पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 29 December 2010

कुछ तो संकल्प लिया होगा आपने

साल की शुरुआत कैसी हो, जब यह हमे ही तय करना है तो क्याें ना कुछ अच्छे से ही आरंभ करें. रोज ना सही महीने या साल मे तो कुछ अच्छा कर ही सकते हैं। इस अच्छा करने की सीधी सी परिभाषा है जिस काम को करके आप के मन के अंदर खुशी का झरना फूट पड़े। इसके लिये हजारों-लाखाें भी खर्च नहीं करने पड़ते, कई बार तो तन और मन को भी अच्छे काम में लगाया जा सकता है। इस नए साल मे किसी एक उदास चेहरे पर मुस्कान लाने का ही संकल्प लिया जा सकता है, यह भी खर्चीला लगता हो तो घर में पानी, बिजली, टेलीफोन, पेट्रोल की फिजूलखर्ची रोकने का संकल्प तो इस बढती महंगाई मे हमें ही राहत देने वाला साबित हो सकता है।

कपड़े तैयार कर लिए क्या? मेरे इस प्रश्न के जवाब में दूसरी तरफ से फोन पर दोस्त ने कहा इस बार कपड़ों के साथ कुछ दोस्तों से भी मदद ली है, ठंड इस बार कुछ ज्यादा है ना. इन दोस्तों ने गर्म कपडे ज़ुटाए हैं, अब तक तीन-चार बडे पैकेट तैयार हो गए हैं. हम लोग अगले सप्ताह निकलेंगे।
नए साल को सब अपने-अपने अंदाज में मनाते हैं उद्देश्य यही रहता है कि साल की शुरुआत यादगार बन जाए, अन्य शहर में रहने वाले मेरे एक दोस्त साल के अंतिम सप्ताह से ही नए साल के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं। परिवार के बडे-छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे कपडे प्रेस करा लेते हैं, बच्चाें के लिए चाकलेट-खिलौने जुटाते हैं, इस सब के लिये जो खर्च होता है उसका इंतजाम भी इस तरह करते हैं कि एकदम आर्थिक बोझ ना पड़े परिवार के सभी बडे सदस्य प्रति सप्ताह पांच रु. जमा करते हैं. बच्चों को भी कुछ राशि हर माह बचाने के लिये प्रेरित किया जाता है, साल के अंत मे इस सारी जमा राशि से सामान खरीद लेते हैं।
क्या हम भी इस तरह से नये साल की शुरुआत नहीं कर सकते? हम भी हर माह कुछ ना कुछ फिजूलखर्ची तो करते ही हैं, उसमें कटौती करके पैसा बचा सकते हैं, हम नए कपडे, ग़र्म कपड़े लगभग हर साल खरीदते तो रहते हैं लेकिन छोटे और पुराने होते कपड़ाें के ढेर का क्या करें तय नहीं कर पाते, जबकि हमारे आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनके लिये ये कपड़े नए के समान होते हैं। हमारी ठंड दो-तीन गर्म कपड़ों के बाद भी कम नहीं हो पाती लेकिन कोई है कि जगह-जगह छेद वाले स्वेटर मे ही तीखी हवाओं का सामना करने को मजबूर हैं, हमारे पास धन की कमी हो सकती है लेकिन मन मे दया भाव किसी कोठी वाले से कम नही. हम सारे समाज के पीडिताें के चेहरे पर मुस्कान नही ला सकते लेकिन किसी एक के चेहरे पर तो चमक ला ही सकते हैं।
समीप के सरकारी अस्पताल मे दाखिल ऐसे मरीज भी मिल जाएंगे जिनके परिजनो के पास महंगी दवाई, ऑपरेशन का सामान खरीदने के लिये पर्याप्त पैसा नही होता. एक बोतल खून जुटाना भी इनके लिये सबसे चुनौतीपूर्ण रहता है। किसी एक मरीज के मन मे हमारी भगवान जैसी छवि तो बनाने का प्रयास करके तो देखें पर हमारी मानसिकता तो ऐसी हो गई है कि हम अस्पताल से स्वस्थ होकर घर लौटते वक्त प्रार्थना तो यह करते हैं कि फिर कभी अस्पताल का मुंह ना देखना पड़े लेकिन बची हुई दवाइया खजाने की तरह अपने साथ घर लेकर आ जाते हैं और कुछ दिनो बाद खुद ही इसे कचरे के ढेर पर फेक भी देते हैं, हम यह याद रखना ही नहीं चाहते कि जिन दवाइयों ने हमें जीवनदान दिया वही बची दवाइया किसी गरीब मरीज के भी काम आ सकती हैं। हम सोचते ही नहीं कि अस्पताल मे एक काउंटर ऐसा भी है जहा बची हुई दवाइया इसी उद्देश्य से एकत्र की जाती हैं कि असहाय मरीजों की मदद हो जाए जिस दवाई का हम पैसा दे चुके होते है, उन सारी दवाइयों को थोडे मोलभाव के बाद फिर से उसी दुकानदार को बेच देते हैं। पुराने कपड़ाें से हमें बर्तन खरीदना, इन कपड़ों को कार की सफाई के लिये उपयोग मे लाना ज्यादा आसान लगता है। आसपास के मित्रों को प्रेरित कर के हम पुराने कपड़ों को जरूरतमंदों तक पहुचाने के बारे में क्यों नहीं सोच सकते।
नए साल पर हम कोई ना कोई संकल्प लेते ही हैं, एक संकल्प किसी अच्छे काम को शुरू करने का भी तो ले सकते हैं और किसी के भले के लिये नही तो अपनी किसी बुरी आदत को छोड़ने की हिम्मत भी नहीं दिखा सकते? हमें याद ही नहीं रहता खुद अपने बच्चो, पत्नी से कई बार इस तरह पेश आते हैं कि अकेले में खुद हमें इस पर अफसोस होता है क्योंकि इस तरह का व्यवहार हम अपने लिये भी पसंद नहीं करते, इतना भी नहीं कर सकते तो पानी-बिजली, मोबाइल, पेट्रोल की फिजूलखर्ची ना करने का प्रण भी कर सकते हैं, ये सारी चीजे भी फिजूल लगती हो तो हम सोने से पहले आज का दिन बेहतर तरीके से गुजरने पर ईश्वर के प्रति धन्यवाद तो व्यक्त कर ही सकते हैं, इस काम मे ना तो एक धेला खर्च होना है और न ही इस दो-चार मिनट की मौन प्रार्थना का लाभ हमारे दुश्मन को मिलना है, हम जो भी करते हैं पहले उसमे अपना स्वार्थ देखते हैं कभी बिना स्वार्थ के कुछ कर के देखे तो सही, उस वक्त सुख की जो अनुभूति होगी वह यादगार तो होगी ही, तब ही पता चलेगा कि मन के अंदर खुशी का झरना किस तरह बहता है।

Thursday 23 December 2010

हर दिन हो जाए साल के पहले दिन जैसा

हम जिस व्यवहार की अपेक्षा नही करते किसी दिन वैसा हमारे साथ हो जाए तो? कई दिनो तक ना तो हम ठीक से सो पाते है और ना ही उस व्यक्ति को भूल पाते हैं. हम भी तो पूरे साल जाने-अंजाने में कितने लोगों से अप्रत्याशित तरीके से पेश आते हैं. क्या वो सारे लोग हमें भी भूल पाते हाेंगे? साल के पहले दिन हम सब के साथ अच्छे से पेश आते भी हैं तो अपने स्वार्थ के कारण कि हमारा पूरा साल सुख-शांति से बीत जाए. हमारा हर दिन अच्छा बीत सकता है बशर्ते हम हर दिन को साल के पहले दिन की तरह जीना सीख लें और इतना याद रख लेकिन ईश्वर ने दिल और जुबान बनाते वक्त ह्ड्डी का इस्तेमाल इसीलिए नहीं किया क्योंकि उसे इनके इस्तेमाल में कठोरता पसन्द नहीं है।
अरे, अब नए साल में बस एक सप्ताह बचा है! जैसे-जैसे दिसम्बर अंतिम सांसे गिन रहा है, नए साल के आगमन की आहट भी तेज होती जा रही है. समाप्त होता यह साल हमे यह कहने को तो मजबूर करता ही है कि पता ही नहीं चला कितनी जल्दी बीत गया यह साल. हम में से ज्यादातर लोगो को साल के पहले दिन या दीवाली वाले दिन अपने बचपन के साथ ही परिवार के बुजुर्गों की वह सीख भी याद आ जाती है जब भाई-बहन या पड़ौस के दोस्त से झगडे की शुरुआत ही होती थी कि दादी-नानी प्यार से समझाने आ जाती थीं. आज के दिन तो मत झगड़ो नहीं तो पूरे साल लड़ते-झगड़ते रहोगे। बचपन मे मिले इन संस्कारों की छाप हमारे मन पर इतनी गहरी पड़ी हुई है कि अब हम तो साल के पहले दिन इस बात का ध्यान रखते ही है, साथ ही बच्चों को भी उसी अन्दाज में समझाते हैं।

साल के उस पहले दिन के 24 घंटाें ंका हिसाब तो हम सब के दिलो-दिमाग मे दर्ज रहता है लेकिन बाकी 364 दिनाें का हिसाब उन लोगों के पास सुरक्षित रहता है जो काम और बिना काम के हम से मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। जरूरी नहीं कि कोई बार-बार ही मिले, किसी से बार-बार मिलने के बाद भी वह शख्स हमें पसन्द नही आता इसी तरह हमे भी कहा याद रहता है कि जो हमसे मात्र एक बार कुछ पल के लिए ही मिला था हम उसे खुश कर पाए या नहीं।
दुकानदार के लिए ग्राहकों की कमी नहीं है और हर ग्राहक खरीदारी कर के ही जाए यह भी जरूरी नहीं, लेकिन सफल दुकानदार वही है जो हर ग्राहक का मुस्कुराते हुए स्वागत करता है और जो ग्राहक के आगमन पर अपनी कुर्सी से उठना, पेट का पानी हिलाना भी पसन्द नहीं करता वह यह भी नहीं समझ पाता कि पड़ौसी दुकानदार को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही और वह मक्खी मारने वाली मुद्रा में सुबह से शाम तक क्यों बैठा रहता है जबकि दोनों दुकाना पर एक ही कम्पनी का माल समान भाव में ही मिलता है।
जब हम साल के पहले दिन सबसे बेहतर तरीके से पेश आ सकते है तो पूरे साल क्यों नहीं? यह असम्भव भी नहीं है क्योकि पहले दिन तो हम बेहतर एक्टर साबित हो ही गए है। उस एक दिन भी हमारा स्वार्थ यही रहता है कि यह पहला दिन अच्छा बीत जाए। हमें अपने भले की तो चिंता रहती है लेकिन हमारे कारण किसी का मन ना दुखे, किसी का दिन, किसी का मूड खराब ना हो इसकी चिंता क्यों नहीं रहती। हम एक दिन में कितने लोगों की हंसी-खुशी का कारण बने यह हम बार-बार गिनाते हैं, लेकिन बाकी पूरे साल क्या हम वैसा व्यवहार कर पाते हैं? तो क्या माना जाए साल के पहले दिन की शुरुआत हम मुखौटा लगा कर करते हैं या बाकी दिनों में अपने असली चेहरे के साथ जीते हैं।
यह भी तो हो सकता है कि किसी और की सलाह मान कर अच्छे की शुरुआत करने की अपेक्षा साल के पहले दिन ही यह संकल्प लें कि बनते कोशिश हर दिन यह प्रयास करेंगे कि अपने कार्य-व्यवहार से किसी का दिल नहीं दुखाएंगे, यह संकल्प लेना हमारे इसलिए भी आसान है कि हम भी किसी से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करते, कोई और रखे ना रखे हम तो हर दिन का हिसाब हाथोहाथ आसानी से पता कर सकते हैं - या तो हम किसी की खुशी का कारण बन जाएं या किसी को अपनी खुशी में बिना किसी स्वार्थ के शामिल कर लें। कहते है भगवान कभी भी हमारे दिल और जुबान में कठोरता पसन्द नहीं करता इसलिए ही इन दोनों को बिना हड्डी के बनाया है। दिल और जुबान के कारण ही तो संसार में प्यार और नफरत का कारोबार फलफूल रहा है. तो नए साल में अच्छा करने के लिए पहला दिन ही क्यों? हर दिन साल के पहले दिन जैसा भी तो हो सकता हैं।

Wednesday 15 December 2010

एक बार मिल तो लीजिए

हमारे पास सोशल नेटवर्किंग के लिए तो वक्त खूब है, जिन्हें हम जानते तक नहीं उन अंजान लोगों को फेसबुक पर एक क्लिक करते ही मित्र बना कर हम कितने उत्साहित होते हैं लेकिन हमारे आसपास जो लोग रोज हमसे नजरें मिलाते गुजरते हैं उनसे हेलो-हाय में हमारा दम्भ आड़े आ जाता है। हम लोगों से मिलने, उन्हें जानने-समझने से पहले ही धारणा बना लेते हैं कौन अच्छा और कौन नकचड़ा है। विज्ञापनों की भाषा में भी बदलाव आया है कि पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वाश करें, हमारे दिलो-दिमाग को तो ये आसान सी बात भी समझ नहीं आ रही है।बहुत ही नजदीकी दोस्त के परिवार में शादी समारोह था। जाना तो मुझे भी परिवार सहित था लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाया। मैंने उसी शहर में पढ़ रही और होस्टल में रह रही बिटिया से अनुरोध किया कि वह पूरे परिवार की तरफ से शामिल हो जाए। मुझे जिस उत्तर की अपेक्षा थी बिल्कुल उसी अंदाज में उसने झुंझलाहट भरे लहजे में कहा मैं जिन्हें जानती तक नहीं, जो लोग मुझे भी नहीं जानते वहां जाकर मैं क्या करूंगी? मैंने अपने तरीके से उसे समझाने की कोशिश की जब तक हम किसी से मिलेंगे नहीं एक-दूसरे को कैसे जाने-पहचानेंगे?
खैर, मेरे अनुरोध पर उसने मन मारकर वहां जाने की सहमति दे दी। मैं तो मान कर ही चल रहा था कि अगली सुबह वह फोन करके अपनी भड़ास निकालेगी। मेरा यह अनुमान तब गलत साबित हो गया जब उसी रात उसने शादी समारोह से बाहर निकलते ही मुझे फोन लगाया और उत्साह से बताती रही कि वहां जाकर उसे बहुत अच्छा लगा। परिवार के जितने लोगों से भी मिली यह लगा ही नहीं कि वह उन सबसे पहली बार मिल रही है। सभी लोगों ने उसका उत्साह और पारिवारिक आत्मीयता के साथ स्वागत किया और परिवार का कोई न कोई सदस्य पूरे वक्त न सिर्फ उसके साथ रहा वरन बाकी रिश्तेदारों से भी मिलवाया।
मैंने उसकी सारी बात सुनने के बाद पूछा अच्छा बता तेरी पहले से बनाई धारणा गलत साबित हुई या नहीं? उसने बिना किसी किंतु-परंतु के मान लिया कि आप सही कह रहे थे। हमेशा कि तरह मैंने पूछा इस सारे प्रसंग से हमें क्या सीखने को मिला? उसका जवाब था कभी भी किसी इंसान के बारे में पहले से कोई धारणा नहीं बनाना चाहिए।
पर हम सब ऐसा कहां कर पाते हैं। कुछ हमारा अपना अहम और कुछ चेहरा देख कर लोगों के बारे में अनुमान लगा लेने के अपने झूठे दम्भ के कारण कई बार हम लोगों को पहचानने में भूल भी कर बैठते हैं लेकिन अपनी गलती को मानने का साहस फिर भी नहीं दिखा पाते। हम जिसके बारे में अनुमान लगाते हैं कि वह शख्स बहुत अच्छा होगा, वह एक-दो मुलाकात के बाद ही मतलबी नजर आने लगता है। और जिसका चेहरा देखकर हम सोच लेते हैं कि वह तो बहुत घमंडी होगा, वह नेकदिल और आधी रात में भी मदद के लिए तत्पर रहने वाला निकलता है।
इसमें ऐसे सारे लोगों का कम हमारा खुद का दोष ही ज्यादा होता है। क्योंकि हम खुद तय करते हैं किससे मिलें, किस का चेहरा पसंद करें और किस को अस्वीकार करें। जिससे हम मिलना चाहते हैं वह तो हमें अच्छा लगने लगता है और जिससे हम मिलना नहीं चाहते उसे हम बिना बातचीत किए ही नकार देते हैं।
मुझे उन तीन दोस्तों में से एक द्वारा सुनाए किस्से की याद आ रही है। इन तीनों को याद आई कि उसी शहर में उनके पूर्व शहर का एक अन्य दोस्त भी वर्षों से रह रहा है। तीनों ने तय किया कि चलो आज उससे भी मिल लेते हैं, फिर कहने लगे पहले जिस काम के लिए चल रहे हैं वह कर लें बाद में देखेंगे। बातचीत में अहम, दम्भ और पूर्व धारणा भी आड़े आने लगी। अंतत: यह तय हुआ कि आज उससे मिल लेते हैं, व्यवहार-विचार नहीं मिले तो भविष्य में कभी नहीं मिलेंगे। उस दोस्त को फोन करके सूचित किया डेढ़ घंटे बाद आपके घर आएंगे। उसकी उत्साहजनक प्रतिक्रिया से इन तीनों ने अपना काम निपटाने के बाद फिर फोन लगाया। घर गए, चाय-नाश्ते जितने वक्त में ही इतनी प्रगाढ़ता हो गई कि एक घंटे पहले तक वह जो दोस्त इन सबसे अपरिचित था, उसे परिवार सहित उसी रात खाने पर भी आमंत्रित कर लिया और अब ये चारों अच्छे मित्र हो गए हैं। यही नहीं अब अपने पूर्व शहर के अन्य लोगों को भी तलाश रहे हैं।
एक तरफ जमाना सोशल नेटवर्किंग की साइट्स पर तेजी से दौड़ रहा है, दूसरी तरफ हम हैं कि अपने आस-पास के लोगों, एक ही रास्ते पर रोज आते-जाते टकराने वालों से बात करना तो दूर हल्के से मुस्कुराने में भी इसलिए होंठ कसकर भीचे रहते हैं कि सामने वाला रोज टकराता है तो क्या हुआ पहले वह मुस्कुराए फिर हम तय करेंगे कितने हाेंठ फैलाना है। दरअसल यह हालात भी बने हैं तो इसलिए कि हमें भय बना रहता है कि हमने मैत्रीपूर्ण संबंधों का दायरा बढ़ाया तो कही कोई चुइंगम की तरह हमसे चिपक ही न जाए।
कितनी अफसोसजनक स्थिति होती जा रही है, अब हमारा ज्यादातर वक्त सोशल नेटवर्किंग साइट पर फे्रंडशिप बढ़ाने में बीत रहा है। बडे फ़ख्र से हम फेसबुक सहित अन्य साइट पर अपने दोस्तों की बढ़ती संख्या का आंकड़ा बताते हैं लेकिन अपने आसपास हमारे संबंधों का पौधा कब सूख गया यह पता ही नहीं चल पाता। जिन्हें हम जानते-पहचानते नहीं उनकी फे्रंड रिक्वेस्ट को तो एक क्लिक पर स्वीकृत कर देते हैं लेकिन हम जिस मल्टी स्टोरी, जिस कॉलोनी, जिस मोहल्ले में रहते हैं वहा पड़ोस के फ्लैट में कौन रहता है यह तक पता नहीं होता। जब नेट और टीवी नहीं हुआ करते थे तब किसी की भी लोकप्रियता का मापदंड इस बात से लगाया जाता था कि उसकी अंतिम यात्रा में कितनी भीड़ उमड़ी। अब तो हालत यह है कि हम शादी का रिसेप्शन तो महंगे से महंगे होटल में रखना चाहते हैं लेकिन प्रति प्लेट खर्च अधिक लगने पर थोड़ा सस्ता होटल पसंद करने की अपेक्षा बनाई गई आमंत्रितों की सूची में से अपने कई नजदीकी मित्रों का नाम काटना ज्यादा आसान लगता है।

Thursday 2 December 2010

...और चाबी खो जाए?

