी बताई। ऐसा नहीं कि वर्क सस्पेंड को लेकर गतिरोध प्रारंभ होने पर `भास्करं ने जिला-सत्र न्यायाधीश उमेशदत शर्मा से उनके विचार जानने के प्रयास नहीं किए। न्याय जगत की तरह दैनिक भास्कर की भी यह पॉलिसी है कि प्राकृतिक न्याय के तहत सभी पक्षों को अपनी बात कहने का अवसर मिलना ही चाहिए । चूंकि न्यायिक सेवा से जुड़ा वर्ग मीडिया में नहीं जा सकता इसलिए खुद `ाास्करं गया था जिला सत्र न्यायाधीश से उनके विचार जानने। मर्यादाओं का पालन करते हुए उन्होंने नो कमेंट्स कह कर चुप्पी साध ली थी। नतीजा यह कि वर्क सस्पेंड और सुलह का जैसा मजमून बार संघ ने बताया वैसा ही छपा भी। मीडिया को यह भी जानकारी थी कि वकीलों और न्यायालय के बीच वैचारिक भ्रम की स्थिति बन भी जाए तो प्रशासनिक अधिकारी न तो मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं और न ही ऐसे कोई अधिकार उन्हें प्राप्त हैं। न्यायालय ठान ले तो यह बहुत आसान है कि वह अवमानना के मामले में तो मीडिया को कटघरे में खड़ा कर ही सकता है लेकिन वह न्याय मंदिर ही क्या जो मुंशी प्रेमचंद के पंच परमेश्वर का प्रतिनिधित्व न करें। जिला सत्र न्यायालय ने मीडिया के जरिए अपनी बात कह कर आमजन तक सही तथ्यों की जानकारी पहुंचाई। यह अलग मुद्दा है कि जिला सत्र न्यायालय के इस कदम को बाकी मीडिया ने कितना समझा, कैसा सराहा। न्यायालय में सामान्य कामकाज शुरू जरूर हो गया है लेकिन भविष्य में वर्क सस्पेंड की स्थिति नहीं बनेगी यह दावा तो बार एसोसिएशन के पदाधिकारी भी नहीं कर सकते। संघ के वर्तमान-पूर्व सदस्यों के प्रति अपनी भावना का इजहार करने, किसी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी जागरूकता दिखाने के लिए संघ का यह अचूक हथियार भी है जाहिर है इसका उपयोग इस तरह से हो कि अन्य किसी को परेशानी भी न हो। संघ के लिए तो वर्क सस्पेंड लक्ष्यभेदी मिसाइल के समान है। मध्यमार्ग यही हो सकता है कि दोपहर तक पक्षकारों के काम निपटाए जाएं और वर्क सस्पेंड उसके बाद किया जाए। जब मंजिल तक पहुंचने का रास्ता न सूझे या दिशा भ्रम की स्थिति बन जाए तो समय बचाने के लिए किसी से रास्ता पूछ लेने में ही समझदारी होती है। अच्छा हो कि सदस्यों की नाराजगी से बचने के लिए संघ के पदाधिकारी गुप्त मतदान या बहस करा लें और जो आम राय बने वह फैसला मान्य कर लें। क्योंकि बार संघ भी नहीं चाहेगा कि जिला सत्र न्यायालय को फिर मीडिया के बीच जाना पड़े।
उन सब पर भी कार्रवाई हो
पीलीबंगा में चले अतिक्रमण विरोधी अभियान से भी कोई सबक न लेना चाहे तो इसमें अदालत का क्या दोष। हनुमानगढ़ में अब जो सड़क चौड़ा कराने का अभियान चलने वाला है वह भी अदालत के आदेशों की अनदेखी का ही नतीजा है। सड़कों को म्-म् फुट घेर कर पत निर्माण करने वालों के हौंसले यदि इतने बढ़ गए तो जाहिर है कि जिला प्रशासन, नगर परिषद ने भी आंखें मंूद रखी थी। जितने दोष्ाी अतिक्रमणकर्ता हैं उससे प्रशासनिक अधिकारी कहीं अधिक दोषी हैं जिन्होंने राजनीतिक दबाव-प्रभाव और अपने स्वार्थ के कारण लगातार कोर्ट की अवमानना होने दी। अभियान चले, सड़कें चौड़ी हों लेकिन उन लोगों को भी नहीं बशा जाए जो इन इलाकों में पदस्थ थे और लगातार पक्के अवैध निर्माणों की अनदेखी करते रहे।
बहाव में हो जाती मरमत
गलती पंजाब की हो या लापरवाही सिंचाई विभाग की बात निकली है तो दूर तलक जाएगी ही! फरमान जारी हो गया कि क्त्त् अप्रैल तक नहरबंदी कर दी है, इस दौरान नहरों की साफ सफाई, मरमत के लिए हमेशा की तरह पर्याप्त बजट भी जारी हो गया। नहरों की सफाई, मरमत कैसे होती क्योंकि क्क् अप्रैल तक तो पंजाब से नहरों में पानी आता रहा। असलियत ऊपर तक पहुंची तो अब लीपापोती चल रही है वरना तो नहरों में बहाव जारी रहता और मरमत का बजट भी काम में आ जाता। अब आइजीएनपी कार्यालय में रिपोर्ट तैयार की जा रही है कि बहाव के चलते भी किस कौशल से कहां-कहां मरमत कार्य करा लिया!
गçर्दश में हों तारे...
भादरा इलाके में तो पुलिस के सितारे गçर्दश में ही चल रहे हैं। भिरानी थाना के लॉकअप में आत्महत्या कर भानगढ़ निवासी पवन कुलरिया ने पूरे थाने को परेशानी में डाल रखा है। दूसरी तरफ एड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी भादरा थाना क्षेत्र में हुई छात्रा कृष्णा जोगी की हत्या के आरोपियों को पुलिस आज तक नहीं खोज पाई है। थाना स्टाफ फिर भी चिंतामुक्त है तो इसलिए कि अब इस कांड की जांच बड़े-बड़े अधिकारी कर रहे हैं, उनका ही जब कुछ नहीं हुआ तो इनका बाल बांका कौन कर सकता है।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...

