पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 17 February 2010

हताशा में खोजें

आशा की नई राह

हताशा जब घेरती है, तो अविश्वास को भी साथ लेकर आती है। मुश्किल हालात में दो ही रास्ते बचते हैं या तो हçथयार डाल दें या हिम्मत हारें। हताशा के दौर मेें भी जो कुछ करने का साहस दिखाते हैं, उनके लिए यही हताशा अनुभव प्रमाणपत्र बन जाती है। अपने आसपास किसी को हताश देखें तो उसे हिम्मत बंधाएं, ऐसा करके हम उन लोगों का अहसान चुका सकते हैं, जिन्होंने हताशा के वक्त हमारा हौसला बढ़ाया था।

हताशा जब घेर ले तो क्या करें? पहला रास्ता तो यही है कि उसे हावी हो जाने दे भले ही जीवन का अन्त क्यों न हो जाए। दूसरा रास्ता यह है कि हताशा मेें छिपी अदृश्य आशा का दामन थाम लें। पहला रास्ता हमें जहां, जैसी स्थिति में हैं, वहीं रहने देता है। लोग हमें धकियाते, रौन्दते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। दूसरा रास्ता हमें नए तरीके से जिन्दगी जीने की राह बताता है, अपनी भूलों से सीख लेते हैं। हताशा में छिपी यह अदृश्य आशा एक तरह से हमारे लिए अनुभव प्रमाणपत्र साबित होती है।
राजनीति में तेजी से आगे बढ़ रहे एक सज्जन अविश्वास के दांव-पेंच में ऐसे घिरे कि हताशा ने घेर लिया। घर भला और वो भले। समाज से कटे, ज्यादा समय घर पर ही बिताने लगे तो उन्हें मन्दबुद्धि बच्चों और उनके अभिभावकों की स्थिति का अहसास हुआ, नतीजा यह निकला कि उन्होंने मन्दबुद्धि बच्चों के लिए एक स्कूल स्थापना का संकल्प ले लिया। हताशा में छिपी अदृश्य आशा ने उन्हें एक राह दिखा दी।
इसी तरह कर्ज के बोझ और कुछ बुरी संगत के दुष्परिणामों से हताश एक युवक ने बीवी-बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ रेल की पटरियों को बिछौना बनाने का निर्णय ले लिया। संकल्प को पूरा करने के लिए वह घर से चल भी पड़ा, बालाजी भजन मण्डल के एक वरिष्ठ सदस्य की दुकान के आगे से गुजरते वक्त वह अन्तिम दुआ सलाम के लिए रुक गया। कुछ पल की चर्चा का ऐसा असर हुआ कि उसे आत्महत्या का निर्णय मूखüतापूर्ण लगने लगा। अब वह अपने परिवार के साथ मस्त है और मण्डल के जागरण में तो आता ही है।
हताशा शब्द सुनने में जरूर हारे हुओं का अन्तिम सहारा लगता है, लेकिन हताशा में भी आशा की राह है, बशतेü हम ठण्डे दिमाग से सोचें। तूफान में घिरी नाव जब पलट जाती है, तो उसमें सवार कई यात्री तैरना नहीं आने के बाद भी थपेड़ों में हाथ-पैर मारते हुए किनारे तक पहुंच जाते हैं तो सिर्फ इसलिए कि हिम्मत नहीं हारते। भूकंप के बाद 10-१२ दिन मलबे में दबा कोई युवक ज़िन्दा निकल जाता है, तो इस चमत्कार के पीछे भी आशा ही होती है।
जिन्दगी में हम सब भी हताशा के अंधे मोड़ से कई बार गुजरे हैं। खुद को खत्म करना ही सबसे आसान रास्ता भी लगा था, लेकिन ऐसा नहीं कर पाए, तो उसी अदृश्य आशा के कारण। अब जब याद करें, तो कई ऐसे चेहरे, नाम और प्रसंग याद आ जाएंगे, जो हताशा के उस घुप्प अंधेरे मार्ग पर हमारे आगे रोशनी लेकर चले थे। उनके इस सहज व्यवहार से हमारा मन श्रद्धा से भर उठा था, लेकिन यह खुमार कुछ वक्त का ही था।अब तो गाहे-बगाहे ही हम उन प्रसंगों को याद कर पाते हैं, लेकिन मन ही मन एक फांस है, जो खटकती रहती है। इसकी टीस याद दिलाती रहती है कि हताशा के उन पलों में उन लोगों का साथ नहीं मिला होता, तो बाकी जीवन का आनन्द भी नहीं मिलता।
फिर कैसे उतारें वह अहसान? हम सब के आस-पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो मुसीबतों से घिरे होने के बाद भी संघर्ष तो करते हैं, लेकिन चेहरे की उदासी असलियत बयान कर देती है। दुख बांटने से कम नहीं हो सकता और किसी के दर्द की गठरी हम उठा भी नहीं सकते, लेकिन दर्द सुन कर राहत का मरहम तो लगा ही सकते हैं। सुख में तो किसी को किसी की जरूरत महसूस नहीं होती, लेकिन जब दुखों के बादल घेर लेते हैं, तब रोने के लिए कंधे भी नसीब नहीं होते और न ही आंसू पोंछने के लिए कोई रुमाल लेकर आगे आता है।
क्या हम किसी की मुसीबतों में मदद को तत्पर रहते हैं? जिसका हाथ चाकू से कटा है, उसका घाव भी समय रहते ही भरेगा, लेकिन हम हाथ पर बंधी पट्टी, चेहरे पर दर्द की लकीरें भी नहीं देख पाएं, तो फिर आंखेंे होना न होना एक समान है। वे आंखें तो वैसे ही काम की नहीं, जिनमें आंसुओं का डेरा न हो। अप्रत्याशित दुख के क्षणों में जब कई लोग मूर्तिवत हो जाते हैं, तब उन्हें भी थप्पड़ मारकर प्रयास किए जाते हैं किसी तरह आंख से आंसू टपक पडें आंखों से टप-टप गिरते आंसू भी दर्द में दवा का काम करते हैं। नीन्द में खोया बच्चा अचानक चमक कर रोने लगता है, लेकिन कंधे पर सिर रखकर थपकारते ही वह फिर सो जाता है, उस पल हमें कितना अच्छा लगता है। किसी को अपना कंधा उपलब्ध कराएं, आंसू पोंछें हताशा में घिरे किसी अपने के लिए आप आशा की किरण भी बन सकते हैं, आप के लिए भी तो कोई काम आया था।

Wednesday 10 February 2010

कुछ सीखने के लिए एक गलती करिए

जो काम करेगा गलती भी उससे ही होगी। समझदार एक गलती से कई बातें सीख लेता है, लेकिन जो बार-बार एक ही गलती दोहराता है, उसे कोई बर्दाशत नहीं करता। जितने भी आविष्कार हुए, उससे पहले वैज्ञानिकों ने भी खूब प्रयोग किए, असफल हुए, लेकिन हताश नहीं। हर असफलता में सफलता के कारण खोजे। एक परीक्षा, एक स्पर्धा में फेल होने का यह तो मतलब नहीं कि मैदान छोड़ दें, जीवन से मोह भंग हो जाए। पहली बार साइकिल, स्कूटर, कार चलाना सीखने पर एक बार तो धूल चाटनी ही पड़ती है, लेकिन गाड़ी सीखना नहीं छोड़ते, हां उस गिरने वाली घटना को जीवनभर याद रखते हैं।

रसोईघर में पहली बार जिन भी लोगों ने सब्जी बनाने, दाल में तड़का लगाने के बहाने पाक कला में अपनी निपुणता दिखाने का प्रयास किया है, उन्हें यह भी याद है कि गर्म हुए तेल-घी में कटी मिर्च, राई आदि डालते वक्त सजगता नहीं बरतने के कारण चेहरे-हाथ पर पडे़ तेल के छीटों से जलने के दाग कुछ दिनों तक पूरी कहानी खुद बयां कर देते थे। रसोईघर में पहली बार खाना बनाने के प्रयास में ज्यादातर किशोरियां अथवा पुरुष इस तड़के का शिकार होते ही हैं, लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता क्योंकि पहली बार हुई भूल से ही सबक मिल जाता है।
पहली बार पडे़ गर्म तेल-घी के छींटों से गृहिणियां घबरा जाएं तो? जाहिर है ऐसे सारे घरों में दाल-सब्जी के लिए तो होटल पर ही निर्भर रहना पडे़गा। ऐसा होता नहीं है या तो हम खुद ही अपनी गलती से सीख लेते हैं या घर के बुजुर्गजन पाक कला की खामियों को दूर करने के सुझाव-सलाह देकर हमारी नासमझी को दूर कर देते हैं। जल्दबाजी में हम एक बार ही बिना कपडे़ की सहायता से गर्म बर्तन पकड़ने की गलती करते हैं। जब अंगुलियों के पोर जलन से लाल सुखü हो जाते हैं, तो अगली बार गर्म बर्तन को नंगे हाथों से उठाने की गलती नहीं दोहराते।
जाहिर है जो काम करेगा, गलती भी उसी से होगी। हम से गलती तभी नहीं हो सकती है जब हम कुछ करें ही नहीं। तब होगा यह कि हमने जो सीखा-समझा है, उससे आगे भी नहीं बढ़ पाएंगे, हाथ पर हाथ धर के बैठे रहने वालों को न तो घर में सम्मान मिलता है और न संस्थान मे सराहना मिलती है। जो गलती के भय से हताश हो जाते हैं, वे जिन्दगी में हर मोड़ पर खुद को पराजित करते जाते हैं। जो गलतियों के कारण खोज लेते हैं, उन कमियों को सुधारते जाते हैं, एक दिन सफलता को भी उनके कदमों में आत्मसमर्पण करना ही पड़ता है।
ज्यादातर खेल समीक्षकों ने सचिन तेन्दुलकर की शैली को लेकर लिखा भी है। मैदान पर वे बॉलर की जिस बॉल से आउट होते हैं, अगली बार वे खुद बॉलर को वैसी ही घातक बॉल डालने के लिए उकसाते हैं। ऐसी स्थिति में बॉलर और प्लेयर दोनों को पता होता है कि यह बॉल आउट करने के उद्देश्य से ही डाली जा रही है। सचिन उसी घातक बॉल पर चौका-छक्का जड़ कर शतक पूरा कर लेते हैं। वे अपने खेल में सुधार तो करते ही हैं, यह भी बताते हैं कि सीखने, समझने और सुधार को लेकर आप बिना अहं और हताशा के संघर्षरत रहते हैं, तो पहले जिन गलतियों से असफलता मिली, भविष्य में वे ही गलतियां आपके लिए सफलता का रास्ता भी बन सकती हैं।
हमारे साथ दिक्कत यह है कि सफलता मिले तो सारा श्रेय खुद को, हल्की सी भी आशंका हो जाए कि असफलता हाथ लग सकती है, तो हम बहानों-कारणों की फेहरिस्त भी जेब में तैयार रखते हैं। विश्व में जितने भी आविष्कार हुए और हो रहे हैं, वैज्ञानिकों को पहली बार में ही सफलता नहीं मिल गई, हजारों बार प्रयास किए, सैकड़ोें गलतियां हुईं, लेकिन हर बार सबक मिला, सुधार किए तब कहीं सफलता मिली।
कोचिंग हो, स्कूल हो, संस्थान हो या समाज हर क्षेत्र में किसी की भी गलती को तभी तक नज़रअन्दाज किया जाता है, जब तक गलतियां एक सी न हों। बार-बार एक ही गलती करने वालों को तो द्वापर काल से ही बर्दाश्त नहीं किया जाता। धार्मिक ग्रन्थ प्रेमसागर में एक प्रसंग भी है शिशुपाल के अशालीन शब्दों को श्रीकृष्ण निरन्तर सुनते हैं। लगातार निन्यानवें बार भी उसकी अभद्र शब्दावली जारी रहती है, तो श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र चल पड़ता है शिशुपाल वध के लिए। वह द्वापर युग था जब श्रीकृष्ण ने इस हद तक सहनशील होने का सन्देश दिया था। अब कलयुग है शिशुपाल और दुर्योधन तो बहुत मिल जाएंगे, लेकिन कृष्णावतार की प्रतीक्षा सदियों से की जा रही है। अब दूसरी गलती पर तभी राहत मिलती है, जब वह पहली से अलग हो। गलतियों से सीखकर हम सफलता का नया रास्ता खोज सकते हैं, लेकिन नहीं समझें तो उम्मीदों के दरवाजे भी अपने हाथों बन्द कर देते हैं।

Thursday 4 February 2010

कितने लोगों को चिन्ता रहती है अपने नाम की

नाम से काम होता हो या काम से नाम, यह तो तय मानना ही चाहिए कि नाम है तो उसका कुछ मतलब भी है। जन्म के बाद नाम मिलता है। जीवन के साथ और जीवन के बाद भी कुछ रह जाता है तो यही नाम। नाम से ही व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का निर्धारण होता है, नाम का इतना महत्व होते हुए भी हम में ज्यादातर लोग नाम को लेकर गम्भीर नहीं रहते जबकि घर में पाले डॉग को भी अपने नाम की अहमियत पता होती है। आंख मून्दे डॉग का धीरे से भी नाम पुकारें तो उसके कान खड़े होने के साथ ही पूंछ भी हरकत करने लगती है। सड़क से गुजर रही गाय को हम दूसरी मंजिल से गाय-गाय कहकर पुकारते हैं, वह गर्दन घुमाकर आवाज वाली दिशा में देखने लगती है।किसी सार्वजनिक समारोह में एक ही नाम के बीस लोग ही क्यों न जुटे हों लेकिन बात जब काम से जुड़े नाम की हो तो कोई एक आदमी ही प्रतिक्रिया देता है। आखिर ऐसा क्यों है कि कोई एक तो नाम से पहचान पा जाता है और उसी नाम वाले अन्य लोग या तो पहचान नहीं बना पाते या भीड़ का हिस्सा होकर रह जाते हैं। क्या हम अपने नाम की सार्थकता को लेकर वाकई प्रयासरत रहते हैं? कहने को तो कह सकते हैं नाम में क्या रखा है, मन समझाने को यह भी कह सकते हैं बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ! जन्म के बाद अनाम होने तक तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन नाम जुड़ने और समझदारी विकसित होने के साथ ही हमारी एकमात्र चिन्ता रहती है बदनाम न हो जाएं। जिस सन्तान का हम नामकरण करते हैं उसे भी बात-बात पर उलाहना देते रहते हैं हमारा नाम मत डुबा देना। बदनाम होने पर नाम होना तभी अच्छा है जब हमारी बदनामी मीरा, राधा, सूर, कबीर, सुकरात जैसी हो जाए। यूं तो लैला-मजनूँ का भी नाम है लेकिन प्रेम की वैसी पवित्रता अब रही नहीं लिहाजा चाहे जिसे लैला-मजनूं कह कर इस नाम को भी हल्का बना दिया गया है।नाम को लेकर चिन्तित रहने वाले इस शब्द को पलट कर देखें तो मना बन जाता है जिसका सहज अर्थ है जिसे समाज स्वीकृति न दें या जिसे मन ना कहे वह काम न करें। इस मना का यदि हमेशा ध्यान रखें तो हमें नाम को लेकर तनाव में नहीं रहना पड़े। चौबीस घंटे में से कुछ वक्त नाम जप करके भी तनाव मुक्त रहा जा सकता है नानक से लेकर नरसी मेहता तक का नाम भी नाम जप से हुआ है।आगे निकलने की होड़ में जब मन की नहीं सुनते तो फिर नाम का ध्यान भी कहां रख पाते हैं।जितने भी इंसान हैं सबका कोई नाम है और वही नाम उनकी पहचान भी है। इतिहास की बात करें तो अकबर के नाम को जितना सम्मान मिल पाया उतना औरंगजेब को नहीं मिल पाया। शाहजहां के नाम से ज्यादा उनके कराए काम से ताजमहल का ज्यादा नाम हो गया। फिल्मों में शुरुआती भूमिका में सात हिन्दुस्तानी के एक कलाकार अमिताभ की पहचान कवि हरिवंशराय बच्चन के पुत्र के रूप में ज्यादा थी और आज अ अनार का नहीं अ अमिताभ का हो गया है।हम अपने आसपास तो नज़र डालें समाज, संस्थान, कार्य क्षेत्र में जितने भी लोग रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़े हैं उनमें से कितने अपने नाम को सार्थक कर पा रहे हैं। किसी को जल्दी तो किसी को देर से ही सही जो जिस क्षेत्र में है वहां काबिलियत दिखाने का अवसर तो हम सभी को मिलता ही है, लेकिन कितने लोग अवसर को झपटकर अपना नाम और अपनी पहचान बना पाते हैं। पूर्वजों द्वारा संचित संपत्ति कई लोगों को विरासत में मिलती है लेकिन मुकेश, अनिल अंबानी की तरह कितनी संताने खानदान के नाम की शान बनाए रख पाती हैं।अनाम जन्मते हैं और राम-नाम सत्य के उद्घोष के साथ शून्य में विलीन जरूर हो जाते हैं लेकिन श्मशान से चुनी जाने वाली अस्थियों, नदी में प्रवाहित की जाने वाली राख के साथ भी नाम ज़िन्दा रहता है। यही नहीं परदादा, दादा और पिताजी के चित्रों पर झूलते चन्दनहार से नहीं नाम से ही इन पूर्वजों को भावी पीढ़ी जानती है। अच्छा करें या बुरा नाम तो होना ही है। बुरे से नाम कमाने के लिए हिम्मत या बेशर्मी जरूरी होती है लेकिन अच्छे काम से नाम कमाने के लिए न धन चाहिए, न हिम्मत, बेशर्मी तो बिल्कुल नहीं चाहिए। अच्छा करके देश में नाम कमाने का सपना भी तभी साकार हो सकता है जब हम, जिस भी क्षेत्र में हैं वहां, कुछ अच्छा करने की शुरुआत करें। कुछ न करने वालों का सिर्फ मृत्यु प्रमाणपत्र में नाम होता है और जो कुछ प्रेरणादायी करके दिखाते हैं उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...