बिना चाबी का कोई ताला कंपनियां बनाती नहीं और बनाए तो कोई ग्राहक खरीदे भी नहीं। ताले और चाबी के बीच जो अटूट रिश्ता है वह यह भी सिखाता है कि यदि मुसीबत आई है तो उसका हल भी होगा ही। दिक्कत तो यही है कि जब मुसीबत आती है तो हमारे हाथ-पैर फूल जाते हैं। भाग्य और भगवान को दोष को देते हैं। तब हमारी जेब में रखी छोटी सी चाबी का भी ख्याल नहीं आता। तेज बहाव में डूबी नाव के ऐसे कई यात्री अपनी जान बचाने में सफल हो जाते हैं, जिन्हें तैरना तक नहीं आता और हिम्मत हार जाने या गलत फैसला लेने के कारण अच्छे तैराक की पानी में डूब जाने से मौत हो जाती है।
सामान खरीदने के दौरान याद आया कि सफर पर आना-जाना पड़ता है तो बैग के लिए एक ताला भी खरीद लिया जाए।
दुकानदार ने पांच-सात ताले सामने रख दिए और भाव भी गिना दिए। उसे लगा था कि मुझे घर के लिए बड़ा ताला खरीदना है, उसने लिहाजा बड़े ताले निकाले। हर ताले के साथ तीन चाबी बंधी हुई थीं। मैंने जब बताया कि सफरी ताला चाहिए तो उसने छोटे ताले बताना शुरू कर दिए। किसी के साथ दो तो किसी ताले के साथ तीन चाबियां थीं। तालों के भाव बताने के साथ ही वह इनकी चाबियों के फायदे भी बताता जा रहा था कि एक चाबी बैग के साथ बांधकर रख दीजिए, दूसरी चाबी घर में और तीसरी ऑफिस में सुरक्षित रख दीजिए। कभी एक चाबी गुम गई तो दूसरी मिल जाएगी। ताला तो खरीदना ही था, लेकिन उससे कहीं अधिक मुझे उसकी चाबियों संबंधी सलाह पसंद आई। हम सब के साथ ऐसा होता ही है कि चाहे अटैची की चाबी हो या गोदरेज अलमारी की या अन्य तालों की, हम सारी चाबियां एक जगह इकट्ठी रख देते हैं। कभी-कभी तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाती है जब कोई एक चाबी गुम हो जाने पर एक जैसी चाबियों के ढेर में से दूसरी चाबी खोजने के लिए हमें एकएक कर सारी चाबियां लगाकर देखनी पड़ती हैं तब कहीं गुमी हुई चाबी वाली दूसरी चाबी मिल जाती है।
हमारे फ्रेंड सर्कल में भी हर दोस्त में कुछ न कुछ खासियत तो होती है, लेकिन कुछेक दोस्त ऐसे भी होते हैं, जिनके पास हर परेशानी का हल और हर समस्या के लिए गले उतर जाने वाला सुझाव भी होता है। ऐसे दोस्तों को हम मजाक में हर ताले में लगने वाली चाबी भी कह देते हैं।
ताले की उस दुकान पर जितनी भी देर रहा यह भी समझने को मिला कि बिना चाबी के कोई ताला खुल नहीं सकता और हर ताले के साथ चाबियां होती ही हैं। ना तो कंपनियां बिना चाबी के ताले बनाती हैं और न ही कोई ग्राहक बिना चाबी का ताला खरीदता है। चाबी नहीं होगी तो ऑटोमेटिक लॉक सिस्टम वाले बैग हों या अटैची सब के लिए कोड तो तय करना ही पड़ता है, जब आप कोड नंबर घुमाएंगे तभी ताला खुलेगा या बंद होगा। ताला चाहे पच्चीस रुपए का हो या हजार-पांच सौ का उसके साथ दो या तीन चाबियां तो रहती ही हैं, जो इसलिए होती हैं कि एक गुम हो जाए तो दूसरी या तीसरी का उपयोग कर लें। सारी ही चाबियां गुम जाएं तो फिर ताला तोड़ने या अटैची चाबी बनाने वाले सिकलीगर तक ले जाने का विकल्प भी है ही। ताले और चाबी के इस अटूट रिश्ते से यह सीख भी मिलती है कि यदि मुसीबत है तो उसके हल भी हैं। हम प्रयास जारी रखें, हिम्मत न हारे तो एक बार में नहीं तो दूसरे या तीसरे प्रयास में सफलता मिलेगी ही। जरूरत है तो समझदारी और धैर्य की या तो तीनों चाबियां इस तरह संभालकर रखें कि जरूरत पड़ने पर पता हो कौन सी चाबी कहां रखी है पर ऐसा होता नहीं है।
हम ताला खरीदने, उसका उपयोग करने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी सजगता बाकी चाबियां संभाल कर रखने में नहीं दिखाते। जीवन में जब हमें मुसीबतों का सामना करना पड़ता है तो हममें से यादातर लोग जो सारा दोष भाग्य को देकर हताश हो जाते हैं। भूल जाते हैं कि समस्या आई है तो हल भी साथ लाई होगी, तब हम याद रख लें कि ताला है तो चाबी भी होगी ही। हम ठंडे दिमाग से सोचें तो समस्या का हल भी मिल सकता है, लेकिन या तो हम हताश हो जाते हैं या जल्दबाजी में ताला तोड़ने जैसा कदम उठा लेते हैं जिससे या तो हमारी अटैची का या घर के दरवाजे का ही नुकसान होता है। मुसीबतों के ताले खोलने की चाबियां हम सब की जेब में ही होती है, लेकिन हम इन चाबियों का उपयोग करना ही भूल जाएं तो ताले का क्या दोष। ताले-चाबी की तरह ही मुसीबत और हल का भी अटूट रिश्ता है। यह ध्यान रख लें तो बड़ी से बड़ी समस्या हल की जा सकती है। यात्रियों को ले जा रही नाव जब अचानक डूब जाती है तो कई ऐसे यात्री लहरों से जूझते हुए सकुशल बच जाते हैं जिन्हें तैरना तक नहीं आता कोई इसे चमत्कार कहता है तो बाकी यह भी कहते हैं कि उसने हिम्मत नहीं हारी।

पंखे और दरवाजे भी कुछ कहते हैं सुनिए तो सही

यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती है। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरियता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें।
रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे आसपास अच्छा करने वालों की कमी नहीं है, लेकिन उनसे सीखने, उनके अच्छे काम की तारीफ करने में हमारा ही अहं आडे अा जाता है। घर में ऐसी कई निर्जीव चीजें भी हैं जो बिना तारीफ के भी अपने काम से हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, हम इनसे ही कुछ समझ लें। इनके काम की तो हमें प्रशंसा भी नहीं करनी पडेग़ी और न ही इनसे यह उलाहना सुनने को मिलेगा कि हम कितने मतलबी हैं। काफी लंबी कतार लगी थी टेलीफोन बिल जमा कराने वालों की। काउंटर के उस तरफ बैठे कर्मचारी पर इधर वाले लोग झुंझला भी रहे हो कि तेजी से काम करो। जवाब में उस कर्मचारी का कथन सौ सुनार की एक लुहार की जैसा ही था। रौब गालिब करने वाले सान को उसने बडे ही प्यार से समझाया भाई साहब बिल में बिना जुर्माने की अंतिम तारीख भी लिखी रहती है। आप दंड सहित बिल राशि जमा कर रहे हैं तो इस पर एहसान नहीं कर रहे ये आपकी लापरवाही का नतीजा है और फिर बाकी लोग भी अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बात सौ प्रतिशत सही लगी मुझे। आप यदि लापरवाह हैं तो उसमें कैलेंडर की तारीखें महीने और तेजी से भागते वक्त का क्या दोष!
हम सब को पता है कल तो आएगा, लेकिन उस कल में आज वाला दिन नहीं होगा। यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं, जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती हैं। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि बस सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरीयता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें।
कभी रोज पावर कट लग रहा है, जैसे ही अचानक लाइट गुल होती है तो सबसे पहले हम मोमबत्ती तलाशते हैं और लाइट आते ही सबसे पहले जलती मोमबत्ती पर फूंक मार कर बुझा देते हैं। अब कई लोगों की टीस होती है कि जब जरूरत पड़ती है तभी उनके रिश्तेदार याद करते हैं, ऐसे लोग मोमबत्ती से भी नहीं सीखते हैं कि वह कभी अपनी पीड़ा नहीं सुनाती। दूर क्यों जाएं गर्मी में ठंडक देने वाले और बाकी महीनों में छत पर लटकते धूल में सने रहने वाले पंखे को ही देख लें, वह सिखाता तो है अपने हों या पराए सबके साथ ठंडे-ठंडे कूल-कूल रहो। हम तो फिर भी नहीं सीख पाते, हमारे अहं को जरा सी चोट तो लगी, वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं। फिर यह भी नहीं देखते कि किस पर नाराज हो रहे हैं उसने पहले कई बार हमारी मदद की है। सुबह पूजा के लिए अगरबत्ती जलाते हैं उसकी खुशबू सिर्फ पूजा घर को नहीं नहीं महकाती बाकी कमरों सहित आसपास के घरों तक भी खुशबू का झोंका बिना इजाजत के पहुंच जाता है। फिर भले ही हमारे पड़ोसी से हमारी अनबन ही क्यों न हो। पता नहीं हम बाकी लोगों के लिए खुशबू के एहसास जैसे क्यों नहीं बन पाते।
हमारे दिन की शुरुआत कैसे व्यवस्थित हो यह सूरज से लेकर चांद तक सभी सिखाते हैं इनके लिए न संडे का मतलब है न सेकेंड सटरडे का। बिना नागा उगते और अस्त होते हैं साथ ही अप टू डेट रहने का संदेश भी देते हैं। घर की खिड़कियां खोलते ही सामने नजर आने वाले मनोरम दृश्यों से हमारी तबियत प्रसन्न हो जाती है। हम इतनी आत्मीयता से मन की खिड़कियां तभी खोलते हैं अगले से हमारा कोई काम अटका हो। बाहर आते- जाते दरवाजा खोलना बंद करना तो हमें याद रहता है लेकिन किसी काम में असफलता मिलने पर हम हताश होकर ऐसे बैठ जाते हैं कि जैसे सफलता के सारे दरवाजे बंद हो गए। घर के ये दरवाजे हमे बिना बोले मैसेज देते हैं कि जब एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा खुलता है। हम हारे नहीं, हताश नहीं हों तो हमारी किस्मत के दरवाजे भी हम खोल सकते हैं।

Wednesday 17 November 2010

खुद की गलतियों को भी तलाशें

कभी खुद हमें अपना मूल्यांकन भी कर लेना चाहिए। ऐसा करना इसलिए भी काम का साबित हो सकता है क्योंकि समाज का नियम है मुंह पर प्रशंसा और पीठ फेरते ही आलोचना। हमें यदि यह पता नहीं है कि हम कितने पानी में हैं तो मान कर चलिए पानी सिर के ऊपर से कब निकल जाएगा यह भी पता नहीं चल पाएगा। बाकी लोग चाहकर भी किसी की गलती या कमजोरी इसलिए नहीं बताते कि बेवजह कोई बुरा नहीं बनना चाहता। लोगों को करने दीजिए आपकी अच्छाइयों का गुणगान आप तो अपनी गलतियों को तलाशने के काम में लगे रहिए। इस सुधार से ही तो आप में अच्छाई का प्रतिशत भी बढ़ेगा।
एक कार्यक्रम में वक्ता के रूप में शामिल होने पर मुझे अपनी कमजोरी का अहसास भी हो गया। जिस विषय पर बोलना था उसके नोट्स भी थे। लेकिन जब पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारा जा रहा था तो बस उसी वक्त पता चला कि विषय संबंधी नोट्स वाले कागज की जगह दूसरा कागज था जेब में। जो बोला, जैसा बोला उसमें विषय आधारित तो था पर वैसा नहीं जैसे नोट्स तैयार किए थे। वक्ता के भाषण पश्चात तालियां बजना, कार्यक्रम समाप्ति पश्चात कुछ लोगों द्वारा भाषण की सराहना करना यह तो रिवाज है ही। अच्छे वक्ता न भी साबित हो तो लोगों की बॉडी लैंग्वेज से अंदाज लग जाता है कि आप की बात का कितना प्रभाव पड़ा है।
इस प्रसंग से फिर यह साबित हुआ कि अवसर अपनी सुविधा से मिलते नहीं और पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारे या दूसरे क्रम पर अपनी बात कहने का तो आपको वक्त मिलता ही है। यह पहला क्रम जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। अवसर के साथ वक्त भी मिल जाता है लेकिन हममें से कई लोग उस मौके को झपट नहीं पाते फिर अफसोस करने के अलावा भी क्या बचता है। सामने से बेकाबू हुआ ट्रक तेज गति से आ रहा हो और आप देखकर भी न हटे तो ट्रक का तो कुछ बिगड़ना नहीं है। सीमा पर दुश्मन सामने हो और आप निशाना लगाने में चूक जाएं तो मान लेना चाहिए अवसर को दुश्मन सैनिकों ने झपट लिया।
कभी जब हम किसी टॉस्क में फैल हो जाएं तो खुद हमें अपना भी मूल्यांकन कर ही लेना चाहिए कि आखिर हमसे चूक कहां हुई। एक सेकंड के सौवें हिस्से के फर्क से गोल्डमेडल से वंचित रहने वाला खिलाडी अौर उसका कोच अगले गेम्स में भागीदारी से पहले अपनी उस चूक का हर एंगल से मंथन करता है। तभी वह अन्य गेम्स में अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़कर गोल्ड का हकदार बन पाता है।
स्कूल और जिंदगी की पाठशाला में हम बचपन से अब तक पढ़ते-सीखते-समझते ही तो रहते हैं। फर्क है भी तो जरा सा, स्कूल के वक्त हम पहले सबक याद करते थे। जितना जैसा याद कर पाते, उस आधार पर परीक्षा देते थे, परिणाम भी वैसा ही मिलता था। जिंदगी की इस पाठशाला में हम परीक्षा हर मोड़ पर देते हैं और सबक में मिलता है।
छात्र जीवन में परीक्षा के एक दिन पहले ही सारी तैयारी रात मेंं ही कर लेते थे। पैन, कंपास, रोलनंबर आदि रख लेते थे। स्कूल के लिए निकलने से पहले भी चैक कर लेते थे। परीक्षा हाल में भी समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते और तीन घंटे की अवधि में दिमाग पर जोर डालकर हर प्रश्न का जवाब खोज ही लेते थे। जिंदगी की पाठशाला में भी हमें हर मोड़ पर अवसर मिलते हैं। वक्त भी मिलता है और घर-समाज के लोग अपेक्षा भी करते हैं कि हम अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर के दिखाएं। एक ही नाम, एक ही समय, एक ही राशि में जन्मे कई लोगों में से कुछ ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। बचे बाकी में से कुछ कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करते, हर ठोकर से सीख लेकर मंजिल तक पहुंच जाते हैं। लेकिन कुछ भाग्य और परिस्थिति को दोष देते हुए अंत तक रेंगते ही रहते हैं। तेज बारिश में छाता हमें भीगने से बचा सकता है किंन्तु छाते को खोलने का काम भी तो हमें ही करना होगा ना। बारिश और तेज आंधी में कई बार छाता उलटने और हाथ से छूटने को हो जाता है। हम तत्काल हवा के विपरीत दिशा में घूम कर छाते और सिर को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं।
जीवन में संघर्ष करने वालों को पहले असफलता का ही सामना करना पड़ता है। लेकिन वे हताश नहीं होते। उन्हीं असफलताओं में छुपे सफलता दिलाने वाले सूत्रों को भी ढूंढ लेते हैं। अच्छा तो यही है कि हताश होकर बैठने की अपेक्षा हम खुद का मूल्यांकन करें कि क्या कारण रहे असफलता के। जब निष्पक्ष रूप से अपना मूल्यांकन करेंगे तो हमें हमारी कमजोरी कोयले के ढेर में पड़े कांच के टुकड़े सी चमकती नजर आ जाएगी। असफलताओं का हल भी है यह समझ आ जाएं तो घर-बाहर हमारी कद्र हीरे की माफिक होने लगेगी।

Thursday 11 November 2010

अच्छा ही है बैलेंस बनाकर चलना

चाय के साथ बिस्कुट का नाश्ता करते वक्त हम सबकी पूरी कोशिश रहती है कि चाय में बिस्कुट उतनी ही देर डुबोएं कि उसे आसानी से मुंह तक ले जा सकें, वरना कपड़ों पर चाय-बिस्कुट गिर जाने का खतरा रहता है। इतनी ही सजगता क्या हम रिश्तों में ताजगी बनाए रखने में दिखलाते हैं। जो हमारे प्रति अधिक विनम्र होता है, उसे हम या तो मूर्ख मान बैठते हैं या फिर यह सोच लेते हैं कि हम इसके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। अकसर ऐसी ही गलती हाथी भी चींटी के संबंध में करता रहता है। चींटी जब अपने वाली पर आती है तो हाथी की सारी हेकड़ी धरी रह जाती है। और तो और वह चींटी को पैरों तले रौंद भी नहीं सकता।
बधाइयों को आदान-प्रदान करने वाले इस सप्ताह में पहुंची मित्रों की टोली ने नाश्ता खत्म किया ही था कि चाय के साथ प्लेट में बिस्कुट भी हाजिर थे। ना-नुकर पर मनुहार भारी पड़ी। दोस्तों ने एक हाथ में चाय का कप थामा और दूसरे में बिस्कुट। बातचीत तो जारी थी ही, कप में बिस्कुट डुबोए, चाय तेज गर्म होने के कारण कुछ मित्रों के बिस्कुट का आधा गला हिस्सा कप में ही रह गया। कुछ ने बिस्कुट खाने के लिए मुंह थोड़ा नीचे झुकाया ही था कि गला हिस्सा तेजी से नीचे झुका और डप्प से कप में जा गिरा। कप से उड़े चाय के छींटे दोस्त के मुंह एवं कपड़ों पर फैल गए। बाकी दोस्तों का ठहाका तो गूंजा ही, अब बात दीवाली से हटकर चाय से जुड़े किस्सों पर शुरू हो गई कि कब किसके साथ क्या हुआ।
चाय और बिस्कुट से जुड़ा यह दृश्य न तो नया है और न अनूठा, हम में से कई के साथ ऐसा हो भी चुका है। इस दृश्य में भी सीखने वाली बात जो है वह यह कि जिंदगी में आप किस तरह से संतुलन बनाकर चलें। चाय अधिक गर्म हो तो बिस्कुट खाते वक्त सावधानी बरतनी जरूरी है और बिस्कुट-चाय में यादा देर तक गलता छोड़ दें तो उसे खाते वक्त और अधिक सावधानी बरतना पड़ेगी। मुझे यह जीवन दर्शन भी नजर आया कि हम कब, कहां, कितनी सावधानी बरतें, कितनी सजगता रखें। जिंदगी की डोर भले ही बेहद मजबूत हो, लेकिन रिश्तों की डोर तो बेहद पतली एवं कच्चे सूत की होती है। जहां पल-पल हमें अपने व्यवहार और दूसरे की खुशी का ख्याल रखना होता है। अपेक्षा हर पक्ष की अधिक होती है। सबकी अपेक्षा पर हम खरे इसलिए नहीं उतर पाते क्योंकि बाकी सब भी हमारी अपेक्षा पर भी कहां खरे उतरते हैं। चाय-बिस्कुट वाला दर्शन यह तो सीख देता है कि जब जैसे हालात हों उसके मुताबिक अपना मान-सम्मान बचाकर रखते हुए व्यवहार करें। इसके लिए दूसरे पक्ष से सजगता और सहयोग की अपेक्षा भी न करें। हमें यदि पता है कि चाय बेहद गर्म है तो यह हमें ही तय करना होगा कि बिस्कुट इतनी देर ही गलाएं कि उसे हम आराम से खा भी सकें। रिश्तों को हम कितना मजबूत बनाएं कि उन्हें निभा भी सकें। कोई एक पक्ष बिस्कुट की तरह झुकता-गलता ही जाए और दूसरा पक्ष गर्म मिजाज, अपनी अकड़ बरकरार ही रखे तो बात नहीं बन सकती। रिश्ते यादा लंबे नहीं खिंच सकते। लंबे वक्त तक रिश्तों में ताजगी तभी बनी रह सकती है जब दोनों पक्ष अपनी अकड़ छोड़े और सहयोग की भावना भी बरकरार रखें। एक पक्ष चाय सा गर्म बना रहे और दूसरा विनम्रता में झुकता चला जाए तो इस विनम्रता को उसकी मूर्खता मान लेना भी ठीक नहीं क्योंकि तूफान के हालात बनने पर अकड़ा खडा खजूर का दरख्त ही धूल चाटता है। जमीन पर मखमली गलीचे की तरह फैली दूब का तो तूफान भी बाल बांका नहीं कर सकता। एक छोटी सी चींटी हाथी को बदहवास कर सकती है, लेकिन हाथी इस चींटी को अपने पैराें तले रौंदने में भी असहाय रहता है।
हमारा कोई मित्र, कोई रिश्तेदार हमारे प्रति अत्याधिक स्नेही है तो सामाजिकता का तकाजा है कि हमें भी उसके प्रति अपना नजरिया सकारात्मक रखना ही होगा। सिर्फ इसलिए उसे उपेक्षा या हिकारत की नजर से देखें कि वह पद में, संपन्नता में हमसे छोटा है। दृष्टि दोष हमारी ही हंसी उड़ने का कारण भी बन सकता है। हमारे ही मित्रों, संबंधियों में कई चेहरे ऐसे याद आते हैं कि जिनकी तारीफ हम इसलिए करते हैं कि वे हर हाल में सेक्रिफाइज, समझौता सिर्फ इसलिए करते रहते हैं कि बाकी लोगों को खुशी मिले। ऐसे लोग कम ही होते हैं, और ये कम लोग ही हमे सिखाते हैं कि बाकी लोगों को खुश रखने वालों को जिदंगी में हर मोड़ पर कितने समझौते करने पड़ते हैं। हम हैं कि समझौते में भी अपनी जीत के कारण गिनाना नहीं भूलते। अच्छा होगा कि रिश्तों को लंबे वक्त तक निभाने के चाय-बिस्कुट जैसा तालमेल बनाकर चलें। इससे यह फायदा तो होगा ही कि हम दूसरे की खुशी का कारण भले ही न बने पाएं अपने मैं तो खुश रहना सीख ही लेंगे।

