पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday 26 May 2011

तुम याद बहुत आओगे

कौन, कब, कितना याद आता है इसका आज तक तो कोई बेरोमीटर बना नही है। न ही कोई ऐसा पैमाना है कि जिससे पता चले कि हमने किसी को कितना याद किया। किसी की याद तभी आती है जब वह हमारे पास नहीं होता या हमें यह पता चल जाए कि हम उस अपने से दूर होने वाले हैं।

हम जब किसी अंजान शहर मे जाते हैं। तो भीड़ का हिस्सा बन जाने के बाद भी अलग-थलग से रहते हैं तो इसलिए कि हम जानते हैं कि इस भीड़ में जितने लोग हैं वह सब अंजाने हैं। बस ऐसे ही वक्त में हमें अपनों की याद आती भी है तो कैसे कि उन अपरिचित चेहरों में हम किसी अपने का चेहरा देखने लगते हैं। उस शहर के चौराहों, गलियों में अपने शहर की कोई मिलती-जुलती गली-मकान खोज लेते हैं और इस तरह वह अंजान शहर फिर चाहे वह शिमला हो, गंगानगर, उदयपुर हो या उजैन जाने कब हमारा अपना बन जाता है। पता ही नहीं चलता। अंजाना शहर हम में कितना रच-बस गया है यह भी तब पता चलता है जब अचानक उस शहर को छोड़ने के हालात बन जाएं। सरकारी नौकरी में तबादले का दर्द सहने वाले कर्मचारी वर्ग से कौन यादा समझ सकता है अपने शहर को छोड़ने और किसी भी अंजाने शहर से जुड़ी अपनी यादों का आइना टूटने का दर्द।
शिमला की ही बात करें तो यहां का मौसम, देवदार-चीड़ के दरख्त कहां भुलाए जा सकते हैं। संघर्षों के बीच दाना-पानी के लिए संघर्ष करते बन्दर और बाकी पशु-पक्षी, संकरे रास्तों और उंचाई पर बने मकानों तक के सफर को आसान बनाते कुली(खान), चाहे जितने तनाव में भी पेशेंस नहीं खोने वाले आम लोग, बर्फीले मौसम में भी अपने दायित्व आसानी से पूरे करने वाले होकर, डाककर्मी, यादा की चाहत नहीं और जो है उसमें खुश रहने के आध्यात्म को दर्शाते लोग ये सब बताते हैं कि पहाड़ों की इस चुनौतीपूर्ण जिन्दगी को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
पहाड़ों के शिखर पर इठलाते, आसमान छूने की कोशिश करते नजर आने वाले देवदार क्या भुलाए जा सकते हैं। जाने क्यों मुझे ये ऊंचे-ऊंचे दरख्त अहसास कराते हैं कि जीवन में कुछ पाने, ऊंचा उठने के लिए संघर्ष के सफर वाले रास्ते पर चलना है तो पीछे काफी कुछ छोड़ते हुए चलना पडेग़ा। देवदार बताते हैं कि जो उंचा उठते हैं उन्हें कई तरह के त्याग करने पड़ते हैं। देवदार जैसे खड़ा सौ साल का और आड़ा भी इतने ही साल का तो जो ऊंचा उठने की चाहत रखते हैं वे सब भी अपना नाम-काम इतने वर्षों तक तभी बनाए रख सकते हैं जब वे देवदार-चीड़ जैसे वृक्षों की तरह हर हाल में अपना वजूद बनाएं रखने को तत्पर रहना सीख लें।
कोई भी अंजान शहर, अपरिचित लोग आप के तभी हो सकते हैं जब आप इन सब से तालमेल बैठाना सीख लें। आप जिस शहर में जाएं उस के प्रति एहसानमंद ना हो अपने शहर और अपने लोगों का ही गुणगान करते ना थके तो यह उस शहर के प्रति नाइंसाफी ही होगी। ऐसी तो बहू भी अपने ससुराल में कभी किसी का दिल नहीं जीत पाएगी जो रहे तो ससुराल मे लेकिन बात-बात मे मायके का जिक्र करना नहीं भूले। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धियों वाली मंजिल तक तभी पहुंचा जा सकता है जब उस काम के प्रति शतप्रतिशत समर्पण वाला भाव हो। यानी अंजान शहर, वहां के लोगों को आप अपना तभी बना सकते हैं जब वहां के रंग-ढंग मे ढलना भी सीख लें। ऐसा होने पर ही पता चल सकता है कि कल तक जो शहर, जो लोग अपरिचित से थे वह सब तो अपने से हो गए हैं। यह अपना सा लगने का भाव ही शहर छोड़ते वक्त तुम्हे कैसे भुलाऊं की पीड़ा मे बदल जाता है।

Thursday 12 May 2011

सीखने की कोई उम्र नहीं होती

हर दम सीखने की आतुरता से मिलने वाली सफलता और ना सीखने के लिए दिमाग के दरवाजे बंद रखने का दर्द वही जान सकता है जो इन दोनों में से किसी एक हालात से गुजरा हो। यदि हम मान कर चलें कि हमें तो सब आता ही है, अब क्या जरूरत है सीखने कि तो नुकसान हमारा ही होगा। हम टायपिंग में माहिर हों और कम्प्युटर की वर्किंग ना जानते हो, कम्प्युटर के जानकार हों और गूगल, नेट, इमेल आदि की जानकारी ना रखते हों तो हाथ आए अवसर भी फिसल जाते हैं क्योंकि कोई दूसरा हम से ज्यादा जानता है। अवसर ना तो बार-बार आते हैं और ना ही समय हमारा इंतजार करता है। समय के साथ चलना है तो उसके मुताबिक ढलना होगा, यह आसान सी बात जो समझ लेते हैं उन्हें किसी भी क्षेत्र में परेशानी नहीं आती।