Monday 13 April 2009

परलीका : पहली नजर का इमोशनल अत्याचार

परलीका यात्रा : 10 अप्रेल 2009
ऊंट और भैंस से पूछना चाहता था-क्या तुम भी कहानी-कविता लिखते हो?
अचानक ही परलीका जाने का कार्यक्रम बन गया। कुछ घंटे वहां बिताए तो लगा कि राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का यह छोटा-सा गांव महाराष्ट्र की साहित्य राजधानी पुणे की तरह ही है। जिससे भी सोनी जी, विनोद जी ने मिलवाया वह किसी न किसी बहाने राजस्थानी साहित्य की सेवा में जुटा हुआ था। मायड़ भाषा आंदोलन से जु़डे नरम या गरम दल के नेता हों या कार्यकर्ता, परलीका तो उनके लिए उसी तरह पुण्य भूमि है जैसे कुछ किलोमीटर दूर गोगामे़डी स्थान जहां विभिन्न जाति-धर्म, समाज के लाखों श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी होने की इच्छा लेकर प्रतिवर्ष आते हैं। पता नहीं लोक देवताओं के चमत्कार वाले इस प्रदेश के लोगों की राजस्थानी भाषा को मान्यता वाली मन्नत कब पूरी होगी। मैं गया तो था परलीका में अपने लोगों से मिलने, लेकिन जैसे गाय का पोटा जमीन से धूलकण लेकर ही उठता है, वैसे ही मैं इस यात्रा को शब्द चित्र के रूप में लिखने का मोह नहीं छोड़ पाया।
-कीर्ति राणा
(विनोद स्वामी ,रामस्वरूप किसान, कीर्ति राणा, सत्यनारायण सोनी, अरविन्द मिश्रा)