Wednesday 27 October 2010

हौसला बढ़ाकर तो देखिए

हमारे ही समाज, आफिस, संस्थान में ऐसे भी लोग हैं जो अपनी कार्यनिष्ठा, सूझबूझ, सजगता के कारण अलग से पहचान बना लेते हैं। समान पद, समान वेतन वाले सैकड़ों कर्मचारियों में भी दस-बीस कर्मचारी ऐसे होते ही हैं जो बिना किसी अपेक्षा के बेहतर प्रदर्शन करते हैं। घर में हमारे ही बच्चे स्कूल, कॉलेज में अपने प्रयासों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। हम हैं कि अच्छा काम करके दिखाने वालों की पीठ थपथपाने में भी कंजूसी दिखाते हैं। कवि सम्मेलन और मुशायरे में शिरकत करने वाले कवि-शायर मनमाफिक मानेदय मिलता है लेकिन उनकी भी अपेक्षा रहती है कि उनकी रचनाओं को तालियों की गड़गड़ाहट वाली सराहना तो मिले।
घर के बाकी सदस्यों की नजरें घुटनों-घुटनों चल रहे उस नन्हे की गतिविधियों का पीछा कर रही थीं। दीवार का सहारा लेकर उसने जैसे ही खड़े होने की कोशिश की, खुशी के मारे सब चिल्ला उठे। इस शोर से घबराकर वह धम्म से जमीन पर बैठकर रोने लगा। उसे चुप कराने के लिए कोई खिलौना लेकर दौड़ा तो कोई पुचकारने के साथ ही फिर से उसे प्रोत्साहित करने लगा। कुछ पल के इस प्यार-पुचकार से वह नन्हा खिलखिलाकर हंस पड़ा और फिर से दीवार का सहारा लेकर खड़े होने की कोशिश में जुट गया।
घर के बाकी सदस्य सांस रोके उसका दीवार के सहारे उठना-बैठना देखने के साथ ही इशारों-इशारों में उसकी हरकतों पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते जा रहे थे। उस नन्हे ने जैसे ही दीवार का सहारा छोड़कर डगमगाते कदम आगे बढ़ाए तो कोई मोबाइल से उसके फोटो खींचने लगा तो कोई उसी की नकल करते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
मां ने नन्हे को दौड़कर अपनी बाहों में भर लिया और उसका सिर चूम लिया। पूरा घर उत्साहित था। नन्हा पहली बार ठुमक-ठुमक कर जो चला था। खुशियों वाले इस शोर-शराबे में अब नन्हा भी खिलखिला रहा था। अपने छोटे-छोटे हाथों से मम्मी के बाल खींचकर शायद वह यह दिखाना चाह रहा था कि वह भी कितना खुश है।
यह सारे दृश्य देखते वक्त मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स में ढेर सारे पदक जीतने वाले अपने खिलाड़ियों और स्टेडियम में उनका उत्साह बढ़ाने वाले हजारों दर्शकों की याद आ गई। न तो कॉमनवेल्थ गेम्स पहली बार हुए और न ही पहली बार हमारे खिलाड़ियों को इस गेम्स में सफलता मिली। पहले भी भारत के खिलाड़ियों ने इस गेम्स में भाग लिया और पदक भी जीते। इस बार खास बात थी तो यह कि हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहद उम्दा रहा और पदक भी खूब बटोरे। यह संभव हुआ तो इसलिए कि उनका हौसला बढ़ाने के लिए स्टेडियम में हजारों दर्शक मौजूद थे। खिलाड़ी चाहे हमारे यहां का हो या अन्य किसी देश का, स्वर्ण नहीं तो रजत, कांस्य पदक जिसका भी हकदार बना तो उसकी इस उपलब्धि में दर्शकों की तालियों का भी योगदान रहा। कवि-साहित्यकार की रचना चाहे जितनी उम्दा हो लेकिन सही वक्त पर कवि-शायर को दाद न मिले, तालियों की गड़गड़ाहट उसे सुनने को न मिले तो मानदेय का भारी लिफाफा भी उसे खुश नहीं कर पाता।
स्टेडियम में मौजूद दर्शक न तो किसी खिलाड़ी के साथ दौड़े, न वजन उठाया और निशाना भी नहीं लगाया लेकिन जब खिलाड़ियों को सराहना, उत्साहवर्ध्दन की अपेक्षा थी तब ये सारे दर्शक उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे, बदले में खिलाड़ियों ने भी अपने देश का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
कॉमनवेल्थ गेम्स का टीवी पर प्रसारण करोडाें लोगों की तरह मैंने भी देखा। हम सबको इस अवधि में कम से कम यह तो सीखने को मिला ही है कि उपलब्धि चाहे छोटी हो या बड़ी वह तभी संभव है जब उसकी समय रहते सराहना हो और खिलाड़ी को भी यह महसूस हो कि उसके प्रयास की गंभीरता को मैदान के बाहर बैठे हजारों लाखों लोग देख समझ रहे हैं।
अन्य देशों में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहा लेकिन पदक इस बार जैसे नहीं बटोर पाए तो उसका एक मुख्य कारण वहां के स्टेडियम में बैठे दर्शकों ने हमारे खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए दिल्ली जैसा उत्साह नहीं दिखाया। अपने देश और अपने लोगों के बीच खेलना, जीतना, सम्मान पाना इसका कुछ अलग ही सुरूर होता है।
चाहे घर हो, ऑफिस हो या हजारों कर्मचारियों वाला संस्थान। हर जगह कुछ लोग तो ऐसे होते ही हैं जो समान उपलब्ध संसाधनों में भी बाकी लोगों से बेहतर काम करके दिखाते हैं। इनमें से यादातर ऐसे होते हैं जो अपेक्षा भी नहीं करते कि उनके बेहतर कार्य की सराहना की जाए क्योंकि किसी भी कर्मचारी को वेतन देने का मतलब ही है बदले में बेहतर काम की अपेक्षा। वेतन और काम के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है सराहना का। सौ कर्मचारियों के बीच यदि पांच बेहतर काम कर रहे हैं या पांच ऑफिस बॉय में कोई एक अधिक सजगता से काम कर रहा है तो क्यों नहीं उसकी सराहना की जानी चाहिए, क्यों नहीं उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए? तनख्वाह तो सब एक समान ले रहे हैं। फिर भी उसने अपेक्षा से अधिक बेहतर काम किया है तो उसके काम का ईनाम सराहना क्यों नहीं होना चाहिए?
बड़े घरों में जहां हर दिन सैकड़ों लोगों की आवाजाही रहती है जब मोबाइल फोन, घड़ी, पर्स, गहने आदि निर्धारित स्थान पर नहीं मिलते तो पहली नजर में घर के वर्षों पुराने नौकर को भी शक की नजर से देखा जाने लगता है क्योंकि समाज की यह प्रवृत्ति बन गई है कि छोटा आदमी यानी ईमानदारी- विश्वसनीयता-समर्पण-सेवा से उसका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसी किसी घटना के वक्त हम यह भी भुला देते हैं कि घर की सफाई के दौरान पलंग के नीचे पड़ी अंगूठी लाकर उसने ही हमारी हथेली पर रखी थी और यह भी कि जब हमें आधी रात में सपरिवार अन्य शहर में रहने वाले दूर के किसी रिश्तेदार के यहां जाना पड़ा था तब पूरा घर तिजोरी ऐसे ही वर्षों पुराने रामू काका के भरोसे छोड़ कर गए थे।
ऐसा नहीं है कि अच्छा काम करने वाले समाज में नहीं हैं, दरअसल हमारी नजर कमजोर होती जा रही है। हम तो अपने बच्चों की छोटी-छोटी उपलब्धियों पर उनका ही उत्साह नहीं बढ़ाते तो फिर ऑफिस, संस्थान, दुकान पर बेहतर प्रदर्शन करने वालों की सराहना तो दूर की बात है।

Thursday 14 October 2010

आप हो गए क्या परीक्षा में पास?

ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग निराशा के गर्त में घिरे इससे पहले ही वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप उनकी पीड़ा से आंखें चुरा रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है।
सारे बच्चे कतार से खाना खाने बैठे थे। एक बच्चे के आगे रखी थाली कुछ गीली थी। मैंने रूमाल से वह थाली साफ कर के वापस उसकी टेबल पर रख दी। उसने थाली उठाई और कुछ देर सूंघता रहा। पड़ोस में बैठे उसके साथी ने हंसते हुए इसका कारण पूछा तो वह थाली दोस्त की नाक तक ले जाते हुए बोला देख इसमें से सुगंध आ रही है। सभी की थालियों में खाना परोसा जा चुका था, उन सब बच्चों ने आंखें बंद की, हाथ जोड़े और भोजन शुरू करने से पूर्व की जाने वाली प्रार्थना ऊं सह नाव वतु, सहनौ भुनक्तु, सहवीर्यम करवाव है, तेजस्विनी नावधीतमस्तु, मां विद्विषावहे के सामूहिक स्वर से आश्रम गूंज उठा।
कुछ पल तो मुझे उन बच्चों की थाली सूंघने वाली बात समझ नहीं आई, फिर याद आया आदत के मुताबिक परप्यूम लगाते वक्त रूमाल पर भी स्प्रे किया था। जाहिर है थाली पोंछने के कारण शायद उसमें भी खुशबू फैल गई थी। कितना अजीब है जो चीजें हमें आसानी से मिल जाती हैं हमें यह अहसास ही नहीं होता कि बाकी लोगों के लिए ऐसी साधारण सी चीजें भी एक बड़ी हसरत पूरी होने जैसी भी हो सकती है। करीब पचास बच्चे वो हैं जो शिमला के रॉकवुड में महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित किए गए सर्वोदय बाल आश्रम में रहते हैं। किसी के माता पिता नहीं हैं, किसी के परिजनों की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, किसी की मां नहीं है। इस आश्रम के हर बच्चे के साथ एक कहानी जरूर जुड़ी है। इनमें से कुछ के रिश्तेदार संपन्न भी हैं, चाहें तो खून के रिश्ते से जुड़े इन बच्चों की अपने बच्चों के साथ परवरिश भी कर सकते हैं, इन लोगों में इतनी यादा तो नहीं पर थोड़ी सी मानवीयता है तो सही जो पूरे हिमाचल में पड़ने वाली कड़ाके की सर्दी के मौसम में इन्हें एक डेढ़ महीने के लिए अपने साथ घर ले जाते हैं। बाकी ग्यारह महीने सभी यहीं रहते हैं, जिस दिन समाज के किसी व्यक्ति के मन में कुछ दान धर्म करने की भावना हिलोरे मारने लगती है और मंदिर, लंगर, शोभायात्रा के लिए दिए जाने वाले दान से कुछ नया करने का मन करता है, उस दिन इन बच्चों को खाने में कुछ अच्छा मिल जाता है। किसी पेरेंट्स को अपने बच्चे के जन्म दिन पर ऐसे अनाथ बच्चे का चेहरा याद आ जाता है तो इन बच्चों को भी पेस्टी, चॉकलेट, पेटीस का टेस्ट पता चलता है। स्वेटर, नए जूते, नए कपड़े और दीपावली पर फु लझड़ी, पटाखे जलाने की हसरत भी किसी दयावान के कारण ही पूरी हो पाती है। सभी धर्म ग्रंथों में खरी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंदों पर खर्च करने की बात कही गई है पर हम कहां याद रख पाते हैं। दो नंबर की कमाई वाले अधिक धार्मिक शायद इसीलिए होते हैं कि उनके कामकाज में बरकत बनी रहे और बुरी नजर भी ना लगे।
आश्रमों में रहने के कारण इन बच्चों की जिंदगी हम सब के दया भाव पर निर्भर है लेकिन हम है कि महीनों, साल दो साल में ही दया भाव दर्शा पाते हैं। हम दान भी करना चाहते हैं तो उसमें भी नाम, लाभ का गुणा भाग पहले कर लेते हैं। जिस ईश्वर ने हमें संपन्नता प्रदान की उसके प्रति तो सुबह शाम आभार व्यक्त करते हैं पर यह याद नहीं रखते कि उसी मालिक ने हमारी परीक्षा लेने के ऐसे सारे इंतजाम भी कर रखे हैं। ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग के लिए वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप आंख फेर रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है। कहा भी है भगवान भूखा उठाता जरूर है लेकिन भूखा सुलाता नहीं है। चींटी के लिए कण और हाथी के लिए मन भर भोजन की चिंता हमने तो कभी नहीं की। ऐसे में यह भ्रम पालना भी सही नहीं कि असहाय बच्चों की, जिंदगी का सूरज ढलने के इंतजार में वृध्दाश्रम में बाकी वक्त गुजार रहे लोगों की हम चिंता नहीं पालेंगे तो इनका बाकी बचा वक्त नहीं कटेगा। हम नहीं तो कोई और उनकी मदद को आगे आ जाएगा। हो सकता है कि हमारे जीवन का सूर्य ही अस्ताचल की ओर चल पड़े, फिर किसी मोड़ पर हमें ही जब विपरीत हालातों का सामना करना पड़े तो अफसोस करने का भी कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि अवसर बार-बार नहीं आते। अच्छा समय मुट्ठी में पकड़ी रेत की तरह कब फिसल जाता है हमें पता ही नहीं चलता और बुरा समय मकड़ी के जाले की तरह लाख कोशिशों के बाद भी कहीं ना कहीं चिपका ही रहता है।
रॉकवुड स्थित बाल आश्रम, या अपने शहर के ऐसे ही किसी आश्रम में जिस दिन भी जाने का मन करें या किसी असहाय की दशा देखकर मन दुखी हो और मदद करना चाहें तो ऐसे किसी भी शुभ कार्य को अपने बच्चों के हाथों से ही कराएं ताकि जब आप इस दुनिया में ना रहें तब भी आप के बच्चे जरूरतमंदों की मदद करते वक्त आप को याद करते हुए फक्र से आप का नाम ले सकें।
पाठकों की सुविधा के लिए सर्वोदय बाल आश्रम का फोन नंबर भी दे रहे हैं (0177-2623937, 2624489, 09816597345) उदास चेहरों पर मुस्कान के लिए आप की तिल बराबर मदद भी ताड़ जितनी हो सकती है। आप अपने परिचितों को भी तो प्रेरित कर सकते हैं।

Saturday 9 October 2010

राई जितनी भूल और पहाड़ जैसी शर्मिंदगी

भूल तो इंसान से ही होती है। यह बात सही भी है लेकिन अपनी छोटी छोटी गलतियों को भी जब हम नजरअंदाज करने की आदत बना लेते हैं तो हमें पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। तब मन ही मन हमें ग्लानी भी होती है कि काश समय रहते ध्यान दे देते तो बार बार सॉरी कहने की स्थिति नहीं बनती। हम संता-बंता के जोक्स तो उत्साह से फारवर्ड करते हैं लेकिन अपनी भूल सुधारने का ना तो हमें वक्त मिलता है और ना हम अपनी भूल पर हंसना जानते हैं। अपने पर हंसना भी सीख लें तो खुद में सुधार की प्रक्रिया स्वत: शुरू हो सकती है।
फोन पर किसी मातहत साथी को वे उसकी गलतियों के लिए बिना रुके फटकार वाले लहजे में समझा रहे थे। चूंकि दूसरी तरफ से सफाई देने जैसा स्वर भी सुनाई नहीं आ रहा था इससे मुझे भी लगने लगा कि वाकई गलती हुई है इसीलिए कोई सफाई नहीं दी जा रही है।
काफी देर बाद जब वे वरिष्ठ अधिकारी फोन फटकार से फ्री हुए तो मैंने सहज ही कारण पूछ लिया। जो बात सामने आई वह यह कि उस मातहत ने जो रिपोर्ट बनाकर भेजी थी वह बहुत ही कामचलाऊ तरीके से तो बनाई, उस पर भी लापरवाही का आलम यह कि उन अधिकारी का पद नाम भी गलत लिख दिया था।
मैंने मजाक में कहा नाराजगी का असली कारण तो फिर यही हुआ कि आपका पदनाम गलत लिख दिया गया। उनका जवाब था रिपोर्ट पद या नाम के बिना भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो स्टेट्स है वह तो यथावत रहना ही है। मूल बात तो यह है कि रिपोर्ट में जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि जब इसे ही गंभीरता से नहीं पढ़ा गया तो अपने अन्य साथियों के काम को भी गंभीरता से नहीं देखते होंगे। सहकमयों को उनकी गलतियां भी ना बताई जाए तो फिर ना तो उनके काम में सुधार होगा और न ही उनमें लीडरशिप के गुण विकसित होंगे। उल्टे स्टाफ के बाकी साथियों की भी काम में लापरवाही की आदत पड़ जाएगी। मुझे भेड़ों का झुंड नहीं, रेस में नंबर वन पर रहने वाले घोड़े तैयार करना है।
अकसर हम सब से छोटी-छोटी लापरवाही होती रहती है, हम नजर अंदाज करते रहते हैं। बात तब बिगड़ जाती है कि वही छोटी सी गलती हमारे लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन जाती है। हम सब के साथ यह होता ही है, फोन पर बात करते करते अचानक नंबर नोट करने के हालात बनते हैं तो फोन के पास हमेशा रखा रहने वाला पेन बस उसी वक्त ही नहीं मिलता। पेन ना मिल पाने की झल्लाहट हम बच्चों पर उतार रहे हैं यह फोन पर भी साफ सुनाई देता है। ऐसा भी होता है कि हम अपने किसी प्रिय का नंबर तो तत्काल नोट कर लेते हैं लेकिन साथ में नाम लिखने की सजगता नहीं दिखाते। कुछ दिनों बाद जब फिर उस व्यक्ति से बात करने की स्थिति बनती है तो हमें डायरी में लिखे नंबरों में समझ ही नहीं आता कि जिनसे बात करना है उनका नंबर कौन सा है। दिमाग पर खूब जोर डालते हैं, यह तो याद आता है कि हमने नोट तो किया था। बस वही नंबर इसलिए नहीं मिलता क्योंकि हमने तब साथ में नाम लिखा ही नहीं था। गृहणियां इस मामले में हमसे अधिक चतुर, समझदार होती हैं। दूध वाले का हिसाब हो, करियाने वाले का बिल चुकाया हो, बच्चों को पॉकेटमनी दी हो, लोन की किश्त चुकाई हो या टीवी, सोफा कब खरीदा ये सारा लेन-देन किसी डायरी या कैलेंडर के पीछे लिखा मिल जाएगा।
मुझे कुछ दिनों पूर्व दूर के एक परिचित का एसएमएस आया कि आप का एडे्रस क्या है, शादी का कार्ड भेजना है। हम सब जानते हैं कि विजिटिंग कार्ड संभाल कर नहीं रखे जाते, जवाब में मैंने भी एसएमएस कर दिया कि आपको जो कार्ड दिया था उसमें पता भी लिखा है। फिर एसएमएस आया कि वह कार्ड इतना संभाल कर रखा है कि मिल ही नहीं रहा है। खैर मैंने पता एसएमएस कर दिया।
घूम फिर कर बात वहीं आ गई कि हम लापरवाही तो बहुत छोटी-छोटी करते हैं लेकिन सामना करना पड़ता है पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का। हम सब वज्र मूर्ख ही हैं ऐसा भी नहीं है क्योंकि गाड़ी में पेट्रोल है भी या नहीं पता करने के लिए माचिस की तीली जलाकर नहीं देखते। गीले हाथों से बिजली का स्विच ऑन करने की गलती भी नहीं करते और न ही मच्छर मारने की दवा कितनी तीखी है यह पता लगाने के लिए उसे चख कर देखते हैं। एसएमएस में हम संता-बंता के मजाक वाले जोक्स तो रोज फारवर्ड करते हैं लेकिन हम रोज जितनी भूल करते हैं उन्हें सुधार ना सकें तो कम से कम उन पर हंसना ही सीख लें। जिस दिन हम अपने पर हंसना सीख जाएंगे उस दिन से हम में स्वत: सुधार की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी।