कमरे में बड़े तैश से प्रवेश किया उस युवक ने और बिना आगा-पीछा सोचे अपना निर्णय सुना दिया कि अब वह काम नहीं करेगा। टेबल की दूसरी तरफ बैठे उसके बॉस ने कारण पूछा तो उसका जवाब था मेरे ढाई-तीन साल के कॅरिअर में यह पहला अवसर है जब काम को लेकर उसे इस तरह जलील किया गया। इस सारे घटनाक्रम के दौरान मेरा मूकदर्शक बने रहना इसलिए भी जरूरी था कि यह उन लोगों के बीच का आंतरिक मामला था।
अब बॉस उस युवक से पूछ रहे थे कि तुम्हें किसी निजी काम के लिए फ़टकार लगाई या सौंपे गए काम में कोताही बरतने के लिए? उस सहकर्मी के तेवर यही थे कि आप ने मेरी बात सुनी नहीं और बेवजह डांटा। बॉस ने पूछा तुम्हें जो निर्देश दिए गए थे, क्या उस प्लानिंग के मुताबिक अपने काम को अंजाम दिया? इस प्रश्न का जवाब देने की अपेक्षा वह मुझे अब काम नहीं करना कहते हुए उठ कर चला गया।
संस्थान के बॉस ने मुझे जो बताया वह यह कि उसे काम सौंपते वक्त ही बता दिया गया था कि इसे कैसे किया जाए। यही नहीं वर्क प्रोग्रेस को लेकर फालोअप भी किया गया। इस सब के बाद भी उसने जो फायनल रिपोर्ट तैयार की उसमें वही सारी गलतियां की जिसके लिए उसे सतर्क किया
गया था।
एक तरफ तो हम यह मानते हैं कि पूरी उम्र सीखा जा सकता है। यानी सिर्फ कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने या डिग्री लेने से ही सीखने की सीमा समाप्त होना नहीं है। आप जिस भी फील्ड में हंै वहां हर दिन, हर पल अपने सहकर्मी, अपने दोस्तों, अपने दुश्मनों से कुछ ना कुछ तो सीख ही सकते हैं। अपने सहकर्मी से सीख सकते हंै कि काम को लेकर उसमे कोई कमी हो तो हम उस आधार पर अपनी कमियां दूर कर ले। दोस्त से सीख सकते है कि वह किन अच्छाइयों के कारण पहचाना
जाता है, वह सारी बातें हम भी अपना सकते हैं। इसी तरह दुश्मन की कमजोरी जान-पहचान
कर हम उसे आसानी से शिकस्त देना सीख
सकते है।
यह सीखने की प्रवृति तभी आएगी जब हम दिलो दिमाग से तैयार भी रहें। रोज तकनीक में हो रहे परिवर्तन, तेजी से बदलते जमाने के मुताबिक हम खुद को बदलाव के लिए तैयार ना रखें, खुद को अपडेट भी ना रखें तो इसमें नुकसान भी हमारा
ही है।
कई बार हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि संस्थान में हम सबसे पुराने कर्मचारी हैं तो हमें तो सब कुछ आता ही है। इसी तरह गोल्ड मेडल प्राप्त, सर्वाधिक अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला छात्र भी यह मान लेता है कि उसे तो सब आता ही है। यूनिवर्सिटी के मास कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट से 3 या 6 महीने के ट्रेनिंग पीरियड पर अखबारों में काम समझने के लिए आने वाले छात्रों को कुछ दिनों तक बड़ा अटपटा लगता है क्योंकि जिस यूनिवर्सिटी से वो डिप्लोमा/डिग्री कोर्स कर रहे होते हैं वहा उन्हें किताबी ज्ञान तो भरपूर मिलता है लेकिन अखबारों में होने वाले रूटीन वर्क या फील्ड वर्किंग की जानकारी नहीं होती। ट्रेनिंग पीरियड के दौरान ये छात्र सब कुछ जाने-समझने के साथ ही अपने नोलेज को अपडेट भी करते चलते हैं।
घर की सुन्दरता बढ़ाने वाले फिशपॉट की मछलियों को तेज बहाव वाली नदियों में छोड़ दिया जाए तो वह खुद को सुरक्षित रखते हुए तैर लेती हैं लेकिन कुएं के मेंढ़क को किसी बड़ी नदी में काफी संघर्ष इसलिए करना पड़ता है कि इससे पहले तक उसे कुआं ही समुद्र नजर आता था। जब हम यह याद रखते हैं कि जीवन में हर पल किसी ना किसी से कुछ ना कुछ सीखा जा सकता है तो हमें विपरीत परिस्तिथियों में भी सब कुछ आसान लगता है। पर यदि ऐसा ना करें तो यह भी समझ नहीं आता कि कल तक जो हमारे साथ थे वे सब आगे बढ़ते गए और हम वहीं के वहीं कदमताल क्यों कर रहे हैं।