परलीका में विनोद स्वामी के घर की ओर जाने वाले कच्चे मार्ग की दाँई तरफ मैदान में पे़ड के नीचे तीन-चार भैंसे बैठी थीं और उनके समीप पेड़ से बंधा ऊंट अपना मुंह ऊंचा उठाए जुगाली इस तरह कर रहा था मानो श्रोताओं को रचना सुना रहा हो।राजस्थानी भाषा आंदोलन में परलीका वाया गोगामड़ी, गांव का स्थान ठीक वैसा ही कहा जा सकता है जैसे अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का वह गांव-घर जहां आजादी आंदोलन के काकोरी कांड की साजिश रची गई थीं। भाषा आंदोलन के लिए इस गांव के लोगों में जो लगन नजर आती है वही इस गांव के हर घर में एक साहित्यकार होने जैसी स्थिति का कारण भी है।भादरा से नोहर के लिए जाते वक्त मैंने परलीका रुकने और मायड भाषा आंदोलन के साथियों से मेल मुलाकात का शायद सही निर्णय ही लिया। सत्यनारायण सोनी का मकान हो या विनोद स्वामी का, दोनों जगह एक बात समान थी बस अंतर था तो इतना कि विनोद के यहां तीनों अमर शहीद के फोटो थे तो सोनी जी के यहा एक। इन घरों में लगे नेताजी सुभाष, भगतसिंह और चंद्रशेखर के चित्र यह भी संदेश देते हैं कि देश को आजाद कराने का जो जज्बा इन शहीदों में रहा वहीं जुनून परलीका के लोगों में राजस्थानी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए भी है। वैसे तो मायड़ भाषा आंदोलन पूरे प्रदेश में चल रहा है लेकिन पुण्य की जड़ पाताल में होने की तरह इस आंदोलन की जड़ तलाशी जाए तो परलीका के इन्हीं घरों में मिलेगी।यहां के घरों में विनोद की बू़ढी मां हो या उनके शिक्षक हेतराम खीचड़, चर्चा भी करेंगे तो चुनाव, सोनिया, आडवानी, मनमोहन की नहीं भाषा कहावतों और लोकगीतों की। सोनी जी जब कहते हैं कि आपणी भाषा कॉलम के लिए हमें तो गांव के ये बड़े-बुजुर्ग ही रॉ मटेरियल उपलब्ध कराते हैं, तो एक पल के लिए अचरज होता है। इस अचरज के समाधान में विनोद राधा-कृष्ण के हास-परिहास के उस लोकगीत का (हिंदी में अर्थ समझाते हुए) गायन करते हैं। जिसे माताजी ने सुनाया और सोनी जी ने लिपिबद्ध किया। गीत का भाव है कि कृष्ण जी को पंखा झलते-झलते अचानक राधाजी के हाथ से पंखा गिर जाता है। परिहास करते हुए कृष्ण कहते हैं राधा तुम्हें नींद का झोंका आ गया था या मेरे श्याम रंग की अपेक्षा शिशुपाल के गोरे रंग की याद आ गई थी।जवाब में राधा कहती है नहीं श्री कृष्ण तुम्हारे अलावा मुझे और किसी का ध्यान कैसे आएगा। वैसे भी तुम तो मेरे माथे का मोड़ (मुकुट) हो और वो शिशुपाल तो मेरे पैरों की जूती के समान है। गीत में श्री कृष्ण फिर चुटकी लेते हुए कहते हैं राधा वो मोड़ वाला साज शृंगार तो छठे-चौमासे, वार-त्यौहार ही किया जाता है। जूती तो रोज साथ रहती है पैरों में।कृष्ण के इस व्यंग्य से लजाई-सकुचाई राधा अपनी सखी-सहेलियों को सुनाते हुए सीख भी देती है इन पुरुषों की कंटीली बातों का कोई भरोसा नहीं। मेरी तरह तुम कोई ऐसी गलती मत कर बैठना, जो बोलो, सोच-समझ कर ही बोलना।विनोद का गीत खत्म होता है और सोनी जी कहते हैं ये गीत मासी जी (विनोद की मां) ने हमें सुनाया, कितनी अनूठी बात और राधा-कृष्ण के बीच का कितना मधुर हास-परिहास है। हमारी चर्चा चलती रहती है। इस बीच गांव के लोग आते-जाते रहते हैं। सतपाल नामक युवक से सोनी जी परिचय कराते हैं, यह शोध कर रहा है कहानियों पर। युवक संदीप राजस्थानी आंदोलन में अग्रणी है। समीप बैठे बुजुर्ग शिक्षक खीचड़ जी से विनोद परिचय कराते हैं पांचवीं में था मैं, गुरु जी ने मार-मार कर मुझसे पहली बार स्कूल में सभी के बीच पहली बार गीत गवाया। आज कविता पढ़ने-लिखने और मंचों पर गाने में जो अवसर मिल रहे हैं, वह सब गुरुजी के उस प्यार और मार का ही फल है। कमर दर्द से परेशान रहने वाले विनोद की मजबूरी है, ज्यादा देर बैठ नहीं सकते लेकिन जैसे ही मायड़ भाषा की बात, कविता की चर्चा शुरु होती है, चारपाई पर फिर उठकर बैठ जाते हैं। 'आंगन देहरी और दीवार' किताब के कुछ पन्ने पलटते हैं और छोटी-छोटी कविताएं भी सुनाते हैं। ये किताब मुझे भेंट करते हैं, सोनी जी भी लादू दादा के पेड़ प्रेम वाली पुस्तिका, बालगीत और करणीदान बारहठ की किताब सहित किसान जी की चर्चित किताब 'हिवड़ै उपजी पीड़' की फोटो प्रति भेंट करते हैं।कस्सी और कलम दोनों एक साथ चलाने वाले रामस्वरूप किसान परलीका के उस बू़ढे बरगद की तरह हैं, जिसकी जटा सोनी जी, स्वामी जी जैसे लेखकों के रूप में परलीका में अब बरगद बनती जा रही हैं। बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध को पढ़ने, उनका लिखा समझ पाने जितनी अकल तो मुझमें नहीं है, लेकिन रामस्वरूप किसान जी के साथ बैठकर उनकी बातों को सुनकर लगता है कि नागार्जुन, मुक्तिबोध का लेखन क्या है। जल, जंगल, जमीन की बात तो काफी हाउस में बैठकर भी की जा सकती है, लेकिन आप जब परलीका में इन लोगों के साथ बैठें तो लगेगा सर्वहारा का दर्द जानने-समझने और उसे व्यक्त करने वाले असली लोग तो यहां हैं।विनोद के काव्य पाठ के बाद सोनी जी का आग्रह था कि आइए कुछ देर किसान जी के खेत पर हो आएं। मैंने कहा कोई भरोसा नहीं किसान जी के बैल थककर सुस्ता रहे हों और किसान जी हमें बैलों की जगह जोत दें, फिर कभी चलेंगे।परलीका हमारे शेड्यूल में नहीं था। भादरा से सीधे हमें नोहर जाना था, लेकिन भादरा से गोगामे़डी में दर्शन पश्चात अरविंद मिश्रा (एसएमडी मैनेजर, दैनिक भास्कर) से अनुरोध किया था मिश्रा जी परलीका में 'आपणी भाषा' कॉलम के एसएन सोनी, विनोद स्वामी से मिलते चलेंगे। मिश्रा जी तैयार हो गए तो मैंने सोनी जी को एसएमएस कर दिया। उधर से उनका आग्रह भरा एसएमएस आया कि भोजन यहीं करना होगा। अब फिर मिश्राजी को सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा सर बाकी तो सभी जगह शिकवा-शिकायत सुनना-सुनाना है। चलें सर हमें भी अच्छा लगेगा। अब मैंने सोनी जी को एसएमएस किया, हम तीन लोग हैं, खाने में मूंग की दाल, रोटी और मिठाई में सीरा (हलवा) खाएंगे।खाना खाते वक्त मैंने सोनी जी से मजाक में कहा ऐसे मेहमान भी आपने कम ही देंखे होंगे, जो खाने का मेनू भी बताएं कि हम यह खाएंगे। सोनी जी ने विनम्रता से कहा यही तो अपनापन है। ऐसे ही ओंकारसिंह जी लखावत भी हैं। गोगामे़डी आ रहे थे, मुझे वहां आने का प्रयोजन बताया, साथ ही निर्देश दिए, खाना आपके घर ही खाऊंगा, मूंग की दाल-रोटी बनवाना।हम लोग खाना खाने बैठे। मेरे साथ किसान जी, मिश्रा जी के साथ सोनी जी, कमर दर्द का इलाज करा रहे विनोद परहेज के कारण खाने तो नहीं बैठे, लेकिन यह ध्यान जरूर रख रहे थे किसकी थाली में रोटी नहीं है, दाल किसे चाहिए और फोगले वाले रायते की मनुहार भी करते जा रहे थे। राजस्थानी भोजन परंपरा के बारे में बता रहे थे जब सगे-संबंधी एक साथ खाने बैठते हैं, तब पहला कोर दोनों एक-दूसरे को खिलाते हैं। अरविंद मिश्रा ने कहा आप पहले बताते तो हम भी ऐसा कर लेते। मैंने मिश्राजी से कहा कोई बात नहीं वैसा न भी कर पाए तो क्या, हम एक ही थाली में एक साथ खाना खा तो रहे हैं।सोनी जी के परिवार के बाकी सदस्य हलवा, सलाद, तली मिर्च, रोटी लाने में लगे हुए थे, इस सब के साथ आत्मीयता तो पानी के जग की तरह लबालब थी ही। खाने के बाद मैंने चाहा कि इस ऐतिहासिक अवसर की यादें सहेज लूं। मोबाइल का एक अच्छा सुख यह भी है कि कैमरे की कमी नहीं खटकती।ख्याली सहारण के गांव में हुए कवि सम्मेलन में बउवा बाढ़ पुरस्कार से सम्मानित प्रमोद (सोनी जी के छोटे पुत्र) को मोबाइल थमाया तो उसके चेहरे पर हल्की सी झिझक देखी फोटो कैसे खींचू? उसे फंक्शन की जानकारी समझाने की देरी थी की धड़ाधड़ फोटो खींचने लगा, कुछ फोटो विनोद जी ने भी लिए। राजस्थानी भाषा आंदोलन की गतिविधियों, आपणी भाषा संबंधी मैटर के साथ ही सोनी जी की कहानियों की पहली इंटरनेट बुक जारी करने वाले उनके बड़े पुत्र अजय ने इसी बीच मोबाइल के माइक्रो कार्ड को लेकर वो सारे फोटो अपने कंप्यूटर में डाउनलोड कर लिए। इक्कीसवीं सदी की ये अच्छाइयां परलीका जैसे छोटे से गांव में भी देखने को मिली।घरेलु आत्मीय वातावरण में भोजन करके हम बाहर निकले, इरादा तो नोहर की ओर रवाना होने का ही था, लेकिन विनोद स्वामी ने आग्रह कर लिया थोड़ी देर मेरे यहां रुकें, चाय पीकर जाएं। मैंने फिर मिश्रा जी की तरफ देखा इतनी देर में मिश्रा जी भी बनारस, महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी, बनारस की संकरी गलियों, विद्या निवास मिश्र जी सहित वहां के साहित्यिक वातावरण वाले अन्य प्रसंगों के कारण हमारी मंडली के ही सदस्य हो गए थे, लिहाजा विनोद जी के यहां चाय पीने पर सहमति हो गई। इसी बीच सोनी जी ने अपने पिता जी से परिचय करवाया। सुनारी कार्य में माहिर पिता जी ने ओलम्बा दिया, कभी हमारा नाम भी आपके अखबार में छापें। सोनी जी ने उम्र बताई की 75 से अधिक के हो गए हैं, लेकिन अपने काम में मुस्तैद हैं। मैंने सोनी जी को सुझाव दिया कि आप इन सहित परलीका के बुजुर्गों के फोटो और संस्मरण 'हमारे बुजुर्ग' कॉलम के लिए भिजवाएं।रास्ते में विनोद जी और सोनी जी हमारे पद-कद के संदर्भ में कहते चल रहे थे।

