मुझे लगता है हममें से ज्यादातर लोग अपनी कमजोरी को इस तरह पेश करते हैं कि लोग हम पर दया करें और हमें लाभ मिल जाए। कहा भी तो है मुसीबत, मेहमान और मौत अचानक ही आते हैं। यह पता होने के बाद भी हम असफलता के ज्यादातर मामलों में लगभग ऐसे ही कारणों का सहारा लेते हैं। जिसे हम अपनी बात समझाने का प्रयास करते हैं न सिर्फ उसे वरन खुद हमें भी पता होता है कि इस तरह की बहानेबाजी मेें कोई दम नहीं है। फिर भी हम अपनी असफलता को छुपाने का प्रयास तो करते ही हैं।
एक बड़े ग्रुप के एमडी अपने साथियों से चर्चा में अकसर कहा करते हैं कि शांत समुद्र में तो अनाड़ी नाविक भी आराम से नाव चला सकता है। कुशल नाविक तो वह होता है जो आंधी-तूफान में लहरों के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए बिना घबराए किनारे तक नाव लेकर आता है। जयपुर या चंडीगढ़ की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाने वाले कई ड्राइवर बद्रीनाथ-केदारनाथ के मार्गों पर उतनी निर्भीकता से शायद ही गाड़ी चला पाएं क्योंकि उन सर्पीले और संकरे रास्तों पर उन्हें गाड़ी चलाने का पूर्व अनुभव नहीं होता, इसीलिए ज्यादातर श्रद्धालु हरिद्वार या ऋषिकेश इन्हीं उन क्षेत्रों के अनुभवी ड्राइवरों की सेवा लेना पसंद करते हैं।
हम अपनी कमजोरियों को समझते तो हैं लेकिन उन्हेेंं दूर करने के बारे में नहीं सोचते और न ही उस कमजोरी को अपनी ताकत बना पाते हैं। एक दृष्टिबाधित ट्रेन में पेपर सोप बेचकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना सकता है लेकिन हम अपने आसपास देखें तो ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे तो हैं लेकिन बेरोजगार हैं। शिमला में माल रोड की दुकानें हों या लक्कड़ बाजार, लोअर बाजार शिमला की दुकानें यहां ड्राइवर चाहिए, सेल्समेन चाहिए, होटल में काम करने के लिए नौकर चाहिए की सूचना दुकानों के बाहर महीनों तक लगी देखी जा सकती है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि या तो बेरोजगारों में इन कार्यों जितनी योग्यता भी नहीं है या ऐसा कोई काम करने की अपेक्षा उन्हें बेकार रहना ज्यादा अच्छा लगता है। जिंदगी में अवसर हमेशा मिलते नहीं और जब अवसर नजर आएं तो झपटने में हर्ज भी नहीं। जो अवसर झपटना जानते हैं उनके लिए रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं लेकिन जो कोई निर्णय नहीं ले पाते वो फिर हमेशा पश्चाताप ही करते रहते हैं कि क ाश उस वक्त थोड़ा साहस दिखाया होता। तब हमें लगता है कि कमजोरी वाले बहाने ही हमारी प्रगति में कई बार बाधा भी बन गए।
हम प्रयास करें नहीं और यह भी चाहें कि सफलता मिल जाए तो यह ना सतयुग में आसान था न अब। तब मनोकामना पूर्ण हो जाए इसलिए संतों से लेकर सम्राट तक तपस्या या युद्ध का रास्ता अपनाते थे और अब स्पर्धा के युग में टेलेंट में टक्कर होती है। सिफारिश से पद तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस पद के योग्य भी हैं या नहीं यह किए जाने वाले काम से ही सिद्ध हो सकता है। भूख लगने पर थाली में पकवान सजा कर तो कोई भी रख देगा लेकिन खाने के लिए तो हाथ हमें ही बढ़ाना होगा। बहानों की चादर ओढ़ कर आलसी बने रहेंगे तो दरवाजे तक आए अवसर हमारे जागने तक इंतजार नहीं करेंगे।हमें जब यह पता हो कि योग्यता हमसे कोसौ दूर है तो फिर निठल्ले बैठे रहने से यह ज्यादा बेहतर है कि जो अवसर नजर आए बिना किसी झिझक के काम में जुट जाएं, कम से कम ईश्वर ने हमें दुनिया देखने के लिए नजर तो दी है इन्हीं नजरों से हम यह भी देख सकते हैं कि कमाऊ सदस्यों और समाज की नजरों में कितनी उपेक्षा का भाव होता है । तभी कहा भी जाता है काम के ना काज के, ढाई सेर अनाज के।