Thursday 7 April 2011

फालतू नहीं है मदद करने वाले

आप के मोहल्ले, कालोनी में भी कुछ ऐसे लोग होंगे ही जो किसी भी घर में मुसीबत की जानकारी मिलने पर तन, मन, धन से मदद में जुट जाते हैं। तब इन्हें अपने परिवार के सुख-दुख की भी याद नहीं रहती। अंजान चेहरों पर मुस्कान के लिए मदद को दौड़ पड़ने वाले ऐसे निस्वार्थ लोगों को हम में से ही कई लोग फालतू कहने में भी नहीं हिचकते। जरा सोचिए कितने लोगों का ऐसा व्यवहार है, ऐसे लोगों के कारण ही समाज में मानवीय पर्यावरण बचा हुआ है जबकि हम सब उसे भी प्रदूषित करने में कोई कसर नही छोड़ रहे। जिनका काम हमें फालतू लगता है जरा एक दिन उनके जितना वक्त दूसरों के लिए देकर तो देखें।
बस स्टैंड के समीप सड़क के बीचोंबीच खड़ी गाड़ी का फ्रंट गेट खुला हुआ था, उस गेट का सहारा लेकर गर्दन झुकाए खडे अधेड़ उम्र के सरदारजी बुरी तरह हांफ रहे थे। उन्हें पकड़े हुए युवती अपने दूसरे हाथ से उनकी पीठ सहला रही थी। रात का वक्त होने के बावजूद गाड़ी के आसपास भीड़ एकत्र थी। समीप पहुंच कर देखा और वहां खडे लोगों की चर्चा सुनी तो समझ आया कि उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ा है। वह युवती उनकी पुत्री है तथा ये लोग चंडीगढ़ के रहने वाले हैं। इन दोनों को एक सिख युवक ढांढ़स बंधा रहा था कि यादा परेशानी हो तो आइजीएमसी हास्पिटल ले चलते हैं। इसी युवक ने यहां-वहां भागदौड़ कर अस्थमा मरीज के लिए बेहद जरूरी इनहेलर (पम्प) एवं दवाइयों का इंतजाम किया था। वह सलाह भी दे रहा था कि ये दवाई तो हमेशा आप को साथ रखना चाहिए।
दूसरी तरफ इन लोगों का कहना था हमें याद नही रहा कि पहाड़ी इलाके में जा रहे हैं। ये लोग होटल से चेकआउट करके निकले और उनकी तबीयत बिगड़ गई। समीप ही दवाई की दुकान थी, वहां से लाइफ सेविंग ड्रग खरीदना चाही लेकिन दुकानदार ने यह कहकर दवाइयां देने से इंकार कर दिया कि आडिट चल रहा है। कुछ देर बाद उन सरदारजी की हालत बातचीत करने जैसी हुई, उन्होंने समय पर दवाइयां उपलब्ध करा कर जीवन बचाने वाले उस युवक का आभार माना। बेटी ने मां को आंखों ही आंखो में दवाई के पैसे देने के लिए इशारा किया। मां ने पर्स से नोट निकाल कर देना चाहे उस युवक ने विनम्रता से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि दवाई से बढ़कर नोट नही है। आसपास खडे लोगों ने उस सिख युवक के इस कार्य की सराहना करते हुए उसे देवदूत कहा तो उसका कहना था ये सब तो मुझ से रब ने कराया है जी, मैं कौन हूं। यदि यह युवक समय रहते दवाइयां उपलब्ध नहीं कराता तो उनकी हालत और गम्भीर हो सकती थी।
आज जब यादातर लोग सड़क पर तड़पते किसी व्यक्ति को देखने के बाद भी मदद को आगे नहीं आते ऐसे में इस युवक का काम सराहना योग्य तो था ही। हमारे आसपास भी ऐसे कई लोग हैं जो हर वक्त लोगों की मदद को तत्पर रहते हैं, पर हम कहां उनके इस काम की कद्र कर पाते हैं। पहली नजर में उनका काम ढोंग लगता है तो कई लोग इसे कम अक्ल के नमूने कहने की जल्दबाजी करते हैं। और जब हमारा ही मन हमें ऐसे कार्य करने वालों की सराहना के लिए बाध्य करता है तो हम रब के ऐसे बन्दों का हौसला बढ़ाने में भी कंजूसी करते हैं। एक प्रसंग और याद आ रहा है। एक मित्र का बेटा खेलते-खेलते सड़क पर आ गया और उसी वक्त वहां से निकल रही एक कार से टकरा जाने के कारण उसके पैर मे फ्रेक्चर हो गया। मित्र के लिए बहुत आसान था कि वे पुलिस में रिपोर्ट लिखाते, फिर लंबे समय तक केस चलता। मित्र के मन में केस दर्ज कराने की बात इसलिए नहीं आई क्योंकि उस कार मालिक ने बच्चे को अस्पताल में दाखिल कराने, कई रात अस्पताल में बिताने के साथ ही उपचार का सारा खर्च भी वहन किया। वरना तो उसके लिए यह यादा आसान था कि एक मुश्त राशि देकर राम-राम कर लेता या घायल बालक को सड़क पर तड़पता छोड़कर फरार हो जाता। पुलिस केस दर्ज होता भी तो अंतत: दोनों पक्षों में विवाद आपसी समझौते से ही निपटता। सारा काम धन्धा छोड़कर उस कार मालिक का दिन-रात अस्पताल में हाजिर रहना गुनाह से यादा मानवीयता की मिसाल पेश करने जैसा ही है। क्या ऐसे सारे लोगों के काम को अनदेखा किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण ही हमारे आसपास मानवीयता का थोड़ा बहुत स्वच्छ पर्यावरण बचा हुआ है। क्यों हम शंका-कुशंका की नजर से देख कर इसे भी प्रदूषित करने में लगे हैं? हम खुद तो किसी के लिए खुदाई खिदमतगार बनना नहीं चाहते लेकिन जो लोग बिना किसी अपेक्षा के अंजान लोगों के दर्द को खुशी में बदलने के लिए तन-मन-धन से लगे रहते है क्या हम उनकी सराहना भी नहीं कर सकते। अपनों के दर्द में तो अपने ही खडे रहते है लेकिन चर्चा उस अंजान की यादा होती है जो मुश्किल काम भी आसान करता जाता है और आभार, धन्यवाद की चाहत भी नहीं रखता। कई बार हम ऐसे काम में उलझे होते हैं कि हम अपने ही पारिवारिक सदस्य की मदद नहीं कर पाते, उन लोगों का हमें कई बार उलाहना भी सुनना पड़ता है लेकिन हर वक्त मदद को तत्पर रहने वाले ये सारे वो लोग होते हैं जिनका अपना घर-परिवार भी होता है लेकिन अंजान लोगों के चेहरों पर मुस्कान की खातिर अपने परिवार की प्राथमिकताओं को भी भुला देते हैं, अच्छा होगा कि हम ऐसे लोगों को कम से कम फालतू मानना तो छोड़ ही दें।