परलीका में आप लोगों का आगमन हमारे लिए बड़ी बात है। उनके इस कथन में बनावटीपन जरा भी नहीं था, क्योंकि रास्ते में चाहे उनका डाक्टर भतीजा(श्रवण) मिला या कोई और उन सभी से इसी तरह परिचय भी कराते चल रहे थे।विनोद जी के साथ मैं आगे चल रहा था, पीछे किसान जी कहते चले आ रहे थे, बहुत बड़ी बात है कि भास्कर के संपादक आए हैं। विनोद बड़ी सहजता से कह रहे थे, इससे पहले जब मेरा दोस्त कार लेकर गांव आता था तब मैं उसके साथ आगे की सीट पर आधी कोहनी बाहर निकालकर गांव का चक्कर जरूर लगाता था और जिन लोगों का ध्यान मेरी तरफ नहीं होता, उन्हें भी नाम पुकार कर जोर से राम-राम करता था। ताकि उन्हें बता सकूं देख लो आज मैं कार में बैठा हूं। आज मुझे उससे ज्यादा खुशी हो रही है। पीछे सोनी जी-किसान जी इसी तरह की बातों से हमारे आगमन की सार्थकता बताने का प्रयास कर रहे थे। मुझे मन ही मन ख्याल आ रहा था कि बड़े लोग कितने विनम्र और सहज होते हैं। ताज्जुब हो रहा था किसान जी जैसे कबीर श्रेणी के कवि-लेखक पर कि ये आदमी खेत में हल चलाते हुए लिखता है, चलते-चलते लिखता है और इनके पिता 72 वर्ष की उम्र में लिखना शुरू करते और 75 वर्ष में ढाई हजार दोहे लिख चुके हैं और पंजाबी में भी लिखते हैं। सोनी जी और विनोद को मैंने सलाह दी है कि उन पर संडे स्टोरी बना कर भेजे।विनोद के घर की ओर बढ़ते हुए मेरी नजर दांई तरफ पे़ड के नीचे बैठी भैंसों और उनके समीप जुगाली करते ऊंट की तरफ पड़ती है दूसरे ही पल ख्याल आता है जैसे यह ऊंट इस श्रोता समूह को अपनी रचना सुना रहा है और सोनी जी बस परिचय कराने ही वाले हैं कि इस गांव के ऊंट-भैंस भी साहित्यकर्म से जु़डे हैं।
मैं साड़ी को प्रणाम करता हूं