Friday 17 September 2010

हमारा व्यवहार कैसा हो सिखाती है हिंदी

ऐसा क्यों होता है कि एक घर में जन्मी बेटियों में कोई एक तो संस्कारों के शिखर पर होती है, लेकिन बाकी छोटी बहनें उसके इन संस्कारों को अपना नहीं पाती। हम सबकी भाषा हिंदी मुझे ऐसी ही बड़ी बहन लगती है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को गोद में उठाए, दुलारते हुए आगे बढ़ती जा रही है। मान-सम्मान की अपेक्षा से दूर रहकर अपने काम से काम रखना ङ्क्षहदी से सीखा जा सकता है। हम यह भी सीख सकते हैं कि अपना ध्यान काम करने में लगाएंगे तो सम्मान खुद हमें तलाशता पीछे-पीछे चला आएगा।
एक परिचित की तीन बेटियां हैं। तीनों ही संस्कारित, लेकिन उनमें बड़ी बेटी सभी की प्रिय। इसका कारण यह सामने आया कि वह बेहद संतोषी है। सभी को साथ लेकर चलती है। झिड़कियों और अपमान की स्थिति के बाद भी सदा मुस्कुराते रहना, त्याग की स्थिति बने तो अन्य बहनों की अपेक्षा उदारता और त्याग में आगे रहना जैसी खासियत के साथ ही उसका सबसे बड़ा गुण यह कि उसके इन संस्कारों की कोई तारीफ करे न करे अपने काम से काम रखना और जितना बन पड़े लोगों के लिए अच्छा ही करते रहना। अन्य बहनों में न तो ये सारे गुण हैं न ही उन्होंने अपनी बड़ी बहन की अच्छाइयों से कुछ सीखने का उत्साह दिखाया।
एक ही परिवार की इन बहनों में बड़ी बहन में ये सारे संस्कार कैसे आए यह परिजन भी नहीं समझ पाए हैं। बड़ी बहन की इन अच्छाइयों ने मुझे हम सबकी भाषा हिंदी की याद दिला दी। अभी बड़े जोर-शोर से हिंदी दिवस मनाया गया। वक्ताओं ने अपने अंदाज में हिंदी की महानता के जिक्र के साथ ही उसे पर्याप्त मान सम्मान नहीं मिल पाने पर भी अपनी पीड़ा जाहिर की। यह दृश्य लगभग हर साल देखने को मिलते हैं।
छह दशक बाद भी हिंदी की अच्छाइयों की सराहना करने का हमारे पास वक्त भले ही न हो, लेकिन परिवार की उस बड़ी बेटी की तरह हिंदी भी अपने संस्कारों का पालन करती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी के शब्दों के साथ ही उर्दू, पंजाबी, संस्कृत सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनी गोद में उठाए, प्यार-- दुलार के साथ वह आगे बढ़ती जा रही है। जो उससे एक बार मिल लेता है मोहित होकर साथ ही चल पड़ता है। अपने रंग में बाकी भाषाओं के शब्दों को भी रंगती-ढालती चली जा रही हिंदी को कभी इस बात का अफसोस करते नहीं देखा कि उसके प्रति अन्य भाषाएं रंगभेद का नजरिया क्यों रखती हैं।
अन्य भाषा भाषी हिंदी भले ही नहीं सीखना चाहें, लेकिन हिंदी से यह तो सीख ही सकते हैं कि समाज व्यवस्था में बाकी लोगों के प्रति हमारा नजरिया कैसा होना चाहिए। हिंदी के लिए न कोई भाषा छोटी है न उसकी जाति, रंग रूप के प्रति मन में, नजर में हिकारत का भाव रहता है। जो मिला, गले से लगाया, अपना बनाया और चलते रहे। जो सब को साथ लेकर चलते हैं उन्हें कोई सम्मान भले ही नहीं मिले, लेकिन समाज की स्वीकृति जरूर मिलती है। आज की स्थिति ऐसी है कि हर आदमी अपने में मस्त और व्यस्त है। समाज की चिंता उसे भले ही न हो, लेकिन समाज अच्छे लोगों की चिंता भी करता है और बुरा करने वालों की नकेल भी कसता है। बड़ी बहन की अच्छाइयों को अन्य बहनें करती रहें नजरअंदाज, लेकिन समाज उसकी अच्छाइयों को जान- पहचान रहा है और गुणगान भी कर रहा है। ङ्क्षहदी को अन्य भाषाओं में भी आज जो दर्जा और सम्मान मिला है तो उसका मुख्य कारण है खुद उसकी सहजता और सबके प्रति प्रेम भाव। अकड़ और अहं के रथ पर सवारी करने वालों को तो फकीर भी नहीं देखते। दक्षिण के राज्यों में आज से तीन चार दशक पहले तक हिंदी के प्रति जितना तीव्र विरोध था अब वैसी स्थिति नहीं है तो इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी रोजी और रोजगार की भाषा भी बन चुकी है। दुकानदार हिंदी न बोलना चाहे, लेकिन ग्राहक हिंदी के अलावा अन्य कोई भाषा न जानता हो तो दुकान मालिक की बाध्यता होगी कि वह अपनी बात ग्राहक को उसकी भाषा में समझाने का प्रयास करे। अन्य देशों के टूरिस्ट जब हमारे शहरों में आते हैं तो वो हमारी भाषा बोल नहीं पाते लेकिन हम उनकी भाषा टूटी फूटी बोल कर, या किसी अन्य की मदद से अपनी बात समझा कर ग्राहक को जाने नहीं देते।
क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनाने में हिंदी जैसा बड़पन क्या हमारे रोजमर्रा के कार्य व्यवहार में नजर आता है? हम अपने में मस्त रहते हैं। हम यह भी समीक्षा नहीं करते कि लोगों के साथ हमारा व्यवहार कैसा था। हम तो इसी मीमांसा में लगे रहते हैं कि लोगों ने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया। नतीजा यह होता है कि हमारा भाव हमेशा 'जैसे को तैसाÓ वाला ही होता है। इससे नुकसान भी हमारा ही होता है। यदि हिंदी ने भी जैसे को तैसा वाली नीति अपनाई होती तो, नुकसान भी उसी का होता। अंग्रेजी के शब्दकोष में हिंदी के शब्दों को सम्मान नहीं मिल पाता। दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए पहली शर्त तो यही है कि दूसरों के प्रति हमें अपने नजरिए में बदलाव लाना होगा। वो बड़ी बहन सभी को प्रिय इसलिए बन गई कि उसने सभी के प्रति अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखा, उपेक्षा की अनदेखी करने के साथ ही कभी सम्मान की अपेक्षा नहीं की। हिंदी का यह निरपेक्ष भाव हमें कम से कम यह तो सीखाता ही है कि हम सम्मान की चाह के बिना काम करेंगे तो सम्मान खुद राह तलाशता हमारे पीछे पीछे चला आएगा।

Thursday 26 August 2010

हम सफर के अच्छे यात्री ही बन जाएं

ट्रेन का सफर हम सभी ने किया है और करते रहते हैं। यह सफर हमारे लिए जिंदगी की पाठशाला से कम नहीं होता पर हम कहां सीख पाते हैं। ट्रेन के सफर में हमारा जो व्यवहार रहता है वैसे हम सामान्य जीवन में नहीं रहते। जबकि हम सब एक तरह से नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस में सफर कर रहे हैं। हम सबका टिकट पहले से कट चुका है, सीट भी रिजर्व है और मंजिल तो हम सब को पता है ही। इस सब के बाद भी हम एक अच्छे यात्री नहीं बन पाते कि बाद में लोग हमें याद रखें। हमें तो यह भी चिंता नहीं कि जब हम सफर पर निकलेंगे तब हमें विदा करने चार लोग भी जुटेंगे या नहीं।
ठसाठस भरी ट्रेन में पैर रखने जैसी हालत भी नहीं थी। अगले स्टेशन पर जितने लोग उतरते उनसे अधिक संख्या चढऩे वालों की थी। फिर भी हर कोई इस विश्वास के साथ डिब्बे में चला आ रहा था कि भीड़ है तो क्या अपना सफर तो अच्छा रहेगा। मुझे भी ट्रेन का सफर अच्छा लगता है। मेरा तो मानना है जिंदगी की पाठशाला के कई पीरियड का ज्ञान एक टिकट का मूल्य चुका कर प्राप्त किया जा सकता है।
जाने वाला एक होता है लेकिन छोडऩे वाले एकाधिक। आंखों से टपकने को आतुर आंसुओं को पलकों में ही रोक कर मुस्कुराते हुए बातचीत करते रहने के दृश्य प्लेटफार्म के अलावा आसानी से और कहीं देखने को नहीं मिलते। इस सफर में ही यह सत्य भी छुपा होता है कि जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही है। जाने वाले को भी पता होता है कि जो छोडऩे आते हैं वो साथ नहीं जाते। ट्रेन रवानगी के बाद जो घर की ओर कदम बढ़ाते हैं तो वो सब भी मान कर चलते हैं कि जब हम जाएंगे तो लोग हमें भी इसी तरह छोडऩे आएंगे।
जिंदगी और मौत के बीच भी तो ट्रेन के सफर जैसे ही हालात रहते हैं। हम सब के अंतिम सफर के टिकट पहले से ही रिजर्व हैं। हमें भले ही पता न हो लेकिन ट्रेन को सब पता है कब, किसे लेने जाना है। जब बहुत तबीयत बिगडऩे और डॉक्टरों के जवाब देने के बाद भी किसी चमत्कार की तरह बोनस लाइफ मिल जाए तो मान लेना चाहिए कि आरएसी की वेटिंग लिस्ट में नंबर था और उस स्वीकृत सूची में हमारा नंबर ऐन वक्त पर आते आते रह गया।
सफर चाहे ट्रेन का हो या जिंदगी का, यह हंसते खेलते तभी कट सकता है जब हम सब के साथ एडजस्ट होकर चलें। हम ट्रेन में किए पिछले किसी लंबे सफर को याद करें तो आश्चर्य भी हो सकता है कि जवान होते बच्चों की शादी के लिए कोई ठीकठाक रिश्ता दिखाने का आग्रह, कारोबारी मित्रता या वर्षों बाद अपने किसी स्कूली दोस्त के समाचार तो हमें पड़ोस की सीट पर बैठे उस यात्री से ही मिले थे जिसे हम ट्रेन चलने के पहले तक पहचानते तक नहीं थे। किसी के टिफिन से सब्जी लेना और बदले में अपने शहर की फेमस नमकीन और मिठाई खिलाने जैसे आत्मीय पल लंबे और उबाऊ सफर में भी रंग भर देते हैं। तंबाकू और ताश के पत्तों से शुरू हुई बातचीत मंजिल आने तक इतनी गहरी मित्रता में बदल जाती है कि एड्रेस का आदान-प्रदान याद से घर आने के अनुरोध के साथ खत्म जरूर हो जाता है लेकिन अपनों के बीच पहुंच कर हम कुछ घंटों के उस सहयात्री के किस्से सुनाते रहते हैं।
अब जरा इस ट्रेन के सफर को हम अपनी रोज की जिंदगी के साथ देखें। सफर तो हम रोज कर रहे हैं। दिन, महीनों और सालों वाले स्टेशनों पर बिना रुके नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस दौड़ती जा रही है। ट्रेन में तो हम फिर भी बिना किसी स्वार्थ के अपनी लोअर बर्थ जरा से अनुरोध पर अन्य यात्री के लिए खाली कर के उसकी अपर बर्थ पर खुद को एडजस्ट कर लेते थे लेकिन जीवन के सफर में हमें न तो अपनों की परेशानी नजर आती है और न ही हम में एडजस्ट करने का भाव पैदा होता है। हम इस सफर में अपने में ही मस्त हैं। हम न तो किसी के यादगार सहयात्री साबित होना चाहते हैं और न ही अपने आसपास के सहयात्री से कुछ अच्छा सीखना चाहते।
किसी वक्त जब कभी हमें कुछ फुर्सत मिले तो अकेले में चिन्तन जरूर करना चाहिए कि हमारा अब तक का सफर कैसा रहा। क्या हमने ट्रेन के डिब्बे में कुछ ऐसा किया कि बाकी लोग हमें एक अच्छे यात्री के रूप में याद रखें। हमने कुछ ऐसा भी किया या नहीं कि लोग हमें किस्सों में याद करें। सामान्य जिंदगी तो सभी बिताते हैं लेकिन हमने इस समाज का ऋण उतारने की दिशा में कुछ किया भी या नहीं। हम सब को टिकट तो उसी गाड़ी का मिला है जो किसी को जल्दी तो किसी को कुछ देर से तय स्टेशन पर ही ले जाएगी। टिकट सही होने के बाद भी यदि हम गलत गाड़ी में बैठ कर इस जीवन को सार्थक की अपेक्षा निरर्थक बनाएंगे तो इसमें न स्टेशन मास्टर का दोष होगा न सहयात्रियों का और न पटरियों का। हमें कुछ लोग स्टेशन पर छोडऩे तभी आएंगे, जब हम किसी की परेशानियों में साथ खड़े होने का वक्त निकाल पाएंगे। वरना तो आज घर से श्मशानघाट तक शवयात्रा को कंधा देने वाले भी कम पड़ जाते हैं। हर कोई सीधे श्मशानस्थल के मेनगेट पर पांच मिनट पहले पहुंचने के शार्टकट अपनाने लगा है।

Thursday 19 August 2010

मोबाइल पर आप आवाज से पहचान लेते हैं बात करने वालों को

हम में से ज्यादातर लोग अपनी सुविधा से फोन करना तो जानते हैं लेकिन जिसे फोन किया है उसकी परेशानी नहीं समझना चाहते। हम तो यही मानकर चलते हैं कि सारा जमाना हमारा नंबर जानता ही होगा, हम बात शुरू करने से पहले न तो अपना नाम बताने की जहमत उठाते हैं और न ही एसएमएस करते वक्त अपना नाम, पहचान आदि लिखना याद रखते हैं। जब कोई हमें भूल सुधार का सुझाव देता भी है तो इस तरह की गलतियों को स्वीकारना भी नहीं चाहते। आत्मीय संबंधों का पौधा एक तो पहले ही बोंसाई किस्म का होता है और हमारी छोटी छोटी भूल के कारण यह पौधा सूख कर कांटा हो जाता है। हम खुद ही कांटों वाली फसल तैयार करते हैँ और बाकी सारी जिंदगी इन कांटों की चुभन के साथ ही गुजारते रहते हैं।
फोन की घंटी बजी, मैंने फोन उठाया। दूसरी तरफ से हैलो की आवाज के साथ ही चुनौती भरे स्वर में पूछा गया बताइये कौन बोल रहे हैं। दिमाग पर काफी जोर डाला, लेकिन आवाज नहीं पहचान पाया। मैंने हथियार डालने के साथ ही बात संभालते हुए कहा दरअसल आप हैं तो मेरे बहुत नजदीकी लेकिन शायद मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है इसीलिए आप का नाम याद नहीं आ रहा है, आवाज तो पहचानी सी ही है।
मैंने सोचा अब तो उधर से नाम बता ही दिया जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। अब दूसरा सवाल दागा गया, अभी आपको हैप्पी इंडिपेंडेंस-डे का मैसेज भी किया था। मैंने फिर बात संभालने की कोशिश की अरे हां, आपका मैसैज मिला तो था, मैं किसी को जवाब नहीं दे पाया इसलिए आप को भी जवाब देना रह गया।
अब उधर से उलाहने और नाराजी भरे स्वर में कहा गया हां, भई अब आप हमारे एसएमएस का जवाब क्यों देंगे। हम कोई वीआईपी तो हैं नहीं। मैंने कई तरह से उन्हें समझाने की कोशिश की, अंत में लगभग माफी मांगते हुए उनका नाम पूछ लिया। उन्होंने बड़े गुरूर के साथ अपना नाम बताया। अब मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने के साथ ही उनसे पूछा एसएमएस में आपने अपना नाम लिखा था क्या। उन्होंने उल्टे मुझसे ही प्रश्न किया आप को मेरा नंबर भी याद नहीं है क्या। मैंने समझाने की कोशिश की मोबाइलसेट चैंज करने, मोबाइल मैमोरी कार्ड हो जाने, नंबर चैंज होने जैसे कई कारण हो सकते हैं। सारे कारण, माफी की पहल भी बेअसर होती नजर आई तो मैंने अंत में उस दोस्त को कह ही दिया अच्छा होता तुमने एसएमएस में अपना नाम लिखा होता। रही बात फोन पर आवाज पहचानने की तो वह सुविधा मेरे फोन में नहीं है। जाहिर है मेरे इस रूखे जबाव के बाद बात एक झटके में खत्म हो गई।
मोबाइल से हमें जितनी सुविधाएं मिली हैं, उतनी ही दुविधा भी बढ़ गई है। जब लैंड लाइन फोन पर निर्भरता थी या जब शुरूआती दौर में मोबाइल पर कॉल रेट आठ रुपए प्रति मिनट होता था तब फोन पर 'पैचान कौनÓ स्टाइल में कोई भी देर तक बात नहीं करता था और लंबी बात की स्थिति में घड़ी पर बार बार नजर जरूर जाती थी। जब से बात करना सस्ता या एक ही ग्रुप नंबरों पर फ्री कॉल जैसा होता जा रहा है, अचार के लिए मसाले से लेकर आज कौन सी ड्रेस पहनी जाए ये सारे गंभीर डिसीजन लेने में फोन पर हमने कितनी लंबी चर्चा की इसका तो पता ही नहीं चलता।
हम में से ज्यादातर को आए दिन अपने लोगों के इस तरह के उलाहनों का सामना करना ही पड़ता है। लोग फोन पर अपना गुस्सा निकालना तो जानते हैं लेकिन यह याद नहीं रखते कि फोन पर बात करने के भी कुछ मैनर्स होते हैं। जिसे हम फोन या एसएमएस करते हैं वह चाहे जितना हमारा प्रिय क्यों न हो हमें यह याद नहीं रहता कि एसएमएस करते वक्त साथ में अपना नाम, शहर या अपनी कोई पहचान है तो वह भी लिखते हैं या नहीं। अब सिर्फ नाम लिखना तो कतई पर्याप्त नहीं क्योंकि एक ही शहर में एक जैसे नाम वाले कई मित्र रहते ही हैं। इन सब नामों क ी पहचान में गड़बड़ी न हो इसीलिए हम सब को अलग-अलग तरीके से पहचानते हैं। फिर एसएमएस या फोन पर बात करते वक्त इन बातों का ध्यान क्यों नहीं रखते। जब हम यह अनिवार्य सजगता बरतना नहीं जानते तो फिर इस बात को भी प्रेस्टीज पॉइंट नहीं बनाना चाहिए कि सिर्फ आवाज से किसी ने आप को फोन पर क्यों नहीं पहचाना।
हम अपनी सुविधा से फोन लगाते हैं लेकिन यह ध्यान नहीं रखते कि जिसे फोन लगाया है वह भी उस वक्त बात करने की स्थिति में है भी या नहीं। हम फोन पर बात शुरू करने से पहले इतना पूछना भी जरूरी नहीं समझते कि मुझे आप से कुछ चर्चा करनी है, आप के पास अभी वक्त है या थोड़ी देर से फोन लगाऊं। हम तो अधिकार पूर्वक नंबर डायल करने के साथ ही यह मान कर चलते हैं कि सामने वाला जैसे हमारे फोन का इंतजार ही कर रहा है। बिना अपना नाम बताए सीधे अपने काम की बात शुरू करने में हमें संकोच नहीं होता। फिर न तो हम वक्त का ख्याल रखते हैं और न ही सामने वाले की परेशानी को जानने की कोशिश करते हैं।
जो लोग सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े होते हैं फिर चाहे वह क्षेत्र राजनीति, संचार, वकालत, चिकित्सा, प्रशासनिक आदि ही क्यों न हो हम तो यह मानकर चलते हैं कि इन्हें यदि हमने फोन लगाया है तो बस हमारी समस्या तो हाथों हाथ हल होना ही चाहिए।
हम तो अपने काम, अपनी समस्या के त्वरित निदान को लेकर इतने स्वार्थी हो गए हैं कि विवाह समारोह में भोजन कर रहे परिचित डॉक्टर को रात से हो रहे लूज मोशन की डिटेल बताने के साथ हाथों-हाथ दवा-गोली पूछ लेने में भी हमें हिचक महसूस नहीं होती। वकील से हम श्मशानघाट में भी अपने किसी विवाद को लेकर सलाह लेने में संकोच नहीं करते। ऐसे में यदि संबंधित पक्ष से मनोनुकूल जवाब न मिले तो दूसरे ही पल हम बुराइयों का इतिहास खोल कर बैठ जाते हैं फिर हमें इस एक काम के न हो पाने के गुस्से में इससे पहले कराए गए अन्य दस कामों की याद भी नहीं रहती। हमारी इन छोटी-छोटी गलतियों के कारण वर्षों में हरा हुआ आत्मीय संबंधों का पौधा पल भर में सूख जाता है। इसके सूखने का कारण भी हम पड़ोसी के घर के कारण धूप न मिलना बता देते हैं पर यह नहीं स्वीकार पाते कि हमने भी इस गमले को बालकनी में रखने के प्रयास नहीं किए।