Thursday 3 March 2011

कभी तो खुश हो जाएं

कई तरह के टेस्ट कराने के बाद जब रिपोर्ट निल आती है तब भी हम यह खुशी नहीं मनाते कि कोई बीमारी नहीं निकली। हम तो सिर्फ इसलिए दुखी हो जाते हैं कि टेस्ट और एमआरआई के नाम पर हजारों रु खर्च हो गए। दरअसल हमने दुखों का इतना मोटा कम्बल ओढ़ रखा है कि छोटी-छोटी खुशियो की गरमाहट महसूस ही नहीं होती। हम तो किसी परिचित की मिजाजपुर्सी के लिए अस्पताल भी जाते हंै तो सीधे उसी पलंग से ताल्लुक रखते हैं। आसपास के बेड पर दर्द से कराह रहे मरीज का हालचाल जानने, मुस्कुराते हुए उसे दिलासा देने का ख्याल भी नहीं आता। किसी दिन जब हमें खुद मरीज के रूप में अस्पताल में दाखिल होना पडे तब जरूर मन ही मन चाहते हंै कि वार्ड में जितने भी लोग अन्य मरीजों के पास आए वो सब हमसे भी हंस-बोल कर जाएं।

अस्पताल से लौट रहे एक मित्र का चेहरा बड़ा उतरा-उतरा सा दिखा तो सहज रूप से पूछ लिया कोई चिंता की बात तो नहीं?
उनका जवाब था-अभी क्या बताऊ। डॉक्टर ने ढेर सारी जांच कराने का पर्चा थमा दिया है। कल सुबह जाना है लेब पर, सारे टेस्ट होंगे, एमआरआई भी कराना है। रिपोर्ट मिलेगी फिर डॉक्टर को दिखाउंगा तब पता चलेगा क्या बीमारी है।
सारे टेस्ट की जानकारी देने के साथ ही उनकी चिंता यह भी थी कि यदि कोई गंभीर बीमारी निकल आई तो? इस तो के साथ उनकी चिंता परिवार, बच्चो आदि को लेकर भी थी। मंैने उन्हें ढांढस बंधाया कि ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक ही होगा।
दो दिन बाद मंैने उन्हें टेस्ट रिपोर्ट का परिणाम जानने के साथ ही हालचाल पूछने के लिए मोबाइल लगाया। उनकी आवाज से आभास हो रहा था कि सब कुछ नॉर्मल ही होगा। बातचीत में उनकी पीड़ा कुछ और ही थी कि 5-7 हजार रु बेमतलब के खर्च हो गए, कोई बीमारी तो निकली ही नहीं। वर्षों से उनके परिवार से जुड़े उन डॉक्टर के प्रति शंका का भाव यह था कि ये सारे डॉक्टर लोग अपने कमीशन के चक्कर में बेवजह फालतू के महंगे टेस्ट कराते रहते हंै।
मानव स्वभाव भी क्या है जब तक टेस्ट रिपोर्ट नही आई थी तब तक उस डॉक्टर के प्रति खूब भरोसा था साथ ही अपने परिवार, बच्चों के भविष्य को लेकर भी चिंता का भाव था। जब रिपोर्ट नार्मल निकली तो वही डॉक्टर कमीशंनखोर नजर आने लगा साथ ही इस बात का भी अफसोस कि कोई बीमारी तो निकली ही नही, यानी हमारा पैसा
खर्च हुआ है तो कोई तो बीमारी रिपोर्ट में आना ही चाहिए थी।
हम जिस मेहनत से पैसा कमाते हंै तो नहीं चाहते कि एक पैसा भी व्यर्थ खर्च हो, इसी मानसिकता के कारण टेस्ट रिपोर्ट नॉर्मल आने पर हमें इस बात की खुशी नही होती कि हम पूर्णत; स्वस्थ तो हैं। हम तो प्रतिमाह हेल्थ इंश्योरेंस की किस्ते जमा कराते वक्त भी यह दुख पाले रहते हंै कि इतने साल में इंश्योरेंस का लाभ एक बार भी नहीं लिया। हमें उन दोस्तों से जलन होती है जो डॉक्टर और बीमा एजेंट से साठगांठ के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहते हैं। साथ ही फर्जी तरीके से बीमा क्लेम की राशि लेने के दावे भरते रहते हैं।
हमारा स्वभाव भी क्या है भगवान से तो प्रार्थना स्वस्थ रखने की करते हैं लेकिन जब जांच रिपोर्ट नॉर्मल निकलती है तो मन ही मन दुखी भी होते है कि हाय हमें कुछ क्यों नहीं हुआ। दरअसल यह सारा व्यवहार हमें अपने आसपास से ही देखने-सीखने को मिलता है। हमारे किसी अपने को सर्दी-जुकाम-बुखार की जानकारी मिले तो हम फोन पर ही हालचाल पूछ लेते हंै और उसकी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते। और यदि उन्ही में से किसी मित्र को हार्टअटैक या अन्य कोई गम्भीर बीमारी होने की सूचना मिले तो पहली फुरसत में अस्पताल जाकर अपना चेहरा दिखाने के साथ ही मिजाजपुर्सी का मौका नहीं गवाना चाहते। हम तो मान कर ही चलते हैं कि अगला आदमी पता नही अस्पताल से अब वापस घर आए या नहीं, इसलिए जितनी जल्दी हो अपने सामाजिक होने की जिम्मेदारी निभा दी जाए।
हम खुशी के अवसर खोते जा रहे हंै इसलिए स्वस्थ होने का सर्टिफिकेट मिलने पर भी हम खुश नहीं होते। हमारे परिजनों, मित्रों को तो टेस्ट रिपोर्ट नॉर्मल होने की खुशी होती है पर हम उस खुशी को महसूस नहीं कर पाते क्यों कि हमें तो अपना पैसा पानी में बहाने का गम सता रहा होता है। हमें तो अपनी बीमारी में भी तब खुशी होती है जब हम से ज्यादा गंभीर बीमारी के उपचार के लिए हमारा कोई पुराना दुश्मन समीप के पलंग पर कराहता नजर आता है। तब हमें अपनी बीमारी को बडाचडा कर बताना अच्छा लगता है। यही नहीं तब हम अपने बेड पर पड़े-पड़े इसलिए कसमसाते रहते है कि पड़ौस वाले मरीज का हालचाल पूछने ज्यादा लोग क्यों आ रहे हंै? हम अस्पताल में दाखिल उस मरीज से भी कुछ सीखना नहीं चाहते जो अपनी बीमारी भूल कर वार्ड में एक से दूसरे बेड पर जाकर मरीजो के हालचाल पूछने के साथ ही उनके तीमारदारों के आने तक उनकी छोटीमोटी परेशानी अपने स्तर पर दूर करने के साथ ही डॉक्टरों-नर्सों को सहायता के लिए बुला कर ले आता है।
हम तो इतने स्वार्थी होते जा रहे हंै कि अस्पताल मे किसी परिचित की तबीयत पूछने जाना भी पड़े तो वार्ड में सीधे उस पलंग से ही ताल्लुक रखते हैं। आसपास के बेड पर उपचार के लिए दाखिल मरीजों की बीमारी जानने, उन्हें दिलासा देने जैसी औपचारिकता भी नहीं दिखा पाते। परिचित मरीज का हाल जानने के लिए तो सभी जाते हंै, कभी अपरिचित मरीज की तरफ एक बार मुस्कुरा कर ही देख लीजिए, उसके चेहरे पर जो खुशी नजर आएगी वह आप को भी सुकून तो देगी ही।

Wednesday 23 February 2011

दोस्तों का कर्ज कैसे उतारेंगे?

बैंकों से लिया कर्ज तो हम जैसे-तैसे उतार भी सकते हैं लेकिन हम पर जब दु:ख पड़ा तो अपने गम भुला कर जिन यार-दोस्तों ने अपनी रातें हमारे लिए जागते हुए काटी उनका कर्ज कैसे उतारेंगे? रिश्तेदार सुख में पहले पहुंच जाते हैं और दोस्त दु:ख बांटने बिना बुलाए पहुंचते हैं। मित्रों को यह अपेक्षा भी नहीं होती कि कोई याद रखे उन्होंने क्या किया। दूसरी तरफ कई रिश्तेदार ऐसे भी होते हैं जो करते कम गिनाते ज्यादा हैं। हम कभी तो वक्त निकालें और हिसाब-किताब ही लगा लें दोस्तों ने हमारे लिए कब-क्या किया और बदले में हम भी कुछ कर पाए या नहीं। कहीं दोस्तों को भी दो रुपए के पेन की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहे-यूज एन थ्रो..!
कालका रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद काफी देर तक इंतजार के बाद भी कालका चौराहे पर जब कोई बस आती नहीं दिखी तो मेरी तरह कुछ अन्य यात्रियों ने भी टैक्सी से ही शिमला जाने का निर्णय कर लिया। एक बड़ी गाड़ी रोकी लेकिन गाड़ी चालक की शर्त थी चार से ज्यादा सवारी नहीं बैठाऊंगा, जबकि गाड़ी की क्षमता सात-आठ सवारी की थी। खैर, हम चार लोग सवार हो गए। कुछ दूर जाने के बाद उसने गाड़ी रोक दी, पूछने पर कारण बताया कि उसका दोस्त शिमला की तरफ से सवारी लेकर काफी पहले चल पड़ा है बस पहुंचने ही वाला है। बहुत अच्छी गाड़ी है, मेरा दोस्त भी बहुत अच्छा है, आप लोगों को जरा सी भी परेशानी नहीं होगी। जितनी देर उसका टैक्सी चालक दोस्त नहीं आया वह उसकी तारीफ करता रहा। बाद में यही सिलसिला उस दूसरे दोस्त ने भी अपने दोस्त की तारीफों के साथ निभाया।
इन दोनों में से एक की गाड़ी हरियाणा पासिंग है और दूसरे की गाड़ी हिमाचल के नम्बर वाली। दोनों में से किसी एक की टैक्सी हिमाचल बैरियर के उस पार जाए तो निर्धारित टैक्स तो चुकाना ही पड़ेगा और बाकी झंझट तो हैं ही। दोनों 20 साल से पक्के दोस्त भी हंै, रास्ता यह निकाल रखा है कि एक कालका से शिमला के लिए सिर्फ चार सवारी अपनी गाड़ी में बैठाता है, मोबाइल पर अपने दोस्त को जानकारी देता है। दूसरा दोस्त शिमला से हरियाणा की ओर जाने वाली सवारी बैठाता है। दोनों दोस्तों ने बैरियर से पहले ऐसी सुविधाजनक जगह तय कर रखी है जहां सवारी की अदला-बदली कर लेते हैं। फिर चल पड़ते हैं अपने-अपने राज्य के रास्तों पर सवारी लेकर। इन दोनों दोस्तों ने अपनी मित्रता और ड्राइवरी पेशे में ये जो ईमानदारी रखी है उसका फायदा यह कि इन्हें सवारी छोडऩे के बाद वापसी में बहुत कम खाली गाड़ी लेकर आना पड़ता है।