राजस्थान में पर्दा था का आलम क्या है यह परलीका में भी देखने को मिला। सोनी जी के यहां भोजन पश्चात हम रसोईघर के सामने से गुजर रहे थे कि सोनी जी ने मुझे एक पल के लिए रोक लिया। कक्ष में आवाज लगाई सुनो ये हैं कीर्ति राणा जी। भाभी जी (सावित्री) मु़डी, गेट की तरफ आने लगीं, सोनी जी ने अनुरोध किया घूंघट हटा ले। कक्ष में या बाहर आस-पास अन्य कोई बुजुर्ग भी नहीं था। सोनी जी के अनुरोध के बाद भी उन्होंने घूंघट से ही नमस्कार किया। मैंने सोनी जी से जब कहा- मैंने भी साड़ी को प्रणाम कर लिया है, तो उनका ठहाका गूंज उठा।बाहर हम कुछ दूर आ गए थे मैंने सोनी जी से कहा अरे अच्छे भोजन के लिए धन्यवाद देना तो भूल गए। सोनी जी ने कहा आप इन सब बातों का बड़ा ख्याल रखते हैं। मैंने भाभीजी से कहा मैं आपके अच्छे भोजन के लिए धन्यवाद देना जरूरी समझता हूं। अगली बार कभी आना हो और सोनी जी भोजन का आग्रह कर लें तो मुझे भूखा न लौटना पड़े।

आपने तो खूब नाम कर दिया

विनोद जी के यहां भी यहीं हाल था। भास्कर में छपी खबर के कारण शृंगार सामग्री की दुकान चलाने वाली उनकी पत्नी राज बाला को बस से गिरा दस हजार का सामान मिल गया था। विनोद जी ने उनसे परिचय कराया तो घूंघट के साथ ही उन्होंने प्रणाम किया और बोली भास्कर में छपी खबर से तो मेरा खूब नाम हो गया।

साहित्य की गंगा वाले गांव में गटर गंगा

समाज की विसंगतियों पर कलम के जरिए चोट करने की ताकत के मामले में पूरे राजस्थान में परलीका की विशेष पहचान है, लेकिन जब आप परलीका जाएं तो शायद मेरी तरह आप को भी यह बात खटकेगी कि इस गांव में घरों के सामने से गुजरने वाले मार्गों पर बीचो-बीच गंदे पानी की निकासी का इंतजाम है। कच्चा मार्ग तो पक्का बन गया, लेकिन नालियां गहरी नहीं हुई। लिहाजा गंदा पानी घरों के सामने बारहों महीने यहां-वहां फैला रहता है।गांव वाले जनभागीदारी और कारसेवा की ठान ले तो कीचड़-गंदगी के इन बारहमासी दृश्यों से राहत मिल सकती है। गांव के लोग 'नया दौर' जैसा कुछ करें तो खुदाई से नालियां गहरी की जा सकती हैं। उन पर लोहे की जालियां या फर्शियां लगाई जा सकती हैं। इस चेतना के लिए यहां के साहित्यकारों का तो असर इसलिए नहीं होगा, क्योंकि गांव में कोई घर ऐसा नहीं जहां लिखने-पढ़ने वाले न हों। अच्छा भी है खूबसूरत चांद को भी तो दाग साथ में दिए हैं, राजस्थान के ऐसे चिंतनशील गांव में ऐसा न हो तो दिया तले अंधेरा वाली कहावत कौन याद रखेगा।

Thursday 9 April 2009

कुछ तो रहम कीजिए, गाय ने क्या बिगाड़ा है आपका!