Wednesday 11 August 2010

मन को भार से मुक्त करने के लिए है तो सही आभार

हम आभार व्यक्त करना सीख लें तो मन से कई तरह के भार उतर सकते हैं। घर और स्कूल से हमें ऐसे सारे संस्कार मिलते तो हैं लेकिन हम शत-प्रतिशत पालन तो कर नहीं पाते उल्टे बड़े होने पर खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकते। ईश्वरीय सत्ता को हम सहजता से स्वीकार नहीं पाते लेकिन यह आसानी से मान लेते हैं कि कोई शक्ति है तो सही। बड़ा खतरा टल जाए तो इसी अदृश्य शक्ति को याद करते हैं लेकिन चौबीस घंटे आराम से बीत जाने पर हम उस शक्ति का आभार व्यक्त करना भूल जाते हैं। पांच मिनट की इस प्रार्थना से हमारे अगले चौबीस घंटे आराम से गुजर सकते हैं।
अभी कुछ दोस्तों के साथ एक समारोह में भाग लिया। रात अधिक हो जाने के कारण आयोजकों ने सबके रुकने की व्यवस्था भी फटाफट कर दी। देर तक गप्पे लगाने के बाद सभी दोस्तों ने सोने की तैयारी करते हुए लाइट ऑफ करने के साथ ही कंबल खींचा और एक दूसरे से गुडनाइट कर ली। बाकी दोस्त तो आंखें मूंद चुके थे। कुछ के खर्राटे भी शुरू हो गए थे।
गुडनाइट कर चुका एक दोस्त फिर भी जाग रहा था, पलंग पर आंखें बंद किए बैठा था और मन ही मन कु छ बुदबुदा रहा था। पहले मैंने सोचा उससे इस संबंध में पूछ लूं। फिर ध्यान आया कि हमारी बातचीत से बाकी लोगों की नींद में खलल पड़ सकता है, लिहाजा तय किया कि सुबह बात करूं गा। सुबह नाश्ते पर फिर सारे दोस्त एक साथ मिले। मैंने उस दोस्त से पूछा रात में किसे याद कर रहा था।
उसने बताया कि बचपन से यह आदत है कि सोने से पहले बीते 24 घंटों के लिए भगवान के प्रति आभार व्यक्त करता हंू कि आपकी कृपा से आज का दिन मेरे लिए आपका दिया अनमोल उपहार साबित हुआ। इसके साथ ही अपने परिजनों, रिश्तेदारों, और उनके रिश्तेदारों तथा इन सब के चिर परिचितों की बेहतरी के लिए प्रार्थना करने के साथ ही यदि हमारे कोई दुश्मन हैं तो उनके मन में कटुता के बदले करुणा के भाव पैदा करने की कामना करता हूं। चौबीस घंटों के दौरान अंजाने में मेरे किसी कार्य, किसी बात से किसी का दिल दुखा हो तो उसके लिए क्षमा भी मांगता हूं।
जाहिर है कि कुछ दोस्तों ने उसका मजाक उड़ाया तो कुछ ने सवाल किया कि जो हमारे दुश्मन हैं उनक ी बेहतरी की कामना करना तो पागलपन है। उसने कुछ प्रश्नों के जवाब दिए, कुछ मामलों में निरुत्तर हो गया। नाश्ता खत्म होने के साथ ही चर्चा भी खत्म हो गई। साथी लोग सामान समेटने के साथ ही रवानगी की तैयार में लग गए। जिनका ईश्वर नाम की सत्ता में विश्वास नहीं है उनके लिए इस तरह की प्रार्थना पागलपन हो सकती है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं वे भी इसे मेरा धर्म, तेरा धर्म की नजर से देखने के साथ ही अपने तरीके से समीक्षा भी कर सकते हैं।
मुझे अपने उस मित्र की इस आदत में जो अच्छी बात लगी वह है आभार का भाव। ईश्वर किसी ने देखा नहीं, प्रकृति के रूप में मिली सौगात को भी कई लोग ईश्वरीय उपहार मानने में संकोच करते हैं। पर यह भी तो सच है कि प्रकृति की ही तरह घर, परिवार, समाज के लोग बिना किसी स्वार्थ के हमारे काम आते हैं। आपस की चर्चा में हम ऐसे मददगारों को ईश्वर के समान मानने में संकोच नहीं करते। ऐसे मददगारों का ही हम आभार व्यक्त करना याद नहीं रखते तो हर रात सोने से पहले उस सर्वशक्तिमान क ा आस्था के साथ आभार व्यक्त करना तो दूर की बात है। दोस्त से हुई चर्चा के बाद से मैंने तो सोने से पहले का अपना यह नियमित क्रम बना लिया है। बाकी लाभ मिले न मिले दिन भर के तनाव से इस पांच मिनट की प्रार्थना का इतना फायदा तो है कि नींद बड़े सुकून से आती है। जो हमारे काम आएं, हम यदि उनका अहसान नहीं भी उतार पाएं तो आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं, ऐसा करने पर हम छोटे तो नहीं होंगे लेकिन सामने वाले की नजर में बड़े जरूर हो जाएंगे। हममें आभार व्यक्त करने के संस्कार हैं तो फिर प्रकृति और उस अंजान शक्ति के प्रति श्रद्धा और आभार भाव रखने में भी हर्ज नहीं होना चाहिए। कहा भी तो है जब हम किसी के लिए प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर उन लोगों पर अपनी कृपा करता है। जब हम सुखी और प्रसन्न हों तो यह कतई न मानें कि यह हमारी प्रार्थना का फल है। यह मानकर चलें कि किसी ने हमारे लिए भी प्रार्थना की है। अपशब्दों में यदि हमें आगबबूला करने की ताकत है तो आभार या प्रार्थना के भाव में मन को निर्मल, भारमुक्त करने का जादू क्यों नहीं हो सकता।

Thursday 5 August 2010

बुराई छोडऩे के लिए कल का इंतजार क्यों

कोई बुराई कब हमारी आदत और फिर लत बन जाती है हमें पता नहीं चलता। अफसोस तब होता है जब परिवार और समाज में इसके कारण हमारी फजीहत होने लगती है। बुराई से दोस्ती में अंधेरा मददगार होता है और बुराइयों के अंधेरे से बाहर लाने के लिए दिन का उजाला फें्रडशिप निभाता है। बुराई से जब मुक्ति के लिए मन छटपटाने लगे तो कल नहीं तत्काल निर्णय का साहस दिखाएं। बुराई अपनाई जाती है चोरी-छुपे लेकिन जब उसे छोड़ें तो खूब प्रचार करें। ऐसा करने पर आसपास के लोग सख्त नजर रखेंगे, ये सारे पहरेदार ही आपके संकल्प की सफलता में सहायक बनेंगे।
जब भी सारे मित्र होटल में लंच या डिनर का प्रोग्राम बनाते इन्हीं में से एक मित्र आदत के मुताबिक नॉनवेज का आर्डर देना नहीं भूलते थे। अभी जब हम सब लंच के लिए मिलें तो उन्होंने मीनू कार्ड हाथ में लेने के साथ ही अपने लिए शाकाहारी डिश का ऑर्डर नोट कराया। बाकी मित्र हैरत में थे, उनसे कारण पूछें, इससे पहले खुद उन्होंने ही घोषणा भरे लहजे में कहा मैंने नॉनवेज छोड़ दिया है। बात यही खत्म नहीं हुई, वे सभी मित्रों के पास गए और सभी को व्यक्तिगत रूप से अपनी यह आदत छोडऩे की उत्साह के साथ जानकारी दी।
मित्रों ने आश्चर्य व्यक्त करने के साथ बधाई तो दी, साथ ही शंका जाहिर की कि अपने इस संकल्प पर अमल सख्ती से कर सकोगे? उनका जवाब भी अनूठा था, एक सप्ताह से तो अपने संकल्प पर डटे रहने में कोई दिक्कत नहीं आई। कभी, किसी मोड़ पर डगमगाने लगूं तो आप सब मित्र हो तो सही रोकने के लिए। बाकी साथियों ने जब पूछा कि अचानक यह निर्णय क्यों लेना पड़ा, उन्होंने जो कु छ कहा उसका आशय यही था कि आखिर ये सब भी तो जीव हैं, इन्हें भी तो जीने का हक है।
नॉनवेज छोडऩा अच्छा है या वेज होना अच्छा यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि सार्वजनिक रूप से अपनी कोई बुरी आदत को न सिर्फ स्वीकारना, बल्कि अपने दोस्तों को यह दायित्व सांैपना कि राह से भटकने की स्थिति बने तो दोस्त अपना दायित्व पूरा करें, बड़ी बात है।
हमारी आदत तो यह है कि हम अपनी अच्छाइयों को तो बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और यह अपेक्षा भी रहती है कि लोग हमारी तारीफ भी करें। हर वक्त यह सतर्कता भी बरतते हैं कि हमारी बुरी आदतें या तो लोगों को पता नहीं चले या पता चल भी जाए तो हम दूसरों की बुराइयों से तुलना करके अपनी बुराई को छोटा बताने का रास्ता निकाल लें। समाज में अपनी हैसियत की खातिर हममें से ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीने लगे हैं। इसी कारण हम अच्छाइयों का बखान करना और बुराइयों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि लोगों को हमारी खामियां तलाशने में अधिक दिलचस्पी रहती है। यही कारण है कि हमारी छोटी सी गलती भी घूम फिरकर पहाड़ की तरह हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। बुरी आदत को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना तो बहुत हिम्मत का काम है, हालत तो यह है कि अपनी किसी बात से सामने वाले का दिल दुखने पर हम तो माफी मांगने का साहस भी नहीं दिखा पाते।
संगत का असर हमारे आचरण में भी झलकता है। अच्छे दोस्तों का साथ होगा तो बुरी आदतें पास आने में घबराएंगी लेकिन साथ खराब होगा तो हमारी अच्छी बात में भी खराबी तलाशी जाएगी। इसलिए जब स्कूल से बेटा अपना खराब रिपोर्ट लेकर आता है तो ज्यादातर पेरेंट्स क्लास टीचर से यही रिक्वेस्ट करते नजर आते हैं कि इसे अगली बैंच पर बैठाएं। अगली बैंच में कोई जादू नहीं होता लेकिन इस बैंच के लिए टीचर जिन स्टूडेंट का चयन करते हैं उनके कारण इसका महत्व बढ़ जाता है। किसी बुराई से छुटकारे के लिए अपने दोस्तों पर जिम्मेदारी डालना यानी उन्हें कोई अन्य बुराई छोडऩे के लिए प्रेरित करना भी है। फंडा सीधा सा है कि जब दोस्त बुराई छोड़ सकता है तो हम क्यों नहीं।
किसी अच्छे काम को करने के लिए हम दिन तय नहीं करते तो कोई बुरी आदत भी एक झटके में ही छोड़ी जा सकती है। हम कल के चक्कर में रोज आज की सीढिय़ों पर बुराइयों का थैला कंधे पर लादे चढ़ते जाते हैं, यह बोझ भारी तब लगता है जब हम जिंदगी का आधे से ज्यादा सफर पूरा कर चुके होते हैं। तब हमें अपनी कमजोरी का अहसास होता भी है तो उससे मुक्ति पाने की छटपटाहट में बाकी बचा वक्त भी गुजार देते हैं। शाकाहारी बनना चाहते हैं, शराब, सिगरेट या ड्रग्स की आदत से छुटकारा पाना चाहते हैं तो इसके लिए दोस्त हौसला बढ़ा सकते हैं, परिजन चट्टान की तरह आपके साथ खड़े रह सकते हैं, मनोचिकित्सक आपको आसान तरीके बता सकते हैं लेकिन इस सबसे पहले आपको अपनी मजबूत इच्छा शक्ति दर्शाना होगी, शुरूआत खुद को ही करना होगी। बुराई कोई सी भी हो उसे अंधेरे कमरे में ही गले लगाया जाता है लेकिन उजाला होता ही इसलिए है कि काले धब्बे फीके पड़ जाएं। किसी भी बुराई से पीछा छुड़ाने की ठाने तो खूब प्रचार करें क्योंकि बाजारवाद का नियम भी है, जितना ज्यादा प्रचार सफलता भी उतनी अधिक। जब हम खुद लोगों को बुराई छोडऩे की जानकारी देंगे तो मन पर हावी बोझ भी कपास जैसा हल्का हो जाएगा।

Thursday 29 July 2010

नजर रखिए अवसर पर

ईश्वर ने हमें नजर तो दी है लेकिन अवसर हमें नजर नहीं आते। अवसर हमारे दरवाजे तक आ भी जाएं तो हम उन्हेें लपकना भी नहीं जानते। काम नहीं मिलने पर हम घंटों बेसिरपैर की बातें कर सकते हैं लेकिन अपनी कमजोरियों को दूर करने या उन्हें अपनी ताकत में बदलने का वक्त हमारे पास नहीं है। बिना योज्यता वालों के लिए भी सम्मानजनक काम के अवसरों की कमी नहीं है लेकिन यहां भी हमारा आत्मसम्मान आड़े आ जाता है। दुकानों के बाहर लगी नौकर चाहिए की तख्तियां बताती हैं कि लोगों को छोटे काम करने की अपेक्षा बेकार घूमना ज्यादा अच्छा लगता है।
सफर के दौरान जैसे ही कोई बड़ा स्टेशन आता ट्रेन में भीख मांगने वालों का सिलसिला शुरू हो जाता। इन्हीं लोगों के बीच एक दृष्टिबाधित युवक ने कई यात्रियों का ध्यान आकॢषत किया। वह पेपर सोप बेच रहा था। टायलेट जाने वाले यात्रियों ने उससे पेपर सोप खरीदने के साथ ही उसके इस कार्य की सराहना भी की। उसके लिए बहुत आसान था अपनी इस कमजोरी को भावनात्मक रूप से लोगों से सहायता का माध्यम बनाना। वह अन्य भिखारियों की तरह यात्रियों के सामने हाथ भी फैला सकता था लेकिन उसने रास्ता चुना आत्म सम्मान वाला। इस अवसर ने उसे बाकी भिखारियों से अलग कर दिया। उसने जो रास्ता चुना उसमें ना योग्यता जैसी चुनौती आड़े आई न ही किसी की सिफारिश की जरूरत पड़ी।
मुझे लगता है हममें से ज्यादातर लोग अपनी कमजोरी को इस तरह पेश करते हैं कि लोग हम पर दया करें और हमें लाभ मिल जाए। कहा भी तो है मुसीबत, मेहमान और मौत अचानक ही आते हैं। यह पता होने के बाद भी हम असफलता के ज्यादातर मामलों में लगभग ऐसे ही कारणों का सहारा लेते हैं। जिसे हम अपनी बात समझाने का प्रयास करते हैं न सिर्फ उसे वरन खुद हमें भी पता होता है कि इस तरह की बहानेबाजी मेें कोई दम नहीं है। फिर भी हम अपनी असफलता को छुपाने का प्रयास तो करते ही हैं।
एक बड़े ग्रुप के एमडी अपने साथियों से चर्चा में अकसर कहा करते हैं कि शांत समुद्र में तो अनाड़ी नाविक भी आराम से नाव चला सकता है। कुशल नाविक तो वह होता है जो आंधी-तूफान में लहरों के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए बिना घबराए किनारे तक नाव लेकर आता है। जयपुर या चंडीगढ़ की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाने वाले कई ड्राइवर बद्रीनाथ-केदारनाथ के मार्गों पर उतनी निर्भीकता से शायद ही गाड़ी चला पाएं क्योंकि उन सर्पीले और संकरे रास्तों पर उन्हें गाड़ी चलाने का पूर्व अनुभव नहीं होता, इसीलिए ज्यादातर श्रद्धालु हरिद्वार या ऋषिकेश इन्हीं उन क्षेत्रों के अनुभवी ड्राइवरों की सेवा लेना पसंद करते हैं।
हम अपनी कमजोरियों को समझते तो हैं लेकिन उन्हेेंं दूर करने के बारे में नहीं सोचते और न ही उस कमजोरी को अपनी ताकत बना पाते हैं। एक दृष्टिबाधित ट्रेन में पेपर सोप बेचकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना सकता है लेकिन हम अपने आसपास देखें तो ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे तो हैं लेकिन बेरोजगार हैं। शिमला में माल रोड की दुकानें हों या लक्कड़ बाजार, लोअर बाजार शिमला की दुकानें यहां ड्राइवर चाहिए, सेल्समेन चाहिए, होटल में काम करने के लिए नौकर चाहिए की सूचना दुकानों के बाहर महीनों तक लगी देखी जा सकती है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि या तो बेरोजगारों में इन कार्यों जितनी योग्यता भी नहीं है या ऐसा कोई काम करने की अपेक्षा उन्हें बेकार रहना ज्यादा अच्छा लगता है। जिंदगी में अवसर हमेशा मिलते नहीं और जब अवसर नजर आएं तो झपटने में हर्ज भी नहीं। जो अवसर झपटना जानते हैं उनके लिए रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं लेकिन जो कोई निर्णय नहीं ले पाते वो फिर हमेशा पश्चाताप ही करते रहते हैं कि क ाश उस वक्त थोड़ा साहस दिखाया होता। तब हमें लगता है कि कमजोरी वाले बहाने ही हमारी प्रगति में कई बार बाधा भी बन गए।
हम प्रयास करें नहीं और यह भी चाहें कि सफलता मिल जाए तो यह ना सतयुग में आसान था न अब। तब मनोकामना पूर्ण हो जाए इसलिए संतों से लेकर सम्राट तक तपस्या या युद्ध का रास्ता अपनाते थे और अब स्पर्धा के युग में टेलेंट में टक्कर होती है। सिफारिश से पद तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस पद के योग्य भी हैं या नहीं यह किए जाने वाले काम से ही सिद्ध हो सकता है। भूख लगने पर थाली में पकवान सजा कर तो कोई भी रख देगा लेकिन खाने के लिए तो हाथ हमें ही बढ़ाना होगा। बहानों की चादर ओढ़ कर आलसी बने रहेंगे तो दरवाजे तक आए अवसर हमारे जागने तक इंतजार नहीं करेंगे।हमें जब यह पता हो कि योग्यता हमसे कोसौ दूर है तो फिर निठल्ले बैठे रहने से यह ज्यादा बेहतर है कि जो अवसर नजर आए बिना किसी झिझक के काम में जुट जाएं, कम से कम ईश्वर ने हमें दुनिया देखने के लिए नजर तो दी है इन्हीं नजरों से हम यह भी देख सकते हैं कि कमाऊ सदस्यों और समाज की नजरों में कितनी उपेक्षा का भाव होता है । तभी कहा भी जाता है काम के ना काज के, ढाई सेर अनाज के।

Monday 26 July 2010

काम जितनी राम राम!

हमसे आगे हमारा स्वार्थ तेज कदमों से चलता है लिहाजा सामने जो भी आता है हम मन की तराजू पर उसे तौलने लग जाते हैं कि वह आदमी हमारे आज काम आएगा या कल। जितना वह आदमी हम हमारे काम का लगता है उसे उतना ही सम्मान देते हैं। यदि काम का नहीं है तो किक मार देते हैँ । फुटबाल के मैदान में तो किक सही लग जाए तो गोल हो जाता है लेकिन आम जिंदगी में किक मारने की यह आदत हमें लोगो की नजर से गिरा भी सकती है।
अभी फीफा कप का जुनून चलता रहा। फुटबॉल देखते वक्त ऐसा लगता है कि हम सब की जिंदगी भी फुटबॉल की तरह ही है। कुछ लोग हमेें और हम किसी और को ताउम्र किक ही तो मारते रहते हैं। जब किक सही लग जाती है तो सफलता का गोल हमारे खाते में दर्ज हो जाता है।
खेल चाहे क्रिकेट, फुटबॉल या खो खो ही क्यों ना हो किसी भी खेल में सफलता टीम के सदस्यों के समान सहयोग से ही मिलती है असफलता के कारणों में चाहे कोई एक खिलाड़ी की चूक रहे लेकिन टीम के बाकी सदस्य उसे सूली पर चढ़ाने जैसे भाव नहीं दर्शाते। खेलों में जो टीम भावना नजर आती है क्या वह हम अपनी जिंदगी और कार्य क्षेत्र में तलाश पाते हैं, शायद नहीें। हम समाज का हिस्सा हैं लेकिन बिना समाज के हम कुछ भी नहीं यह बात हम आसानी से तभी समझ पाते हैं जब हम इस तरह के हालातों से गुजरते हैं। जिस तरह एक हेयर कटिंग सैलून का संचालक खुद की कटिंग नहीं कर सकता उसी तरह जटिलतम आपरेशन करने वाला डाक्टर भी अपनी पीठ पर उभरे फोड़े का अपने हाथों आपरेशन नहीं कर सकता।
इस असलियत को समझने के बावजूद हम लोग ना जाने किस भ्रम में जीते हैं। हम लोगों से किक मारने की स्टाइल में व्यवहार करते हैं। हमें लगता है जो कभी हमारे काम नहीं आ सकता उसे फुटबॉल की तरह किक मार भी दें तो अपना क्या बिगडऩा है। ऐसा करते वक्त यह भी याद नहीं रहता कि अब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि अगले मोड़ पर उसी व्यक्ति से काम पड़ सकता है जिसे कुछ समय पहले ही किक मारी थी। समझदार दुकानदार दुकान के सामने कटोरा लेकर खड़े भिखारी को छुट्टे पैसे डाल कर पुण्य तो कमाता ही है और चिल्लर का संकट पडऩे पर इन्हीं से कमीशन पर चिल्लर भी ले लेता हैं।
जिसे हम कुछ नहीं समझ कर तिरस्कृत करते हैं हमेंं पता नहीं उसे हम एक अनुभव मुप्त में देते हैं। हम जिस भी तरीके से उसे उपेक्षित करें उसे हमारा अंदाज तो पता चल ही जाता है। किसी को इतना भी उपेक्षित और तिरस्कृत ना किया जाए कि वह और आक्र ामक होकर सामने आए। पवित्र नर्मदा नदी के संबंध में प्रचलित है कि नर्मदा का कंकर भी शंकर है। दरअसल नर्मदा के तेज प्रवाह में पहाड़ी क्षेत्रों से पत्थर बह कर आते हैं और लगातार किनारों और चट्टानों से टकरा कर घिसते-घिसते गोलाकार हो जाते हैं। चूंकि घर के पूजा कक्ष में अंगूठे से कम आकार के शिवलिंग रखे जाते हैं इसलिए जो भी श्रद्धालु नर्मदा स्नान को जाते हैं लौटते में अपने साथ कंकर बने शंकर को पूजन के लिए साथ ले आते हैँ। उपेक्षा, हिकारत, से उपजी संघर्ष क्षमता ही कंकर को भी शंकर बना देती है।
हमारा स्वार्थ हम से आगे चलता है इसलिए हम मन की तराजू पर लोगों का वजन करते चलते हैं कौन अभी काम आ सकता है, कौन कल काम आएगा और कौन छह महीने बाद उपयोगी हो सकता है। हमारे काम मुताबिक ही हम मान सम्मान की मात्रा भी तय करते हैं। यदि चाय पिलाने मात्र से काम निकल सकता हो तो हम झूठे मुंह ही सही खाने का पूछने की जहमत नहीं उठाते। जो कल काम आ सकता है उसके लिए हमारे मन में आज मान सम्मान नहीं उमड़ता और आज जो हमारे काम आ गया उसे कल तक याद रखें यह जरूरी नहीं लगता।
मतलब नहीं हो तो हम किक मारने में देरी नहीं करते और काम अटका हुआ हो तो पैरों में लौटने में भी हमें अपमान महसूस नहीं होता। हम जब लोगों से काम निकालने जितने संबंध रखेंगे तो लोग भी अपना काम छोड़कर हमसे नहीं मिलेंगे। फुटबॉल सिखाता तो यही है कि गोल करने या टीम को जिताने के लिए साझा प्रयास जरूरी होते हैं। अकेला खिलाड़ी सोच ले कि वह टीम को जिता देगा तो यह संभव नहीं। टीम के बाकी सदस्य अच्छा खेलें और कोई एक सदस्य सहयोग न करे तो भी जीत संभव नहीं।

Thursday 15 July 2010

हमें बोलना आता है?

वैसे तो हम जन्म के एक डेढ़ साल बाद ही मा मा, पा पा, गा गा बोलना सीख गए थे लेकिन हम में से कई लोग पापा, मम्मी बन जाने के बाद भी कब, कहां, क्या, कितना बोलना और कब चुप रहना यह सीख नहीं पाते। कभी जब हमारा कोर्ट-कचहरी से वास्ता पड़े तो समझ आ जाता है कम से कम बोलना कितना फायदेमंद और निर्रथक बोलना कितनी परेशानी का कारण बन सकता है।
बंदरों के हमले से बचने के चक्कर में वो सज्जन सीढिय़ों के किनारे गिर पड़े थे। कुछ लोग उनकी मदद के लिए दौड़े । वहीं रहने वाले एक सज्जन घर की गैलरी से सारा नजारा देख रहे थे। उन्होंने पहले पूछा चोट ज्यादा तो नहीं लगी, फिर घुटने की चोट पर लगाने के लिए रुई और मरहम लेकर आ गए। यह सारी गतिविधि चल ही रही थी कि भीड़ में खड़े एक युवक ने सांत्वना देते हुए कहा यह अच्छा हुआ कि बंदरों ने काटा नहीं।
उसकी बात थी तो सही लेकिन आसपास खड़े लोगों ने उसे घूर कर देखा क्यों कि सांत्वना व्यक्त करने का यह अंदाज उन लोगों को ठीक नहीं लगा। एक ने तो तुरंत कह भी दिया कि एक तो बेचारा वह घायल आदमी वैसे ही दर्द से कराह रहा है और आप हैं कि कह रहे हैं अच्छा हुआ बंदरों ने काटा नहीं। इन दोनों के बीच तकरार की नौबत आए इससे पहले ही अन्य लोगों ने बात संभाल ली।
कितनी अजीब बात है न, जन्म के करीब एक साल बाद बच्चा मा मा, ना ना, पा पा जैसे शब्द बोलना सीख जाता है और कु छ ही वर्षों में फर्राटे से घरेलू भाषा सहित अन्य भाषाएं भी बोलने लग जाता है, लेकिन क्या वजह है कि हममें से ज्यादातर लोग उम्र के अंतिम पड़ाव तक यह सीख ही नहीं पाते कि कब, कौन से शब्द बोलना और कहां चुप रहना है। समझदार आदमी वही होते हैंं जो विवादास्पद मामलों में देश, काल, परिस्थिति और खुद की स्थिति का आकलन कर चुप्पी साध लेते हंै।
बढ़ती महंगाई के इस जमाने में हमें पेट्रोल, कुकिंग गैस, खाने की चीजों के बढ़ते दाम की चिंता तो है, इन सारी चीजों में हम किफायत बरतते हैं लेकिन शब्दों की फिजूलखर्ची के मामले में हम किसी बिगड़े नवाब से कम नहीं। आपातकाल में जरूर बोलने पर पाबंदी लगी थी। उस बात को भी 33 साल हो गए। शब्दों पर चूंकि कोई टैक्स भी नहीं लगता इसलिए बिना आगा-पीछा सोचे मन में जो आता है बोलते रहते हैं। जब आपातकाल लगा हुआ था तब कु छ भी बोलने से पहले दस बार सोच लेते थे कि कहीं मुंह से ऐसा कुछ न निकल जाए कि बेमतलब जेल की हवा खानी पड़ जाए।
गीत तो यह है कि 'जो तुम को हो पसंद वही बात कहेंगेÓ, लेकिन हम अपनी कहने में जितनी उदारता बरतते हैं दूसरे को सुनते वक्त उतना संयम और साहस नहीं दिखा पाते। कारण यह है कि हमें मीठा खाना, मीठा सुनना ही अच्छा लगता है। यह तो भला हो डायबिटीज का कि लोगों को मजबूरी में मीठे से परहेज करना पड़ रहा है। फिर भी अपने विषय में कड़वा सुनना दिल वालों के बस की ही बात है। जो लोगों की बात सुनने जितना संयम भी नहीं दिखाता उसे लोग मन ही मन नकार देते हैं।
जब आपकी बात कोई पूरी सुनता है तो हममें भी यह धैर्य होना ही चाहिए कि हम सामने वाले को इत्मीनान से सुने। हम में चूंकि धैर्य नहीं रहता इसलिए या तो हम पूरी बात सुनते नहीं या पहले से ही सामने वाले के संबंध में धारणा बना लेते हैं जो बाद में गलत साबित होने पर मन ही मन पश्चाताप के अलावा हमारे सामने कोई चारा भी नहीं बचता। इस पश्चाताप की आग में झुलसने से बचने का वैसे तो आसान तरीका हम सब को पता भी होता है लेकिन हम साफ मन से माफी मांगने या जो मन में धारणा बना ली थी वह सच्चाई कहने का साहस भी नहीं जुटा पाते।
कब बोलें, कब चुप रहें, अनर्गल न बोलें, बोलते वक्त वाणी में संयम किस तरह रखें, गुस्से में, ऊंचे स्वर में न बोलें, जितना पूछा जाए उतना ही बोलें आदि सुनने और बोलने के फायदे क्या हो सकते हैं यह कोर्ट में किसी मामले की सुनवाई क ा साक्षी होने पर समझ आ सकता है। दोनों पक्षों को अपनी बात कहने, तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने का पर्याप्त मौका देने के बाद ही न्यायाधीश अंत में फैसला सुनाते हैं। ज्यादातर मामलों में यह फैसला दोनों पक्षों को मान्य भी होता है।
फैसला मान्य करने वाले दोनों पक्षों में से एक पक्ष फैसले से असंतुष्ट हो सकता है लेकिन उसे भी यह संतोष रहता है कि उसे इत्मीनान से सुना गया। और हम लोग हैं कि किसी का काम करना तो दूर उसे इत्मीनान से सुनते भी नहीं। जाहिर है ऐसे में वह व्यक्ति हमारी तारीफ तो नहीं करेगा।

Thursday 8 July 2010

अच्छा करने के लिए तो मुहूर्त की जरूरत नहीं

हमारे एक साथी तेज बारिश में मिठाई की दुकान से कुछ ज्यादा ही मिठाई ले रहे थे। मैंने पूछा क्या भारत बंद के कारण तैयारी कर रहे हो, पहले तो वे टाल गए, दो-तीन बार पूछने पर राज खोला कि श्रीमती का जन्मदिन है और हमने ऐसे किसी भी शुभ या स्मृति प्रसंग पर तय कर रखा है कि अपनी खुशियां उन बच्चों के साथ भी बांटें जो बेसहारा, अनाथ हैं। बंद के कारण दुकानें नहीं खुलेंगी इसलिए एक दिन पहले ही खरीद कर रख रहा हूं।

एक अन्य मित्र भी जरूरतमंद की मदद करते हैं लेकिन, तरीका थोड़ा अलग है। पास-पड़ोस मेें किसी निर्धन परिवार का बच्चा आॢथक परेशानी के कारण आगे पढ़ाई नहीं कर पा रहा हो तो उसे कापी, किताब, फीस, स्कूली ड्रेस आदि मुहैया करा देते हैं। एक अन्य व्यक्ति अपने परिवार के बड़े छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे और पहनने लायक कपड़े प्रेस करवा के जरूरतमंद लोगों या आश्रम में देकर आते हैं।

चाट की दुकान पर हम कुछ चटपटा खाने के लिए तो जाते हैं लेकिन टेस्ट पसंद नहीं आने पर हम बिना एक पल सोचे वह प्लेट डस्टबीन में डाल देते हैं। हमारे बच्चे पेस्ट्री की जिद्द करते हैं, हम लेकर भी देते हैं लेकिन बालहठ के चलते वह उसे फेंक कर कुछ और खाने के लिए मचलने लगते हैं। हम फिर उनकी नई फरमाइश पूरी करने में लग जाते हैं।

हम चाहें जिस धर्म क ा पालन करते हों, सभी धर्मों के पवित्र ग्रंथों में बात कहने के तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन इन सभी का मूलभाव यह तो रहता ही है कि जो असहाय, असमर्थ हैं उनकी मदद करें। हम सब के मन में कभी-कभी सहायता का समुद्र हिलोरे भी मारने लगता हैं लेकिन समझ नहीं आता किसकी, कैसे, कितनी मदद करें। जब कि ऐसे लोगों कि कमी नहीं है जिन्हें समय पर मिली थोड़ी सी मदद भी डूबते को तिनके का सहारा साबित हो सकती है।

हम अपने पर, अपनों पर खर्च करने में तो दिखावे की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं फिर भी कई बार वह सुकून नहीं मिलता जिसके लिए हम यह सारा प्रदर्शन करते हैं। रोते बच्चे को चुप कराने के लिए हम तमाम जतन करते हैं, तत्काल महंगा खिलौना खरीद कर उसे बहलाने की क ोशिश भी करतेे हैं लेकिन उसकी रुलाई रुकती भी है तो कौवे-कबूतर को उड़ते, बंदर को उछलकूद करते, हमारी हंसती शक्ल देखकर या मां की गोद में प्यार की थपकी से। हमारा मन भी लगता है किसी ठुनकते बच्चे की तरह ही है कब, कैसे खुश होगा हमें ही पता नहीं होता। फिर भी हमें यह तो पता ही है कि किसी की आंख से बहते आंसू पोंछने के लिए हम रुमाल दे सकते हैं। हमें यह भी पता है कि किसी अन्य के चेहरे पर यदि हल्की सी मुस्कान देखना है तो हमें भी जोर से तो हंसना ही पड़ेगा। समस्या तो यह है कि हम हंसना मुस्कुराना भूलते जा रहे हैं। श्री श्री रविशंकर जीवन जीने की कला के रहस्यों को समझाते हुए कहते हैं भले ही झूठमूठ हंसो, न हंस सको तो झूठे ही मुस्कुराओ, बदले में हमें सामने वाले की सच्ची या झूठी ही सही लेकिन मुस्कान ही मिलेगी। सही है नाराज कर हम दूसरों का दिल तोडऩे के साथ ही अपना खून भी जलाते हैं लेकिन हमारी हंसी दिलों को जोडऩे और हार्टअटैक से बचाव का काम भी कर सकती है। हम अपने गम से ही इतने दुखी हैं कि सामने वाले कि न तो खुशी पचा पाते हैं और न ही उसका दु:ख हमें विचलित करता है। 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिएÓ यह गीत सुनते वक्त हम गुनगुनाते जरूर हैं लेकिन इसका मर्म नहीं समझ पाते। कई बार भारी भरकम गिफ्ट पर हल्की सी मुस्कान भारी पड़ जाती हैं लेकिन हम बाकी लोगों के चेहरे की मुस्कान बढ़ाने वाले छोटे से प्रयास करने के विषय में भी नहीं सोच पाते। दूसरों के लिए हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन प्रचार से दूर रहकर असहाय लोगों की सहायता करने वालों की हमारे ही आसपास भी कमी नहीं है, हम चाहें तो ऐसे लोगों से भी कुछ अच्छा करना तो सीख ही सकते हैं।

Sunday 4 July 2010

हमारा भी इंतजार कर रहा है स्टोर रूम

जो जन्मा है उसे बुढ़ापे का सामना भी करना ही है, यह बात हम में से ज्यादातर लोगों को समझ ही नहीं आती। यही कारण है कि हम अपने बुजुर्गों को स्टोर रूम में पटक कर भूल जाते हैं। उनके प्रति प्रेम उमड़ता भी है तो महीने के पहले सप्ताह में जब पेंशन की राशि मिलना होती है। कितना अफसोसजनक है कि सैर सपाटे का प्लान बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पर अपने पालतु डॉग को तो साथ ले जाते हैंं लेकिन इन बुजुर्गों को घर की चौकीदारी के लिए छोड़ जाते हैं। पता नहीं हमें यह याद क्यों नहीं रहता कि कल हमारे बच्चे भी बड़े होंगे और तब तक वह स्टोर रूम भी खाली हो जाएगा।
थरथराते हाथों में पकड़े पेन से वह उस फार्म पर दस्तखत करने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक उनका हाथ फिसल गया। खुद को संभालने की कोशिश में उनके हाथ से पेन छूट कर नीचे गिर गया । उन्हेें साथ लेकर आया किशोर जोर से चिल्ला पड़ा क्या बाबा आप पेन भी ढंग से नहीं पकड़ सकते। जल्दी क रिएना, मेरे फ्रेंड कब से इंतजार कर रहे हैं।
वृद्ध ने उस किशोर, जो शायद उनका पोता था, की ओर कातर दृष्टि से देखा तो उनकी आंखों से आंसू की बूंदें बाहर आने को आतुर नजर आ रही थी। जैसे-तैसे उन्होंने अपने मटमैले कुर्ते के एक किनारे से आंखों को साफ किया। इस सारे घटनाक्रम को माल रोड स्थित डाक घर की उस खिड़की के पास खड़े अन्य लोग भी देख रहे थे। उस किशोर के रूखे व्यवहार पर इन लोगों ने भी उसे घूर कर देखा लेकिन उसे समझाने का साहस शायद इसीलिए नहीं किया क्योंकि कुछ पल पहले ही वे उसका अपने दादा के साथ व्यवहार देख चुके थे।मैं अपना काम निपटाकर बाहर निकल कर थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि सामने से एक अन्य बुजुर्ग एक हाथ में स्कूल बेग और दूसरे हाथ में पोते का हाथ थामे उसकी आइसक्रीम की जिद्द पूरी करने के लिए दुकान की तरफ बढ़ रहे थे। मुझे लगा डाक घर मेंं जो पोता अपने दादा पर झल्लाया था बचपन में उसे भी दादा ने इसी तरह प्यार किया होगा। बंदरों की तरह उछल कूद कर के उसे हंसाया होगा। तुतलाती जुबान में चल मेरे घोड़े कहते हुए उसे कमर पर बैठा कर घर आंगन में घुमाते वक्त पसलियों मेेंं उसकी लात और घंूसों की मार हंसते हुए सहने के साथ घोड़े की रपतार तेज कर पोते को खुश किया होगा।
बचपन में हम सब ने दादा-दादी, नाना-नानी के कपड़े भी खराब किए, उनके बाल खींचे, जो चीज हाथ में आई रोते हुए वह उन्हेंं मारने के लिए भी फेंकी। इस सब के बाद भी हमारी आदतों क ो हमारे बुजुर्गों ने बच्चा मानकर नजर अंदाज कर दिया तो इसलिए कि उनके मन मेंं सदैव यह भाव रहा कि है तो हमारा ही खून। फिर ऐसा क्यों होता है कि हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं हमारी प्राथमिकताएं तो बदल ही जाती हैं जो लोग हमारी एक कराह पर पूरी रात जागते हुए गुजार देते थे उनके प्रति हम इतने निष्ठुर भी हो जाते हैं। नया घर बनाते वक्त हर बच्चे के लिए उसका एक बड़ा कमरा तय रहता है, कार के लिए गैराज बनाना पहली प्राथमिकता होती है लेकिन घर के बुजुर्ग के लिए या तो स्टोर रूम जितनी जगह निकाल पाते हैं या जहां सारा अटाला रखना तय करते हैं वहीं इन लोगों का भी पलंग डाल देते हैं। बैल बूढ़ा हो जाए, गाय दूध देने लायक न रहे तो कई बार किसान उन्हेें कसाई को थमा देता है। अभी हमें समाज और अपने स्टेटस की चिंता रहती है इसलिए हम इतनी रियायत बरतते हैं कि अपने बुजुर्गों को घरों में रखते तो हैं लेकिन यह सतर्कता बरतते हैं कि उनका कमरा नितांत एकांत में हो जिससे हमारी लाइफ में खलल ना पड़े।
भरे-पूरे परिवार के बाद भी हमारे बुजुर्ग एकाकीपन के शिकार इसलिए हैं कि हमें उनकी फिक्र नहीं रहती। उन्होंने तो अपना कत्र्तव्य समझकर, अपना पेट काट कर हमारी परवरिश की। हमारी छोटी-छोटी खुशियों पर अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा दी। जिनकी बदौलत हम आज समाज में सिर ऊंचा कर शान से घूमने की स्थिति में हैं, अब वही हमें बोझ लगते हैं।
हमअपने बुजुर्गों के त्याग तो भूल ही रहे हैं, अपने दायित्व भी याद करना नहीं चाहते। नई कार की पार्टी तो हम दोस्तों के बीच देर रात तक मना सकते हैं लेकिन अपने बुजुर्गों को मंदिर दर्शन कराने की हमें फुर्सत ही नहीं मिल पाती। एक पल को सोचेंगे तो ताज्जुब होगा कि एक ही छत के नीचे रहने के बाद भी हम कई दिनों से उस स्टोर रूम तक गए ही नहीं। सैर सपाटे का प्रोग्राम बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पूरी करने के लिए हम पालतू डॉग को साथ ले जाना तो अपनी शान समझते हैं लेकिन हमारी रुलाई को हंसी में बदलने के लिए जो कई वर्षों तक कु त्ते, बिल्ली, शेर की आवाज निकालकर हमें खुश करते रहे उन्हें साथ ले जाना हमें रास नहीं आता।
हमें जो संस्कार मिले उसके ठीक विपरीत कार्य करने से पहले हमें यह तो याद रख ही लेना चाहिए कि हमारे बच्चे काफी कुछ हम से भी सीखते हैं। कल ये बच्चे भी बड़े होंगे ही तब तक स्टोर रूम वाला वह कमरा भी खाली हो जाएगा। ऐसा न हो कि हमारे बच्चे तब हमें आइना दिखाएं तो उसमें हमारी सूरत हमें भयावह नजर आए। हम अपने हाथों अपना कल सुखद बनाने के बारे में आज ही से सोचना शुरू कर दे यही बेहतर है वरना तो बेरहम वक्त किसी को माफ नहीं करता।

Wednesday 23 June 2010

बस प्यार नहीं खरीदा जा सकता

अथाह संपत्ति होने के बाद भी हम अपने दिवंगत परिजन के लिए जीवन खरीदना तो दूर परिवार के दो सदस्यों के बीच समाप्त हुआ प्यार तक नहीं खरीद सकते। फिर ऐसे पैसे की अंधी दौड़ भी किस काम की जो भाइयों में दीवार खड़ी कर दे, एक दूसरे के खून का प्यासा बना दे। और हम अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले संस्कारों को भी भुला दे।
पिता जी की माली हालत ठीक नहीं थी। एक परिचित के पेट्रोल पंप पर सर्विस कर के परिवार पाल रहे थे। किस्मत को कोसने की अपेक्षा सपने देखने में विश्वास करने वाले बाकी पिताओं की तरह इनका भी सपना था कि ऐसा ही एक पंप अपना भी होना चाहिए। उन्हें पता था कि जो सपने देखते हैं उन्हें उस शिखर तक पहुंचने के लिए रात-दिन भी एक करना पड़ता है। संघर्ष किया तो परिणाम भी मनमाफिक आया। रोड से करोड़पति बने, तरक्की होती गई। पिता के कारोबार को दोनों बेटों ने और आगे बढ़ाया, चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, इसलिए जब वह प्रसन्न होती है तो उसका वाहन भी अपनी खुशी जाहिर करता है लिहाजा कई बार व्यक्ति की अच्छा बुरा सोचने की क्षमता भी क्षीण कर देता है। धन ने मन में मतभेद की दीवार उठा दी, दोनों भाई अलग हो गए। अथाह संपत्ति के बाद भी जो खोया वह था पारिवारिक सुख और आत्मिक शांति। अंतत मां की समझाइश, आध्यात्मिक गुरु की सीख ने देर से ही सही हृदय परिवर्तन कर दिया। किसी सुपर हिट हिंदी फिल्म के सुखद अंत की तरह अब दोनों भाइयों के परिवार एक हो गए हैं। चौका चूल्हा भले ही अलग है लेकिन मतभेद की वह दीवार ढह गई है।
ये दोनों भाई हमें जानें यह जरूरी नहीं, लेकिन हम में से ज्यादातर लोग इन्हें जानते हैँ। लगभग हर महीने एकाध बार मुकेश और अनिल अंबानी की संपत्ति, इनके वेतन, बंगला निर्माण, मंदिर दर्शन के दौरान भारी भरकम दान, समाजसेवा के कार्य आदि को लेकर कुछ ना कुछ पढऩे-सुनने में आता ही रहता है। अंबानी बंधुओं की संपत्ति की खबरों से अधिक हममें से ज्यादातर लोगों को इस बात ने सुकून दिया है कि सुबह के भूले शाम को घर आ गए। ये अलग थे तब और अब एक हो गए तो भी हम में से तो किसी का भला होना नहीं लेकिन इस एक केस स्टडी से हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अकूत संपत्ति से भी बढ़कर कोई अनमोल चीज है तो वह है भाइयों, परिवार के बीच का प्यार।
झोपड़ी में रहने वाले दो निरक्षर भाइयों के बीच मतभेद की यही स्थिति रही होती तो संभवत: इनमें से कोई एक दूसरी दुनिया में और दूसरा भाई सींखचों के पीछे होता। सम्पन्न और संस्कारिक भाइयों को यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि सब कुछ होते हुए भी पे्रम का अभाव है। मुझे तो यह समझ आया कि पैसे से प्रेम प्रदर्शित करने वालों की फौज तो खड़ी की जा सकती है फिर भी पे्रम नहीं खरीदा जा सकता। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि पैसा कमाने की ऐसी होड़ भी क्या कि अंधी दौड़ में एक ही कोख से जन्में दो भाई एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाए।
कहा भी तो है एक लकड़ी को तो आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन जब लकडिय़ों का ढेर हो तो कुल्हाड़ी के वार भी बेकार साबित हो जाते हैं। अंगुलियां जब एक होकर मुट्ठी में बदल जाती हैं तो उस घूंसे की चोंट ज्यादा प्रभावी होती है। बिखरा हुआ परिवार सबकी अनदेखी, हंसी का पात्र भी बनता है। परिवार के बीच बहती प्रेम की नदी ही सूख जाए तो हिलोरे मारता अथाह संपत्ति का समुद्र भी किस काम का। पैसा होना चाहिए लेकिन पैसा ही सब क ुछ हो जाए तो भी महल से लेकर झोपड़ी तक भूख मिटाने के लिए तो रोटी ही चाहिए। फ र्क है भी तो इतना कि अमीर आदमी रोटी पचाने के लिए दौड़ता है और गरीब रोटी कमाने के लिए भागता रहता है। रोटी चाहे घी में तरबतर हो या रूखी-सूखी, वह तभी अच्छी लगती है जब परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्यार हो, परिवार में मतभेद हो तो भाई लोग अपने कमरे में बैठकर चाहे रसमलाई ही क्यों ना खाएं वह भी बेस्वाद लगती है।। एक कतरा प्यार पाने के लिए पैसों का पहाड़ खड़ा किया जाए यह जरूरी नहीं है। रोटी से पहले गोली खाना पड़े, नींद भी बगैर गोली खाए नहीं आए तो मान लेना चाहिए हमारे तन,मन और मानसिकता में विकार पैदा हो गए हैं और बुजुर्गों से जो संस्कार हमें मिले थे उनका हम हमारे स्वार्थों, सुविधा के मुताबिक पालन कर रहे हैं।

Monday 21 June 2010

चिड़िया फुर्र हो गई!

मां जो हमारे लिए पिता भी थीं और यह संयोग है कि उन्हें दिवंगत हुए फादर्स डे पर एक साल हो रहा है।


चिड़िया फुर्र हो गई!


कीर्ति राणा



आज पूरा एक साल हो गया है... हर महीने की तरह जब कमाजी की याद में एक वृद्ध, असहाय महिला को भोजन करा के वस्त्रदान किए, तो हम सब की भावना यही थी कि ये भोजन मां की आत्मा को सुकून देगा। उस रात कुछ भी तो नहीं खाया था कमाजी ने। बस सुबह हमेशा की तरह मेरे हाथ की बनी कॉफी पी थी और दो ब्रेड बटर में से आधी ही खाई थी। तबीयत कुछ अनमनी सी दिख रही थी, लेकिन हम सभी को तब आश्चर्य हुआ, जब किसी के कहे बिना खुद नहाने चली गइंर्।

बाथरूम से आवाजें लगा रही थी, अरे दुल्हन मुझे उठा ले, पलंग तक छोड़ दे, चलते नहीं बन रहा है। हम दोनों ने जैसे-तैसे हड् डी के ढांचे को उठाया और नाराजी भी जाहिर करते रहे कि कमाजी तुमसे किसने कहा था नहाने के लिए, नहाना ही था तो देर से नहाते, सुबह-सुबह या जरूरत थी नहाने की। दुल्हन ने कपड़े पहनाएं और पलंग पर लेटा कर सब अपने-अपने काम में लग गए।

दोपहर में पीछे वाले कमरे में नजर डाली तो वे हमेशा की तरह घोड़े बेचकर सोने की मुद्रा में लेटे हुए थे। पत्नी से पूछा कमाजी ने खाना खाया कि नहीं? जवाब मिला बस सुबह वह ब्रेड ही खाई थी। दोपहर में खाने का पूछा भी तो कहने लगीं इच्छा नहीं है। दवाई-गोली का जरूर पूछ रही थी और बेग से थैली निकालकर शायद गोली ली भी है। कुछ कमजोरी दिख रही है।

मैं तबीयत पूछने उनके कमरे में गया भी, लेकिन वे निश्चिंत भाव से सोए थे। अधखुला मुंह, अधखुली आंखे, तकिए पर बिखरे मेहंदी लगे बाल। मैं लौट आया कि सोते हुए को क्यों उठाएं।

दोपहर को पत्नी ने किराने का सामान लाने की याद दिलाई, बच्चे पीछे पड़ गए पापा विशाल मेगामार्ट से लाएंगे, फटाफट तैयार हो गए। कमाजी को कहने गए हम लोग सामान लेकर आते हैं। आदत के अनुसार उन्होने आंखें मूंदे हुए निर्देश दिया बेटा दरवाजा बाहर से लगाकर जाना। पत्नी ने हमेशा की तरह पूछा मम्मी तुम्हारे लिए कुछ लाना है? अभी कुछ चाहिए? वही जवाब नहीं बेटा, बस आधा गिलास पानी भर कर रख दे।

विशाल मेगामार्ट में दो घंटे में खरीदारी में करीब 3 हजार के बिल में बच्चे १०० ग्राम वाली नेसकेफे की कॉफी बोतल लेते व मजाक करते हुए बोले लो पापा, बई की कॉफी खूब देना रोज बनाकर। एक काम करते हैं एक बड़ा थर्मस भी खरीद लेते हैं, रात में कॉफी बनाकर बई के पास रख दिया करेंगे। खूब पिएगी बई कॉफी। दोनों बच्चे बई के कॉफी प्रेम की मजाक उड़ाते-उड़ाते अचानक बई की हालत को लेकर फिक्रमंद होते हुए बोले पापा आज बई की तबीयत कुछ ज्यादा खराब नजर आ रही है, डाक्टर को दिखा देना चाहिए।

मैंने कहा बेटा बई ने दवा-गोली ले ली है। अभी अपने साथ कुल्लू-मनाली चली थी। आठ दिन एक भी दिन गोली ली? पत्नी बोली आज सुबह बिना कहे नहाने चली गई कोई मान सकता है कि तबीयत खराब रहती है।

बच्चे फिर बोले बट पापा, दिखा देना चाहिए। या पता बई हमसे नहीं बता रही हो। मैंने उन्हें संतुष्ट करते हुए कहा, अच्छा शाम को दिखा देंगे।

विशाल मेगा मार्ट से खरीदारी कर लौटते हुए शाम के 7 बज गए थे। ऑफिस नजदीक आने पर मैने गाड़ी सड़क किनारे रुकवाई और बच्चों को हिदायत दी अभी जाते व त तेल का डिब्बा भी खरीद लेना, कल शनिवार है, तेल नहीं खरीदते।

मैं ऑफिस में व्यस्त हो गया, बच्चों ने घर पहुंचकर फोन पर सूचना दी तेल का डिब्बा ले लिया है। पत्नी ने बताया मम्मी ठीक हैं, नीचे वाली ताई जी (मकान मालकिन) उनसे चाय-पानी का पूछ गई थी। अभी सो रहे हैं। आप खाना खाने कब आओगे...?

रात के करीब ११.३० बजे घर पहुंचा, बच्चे टीवी देख रहे थे। हमेशा की तरह पूछा तुम दोनों ने खाना खा लिया, जवाब हां में मिला। बई ने खाया कि नहीं? पत्नी ने कहा उन्होंने नमकीन-मीठा दलिया बनवाया था। शाम को खाने के लिए कहा भी था, तो अभी इच्छा नहीं है कह कर मना कर दिया।

पत्नी से कहा तुम खाना परोसो, मैं उन्हें जगा कर लाता हूं। उस कमरे में गया, वे निश्चिंत भाव से सोई हुई थी। मैंने दो-तीन आवाज लगाई, कोई असर नहीं हुआ। नजदीक जाकर सिर छुआ, हाथ छुआ, नाक के पास हाथ ले जाकर देखा सांस सामान्य चल रही थी। कंधा पकड़कर हिलाया कमाजी-कमाजी... चलो उठो खाना खा लो।

आंखे पूरी खोलने के साथ ही हाथ के इशारे के साथ फुसफुसाहट भरे शब्दोें में कहा-मेरी इच्छा नहीं है, तुम लोग खाओ।

मैंने आकर पत्नी से कहा वो तो सो रहे हैं, उनकी इच्छा नहीं है, अपन लोग ही खा लेते हैं। पत्नी ने कहा लगता है, आज जरूर उन्होंने नींद की गोली ली है। सुबह बैग में ढूंढाढपोली भी कर रहे थे।

पत्नी खाना परोसने लगी तभी, दोनों बच्चों ने कहा पापा बई के गले में खराश सी लग रही है, उन्हें गरम पानी से गोली दे देते हैं। मैंने कहा हम लोग खाना खाते हैं, तब तक तुम दोनों थाे़डा पानी गरम करके बई को गोली देकर आओ।

दोनों बच्चे किचन में गैस पर पानी गरम करते हुए मजाक करते जा रहे थे, ऐसा करते हैं पानी की बजाए बई को कॉफी बनाकर दे देते हैं,उससे ही गोली दे देंगे। मैंने ऊंचे स्वर में पूछा लाला पप्पी पानी हुआ कि नहीं गरम, जाओ गोली देकर आओ।

हम दोनों ने खाना शुरू किया। उधर, बई के कमरे में गरम पानी और गोली लेकर गए तनु और लाला दाै़डते हुए घबराए से वापस आए रूआसे स्वर में बोले जल्दी चलो। पापा-बई के मंुह से खून आ रहा है, दोनों के आंसु थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

हम खाना छोड़कर भागते हुए उनके रूम में पहुंचे आंखे अध खुली, अधखुले मुंह पर होठों की किनोर से खून की पतली सी लकीर बहते-बहते सूख गई थी।

कमाजी-कमाजी उठो, मम्मी ओ मम्मी... क्या हुआ तुम्हें... आँखें तो खोलो... कुछ बोलो तो सही... बई-बई उठो बई। बेसुध सी पड़ी मां के चेहरे पर बहू-बच्चों की आंखो से आंसुओं की बूँदें टप-टप गिर रही थी।

मिसेज ने रैलिंग से नीचे झांकते हुए आवाज लगाई ओ अमन भैया 'जरा जल्दी आओ तो ऊपर` देखो तो मम्मी को क्या हो गया।

दोनों बच्चे कह रहे थे पापा १०८ को कॉल करो फटाफट... अमन ने आकर कमाजी के सीने को हल्के-हल्के दबाया। नब्ज देखी, नाक पर हाथ रखा सबकी गति सामान्य थी। अंकल अम्माजी को अस्पताल ले चलते हैं, आप ने १०८ पर एंबुलेंस को फोन किया है या। बच्चेे जिद कर रहे थे पापा एंबुलेंस का इंतजार मत करो, हम कार से अस्तपाल लेकर चलते हैं।

मैं उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था बेटा एंबुलेंस जल्दी आती ही होगी, उसमें सारी सुविधा रहती है, दो मिनट और देख लेते हैं।

मैंने पुलिस कंट्रोल रूप फोन किया, जवाब मिला आपके पते पर १०८ रवाना हो गई है १२ बजकर ०७ मिनट पर। आपके घर की लोकेशन तलाश रही होगी। मैंने कंट्रोल रूप को सूचित किया आप गाड़ी वालों को मैसेज कर दें हम पायल सिनेमा के यहां खड़े हैं।

लाला ने कार स्टार्ट की। मैंने, अमन ने कमाजी को हाथों में उठाया, पहली मंजिल सीढ़ियों से उतरते हुए कार में बैठे पत्नी और लड़की तनु भी कार में जैसे-तैसे समाए। हम पायल सिनेमा पर कुछ पल रुके फिर ब्लाक एरिए के निजी अस्पताल गोविंदम् पर पहुंचे। अस्पताल गेट पर ताला लगा था और हम गोद में मां को लिए गेट खुलवाने के लिए जूझ रहे थे।

खड़खड़ की आवाज सुनकर अस्पतालकर्मियों की नींद खुली, आंखे मलते हुए दरवाजे का ताला खोला। हमने इमर्जेंसी रुम में कमाजी को टेबल पर लिटाया, उबासी लेते हुए जूनियर डॉ टर ने उनका प्रारंभिक परीक्षण किया और कहा इन्हें वेंटीलेटर पर लेना पड़ेगा। मैंने कहा एडमिट कर लीजिए और तुरंत वेंटीलेटर पर ले लीजिए।

डॉ टर का जवाब था हमारे यहां तो वेंटीलेटर है नहीं या तो आप इन्हें बेदी हॉस्पीटल ले जाइए या सिविल अस्पताल, वहां मिल जाएगी ये सुविधा। अमर और मैंने फिर से कमाजी को उठाया, अस्पताल के ढलान वाले रास्ते पर संतुलन न संभलने से पत्नी गिर पड़ी, किसी को पूछने की फुरसत नहीं थी कि लगी तो नहीं, हाथ पैर झटकार कर वह तुरंत खड़ी हो गई। तीनों ने मिलकर कमाजी को कार में लिटाया। लाला से कहा बेटा मेरी प्रेस के आगे सिविल अस्पताल है, वहीं ले चल। अमन ने कहां बेदी हॉस्पीटल देख लें अंकल। मैंने कहा यार वहां कोई फिर नई परेशानी खड़ी हो इससे अच्छा है, सिविल अस्पताल ही चलें।

कार ने शिव चौक के यहां से टर्न किया ही था कि पुलिस कंट्रोल रूम से फोन आया क्०त्त् आपके घर के वहां कब से खड़ी है आप लोग कहां हैं। मैंने कहा हमने प्राइवेट अस्पताल में दिखाया था। अब हम सिविल अस्पताल ले जा रहे हैं, योंकि उन्हें वेंटीलेटर पर रखना पड़ेगा।

कंट्रोल रूम से बताया गया- एंबुलेंस में वेंटीलेटर तो वैसे है भी नहीं। आप बताएं या जवाब दें गाड़ी को। मैंने कहा आप बता दीजिए हम पेशेंट को लेकर सिविल अस्पताल पहुंच रहे हैं, एंबुलेंस की जरूरत नहीं है।

सिविल अस्पताल आ चुका था पोर्च में कार लगते ही मैंने और अमन ने कमाजी को गोदी में लिया और अस्पताल के स्ट्रेचर पर डाल कर इमजेंसी में पहुंचे। डॉ टर ने प्रारंभिक परीक्षण किया। स्टेथस्कोप सीने पर रखा, एक हाथ उनकी नाक पर रखा। ठंडी आवाज में हमें सलाह दी कुछ नहीं बचा है, आप इन्हें घर ले जाइए। मैंने सीने पर हाथ रखा बदन देखा गरम था।

मैंने डॉ टर से अनुरोध किया- डाक सा. जरा ठीक से देख लीजिए एक बार।

डॉ टर ने कहा कुछ नहीं बचा है, मैं फिर भी इसीजी करके दिखा देता हूं। वार्ड बाय ने हाथ-पैर मेें इसीजी के लिए वायर लगाए, मशीन चालू की, मशीन से निकल रही इसीजी रिपोर्ट वाले पेपर में सारी लाइनें सीधी और रिपोर्ट जीरो थी। डॉ टर ने वह रिपोर्ट दिखाई, उसकी आंखें प्रश्न पूछ रही थी- अब तो आप लोग संतुष्ट हैं!

कमाजी को घेर कर खड़े पत्नी-बच्चे जो अब तक चुपचाप सारी कार्रवाई देख रहे थे फफक-फफक कर रो पड़े, खून से लथपथ एक मरीज को लेकर आए पुलिसकर्मी, उस मरीज के परिजन झुक-झुक कर स्ट्रेचर पर पड़ी कमाजी की देह को देखकर आत्मा को शांति देने की मुद्रा में हाथ जाे़डकर हटते जा रहे।

डॉ टर पूछ रहा था-हां आप लोग बताओ इनका एडमिशन कार्ड बनवाया है या? भर्ती करोगे तो डेड बॉडी अभी नहीं सुबह मिलेगी, पीएम भी करना पड़ सकता है।

डॉ टर ने डैड घोषित कर ही दिया था लिहाजा हम उल्टे पांव उनको पुन: गोदी में लेकर कार में आ गए, जाते समय हम सब के चेहरे पर उम्मीद की एक हल्की सी लकीर थी और अब जब मरी हुई मां को लेकर कार की तरफ बढ़ रहे थे, आंखों से आंसू बह रहे थे, दिल रो रहा था और अस्पताल के अंदर और पोर्च में खड़े लोग दया दृष्टि से हमें देख रहे थे।

पहले ही चूंकि स्टाफ के हरेराम, राजेंद्र बतरा, मुकेश सोनी आदि साथी अस्पताल पहुंच गए थे, लिहाजा उन्होंने ऑफिस में भी बाकी साथियों को 'सर की मदर की डैथ` होने की सूचना दे दी थी।

हम घर पहुंचे बदहवास चेहरे और अजीब सी चुप्पी के साथ सीढ़ियों से शव लेकर ऊपर चढ़े। ताऊजी, ताईजी हमें ढांढस बंधा रहे थे। बच्चों और मिसेज के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे ओर मैं चाहकर भी रो नहीं पा रहा था। शायद कारण यही होगा कि किसी को तो हिम्मत रखनी पड़ेगी।

बच्चों से मैंने गंगाजल की शीशी और तुलसी के गमले से कुछ मिट् टी लाने को कहा। रात मेंें गोबर मिलना संभव नहीं था सो गंगाजल और तुलसी के गमले वाली मिट् टी से फर्श लीपा। इस बीच अमन और हरेराम मिलकर सोफा-टेबल, कुर्सी पीछे वाले गलियारे में रख आए थे।

गंगाजल से पवित्र किए फर्श पर मृत देह रखी। ब्लाउज-पेटीकोट में कमाजी वैसी ही सोई लग रही थी, जैसे सुबह से रात तक पीछे वाले रुम में सो रही थी। सिर के पास अगरबत्ती लगाई। तुलसी और गंगाजल मुंह में डालने के लिए रोता हुआ लाला बोला, पापा पहले मैं डालूंगा बई कहती थी ना या पता मेरे मुंह में गंगाजल भी डालेगा या नहीं। कोने में खड़ी तनु रोए जा रही थी। लाला के बाद हम तीनों ने उनके अध खुले मुंह में तुलसी का पत्ता रखा और चम्मच से गंगाजल डाला। पत्नी ने याद दिलाया और मैंने कमाजी की पलकों पर हल्के से हाथ रख कर आंखें बंद कर दी।

स्टाफ के साथियों का आना शुरू हो गया था। दिमाग काम नहीं कर रहा था। या करूं, कैसे करूं, पत्नी ने साड़ी देते हुए कहा बई को साड़ी तो आे़ढा दो। लाल चादर पर जिस तरह लेटी थी। लगभग साड़ी भी चादर की तरह उनके शरीर पर डालकर आस-पास से शरीर के नीचे दबा दी, ताकि पंखे की हवा से उड़े नहीं। मुंह वैसा ही खुला हुआ था। अध खुली आंखों को बंद करते व त मैंने बच्चों से पूछा था, बई की आंखेें दान कर दे, बच्चों की मनुहार थी पापा रहने दो, वैसे भी बई को चश्मा लगता था।

पत्नी ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा मीनू जीजी को तो बता दो।

मैंने फोन लगाया- मीना, कमाजी चली गई। जैसी कि कमाजी की अदा थी बिना बताए चले जाना, यही समझते हुए मीना ने सहज पूछा-कहां चली गई।

मैं- हम सब को छाे़डकर चली गई, मर गई ...! अभी अस्पताल से हम लोग डैड बॉडी घर लेकर आ गए हैं।

उधर, से फूट-फूट कर रोने की आवाज के बीच ही मीना बच्चों को बता रही थी बिट् टू बई मर गई..!

खुद को संभालते हुए मीना ने पूछा या तबीयत ज्यादा खराब थी। अब बता तेेरी या इच्छा है!