वैसे तो माना यह जाता है कि कोई बिजनेस दोस्त के साथ मिलकर शुरू करो तो कुछ साल में ही साझेदारी में बढ़ती हिसाब-किताब की दरार दोस्ती के दूध में नींबू की एक बून्द जितना असर दिखा देती है और दही बनने के बाद उसे फिर से दूध नहीं बनाया जा सकता। इन दोनों की मित्रता लंबे समय से निभ रही है तो सबसे बड़ा कारण यही है कि दोनों ने उतनी ही ईमानदारी पेशे में भी बनाए रखी है। हम अपनी प्रशंसा तो सुनते ही रहना चाहते हैं लेकिन अपने दोस्त की प्रशंसा करते वक्त रवैया ऐसा हो जाता है जैसे शब्दों को खरीद कर लाए हों।
हम सब यह तो जानते हैं कि कई मामलों में पत्नी, बच्चों, परिजनों से ज्यादा अपने दोस्त पर भरोसा करते हैं, उसे वह सारे राज भी बताने में नहीं हिचकते जो हम बाकी लोगों से छुपा लेते हैं। लंबी मित्रता भी तभी चल सकती है जब दोनों बिना किसी निमंत्रण की अपेक्षा के एक-दूसरे के दु:ख में रिश्तेदारों के आने से पहले पहुंच जाते हैं और हजारों की भीड़ में भी गला फाड़ कर नहीं चिल्लाते कि हम कब, किस मोड़ पर काम आए थे। दोस्त ही होते हैं जो न तो अपना अहसान गिनाते हैं और कोई ऐसी चर्चा छेड़ भी दे तो खुद बात भी बदल देते हैं।
दोस्तों ने हमारे लिए क्या किया जब इसका हिसाब लगाने बैठे तो हाथों-हाथ यह भी देख लें आपने दोस्तों के लिए क्या किया? हो सकता है तब हमें झटका लगे क्योंकि वो सब तो हमारे दु:ख में अपनी रात काली करते रहे और जब इन दोस्तों में से किसी को हमारे फोन की अपेक्षा थी तब हम खर्राटे भर रहे थे। साहूकार और बैंक का कर्ज तो हम देर-सवेर उतार देते हैं लेकिन दोस्तों के अहसान का कर्ज तो मासिक किश्तों से भी नहीं उतारा जा सकता। इसका आसान तरीका तो यही है कि जब दोस्त मुसीबत की बौछारों में भीगता नजर तो बिना विलम्ब के हम छाते जैसा व्यवहार करते नजर आएं।
अभी दोस्ती की मिसाल का दिल को छू जाने वाला एक और प्रसंग देखने को मिला। लंबे समय से बीमार चल रहे दोस्त की मौत हो गई। सरकारी विभाग में कार्यरत इस दोस्त के परिजनों को नियमानुसार जो मिलना होगा वह तो मिलेगा ही समस्या तो अभी की थी। उसके दोस्त ने परिजनों को जाकर दिलासा दिया कि प्रतिमाह 10 हजार रुपए मंै भिजवाऊंगा साथ ही यह भी खुलासा कर दिया कि यह उस लाखों की राशि के ब्याज की राशि है जो उस दोस्त ने बिना लिखा-पढ़ी के उसके पास बीमारी से पहले बैंक में जमा करने को दिए थे। यदि यह दोस्त लाखों की इस राशि की जानकारी नहीं भी देता तो कोई क्या कर लेता, वैसे भी लिखा-पढ़ी तो कहीं है नहीं। अन्य दोस्त भी अपनी इच्छा से इस दोस्त के परिवार की मदद कर रहे हैं तो इसलिए कि वह भी बिना किसी अपेक्षा के दोस्तों के सुख-दु:ख में दिन-रात एक कर देता था। हम किसी के ऐसे दोस्त साबित हुए क्या, और यदि कोई हमारा ऐसा दोस्त हो सकता है तो छोटी-मोटी नाराजी को याद रखने जैसा महान काम करके हम उसे पा कर खोने जैसी घटिया हरकत तो नहीं कर रहे?

Thursday 10 February 2011

अभी नहीं तो कभी नहीं

हम एक साथ कई कामों को करने की सोचते हैं जो काम नहीं कर पाते उसके लिए बड़ा सहज कारण भी तलाश लेते हैं कि वक्त ही नहीं मिलता। इसी कारण कई कामों को कल पर टाल देते हैं वक्त की नदी कल-कल करती बहती रहती है और कल के लिए छोड़ गए काम तब हमारे लिए पहाड़ से हो जाते हैं जब हमारे पास वक्त तो होता है, लेकिन उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर उन छोड़े गए कामों की गठरी खोलने जितनी ताकत भी नहीं होती हाथों में।
मीडिया से जुड़े मेरे एक अजीज दोस्त से फोन पर बात हो रही थी। फ्यूचर की अपनी प्लानिंग बताते हुए उन्होंने कहा दो किताबें लिखना है, दिमाग में खाका तैयार है। तो कब से काम शुरू कर रहे हैं, यह मान कर चलें कि इसी साल में ये किताबें पूरी हो जाएंगी। मेरी इस जिज्ञासा पर मित्र का जवाब था बस थोड़ा वक्त मिल जाए। मैने उन्हें याद दिलाया कि आज से करीब तीन महीने पहले भी आप ने इसी उत्साह से एक किताब की भूमिका बताई थी, इसका मतलब यह कि वह किताब प्रिंट होने के लिए दे दी है? उन्होंने कहा अरे नहीं यार, उस किताब का काम भी रुका पड़ा है। एक चेप्टर भी नही हो पाया। बस थोड़ा वक्त की प्रॉब्लम है, समय मिलते ही सबसे पहले उसी किताब का काम शुरू करूंगा। फिर वे खुद ही अपने उन मित्रों के नाम गिनाने लगे जिन्होंने अपने मन पसंद सब्जेक्ट पर एक से अधिक किताबें लिख डाली है और इन किताबों के कारण उनकी अलग पहचान भी बनी है। मुझे लगता है यह मेरे मित्र की ही नहीं हम सब की प्रॉब्लम है। हमें जो काम करना होता है बस उसी के लिए वक्त नहीं मिलता बाकी सब कामों के लिए वक्त मिल जाता है। घर से निकलते वक्त टेलीफोन, बिजली का बिल तो लेकर निकलते हंै, लेकिन जमा कराने का वक्त नहीं मिलता। नतीजा यह कि हम में से ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है कि लेट फी के साथ ही बिल जमा कराते हैं, देरी से बिल जमा कराने के लिए जाने कहां से वक्त मिल जाता है। आयकर विभाग महीनों पहले रिटर्न दाखिल करने की अंतिम तारीख घोषित कर देता है लेकिन हमारी चेतना अंतिम तारीख वाले दिन ही जाग्रत होती है। इसके ठीक विपरीत फ्लाइट का टिकट पहले से बुक करा रखा हो, ट्रैन या फिल्म का टिकट करा रखा हो तो इन सारी जगहों पर हम यह नहीं करते कि वक्त मिलने पर चले जाएंगे। यहां तो हम बाकी काम निपटा कर समय से दस मिनट पहले ही पहुंचने की कोशिश करते हैं। चौबीस घंटे बाद अगले दिन का सूर्योदय होना ही है यह हमें पता है। किसी दिन ऐसा नहीं हुआ कि सूरज इसलिए नहीं निकला हो कि उसे वक्त ही नहीं मिला। ना ही कभी ऐसा हुआ कि चांद इसलिए सुबह देर तक चांदनी बिखेरता रहा कि उसे अस्त होने का वक्त ही नहीं मिला। कभी ऐसा हुआ क्या कि पतझड़ के मौसम में चार महीने बारिश होती रही हो या ठंड के मौसम में लगातार महीनों तक तेज गर्मी पड़ती रही हो। प्रकृति में होने वाले बदलाव के महीने तय हैं। शुक्लपक्ष में चांद महीने से शुरू होकर पूर्णिमा को ही पूर्णाकार नजर आएगा। सब के काम तय हैं और वक्त भी निर्धारित है, कभी प्रकृति को ना वक्त कम पडऩे की शिकायत करते सुना और न ही यह सुनने में आया कि पूर्णिमा पर दूज जैसा चांद इसलिए दिखा कि उसे पूरा निखरने का वक्त ही नहीं मिल पाया।
आखिर हमें ही क्यों वक्त कम पड़ जाता है या जो काम जब कर लेना हो उसके लिए बस उसी वक्त हमें समय नहीं मिल पाता। जो काम हम आज जितने अधिक उत्साह से कर सकते हैं जरूरी नही कि दस-बीस साल बाद भी उतनी ही स्फूर्ति से कर पाए। हम सपने तो देखना जानते हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने की प्लानिंंग नहीं कर पाते लिहाजा हमारे पास वक्त ही नहीं होता। पढ़ते तो बचपन से रहे हैं 'काल करे सो आज करÓ लेकिन इस का मतलब उम्र के अंतिम पड़ाव पर तब पता चलता है जब हमारे पास वक्त तो खूब होता है लेकिन खुद के बलबूते चार कदम चलने जितनी ताकत भी नहीं रहती। कितना मशीनी जीवन है हमारा पैसा कमाने के चक्कर में सपने पूरे करने का वक्त नहीं और जब वक्त होता है तब लम्बे समय से कल पर टाले गए सपने पूरे करने का हौसला नही रह पाता। जबकि हमारे आसपास ही ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो समय को हर दिन के अपने कामों के हिसाब से बांट कर तय समय में उस काम को पूरा कर ही लेते हैं। हमारी ही तरह ऐसे लोगों को भी वही चौबीस घंटे ही मिलते है। वक्त तो सबको समान ही मिलता है और अवसर सब के दरवाजे पर दस्तक भी देते हैं जो दरवाजा खोल कर अवसरों का स्वागत करते हैं वक्त उनके कदमों में लिपट जाता है और जब हम वक्त की रफ्तार के मुताबिक चल नहीं पाते तो गुजर गए कारवे के बाद उड़ती हुई धूल को निहारते हुए हाथ मलने से ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाते। तब हालात बिल्कुल ऐसे ही हो जाते हैं कि तेज भूख लगे, जेब बादाम-अखरोट सहित बाकी ड्रायफू्रट भी भरे हो लेकिन चबाने के लिए दांत ही नहीं हो।

Wednesday 5 January 2011

रिश्तों में तो बर्फ ना जमने दे

सुख इस बर्फबारी के कारण परेशानी तो हुई लेकिन इस ने बहुत कुछ सिखाया भी है. सब से बड़ी सीख तो यही मिली हैं कि रास्ताें पर जमी बर्फ पर चलना पडे तो हमारे पास ऐसे हालात से निपटने के कई तरीके हैं, लेकिन यदि रिश्तों में बर्फ जम जाए तो? तब हमें आसानी से कोई हल इसलिए नहीं सूझता क्यों कि हमारा अहंकार, मान-अपमान की अकडं आडें आ जाती है. रिश्ते कच्चे धागे की तरह होते हैं, लेकिन इन्हे मजबूत कैसे बनाया जाए, यह बर्फबारी का सामना करने वाले लोग ही जानते है। शायद यही सबसे बड़ा कारण है कि आम हिमाचली दिल का साफ और बिना किसी स्वार्थ के मदद को हमेशा तत्पर रहता है।

सुख हमेशा क्षणिक तो होता ही और यदि सुख आया है तो मान कर चलना चाहिए दुख बाहर दरवाजे की ओट मे ंखड़ा अन्दर आने का इंतजार कर रहा है. इस सत्य को इस बार हुई बर्फबारी ने फिर सही साबित कर दिया। आस-पास के क्षेत्राें में हो रही बर्फबारी की जानकारी अन्य शहरों में रहने वाले परिचितों को मिली तो सब के फोन आने लगे, यह जानने के लिए कि शिमला में गिरी या नहीं, कब तक गिरेगी। और जब बर्फ गिर गई तो यह हमें बहुत कुछ सिखा भी गई।
रूई के फाहों की तरह गिरने वाली बर्फ कितनी नाजुक और मुलायम थी। इस बर्फबारी ने मन खुश कर दिया लेकिन जब यह धूप खाने के बाद जम कर सीढियों-रास्ताें-छतों पर पत्थर समान हो गई तो परेशानी भी बढ़ा दी। जिन रास्तों पर हम अंधेरे में भी बिना रुके एक सांस मे चढ़ जाते थे उन्ही रास्तों पर दिन मे साफ-साफ दिखाई देने के बाद भी रिस्क लेना नहीं चाहते, पहले एक पैर आगे बड़ा कर अन्दाज लगाते कि दूसरा पैर भी यहा रखना ठीक होगा या नहीं। सख्त हुई बर्फ वाले इन रास्ताें की हमारे मन में ऐसी दहशत बैठ गई जैसे इन रास्तों के नीचे कही हमारे दुश्मनों ने बारूद तो नहीं बिछा दी हो।
एक बार अपने किसी बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार से धोखा खाने के बाद हम जैसे फिर किसी पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते वही हालत इन चिर-परिचित रास्ताें को लेकर हो गई थी। सीढ़ियों और रास्ताें को पैर धरने लायक बनाने के लिए वही मिट्टी-कचरा काम आया जिसे देख कर हम नाक-भौ चढ़ाते थे। जैसे मुसीबत मे ंहमारे अपने हमारा साथ छोड़ देते हैं, वही धोखाधड़ी इन रास्तों ने भी हमारे साथ की, हम उस गरीब मजदूर जैसे हो गए जिसके साथ धोखाधड़ी होने पर ना तो आसपास के लोग विश्वास करते है और ना ही थाने में आसानी से उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाती है.
जहा रैलिंग का सहारा मिला वह पल डूबते को तिनके के सहारे से कम नहीं था। जहां कोई सहारा ना मिला वहा ंगिरते-पड़ते-संभलते यह तो समझ में आया कि मुसीबत मे कोई किसी के काम नहीं आता और गलत डिसीजन होने पर यह अनुभव तो मिलता ही है कि दूसरी बार फिर से वही गलती नहीं होती।
इस बर्फबारी ने और भी जो सिखाया वह यह कि रास्ताें पर जमी बर्फ तो फिर भी दो-चार दिन मे पिघल जाती हैं, लेकिन रिश्तो के बीच यदि बर्फ जमने लगे और उसे समय रहते साफ ना किया जाए तो वह भी सड़क पर जमते-जमते ढेर के रूप में अलग से ही नजर आने लगती है. जैसे रास्ताें पर यहां-वहां जमी बर्फ गाड़ियाें का संतुलन बिगाड़ती है वैसे ही रिश्तों के बीच जमी बर्फ सम्बंधों की गति अवरुध्द कर देती है। यह बर्फ जमती है तो इसका सबसे बड़ा कारण हमारी अपेक्षा होती है और यही अपेक्षा दुखों-अवसाद-असंतोष का कारण भी बनती है. मकानों की छते ढलावदार रखते ही इसलिए हैं कि या तो बर्फ जमे ही नहीं और जम जाए तो पानी बन कर बह जाए। हमारे मन भी मकानाें की ढलवा छतों की तरह हो जाए तो मान-अपमान की बर्फ जम ही ना पाए।
रिश्तों के बीच जब यह हालात बन जाते है तो हमारे आसान से काम भी बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं। अच्छे-भले रात में सोते हैं, सुबह देखते है तो चारो तरफ सफेदी छाई हुई है, मन थोड़ा खुश हो पाता है कि बिजली गुल से आंखो के सामने परेशानियाें का अन्धेरा छा जाता है, किचन से लेकर बाथरूम तक नल हड़ताल पर. पाइप लाइन में पानी भी जम चुका होता है. सब कुछ होते हुए भी हम असहाय से हो जाते है. पानी की टंकी से लेकर नलों के नीचे तक कागज-पुराने कपडे ज़लाकर कुछ गरमाहट बनाने की कोशिश करते है। नल की टोटी बडे उत्साह से खोलते है तो फुस्स की तेज आवाज के बाद पहले बूंद-बूंद पानी टपकता है और फिर जब तेजी से नल चलने लगते है तो हमें अपने किए गए प्रयास पर कितना गर्व होता है।
इस सारी कवायद में ही रिश्तों में जमी बर्फ गलाने का नुस्खा भी तो छुपा है. हम अपने अहंकार-अपेक्षाओं को जला कर भी तो बर्फ के नीचे जम चुके सम्बन्धों में फिर से गरमाहट पैदा कर सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा मन में जो गुस्से का गुबार दबाए बैठे है वह बाहर ही तो निकलेगा, नल से भी तो पहले आवाज करते हवा और फिर पानी आता है। बिना अपेक्षा वाले रिश्तें रहेंगे तो कभी ऐसी सख्त बर्फ जमेगी ही नहीं। यह तभी संभव है जब हम बिना स्वार्थ के अपना काम करे यानी नेकी करे और भूल जाएं।