साथियों के साथ कार्यालय में हम लोग नाश्ता कर रहे थे। मैंने कचोरी खाना शुरू ही की थी कि कंकर आ गया। मैंने पानी का घूंट लिया दांतों के बीच फंसे कंकर को निकालने के लिए सिर हिलाया जैसे-तैसे दांतों में पिस चुका कंकर तो निकल गया लेकिन इस सारी प्रक्रिया के दौरान मुझे सुखाçड़या सर्किल वाली सड़क के किनारे कचरे के ढेर के पास खड़ी वह गाय याद आ गई जिसके दांतों में पोलीथिन की थैली उलझी हुई थी और वह सिर को हिला-हिलाकर थैली में भरे फलों के छिलके-जूठन खाने के प्रयास में असफल होने के बाद पूरी थैली ही जबड़ों में चबाने के बाद निगल रही थी। कचोरी के मसाले में आए एक जरा से कंकर ने मुझे जितना विचलित किया उससे ज्यादा मुझे अब उस गाय सहित तमाम पशुओं पर दया आ रही थी जो अंजाने में हमारी गलतियों के कारण मौत का शिकार हो रहे हैं। कचरे के ढेर में पोलीथिन की थैलियों में भरकर फेंकी गई जूठन के लिए झपटते जानवरों को आपने भी देखा ही होगा। लगभग सभी परिवारों की आदत सी हो गई है सुबह जिस थैली में किरयाने का सामान या सŽजी लाते हैं उन्हीं थैलियों में रात की बची सŽजी, जूठन, कचरा आदि भरकर महिलाएं सड़क पर या समीप वाले खाली प्लाट पर एकत्र कचरे के ढेर की तरफ उछाल देती हैं। यही पोलीथिन न जाने कितनी गौमाता की हत्या के पाप का भागीदार बना रही है हमें। मोटे इनाम के लालच के साथ आपको कोई पोलीथिन में पैक पकवान खाने को दे तब भी आप साहस नहीं दिखाएंगे, क्योंकि हमे अपनी जान प्यारी है। जब हमें अपनी इतनी चिंता है तो मूक जानवरों की जान के ग्राहक बनते वक्त क्यों नहीं हिचकिचाते! परिवार के मंगल कायोZ में तो हम सवा पांच रुपए का संकल्प छोड़कर गौ दान का पुण्य कमा लेना चाहते हैं लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब हम गौ हत्या के ऐसे प्रयासों में भागीदार न बनते हों। रसोईघर में खाना बनाते वक्त गृहणियां पहली रोटी गाय की निकालती हैं और अंत में बचे आटे की रोटी कुžो के नाम होती है। यानी पीढ़ियों से संस्कार तो हमें जीव रक्षा के ही मिले हैं किंतु पोलीथिन वाले कुसंस्कार हमें मूक पशुओं की नजर में पापी बना रहे हैं। वैसे तो नगर परिषद का दायित्व है शहर को पोलीथिन प्रदूषण मुक्त बनाना, याद आती है तो अभियान चलाया भी जाता है लेकिन असर इसलिए नहीं दिखता कि परिषद का अमला ड्यूटी समझकर काम करता है। शहर में बारिश के महीनों में बाढ़ की जो स्थिति बनती है उसमें और सफाईकर्मियों के चाय-पानी के इंतजाम में भी पोलीथिन का बड़ा योगदान है। पोलीथिन का विकल्प कागज नहीं तो कपड़े की थैलियां भी तो हो सकती हैं। गौ माता की चिंता करने वाले संगठनों को ही कुछ करना चाहिए ताकि ये शहर पोलीथिन के इस पाप से मुक्त हो सके। प्रशासन भी समझाए दुकानदारों को कि हल्की क्वालिटी वाली पोलीथिन का उपयोग न करें, फल-बिस्किट बांटने वाले क्लब सस्ते मूल्य पर कपड़े या जूट की थैलियां उपलŽध कराएं तो पोलीथिन का उपयोग स्वतज् कम होने लगेगा। याद रहेंगे `हमारे हनुमानं
जैसे रामायण बिना हनुमान के जिक्र के अधूरी मानी जाएगी वैसे ही श्रीगंगानगर के ऐतिहासिक कार्यक्रमों की चर्चा `हमारे हनुमानं के उल्लेख बिना पूरी नहीं होगी। धार्मिक कार्यक्रम तो इस शहर में होते ही रहेंगे लेकिन सफलता वहीं नजर आएगी जहां मारवाड़ी युवा मंच जैसी टीम और रवींद्र लीला जैसे टीम लीडर होंगे। कार्यक्रम चाहे छोटा हो या बड़ा, ऐसी सफलता तभी मिल सकती है जब कार्यकर्ताओं में टीम भावना हो। दूर क्यों जाएं क्रिकेट कप्तान महेंद्रसिंह धोनी और टीम इंडिया को ही देख लें ऐतिहासिक सफलता का कारण टीम भावना ही तो है।
वक्त की कीमत कब पहचानेंगे
बात संस्कारों की चली है तो हमें बचपन से वक्त के साथ चलने की सीख दी जाती है लेकिन हम हैं कि वक्त को अपने मुताबिक चलाने में शान समझते हैं। नतीजा यह होता है कि समय का समान करने वालों की स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। बिहाणी शिक्षण न्यास के कवि समेलन में नामचीन कवि गोपालदास नीरज को सुनने समय से क्भ् मिनट पहले पहुंचे श्रोताओं ने तो आमंत्रण पत्र के निर्देशों का पालन किया लेकिन आयोजकों ने ही करीब डेढ़ घंटे विलंब से कार्यक्रम शुरू किया। कवि, आयोजक और श्रोता तीनों ही वर्ग पढ़े-लिखे हैं, बचपन से कई परीक्षा दी और एक-एक मिनट का महत्व भी पता है। सभा-समेलनों में विलंब से पहुंचने वाले लोग सिनेमा, शोक बैठक, रेल-प्लेन की यात्रा में ठीक समय से पहुंचना भी जानते हैं लेकिन अवसर मिलते ही वक्त को अपने मुताबिक चलाने में नहीं चूकते। कवि नीरज के कारण समेलन में थोड़े बहुत लोग नजर भी आए बाकी कवि तो बस ठीक ही थे।
पहले çढलाई और अब सफाई
हनुमानगढ़ में कलेक्टर ने सेंट्रल जेल का जब से आकçस्मक निरीक्षण किया है जेल अधिकारी सफाई के पैबंद लगाने में पसीना बहाए जा रहे हैं। यह तो ऐसा ही हुआ कि अंधे को अंधा क्यों कहा। जेल में चलने वाले खेल किसी से छुपे नहीं हैं लेकिन स्टाफ की हालत उस बिल्ली के समान है जो दूध पीते वक्त आंखें यह सोचकर मूंदे रहती है कि बाकी लोगों ने भी आंखें बंद कर रखी होंगी। अच्छा होता कि जेल प्रशासन अपनी खमियां दूर करने में सजगता दिखाता। खैर, इस अवलोकन का असर यह हुआ कि श्रीगंगानगर में भी प्रशासन थोड़ा अलर्ट हुआ। प्रशासन की अलर्टनेस के भी क्या कहने? तपोवन Žलड बैंक स्टाफ ने जिले के गांव में शिविर लगाया तो अनुमति नहीं होने का हवाला देकर Žलड बैंक वालों को चमका दिया। दो साल में शासन ने अनुमति नहीं दी तो Žलड बैंक वालों का क्या दोष? कहीं न कहीं बात आती तो जिला प्रशासन पर ही है।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा.