मैं- हम लोग उन्हें लेकर इंदौर ही आ जाते हैं। वो कहते रहते थे भैया मैं मरुं तो इंदौर में ही जलाना।

मीना- सुन दादा इंदौर ले आ, लेकिन कहां लेकर आएगा।

मैं- तेरे घर ही लेकर आते हैं, या तू बता।

मीना- देख मेरे यहां तो तीसरी मंजिल का मामला है। बार-बार चढ़ना-उतरना पड़ेगा, पानी का भी संकट चल रहा है, लोगों का आना जाना रहेगा, यहां तो बहुत परेशानी हो जाएगी। सुन तू रुक मैं भाभाी से बात करती हूं।

इस बीच तनु और लाला अपने-अपने मोबाइल से बड़ी मम्मी और बैंक कॉलोनी में बई के न रहने की सूचना दे चुके थे। सुदामानगर से भाभी का फोन आया- मुन्ना या सोचा।

मैं- इंदौर ही लेकर आ रहे हैं,कहां लाऊं यह तय नहीं किया है। अभी मीना से चर्चा करके बताता हूं।

बात समाप्त हुई ही थी कि मीना का फोन आ गया सुन दादा, भाभी के यहां ले आ सुदामानगर। भाभी तेरे से कह नहीं पा रही है, इसलिए मेरे से कहा है, मीनू जीजी तुम कहो ना मुन्ना से कमाजी को अपने यहीं लेकर आ जाए।

मैं- चलो सोचते हैं, या करना है। बात खत्म हुई थी कि मोटू का फोन आ गया- अंकल कब निकल रहे हो... आप तो सीधे सुदामानगर ही लेकर आना।

मैं - देखते हैं बेटा, मीना से बात कर रहे हैं।

मोटू- अरे अंकल, कुछ मत सोचो आप सुदामानगर ले आओ ना, मम्मी आप से कह नहीं पा रही हैं। मीना बुवा भी सुदामानगर ही आ रही हैं।

मैं- हां बेटा, चल हम लोग सुदामानगर ही लेकर आएंगे, तू प्रतीक्षा को भी फोन कर दे, मैं तेरी मम्मी से बात करता हूं।

भाभी को फोन लगाकर बताया कि हम लोग गाड़ी का इंतजाम कर रहे हैं, जैसे ही गाड़ी हुई, तुरंत रवाना हो जाएंगे, सीधे सुदामानगर ही लेकर आएंगे।

भाभी- हां मुन्ना, यहीं ले आओ, अपन सब लोग हैं तो सही। मीनू जीजी भी यहीं आ रही हैं और सुनो कमाजी के हाथ-पैर, छाती-पेट, मुंह पूरे शरीर पर शुद्ध घी अ%छी तरह से लगा दो। बच्चों और राजू को संभाल के आना, घबराना मत।

मैं- हां कर देते हैं। हम यहां से निकलते व त फोन कर देंगे। मैं बच्चों को हिदायत दे रहा था, बेटा तुम लोग अपने मोबाइल चार्जिंग पर लगा दो और चलते व त चार्जर याद से रख लेना। स्टाफ के कुछ साथी पूछते हैं सर प्रॉपर इंदौर ही जाना है। ये सुदामानगर गांव है या इंदौर में है। यहां कौन आपकी सिस्टर रहती हैं। मैं उन्हें बताता हूं, प्रॉपर इंदौर में ही है सुदामानगर, यहां हमारे कजिन ब्रदर रहते हैं, उन्हीं के घर ले जाएंगे। सिस्टर भी वहीं आ जाएगी। स्टाफ वाले अन्य रिश्तेदारों के बारे में पूछते हैं मैं बताता हूं सब इंदौर में ही हैं, बाहर से कोई नहीं आना है।

बच्चों ने पूछा पापा बेबी बुवा, आसु बुवा को बता दिया।

मैंने कहा लाओ मेरा मोबाइल दो उन्हें भी बता देते हैं। मैंने बेबीजी को फोन लगाया, सुन बेबीजी कमाजी चली गई।

बेबीजी- एें, कब? तबीयत खराब थी, या कहते-कहते उसकी रुलाई फूट पड़ी।

मैं- बेबीजी तू रो मत.... तबीयत तो ठीक थी, अचानक ही चल बसी।

बेबी- सुन कीरू वहां आएं तो कौनसी गाड़ी मिलेगी, मुझे तो गाड़ियों की जानकारी भी नहीं है।

मैं- बेबी जी सुन, परेशान मत हो, हम वहीं लेकर आ रहे हैं।

बेबी- तुम लोग संभल कर आना। और सुन बुवा के सिरहाने च कू रख देना, थाे़डी राई छिड़क देना और तुम सब लोग भी अपने साथ राई के दाने रख लेना। घबराना मत। हां, मैं आसु को भी बता दूंगी।

बच्चे- पापा आसु बुवा को भी फोन आप ही लगा दो।

मैं- हां बेटा लगा रहा हूं, इंगेज जा रहा है। हां, अब बेल जा रही है।

मैं- आसुजी, कमाजी चली गई...

आसुजी- हां कीरु, अभी बेबी से बात चल रही थी। बता या तय किया। बेबी बता रही थी तुम लोग यहीं ला रहे हो।

मैं- हां अभी दोस्त लोग गाड़ी का इंतजाम कर रहे हैं, जैसे ही गाड़ी मिली, हम लोग फटाफट निकल जाएंगे। सुन तू जीजाजी को भी बता देना।

इस बीच स्टाफ के साथी, यूनिट हैड, गिल्होत्रा, लोक सम्मत के पत्रकार (श्रीगंगानगर %वाइन करने से पहले उज्जैन के मेरे कवि मित्र (स्व)ओम व्यास ओम ने जिनके नाम-स्वभाव से अवगत कराया था)रेवतीरमण जी, आदि घर पर जुट गए थे। इन सभी की सलाह थी कि इंदौर ले जाना बहुत लंबा सफर हो जाएगा। आप को तो अंतिम संस्कार यहीं कर देना चाहिए।

मां की अंतिम इ%छा बताते हुए मैं उन्हें समझाता हूं- हमारी मां अ सर कहती रहती थी, भैया तू तो मुझे यहां जेल में ले आया है। न कहीं आने- जाने की, न किसी से बोल बतिया सकती। या मालूम कब तक रहना पड़ेगा इस जेल में, लेकिन सुन मैं मरुं तो मुझे जलाना इंदौर में। हमारी मां की अंतिम इ%छा इंदौर में दाह-संस्कार की थी, इसलिए वहां ले जाना जरूरी है। फिर यदि यहां दाहकर्म किया तो क्ख्-क्फ् दिन में इंदौर से यहां सभी रिश्तेदारों-मित्रों को आना पड़ेगा। मेरे लोग तो श्रीगंगानगर आना सजा मानते हैं, वो सब परेशानी उठाएं, इससे ज्यादा ठीक तो यहीं है कि हम इन्हें वहां ले जाएं, परेशानी होगी भी तो हम चार लोग सह लेंगे।

स्टाफ के साथी- सर, देख लीजिए बहुत लंबा रास्ता हो जाएगा, बच्चों को परेशानी होगी, बहुत पैसा लग जाएगा।

मैं- आप सब का कहना ठीक है, लेकिन हमने इंदौर ले जाना तय कर लिया है। आप लोग तो जितनी जल्दी हो सके कोई ढंगढांग की गाड़ी का इंतजाम कर दो।

साथी- सर, राजेंद्र बतरा और मुकेश सोनी को बोल दिया है, दोनों पता कर रहे हैं, जल्दी इंतजाम हो जाएगा।

मैं- (पत्नी-बच्चों से) सुनो तुम लोग फटाफट कपड़े और बाकी जरूरी सामान बेग में भर लो।

पत्नी- यों पानी के लिए वॉटर बोटल बड़ी वाली रख लूं, रास्ते में गर्मी रहेगी, पानी तो ठंडा रहेगा।

मैं- हां, रख लो, लेकिन जल्दी कर लो। बेटा सारे मोबाइल चार्जर पर लगा रखे हैं ना। लाला सुन, ये कार्ड ले जा एटीएम से २० हजार रुपए निकाल ला, कोड नं. पता है ना। सुन रितेश तू साथ चले जा इसके।

हरेराम- सर गाड़ी का इंतजाम हो रहा है। अस्पताल के बाहर प्राइवेट एंबुलेंस रहती हैं, मुकेश उनसे बात कर रहा है। किराया करीब ६ रुपए किलोमीटर। आना-जाना १२ रुपए (किमी) बता रहा है।

बाकी साथी- सुन, मुकेश से बोलो कुछ कम कराएं।

हरेराम- सर बतराजी ने भी बात किया है। साढ़े ५ रुपए से कम नहीं हो रहा है, दो ड्राइवर साथ चलेंगे। उनका खर्चा, गाड़ी की धुलाई का खर्चा भी देना होगा।

मैं- ठीक है। फाइनल कर दो, गाड़ी ठीक होना चाहिए। परेशानी न आए।

ताऊजी (मकान मालिक एचएस लखीना) - जी आपने माताजी का डेथ सर्टिफिकेट लिया कि नहीं अस्पताल से। सफर बहुल लंबा है, डैड बॉडी के साथ सर्टिफिकेट रखना ही चाहिए। आप राजस्थान से एमपी में जा रहे हैं, दो स्टेट का मामला है, लंबा सफर है। रास्ते में कोई परेशानी न आए। इसलिए सर्टिफिकेट होना ही चाहिए।

मैं - जी अस्पताल में स्टाफ के साथी हैं, मुकेश सोनी उसको बोल देता हूं, बनवा कर ले आएंगे।

ताऊजी- उस पर मुहर वगैरह भी लगवा लेना, काम प का होना चाहिए।

मैं- (फोन लगाता हूं) यार मुकेश अस्पताल में जो डॉ टर ड् यूटी पर हैं। उनसे एक डेथ सर्टिफिकेट बनवा लो। सील भी लगवा लेना। हमें रास्ते में परेशानी नहीं होगी। डिटेल नोट कर लो इस नाम से बनवाना। मां का नाम कमलादेवी पति इंद्रसिंह राणा, उम्र होगी करीब... स्त्रत्त्, पता हाल मुकाम प्रेमनगर, मूल निवासी सुदामानगर इंदौर.., तो जल्दी बनवा लो।

गिल्होत्रा- सर, आप देख लीजिए, यदि संभव हो तो फ्यूनरल यहीं कर दीजिए, बाकी काम वहां कर सकते हों तो परिवार वालों से बात कर लीजिए। बहुत लंबा सफर हो जाएगा श्रीगंगगानगर से कम से कम क्ख्०० किमी तो होगा इंदौर। आप लोग परेशान हो जाएंगे। गर्मी बहुत है फिर आप डैड बॉडी लेकर जा रहे हैं।

मैं- सर, इंदौर ले जाना तय कर लिया है, जो भी परेशानी होगी हम लोग उठा लेंगे। ए.सी. गाड़ी मिल जाएगी तो थाे़डी आसानी हो जाएगी सफर में। बर्फ के इंतजाम का तो कोई मतलब नहीं है।

हरेराम- सर गाड़ी वाले से बात हुआ है। बतराजी बता रहे हैं ५.५० रुपए से कम नहीं होगा, आने का भी पूरा पेमेंट देना होगा, दो ड्राइवर रहेंगे। गाड़ी क्रूजर या बोलेरो मिलेगा, ए.सी. गाड़ी है जितनी देर एसी चलाएंगे उसका रेट अलग से लगेगा, या बोलूं।

मैं- ठीक है, ओके कर दो। कह दो गाड़ी के कागजात पूरे होने चाहिए, रास्ते में हमें कोई परेशानी न हो, गाड़ी जल्दी आ जाए।

हरेराम- सर, मदनजी का फोन है न्यूज का पूछ रहे हैं, या बोलूं।

मैं- आज रहने दो, कल लगवा देना खबर, ये फोटो रख लो। खबर में यह जरूर लिखवा देना कि अंतिम संस्कार सहित सारे शोक कार्य इंदौर में ही करेंगे और वहां से लौटकर एक शोक बैठक श्रीगंगानगर में करेंगे। खबर पेज स्त्र पर नहीं पेज क्० पर लगवाना।

गिल्होत्रा- ये ठीक है, वरना लोग आपको वहां फोन करके परेशान करते रहेंगे। कम से कम न्यूज से सभी को सूचना हो जाएगी।

(सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, अब बस गाड़ी का इंतजार है, स्टाफ के लोगों का आना जारी है। सीढ़ियों के पास जूते-चप्पलों का अस्त-व्यस्त ढेर सा लगा हुआ है। बैठक कक्ष में मां सोई हुई हैं, पंखे की हवा में अगरबत्ती की खुशबू फैल रही है, कुछ लोग कमरे में, कुछ बॉलकनी में और कई साथी नीचे सड़क किनारे खड़े हैं। इतनी हलचल के बाद भी आस-पड़ोस के मकानों में लोग इस सब से बेखबर आराम से सोए हैं।

मैं-(फ्रीज में रखी दूध की तपेली ताईजी को देते हुए आग्रह करता हूं) आप थाे़डी चाय बना दीजिए सभी के लिए।

ताईजी- कोई नी, दूध तो नीचे भी पड़ा है मैं बना लाती हूं।

मैं- ताई जी ये दूध बेकार हो जाएगा, आप ले जाइए। फ्रीज में रखे बाकी सामान में से आप सब कुछ यूज कर लेना नहीं तो वैसे भी खराब हो जाएगा।

(ताई जी बीच वाले रूम में पड़े जूठे बर्तन, रोटी-स?जी का ड?बा चौके में रख चुकी हैं। वे दूध की तपेली लेकर नीचे चाय बनाने जा रही हैं। स्टाफ के लोग एक-दूसरे से बतिया रहे हैं गाड़ी अब तक नहीं आई... इंदौर किस रूट से जाएंगे, गर्मी तो बहुत है... रास्ते में परेशानी होगी..। ताई जी ट्रे में १०-१२ कप जमाकर दूसरे हाथ में चाय से भरा जग लेकर ऊपर आ रही हैं। मैं कुछ कप में चाय भर कर देना चाहता हूं कि पत्रकार रेवती रमण जी मुझे रोक कर सब लोगों को चाय सर्व करने लगते हैं। इतने में नीचे गाड़ी के घर्राटे के साथ ही बॉलकनी में खड़े स्टाफ के लोग मु़डकर कहते हैं सर, गाड़ी आ गई है। कुछ चाय पीते रहते हैं और कुछ अधूरी चाय छाे़डकर सहायता के लिए आगे बढ़ते हैं।)

मैं- बेटा तुम लोगोें ने बैग तैयार कर लिए, मोबाइल चार्जर रख लेना, पानी की बड़ी बोतल भर लेना।

पत्नी - बर्फ डालकर भर ली है। दो-दो जाे़ड कपड़े रख लिए हैं सबके टूथब्रश-पेस्ट रख लिया है।

मैं- मेरा शेविंग वाला बेग रख लेना उसमें ब्रशडाल देना।

लाला- पापा आपका वो बैग मेेरे बैग में रख लिया है।

स्टाफ के साथी- पूरी तैयारी हो गई। सर, गाड़ी आ गई है नीचे।

मैं- हां चलो करो तैयारी (मैं खुद के आंसू रोकने की कोशिश करते हुए पत्नी बच्चों से कहता हूं) चलो आओ सब लोग हाथ लगाओ बई को ले चलें। मैं इसी दौरान अपने बैग में इत्र और स्प्रे की शीशी रखने लगता हूं तो बच्चेे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हैं कि पापा यहां भी इत्र लगाओगे, मैं शीशियां बैग में रख चुका हूं। बच्चों को बता भी नहीं सकता कि ये स्प्रे और इत्र गर्मी से जब डेड बॉडी से स्मेल आने लगेगी तब काम आएगा।

आंसुआें की धार सबके चेहरों पर है। चादर और साड़ी मेें लिपटी कमला बंदी को जेल से आजाद करने के लिए हम पहली मंजिल की सीढ़ियों से गाड़ी के लिए जा रहे हैं। कमाजी हमेशा कहती थी 'मुन्ना तूने तो जेल में लाकर पटक दिया है, जाने कब मुझे मुि त मिलेगी यहां से। तेरा यहां से ट्रांसफर नहीं हो सकता, तू मालिकों से यों नहीं बोलता। देख भैया मैं मर जाऊं तो मुझे जलाना इंदौर में ही` उनकी इस अंतिम इ%छा को पूरा करने के लिए हम सब रास्ते में होने वाली परेशानियों का सामना करने के लिए भी तैयार हैं। सीढ़ियोंें पर थाे़डी मुश्किल होती है तेजी से रेवतीरमण जी, अमन शव नीचे तक ले जाने में सहयोग करते हैं। नीचे ताऊजी और गिल्होत्राजी गाड़ी और उसके कागज को लेकर ड्राइवर से पूछताछ करने के साथ ही उसे समझाइश दे रहे हैं कि इन लोगों को रास्ते में कोई परेशानी न हो, रास्ते में तू किसी तरह की झिकझिक मत करना। ड्राइवर समझा रहा है बाबूजी हमारा तो रोज का काम है, हम यों परेशान करेंगे। उस गाड़ी से ये बोलेरो ज्यादा ठीक है। स्ट्रेचर वाली सीट खूब मजबूत है, बॉडी को बांधने की कोई जरूरत नहीं है, डैड बॉडी हिलने या गिरने की नौबत नहीं आएगी।

(गाड़ी के आस-पास खड़े साथी जगह बनाते हैं और कहते हैं...) सर ले आइए सीधे ही ले जाइए।

मैं- (पूछता हूं) सिर आगे रखे या पैर।

ताऊजी - सिर तो आप ड्राइवर वाली सीट की तरफ ही रखिए, पैर बाहर की तरफ रखिए। स्टे्रचर पर कमाजी को लिटा दिया है। बच्चों की रुलाई जारी है।

मैं- (पत्नी से) वाटर कूलर रख ली? गिलास रखा या नहीं।

पत्नी- (सिर हिलाते और आंसू पोंछते हुए) बोतल तो रख ली, गिलास नहीं रखा (वह गिलास लेने सीढियों की तरफ बढ़ती है)

ताई जी - (उन्हें रोकते हुए) कोई नी, मैं दे देती हूं गिलास। ताईजी नीचे से ही स्टील का गिलास लाकर देती हैं।

ढाई तीन घंटे की इस सारी गतिविधियों में हमारा डॉग (डेश हाउंड) जेंबो बच्चों और पत्नी के आस-पास सिर झुकाए उदास सा बैठा और खड़ा रहता है। अब जब गाड़ी में शव रखा जा चुका है, वह मेरे पैरों में आकर इस तरह सिर झुकाता है मानो कह रहा हो मैं भी आप सब के साथ चलूंगा। बच्चे अनुरोध भी करते हैं पापा जेंबो को ले चलो ना हम संभाल लेंगे। मैं जैसे-तैसे समझाता हूं, बेटा सफर बहुत लंबा है, गर्मी बहुत है। उसके साथ हम और ज्यादा परेशानी में आ जाएंगे। गाड़ी में चढ़ने के लिए जेंबो की उछलकूद और कूं-कूं वाली मनुहार जारी है। सभी लोग उसकी हरकत देख रहे हैं। मैं गाड़ी वाले को कुछ पल रुकने का इशारा करता हूं और आओ जेंबो कहता हूं तो वह दोनों पैरों से मेरे पैरों का सहारा लेकर खड़ा होने की कोशिश करता है। मैं गाड़ी से दूर जाते हुए पीछे मु़डकर उसे प्यार से पुकारता हूं आजा जेंबो। अब जेंबो मेरे साथ घूमने के लिए दाै़डता हुआ पीछे आ रहा है, मैं उसे कुछ दूर घूमाता हूं। इस बीच ड्राइवर गाड़ी वापिस माे़डने के लिए स्टार्ट करके थाे़डी आगे ले जाकर रोक देता है।

मैं जेंबो को घुमाकर प्यार से सिर थपथपा कर समझाता हूं जाओ अंदर जाओ वह अनसुनी करके गाड़ी की तरफ जाना चाहता है। मैं उसे पुकारते हुए मकान वाले गेट के अंदर जाता हूं वह भी दाै़डता हुआ पीछे गेट के अंदर जैसे ही घुसता है, मैं बाहर से गेट लगा देता हूं। सींखर्चों के पीछे से वह मुझे उदास चेहरे, सूनी आंखों के साथ कू-कू करते हुए देख रहा है।

मैं- (ताई जी से कहता हूं) ताई जी आप ध्यान रखना इसका, दूध वाले से रोज आध लीटर दूध लेे लेना इसके लिए, फ्रीज में जो सामान लगे ले लेना, लाइटें आप बंद कर देना।

साथी लोग- सर आप गाड़ी में बैठिए, बहुत लंबा सफर है।

मैं- साथियों का धन्यवाद व्य त करने के साथ रुलाई को भरसक रोकने का प्रयास करते हुए रुंधे गले से कहता हूं- अच्छा चलता हूं। गंगानगर हम चार आए थे अब तीन रह जाएंगे। (कार की चाबी मोदी जी को सौंपते हुए अनुरोध करता हूं) आप गाड़ी वहां प्रेस पर खड़ी करवा लीजिएगा। लाला दोनों ड्राइवरों के बीच में आगे बैठा है।

दोनों ड्रायवर पूछते हैं- सर आप रूट बता दो ख्भ्-फ्० घंटे तो लग ही सकते हैं, सफर लंबा है। गर्मी खूब है, एसी के बाद भी कुछ घंटों बाद बॉडी स्मेल मारने लगेगी। आप लोगों को यहीं कर देना था संस्कार... बच्चे साथ में हैं त्त्-क्० घंटे बाद परेशानी शुरू हो जाएगी। आप बर्फ रखते तब भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

मैं- जिस भी रुट से चलना हो तुम अपने हिसाब से चलो, जितनी जल्दी पहुंचा सको पहुंचा देना। जितना पैसा लगेगा दूंगा, रास्ते में चाय-सिगरेट-नाश्ते, खाने के लिए जहां रोकना हो रोक लेना, बस कम से कम समय लगाना। अंतिम यात्रा के लिए हमारी यात्रा शुरू हो चुकी है। कमाजी आराम से सोई हैं, जैसे घर में गर्मी में भी ओढ़कर सोती थी, ठीक उसी तरह चादर से ढकें मुंह पर शायद निश्चिंतता के भाव ही होंगे, योंकि जेल से आजाद होने के साथ ही चिड़िया फुर्र हो गई है, अनंत यात्रा की उड़ान के लिए।