Thursday 2 April 2009

मुश्किल नहीं है परिदों की भाषा समझना

मुझे बड़ी जलन होती है जब प्रेमनगर में मेरे ठीक सामने रहने वाले सरदार जगमोहन सिंह (रायल फनीüचर) के मकान की छत पर सुबह शाम परिंदे चहचहाते हैं। कभी चिçड़या तो कभी तोतों का झुंड हथाई (चर्चा) करता है। परिंदे आते हैं, चहचहाते हैं, चोंच में दाना-पानी भरते और उड़ जाते हैं। कुछ बरस पहले तक तो परिंदे हम सभी के घर-आंगन में फुदकते रहते थे, दाल-चावल बीनते मां, भाभी कुछ दानें इन्हें भी डाल देती थी। परिंदे तो अब भी हैं लेकिन ऊंचे उठते मकानों और मकानों में मजबूत होती बंटवारे की दीवारों ने इन पंछियों का प्रवेश प्रतिबंधित सा कर दिया है। गांवों में अभी खुलापन है, अपनापन है इसलिए मोर भी आंगन-मुंडेर पर मंडराते रहते हैं।
अब जिस तरह दिन तपने लगे हैं तो आप ही की तरह मेरी चिंता भी यही है कि पारा जब ब्7 से भ्0 की ओर बढ़ता जाएगा तब हम तो कूलर, एसी की मदद ले लेंगे, दाना-पानी की तलाश में भटकते इन परिंदों का क्या होगा, बुजुर्ग कहते हैं ऊपर वाला भूखा उठाता है लेकिन भूखा सुलाता नहीं। ये परिंदे तो कह भी नहीं सकते प्यास लगी है पानी पिला दीजिए। सड़कों के किनारे, चौराहों के आसपास प्याऊ लगाने के दिन आ ही गए हैं अच्छा होगा कि बेजुबान पशु-पक्षियों के लिए भी हम कुछ ऐसा ही सोचें। कॉलोनियों में रहने वाले कई परिवारों ने घर के बाहर पशु-पक्षियों के लिए पानी की टंकी बना रखी है उसकी नियमित सफाई, पानी से लबालब रखने के यही तो दिन हैं। परिंदे आप को थैंक्स तो नहीं कहेंगे लेकिन जब आपके मकान की मुंडेर पर वे चहचहाते नजर आएं तो मान लीजिएगा सामूहिक रूप से आपके प्रति आभार भी व्यक्त कर रहे हैं।
बेवजह नुकसान हुआ
तामकोट (पदमपुर) में बच्चों को निज्शुल्क कोचिंग देने वाले स. मलकीत सिंह की नाराजगी है कि दसवीं सामाजिक विज्ञान का पर्चा आउट होने से उन सैकड़ों बच्चों का तो नुकसान ही हुआ है जो पूरी ईमानदारी से दिन-रात मेहनत करके पर्चा देने गए थे। मात्र क्0-ख्0 प्रतिशत विद्यार्थियों के कारण बाकी को नुकसान उठाना पड़ा। विद्यार्थी के बौद्धिक स्तर को समझने वाले मलकीत सिंह की बात में दम है कि एक घंटे पहले भी छात्रों को प्रश्न बता दिए जाएं तो हल वही कर पाएंगे जिन्होंने वर्ष भर मेहनत की है। वरना तो परीक्षा हाल में किताबें उपलŽध करा दी जाएं तब भी कई परीक्षार्थी सही उत्तर नहीं ढूंढ पाएं। एक पेरेंट्स या टीचर के नाते उनकी या पढ़ाकू बच्चों की चिंता सही है कि मीडिया ने पर्चा आउट की खबर छाप कर बच्चों की वर्ष भर की मेहनत पर पानी फेर दिया। काश इन पेरेंट्स की तरह वो लोग भी सोच लें जिनके थोड़े से स्वार्थ के कारण पर्चे लीक होने की खबरें बन रही हैं। ये लोग भी शिक्षा विभाग से जुड़े कर्मचारी हैं! इन्हें इनके गुरुजनों ने तो शिक्षा में सौदेबाजी जैसे संस्कार कतई नहीं दिए होंगे।
ये कैसी नहरबंदी
चर्चा चिंता की ही चली है तो पानी बचाने के लिए अब नहरबंदी का वक्त आ गया है। हर साल नहरबंदी होती तो है किसानों के नाम पर लेकिन परेशान भी वे ही सर्वाधिक होते हैं। इस जल भंडारण के बावजूद टेल के किसानों को अपनी और खेत की प्यास बुझाने के लिए पानी नहीं मिल पाता लेकिन जहां विभागीय अमले और किसानों के बीच सांठ-गांठ हो जाती है वहां नहरबंदी बेअसर हो जाती है।
बात निकलेगी तो फिर...
पूर्व मुयमंत्री वसुंधरा राजे की चुनावी सभाओं के बाद अब इस संसदीय क्षेत्र में भी चुनावी सरगर्मी तेज होने लगी है। वैसे इस चुनाव का यह फायदा तो हुआ कि वसुंधरा ने गंगानगर शहर में कदम तो रखा। सीएम रहते तो शहर की याद ही नहीं आई। शहर में आई, सभा की। किसी के यहां मिन्नतों के बाद पहुंची तो विधायक राधेश्याम के यहां मिन्नतों के बाद जुटे मीडियाकर्मियों से सीधे मुंह बात तक नहीं की। खोज करना चाहिए कि क्या कारण रहे कि सूरतगढ़ में तो बात की और यहां झांकी बिगाड़ दी। कुछ ऐसी ही बेबात की बात कांग्रेस में भी चल रही है। प्रदेश और देश के नेता भले ही कांग्रेस प्रत्याशियों को जिताने के लिए पार्टीजनों से एकजुट होकर काम करने का आuान करते रहें यहां तो प्रेस कांफे्रंस करके मीडिया को जानकारी दे रहे हैं कि मंजिल तो हमारी एक है पर रास्ते अलग-अलग हैं। एक महीना ही तो बचा है पता चल जाएगा कौन किस रास्ते पर चला था।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...

कम लोगों को क्यों आते हैं ऐसे याल

मन तो सभी का करता है रूढ़ियों को तोड़ने, अच्छाइयों को अपनाने का लेकिन साहस कितने लोग जुटा पाते हैं। किसी के कदम समाज क्या कहेगा के भय से नहीं उठ पाते तो किसी को जग हंसाई की चिंता सताने लगती है। और फिर राजस्थान तो वैसे ही रूढ़ियों के जंजाल मेंे उलझा माना जाता है ऐसे में यदि याली सहारण अपने पिता के तेरहवें पर हास्य कवि समेलन कराए, राजस्थानी भाषा आंदोलन से जुड़े भाषा के सपूतों का समान करे तो ऐसे विचारों की दिल खोलकर सराहना की ही जानी चाहिए।
सोचने की शçक्त सिर्फ इंसानों को ही मिली हुई है। यह गॉड गिट पशुओं को मिली होती तो इंसान-पशु में फर्क ही नहीं होता। यह बात अलग है कि अच्छा-बुरा सोचने वाला इंसान कई बार पशु से भी बदतर नजर आता है।
टीवी और फिल्मी पर्दे पर राजस्थान का नाम रोशन करने वाले याली सहारण के लिए बहुत आसान था कि चौधरी दौलतराम सहारण के नाम से प्रतिमा लगा देते या दस-बीस हजार लोगों को भोज करा के गांव में नाम कमा लेते लेकिन लीक से हटकर न चले तो कलाकार ही क्या। मृत्युभोज के बदले उन्होंने फ्क् मार्च को अपने गांव क्त्त् एसपीडी में विनोद स्वामी और रामदास बरवाळी को समानित करने के साथ ही हास्य कवि समेलन कराने का फैसला किया है, जो बाकी लोगों को भी कुछ अनूठा करने और सोचने की प्रेरणा भी देता है। जब यह पता ही है कि जो आया है उसे देर सबेर जाना ही है तो फिर दुख कैसा और कितने दिन का? हर परिवार में पूजाघर और ईष्टदेव के साथ गीता, सहित बाकी धर्मग्रंथ भी हैं, लेकिन हमने इन ग्रंथों को लाल कपड़े में बांधकर उस पर चंदन-कुमकुम के टीले बना दिए हैं। याली ने जो सोचा है नया कुछ नहीं है गीता जो कहती है, ओशो ने जो कहा और आर्ट आफ लिविंग के प्रणेता श्रीश्री रविशंकर सहित बाकी धर्मगुरु भी यही कहते हैं दुज्ख में भी मुस्कुराना सीखो। याली खुद तो हंसाते ही हैं बाकी को भी ऐसे ही दुज्खों में मुस्कुराने का नुस्खा बता दिया है।
अब पुलिस से हमददीü
वैसे भी आज जब दुनिया का रिवाज मुंह पर तारीफ और पीठ फेरते ही निंदा गान वाला हो ऐसे में मुंह पर आलोचना तो कोई कैसे सुनना पसंद करेगा भले ही बात सच्ची क्यों न हो। भादरा में स्कूली छात्रा कृष्णा जोगी के हत्यारों की खोज में अंधेरे में हाथ-पैर मार रही पुलिस से किसे हमददीü नहीं होगी। लेकिन मृतका के परिजन भी जब पुलिस से विश्वास उठने की बात कहें तो ऐसी आलोचना पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले पुलिस अमले को यह भी तो सोचना चाहिए कि विश्वास का दरिया सूखकर धधकती खाई में क्यों और कैसे बदल गया। बात विश्वास की ही चली है तो हनुमानगढ़ से लेकर गंगानगर तक अभिभाषक भी सड़कों पर उतर आए हैं, जो कानून के रखवाले कहाएं वे ही अंगुली उठाने लगे तो बाकी समाज के आंसू कौन पोछेगा। पुलिस ने प्रकरण सच्चा दर्ज किया या झूठ का पुलिंदा है, यह साबित तो न्यायालय में ही होगा जो कानून दूध का दूध, पानी का पानी करता है कानून की उसी किताब ने पुलिस को भी तो कुछ अधिकार दिए हैं। धोखाधड़ी के कथित आरोपी विनोद एरन सही है या व्यापारी गलत, पुलिस ने मनमानी की या नहीं यह फैसला तो न्यायालय भी बहस, दस्तावेज, प्रमाण के बाद ही करेगा ना। फिर जिले के बाकी लोग क्यों परेशान हों, वर्क सस्पेंड से
आग ठंडी ही रहे सूरतगढ़ में
बेमतलब भड़कने वाली आग को कम से कम सूरतगढ़ पर तो रहम ही करना चाहिए क्योंकि प्रशासन की बेरहमी के कारण यहां अçग्नशमन वाहन जैसी सुविधा छीन ली गई है। यहां वाहन था लेकिन दो साल से श्रीगंगानगर में उपयोग हो रहा है और पालिका का वाहन खराब पड़ा हुआ है। अभी इस कस्बे में भी शीतला अष्टमी का पर्व मनाया गया है। जाहिर है सभी समाजों ने यही प्रार्थना की होगी कि हमारे कस्बे में आग ठंडी ही रखना।
अब फैसला आपको करना है
लोकसभा चुनाव के प्रत्याशी घोषित हो गए हैं इधर भी मेघवाल है और उधर भी मेघवाल है। दोनों में कौन कितना खरा और कितना खोटा है इसका फैसला आपको करना है और सही फैसला नहीं हुआ तो पांच साल आपको ही भुगतना है। इस फैसले के बाद सो मत जाना, क्योंकि फिर परिषद और पालिका के चुनाव आ रहे हैं। तब तो और ज्यादा सोच-समझकर मोहर लगाना। एक बार जिले की समस्या दूर न हुई तो चल जाएगा। क्योंकि आपका वास्ता तो आपके वार्ड से पड़ता है।
ऐसे में थोड़ी सी भी लापरवाही या लालच पूरे वार्ड के लिए भारी पड़ सकता है।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा...