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Thursday 29 July 2010

नजर रखिए अवसर पर

ईश्वर ने हमें नजर तो दी है लेकिन अवसर हमें नजर नहीं आते। अवसर हमारे दरवाजे तक आ भी जाएं तो हम उन्हेें लपकना भी नहीं जानते। काम नहीं मिलने पर हम घंटों बेसिरपैर की बातें कर सकते हैं लेकिन अपनी कमजोरियों को दूर करने या उन्हें अपनी ताकत में बदलने का वक्त हमारे पास नहीं है। बिना योज्यता वालों के लिए भी सम्मानजनक काम के अवसरों की कमी नहीं है लेकिन यहां भी हमारा आत्मसम्मान आड़े आ जाता है। दुकानों के बाहर लगी नौकर चाहिए की तख्तियां बताती हैं कि लोगों को छोटे काम करने की अपेक्षा बेकार घूमना ज्यादा अच्छा लगता है।
सफर के दौरान जैसे ही कोई बड़ा स्टेशन आता ट्रेन में भीख मांगने वालों का सिलसिला शुरू हो जाता। इन्हीं लोगों के बीच एक दृष्टिबाधित युवक ने कई यात्रियों का ध्यान आकॢषत किया। वह पेपर सोप बेच रहा था। टायलेट जाने वाले यात्रियों ने उससे पेपर सोप खरीदने के साथ ही उसके इस कार्य की सराहना भी की। उसके लिए बहुत आसान था अपनी इस कमजोरी को भावनात्मक रूप से लोगों से सहायता का माध्यम बनाना। वह अन्य भिखारियों की तरह यात्रियों के सामने हाथ भी फैला सकता था लेकिन उसने रास्ता चुना आत्म सम्मान वाला। इस अवसर ने उसे बाकी भिखारियों से अलग कर दिया। उसने जो रास्ता चुना उसमें ना योग्यता जैसी चुनौती आड़े आई न ही किसी की सिफारिश की जरूरत पड़ी।
मुझे लगता है हममें से ज्यादातर लोग अपनी कमजोरी को इस तरह पेश करते हैं कि लोग हम पर दया करें और हमें लाभ मिल जाए। कहा भी तो है मुसीबत, मेहमान और मौत अचानक ही आते हैं। यह पता होने के बाद भी हम असफलता के ज्यादातर मामलों में लगभग ऐसे ही कारणों का सहारा लेते हैं। जिसे हम अपनी बात समझाने का प्रयास करते हैं न सिर्फ उसे वरन खुद हमें भी पता होता है कि इस तरह की बहानेबाजी मेें कोई दम नहीं है। फिर भी हम अपनी असफलता को छुपाने का प्रयास तो करते ही हैं।
एक बड़े ग्रुप के एमडी अपने साथियों से चर्चा में अकसर कहा करते हैं कि शांत समुद्र में तो अनाड़ी नाविक भी आराम से नाव चला सकता है। कुशल नाविक तो वह होता है जो आंधी-तूफान में लहरों के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए बिना घबराए किनारे तक नाव लेकर आता है। जयपुर या चंडीगढ़ की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाने वाले कई ड्राइवर बद्रीनाथ-केदारनाथ के मार्गों पर उतनी निर्भीकता से शायद ही गाड़ी चला पाएं क्योंकि उन सर्पीले और संकरे रास्तों पर उन्हें गाड़ी चलाने का पूर्व अनुभव नहीं होता, इसीलिए ज्यादातर श्रद्धालु हरिद्वार या ऋषिकेश इन्हीं उन क्षेत्रों के अनुभवी ड्राइवरों की सेवा लेना पसंद करते हैं।
हम अपनी कमजोरियों को समझते तो हैं लेकिन उन्हेेंं दूर करने के बारे में नहीं सोचते और न ही उस कमजोरी को अपनी ताकत बना पाते हैं। एक दृष्टिबाधित ट्रेन में पेपर सोप बेचकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना सकता है लेकिन हम अपने आसपास देखें तो ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे तो हैं लेकिन बेरोजगार हैं। शिमला में माल रोड की दुकानें हों या लक्कड़ बाजार, लोअर बाजार शिमला की दुकानें यहां ड्राइवर चाहिए, सेल्समेन चाहिए, होटल में काम करने के लिए नौकर चाहिए की सूचना दुकानों के बाहर महीनों तक लगी देखी जा सकती है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि या तो बेरोजगारों में इन कार्यों जितनी योग्यता भी नहीं है या ऐसा कोई काम करने की अपेक्षा उन्हें बेकार रहना ज्यादा अच्छा लगता है। जिंदगी में अवसर हमेशा मिलते नहीं और जब अवसर नजर आएं तो झपटने में हर्ज भी नहीं। जो अवसर झपटना जानते हैं उनके लिए रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं लेकिन जो कोई निर्णय नहीं ले पाते वो फिर हमेशा पश्चाताप ही करते रहते हैं कि क ाश उस वक्त थोड़ा साहस दिखाया होता। तब हमें लगता है कि कमजोरी वाले बहाने ही हमारी प्रगति में कई बार बाधा भी बन गए।
हम प्रयास करें नहीं और यह भी चाहें कि सफलता मिल जाए तो यह ना सतयुग में आसान था न अब। तब मनोकामना पूर्ण हो जाए इसलिए संतों से लेकर सम्राट तक तपस्या या युद्ध का रास्ता अपनाते थे और अब स्पर्धा के युग में टेलेंट में टक्कर होती है। सिफारिश से पद तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस पद के योग्य भी हैं या नहीं यह किए जाने वाले काम से ही सिद्ध हो सकता है। भूख लगने पर थाली में पकवान सजा कर तो कोई भी रख देगा लेकिन खाने के लिए तो हाथ हमें ही बढ़ाना होगा। बहानों की चादर ओढ़ कर आलसी बने रहेंगे तो दरवाजे तक आए अवसर हमारे जागने तक इंतजार नहीं करेंगे।हमें जब यह पता हो कि योग्यता हमसे कोसौ दूर है तो फिर निठल्ले बैठे रहने से यह ज्यादा बेहतर है कि जो अवसर नजर आए बिना किसी झिझक के काम में जुट जाएं, कम से कम ईश्वर ने हमें दुनिया देखने के लिए नजर तो दी है इन्हीं नजरों से हम यह भी देख सकते हैं कि कमाऊ सदस्यों और समाज की नजरों में कितनी उपेक्षा का भाव होता है । तभी कहा भी जाता है काम के ना काज के, ढाई सेर अनाज के।

Monday 26 July 2010

काम जितनी राम राम!

हमसे आगे हमारा स्वार्थ तेज कदमों से चलता है लिहाजा सामने जो भी आता है हम मन की तराजू पर उसे तौलने लग जाते हैं कि वह आदमी हमारे आज काम आएगा या कल। जितना वह आदमी हम हमारे काम का लगता है उसे उतना ही सम्मान देते हैं। यदि काम का नहीं है तो किक मार देते हैँ । फुटबाल के मैदान में तो किक सही लग जाए तो गोल हो जाता है लेकिन आम जिंदगी में किक मारने की यह आदत हमें लोगो की नजर से गिरा भी सकती है।
अभी फीफा कप का जुनून चलता रहा। फुटबॉल देखते वक्त ऐसा लगता है कि हम सब की जिंदगी भी फुटबॉल की तरह ही है। कुछ लोग हमेें और हम किसी और को ताउम्र किक ही तो मारते रहते हैं। जब किक सही लग जाती है तो सफलता का गोल हमारे खाते में दर्ज हो जाता है।
खेल चाहे क्रिकेट, फुटबॉल या खो खो ही क्यों ना हो किसी भी खेल में सफलता टीम के सदस्यों के समान सहयोग से ही मिलती है असफलता के कारणों में चाहे कोई एक खिलाड़ी की चूक रहे लेकिन टीम के बाकी सदस्य उसे सूली पर चढ़ाने जैसे भाव नहीं दर्शाते। खेलों में जो टीम भावना नजर आती है क्या वह हम अपनी जिंदगी और कार्य क्षेत्र में तलाश पाते हैं, शायद नहीें। हम समाज का हिस्सा हैं लेकिन बिना समाज के हम कुछ भी नहीं यह बात हम आसानी से तभी समझ पाते हैं जब हम इस तरह के हालातों से गुजरते हैं। जिस तरह एक हेयर कटिंग सैलून का संचालक खुद की कटिंग नहीं कर सकता उसी तरह जटिलतम आपरेशन करने वाला डाक्टर भी अपनी पीठ पर उभरे फोड़े का अपने हाथों आपरेशन नहीं कर सकता।
इस असलियत को समझने के बावजूद हम लोग ना जाने किस भ्रम में जीते हैं। हम लोगों से किक मारने की स्टाइल में व्यवहार करते हैं। हमें लगता है जो कभी हमारे काम नहीं आ सकता उसे फुटबॉल की तरह किक मार भी दें तो अपना क्या बिगडऩा है। ऐसा करते वक्त यह भी याद नहीं रहता कि अब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि अगले मोड़ पर उसी व्यक्ति से काम पड़ सकता है जिसे कुछ समय पहले ही किक मारी थी। समझदार दुकानदार दुकान के सामने कटोरा लेकर खड़े भिखारी को छुट्टे पैसे डाल कर पुण्य तो कमाता ही है और चिल्लर का संकट पडऩे पर इन्हीं से कमीशन पर चिल्लर भी ले लेता हैं।
जिसे हम कुछ नहीं समझ कर तिरस्कृत करते हैं हमेंं पता नहीं उसे हम एक अनुभव मुप्त में देते हैं। हम जिस भी तरीके से उसे उपेक्षित करें उसे हमारा अंदाज तो पता चल ही जाता है। किसी को इतना भी उपेक्षित और तिरस्कृत ना किया जाए कि वह और आक्र ामक होकर सामने आए। पवित्र नर्मदा नदी के संबंध में प्रचलित है कि नर्मदा का कंकर भी शंकर है। दरअसल नर्मदा के तेज प्रवाह में पहाड़ी क्षेत्रों से पत्थर बह कर आते हैं और लगातार किनारों और चट्टानों से टकरा कर घिसते-घिसते गोलाकार हो जाते हैं। चूंकि घर के पूजा कक्ष में अंगूठे से कम आकार के शिवलिंग रखे जाते हैं इसलिए जो भी श्रद्धालु नर्मदा स्नान को जाते हैं लौटते में अपने साथ कंकर बने शंकर को पूजन के लिए साथ ले आते हैँ। उपेक्षा, हिकारत, से उपजी संघर्ष क्षमता ही कंकर को भी शंकर बना देती है।
हमारा स्वार्थ हम से आगे चलता है इसलिए हम मन की तराजू पर लोगों का वजन करते चलते हैं कौन अभी काम आ सकता है, कौन कल काम आएगा और कौन छह महीने बाद उपयोगी हो सकता है। हमारे काम मुताबिक ही हम मान सम्मान की मात्रा भी तय करते हैं। यदि चाय पिलाने मात्र से काम निकल सकता हो तो हम झूठे मुंह ही सही खाने का पूछने की जहमत नहीं उठाते। जो कल काम आ सकता है उसके लिए हमारे मन में आज मान सम्मान नहीं उमड़ता और आज जो हमारे काम आ गया उसे कल तक याद रखें यह जरूरी नहीं लगता।
मतलब नहीं हो तो हम किक मारने में देरी नहीं करते और काम अटका हुआ हो तो पैरों में लौटने में भी हमें अपमान महसूस नहीं होता। हम जब लोगों से काम निकालने जितने संबंध रखेंगे तो लोग भी अपना काम छोड़कर हमसे नहीं मिलेंगे। फुटबॉल सिखाता तो यही है कि गोल करने या टीम को जिताने के लिए साझा प्रयास जरूरी होते हैं। अकेला खिलाड़ी सोच ले कि वह टीम को जिता देगा तो यह संभव नहीं। टीम के बाकी सदस्य अच्छा खेलें और कोई एक सदस्य सहयोग न करे तो भी जीत संभव नहीं।

Thursday 15 July 2010

हमें बोलना आता है?

वैसे तो हम जन्म के एक डेढ़ साल बाद ही मा मा, पा पा, गा गा बोलना सीख गए थे लेकिन हम में से कई लोग पापा, मम्मी बन जाने के बाद भी कब, कहां, क्या, कितना बोलना और कब चुप रहना यह सीख नहीं पाते। कभी जब हमारा कोर्ट-कचहरी से वास्ता पड़े तो समझ आ जाता है कम से कम बोलना कितना फायदेमंद और निर्रथक बोलना कितनी परेशानी का कारण बन सकता है।
बंदरों के हमले से बचने के चक्कर में वो सज्जन सीढिय़ों के किनारे गिर पड़े थे। कुछ लोग उनकी मदद के लिए दौड़े । वहीं रहने वाले एक सज्जन घर की गैलरी से सारा नजारा देख रहे थे। उन्होंने पहले पूछा चोट ज्यादा तो नहीं लगी, फिर घुटने की चोट पर लगाने के लिए रुई और मरहम लेकर आ गए। यह सारी गतिविधि चल ही रही थी कि भीड़ में खड़े एक युवक ने सांत्वना देते हुए कहा यह अच्छा हुआ कि बंदरों ने काटा नहीं।
उसकी बात थी तो सही लेकिन आसपास खड़े लोगों ने उसे घूर कर देखा क्यों कि सांत्वना व्यक्त करने का यह अंदाज उन लोगों को ठीक नहीं लगा। एक ने तो तुरंत कह भी दिया कि एक तो बेचारा वह घायल आदमी वैसे ही दर्द से कराह रहा है और आप हैं कि कह रहे हैं अच्छा हुआ बंदरों ने काटा नहीं। इन दोनों के बीच तकरार की नौबत आए इससे पहले ही अन्य लोगों ने बात संभाल ली।
कितनी अजीब बात है न, जन्म के करीब एक साल बाद बच्चा मा मा, ना ना, पा पा जैसे शब्द बोलना सीख जाता है और कु छ ही वर्षों में फर्राटे से घरेलू भाषा सहित अन्य भाषाएं भी बोलने लग जाता है, लेकिन क्या वजह है कि हममें से ज्यादातर लोग उम्र के अंतिम पड़ाव तक यह सीख ही नहीं पाते कि कब, कौन से शब्द बोलना और कहां चुप रहना है। समझदार आदमी वही होते हैंं जो विवादास्पद मामलों में देश, काल, परिस्थिति और खुद की स्थिति का आकलन कर चुप्पी साध लेते हंै।
बढ़ती महंगाई के इस जमाने में हमें पेट्रोल, कुकिंग गैस, खाने की चीजों के बढ़ते दाम की चिंता तो है, इन सारी चीजों में हम किफायत बरतते हैं लेकिन शब्दों की फिजूलखर्ची के मामले में हम किसी बिगड़े नवाब से कम नहीं। आपातकाल में जरूर बोलने पर पाबंदी लगी थी। उस बात को भी 33 साल हो गए। शब्दों पर चूंकि कोई टैक्स भी नहीं लगता इसलिए बिना आगा-पीछा सोचे मन में जो आता है बोलते रहते हैं। जब आपातकाल लगा हुआ था तब कु छ भी बोलने से पहले दस बार सोच लेते थे कि कहीं मुंह से ऐसा कुछ न निकल जाए कि बेमतलब जेल की हवा खानी पड़ जाए।
गीत तो यह है कि 'जो तुम को हो पसंद वही बात कहेंगेÓ, लेकिन हम अपनी कहने में जितनी उदारता बरतते हैं दूसरे को सुनते वक्त उतना संयम और साहस नहीं दिखा पाते। कारण यह है कि हमें मीठा खाना, मीठा सुनना ही अच्छा लगता है। यह तो भला हो डायबिटीज का कि लोगों को मजबूरी में मीठे से परहेज करना पड़ रहा है। फिर भी अपने विषय में कड़वा सुनना दिल वालों के बस की ही बात है। जो लोगों की बात सुनने जितना संयम भी नहीं दिखाता उसे लोग मन ही मन नकार देते हैं।
जब आपकी बात कोई पूरी सुनता है तो हममें भी यह धैर्य होना ही चाहिए कि हम सामने वाले को इत्मीनान से सुने। हम में चूंकि धैर्य नहीं रहता इसलिए या तो हम पूरी बात सुनते नहीं या पहले से ही सामने वाले के संबंध में धारणा बना लेते हैं जो बाद में गलत साबित होने पर मन ही मन पश्चाताप के अलावा हमारे सामने कोई चारा भी नहीं बचता। इस पश्चाताप की आग में झुलसने से बचने का वैसे तो आसान तरीका हम सब को पता भी होता है लेकिन हम साफ मन से माफी मांगने या जो मन में धारणा बना ली थी वह सच्चाई कहने का साहस भी नहीं जुटा पाते।
कब बोलें, कब चुप रहें, अनर्गल न बोलें, बोलते वक्त वाणी में संयम किस तरह रखें, गुस्से में, ऊंचे स्वर में न बोलें, जितना पूछा जाए उतना ही बोलें आदि सुनने और बोलने के फायदे क्या हो सकते हैं यह कोर्ट में किसी मामले की सुनवाई क ा साक्षी होने पर समझ आ सकता है। दोनों पक्षों को अपनी बात कहने, तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने का पर्याप्त मौका देने के बाद ही न्यायाधीश अंत में फैसला सुनाते हैं। ज्यादातर मामलों में यह फैसला दोनों पक्षों को मान्य भी होता है।
फैसला मान्य करने वाले दोनों पक्षों में से एक पक्ष फैसले से असंतुष्ट हो सकता है लेकिन उसे भी यह संतोष रहता है कि उसे इत्मीनान से सुना गया। और हम लोग हैं कि किसी का काम करना तो दूर उसे इत्मीनान से सुनते भी नहीं। जाहिर है ऐसे में वह व्यक्ति हमारी तारीफ तो नहीं करेगा।

Thursday 8 July 2010

अच्छा करने के लिए तो मुहूर्त की जरूरत नहीं

हमारे एक साथी तेज बारिश में मिठाई की दुकान से कुछ ज्यादा ही मिठाई ले रहे थे। मैंने पूछा क्या भारत बंद के कारण तैयारी कर रहे हो, पहले तो वे टाल गए, दो-तीन बार पूछने पर राज खोला कि श्रीमती का जन्मदिन है और हमने ऐसे किसी भी शुभ या स्मृति प्रसंग पर तय कर रखा है कि अपनी खुशियां उन बच्चों के साथ भी बांटें जो बेसहारा, अनाथ हैं। बंद के कारण दुकानें नहीं खुलेंगी इसलिए एक दिन पहले ही खरीद कर रख रहा हूं।

एक अन्य मित्र भी जरूरतमंद की मदद करते हैं लेकिन, तरीका थोड़ा अलग है। पास-पड़ोस मेें किसी निर्धन परिवार का बच्चा आॢथक परेशानी के कारण आगे पढ़ाई नहीं कर पा रहा हो तो उसे कापी, किताब, फीस, स्कूली ड्रेस आदि मुहैया करा देते हैं। एक अन्य व्यक्ति अपने परिवार के बड़े छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे और पहनने लायक कपड़े प्रेस करवा के जरूरतमंद लोगों या आश्रम में देकर आते हैं।

चाट की दुकान पर हम कुछ चटपटा खाने के लिए तो जाते हैं लेकिन टेस्ट पसंद नहीं आने पर हम बिना एक पल सोचे वह प्लेट डस्टबीन में डाल देते हैं। हमारे बच्चे पेस्ट्री की जिद्द करते हैं, हम लेकर भी देते हैं लेकिन बालहठ के चलते वह उसे फेंक कर कुछ और खाने के लिए मचलने लगते हैं। हम फिर उनकी नई फरमाइश पूरी करने में लग जाते हैं।

हम चाहें जिस धर्म क ा पालन करते हों, सभी धर्मों के पवित्र ग्रंथों में बात कहने के तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन इन सभी का मूलभाव यह तो रहता ही है कि जो असहाय, असमर्थ हैं उनकी मदद करें। हम सब के मन में कभी-कभी सहायता का समुद्र हिलोरे भी मारने लगता हैं लेकिन समझ नहीं आता किसकी, कैसे, कितनी मदद करें। जब कि ऐसे लोगों कि कमी नहीं है जिन्हें समय पर मिली थोड़ी सी मदद भी डूबते को तिनके का सहारा साबित हो सकती है।

हम अपने पर, अपनों पर खर्च करने में तो दिखावे की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं फिर भी कई बार वह सुकून नहीं मिलता जिसके लिए हम यह सारा प्रदर्शन करते हैं। रोते बच्चे को चुप कराने के लिए हम तमाम जतन करते हैं, तत्काल महंगा खिलौना खरीद कर उसे बहलाने की क ोशिश भी करतेे हैं लेकिन उसकी रुलाई रुकती भी है तो कौवे-कबूतर को उड़ते, बंदर को उछलकूद करते, हमारी हंसती शक्ल देखकर या मां की गोद में प्यार की थपकी से। हमारा मन भी लगता है किसी ठुनकते बच्चे की तरह ही है कब, कैसे खुश होगा हमें ही पता नहीं होता। फिर भी हमें यह तो पता ही है कि किसी की आंख से बहते आंसू पोंछने के लिए हम रुमाल दे सकते हैं। हमें यह भी पता है कि किसी अन्य के चेहरे पर यदि हल्की सी मुस्कान देखना है तो हमें भी जोर से तो हंसना ही पड़ेगा। समस्या तो यह है कि हम हंसना मुस्कुराना भूलते जा रहे हैं। श्री श्री रविशंकर जीवन जीने की कला के रहस्यों को समझाते हुए कहते हैं भले ही झूठमूठ हंसो, न हंस सको तो झूठे ही मुस्कुराओ, बदले में हमें सामने वाले की सच्ची या झूठी ही सही लेकिन मुस्कान ही मिलेगी। सही है नाराज कर हम दूसरों का दिल तोडऩे के साथ ही अपना खून भी जलाते हैं लेकिन हमारी हंसी दिलों को जोडऩे और हार्टअटैक से बचाव का काम भी कर सकती है। हम अपने गम से ही इतने दुखी हैं कि सामने वाले कि न तो खुशी पचा पाते हैं और न ही उसका दु:ख हमें विचलित करता है। 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिएÓ यह गीत सुनते वक्त हम गुनगुनाते जरूर हैं लेकिन इसका मर्म नहीं समझ पाते। कई बार भारी भरकम गिफ्ट पर हल्की सी मुस्कान भारी पड़ जाती हैं लेकिन हम बाकी लोगों के चेहरे की मुस्कान बढ़ाने वाले छोटे से प्रयास करने के विषय में भी नहीं सोच पाते। दूसरों के लिए हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन प्रचार से दूर रहकर असहाय लोगों की सहायता करने वालों की हमारे ही आसपास भी कमी नहीं है, हम चाहें तो ऐसे लोगों से भी कुछ अच्छा करना तो सीख ही सकते हैं।

Sunday 4 July 2010

हमारा भी इंतजार कर रहा है स्टोर रूम

जो जन्मा है उसे बुढ़ापे का सामना भी करना ही है, यह बात हम में से ज्यादातर लोगों को समझ ही नहीं आती। यही कारण है कि हम अपने बुजुर्गों को स्टोर रूम में पटक कर भूल जाते हैं। उनके प्रति प्रेम उमड़ता भी है तो महीने के पहले सप्ताह में जब पेंशन की राशि मिलना होती है। कितना अफसोसजनक है कि सैर सपाटे का प्लान बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पर अपने पालतु डॉग को तो साथ ले जाते हैंं लेकिन इन बुजुर्गों को घर की चौकीदारी के लिए छोड़ जाते हैं। पता नहीं हमें यह याद क्यों नहीं रहता कि कल हमारे बच्चे भी बड़े होंगे और तब तक वह स्टोर रूम भी खाली हो जाएगा।
थरथराते हाथों में पकड़े पेन से वह उस फार्म पर दस्तखत करने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक उनका हाथ फिसल गया। खुद को संभालने की कोशिश में उनके हाथ से पेन छूट कर नीचे गिर गया । उन्हेें साथ लेकर आया किशोर जोर से चिल्ला पड़ा क्या बाबा आप पेन भी ढंग से नहीं पकड़ सकते। जल्दी क रिएना, मेरे फ्रेंड कब से इंतजार कर रहे हैं।
वृद्ध ने उस किशोर, जो शायद उनका पोता था, की ओर कातर दृष्टि से देखा तो उनकी आंखों से आंसू की बूंदें बाहर आने को आतुर नजर आ रही थी। जैसे-तैसे उन्होंने अपने मटमैले कुर्ते के एक किनारे से आंखों को साफ किया। इस सारे घटनाक्रम को माल रोड स्थित डाक घर की उस खिड़की के पास खड़े अन्य लोग भी देख रहे थे। उस किशोर के रूखे व्यवहार पर इन लोगों ने भी उसे घूर कर देखा लेकिन उसे समझाने का साहस शायद इसीलिए नहीं किया क्योंकि कुछ पल पहले ही वे उसका अपने दादा के साथ व्यवहार देख चुके थे।मैं अपना काम निपटाकर बाहर निकल कर थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि सामने से एक अन्य बुजुर्ग एक हाथ में स्कूल बेग और दूसरे हाथ में पोते का हाथ थामे उसकी आइसक्रीम की जिद्द पूरी करने के लिए दुकान की तरफ बढ़ रहे थे। मुझे लगा डाक घर मेंं जो पोता अपने दादा पर झल्लाया था बचपन में उसे भी दादा ने इसी तरह प्यार किया होगा। बंदरों की तरह उछल कूद कर के उसे हंसाया होगा। तुतलाती जुबान में चल मेरे घोड़े कहते हुए उसे कमर पर बैठा कर घर आंगन में घुमाते वक्त पसलियों मेेंं उसकी लात और घंूसों की मार हंसते हुए सहने के साथ घोड़े की रपतार तेज कर पोते को खुश किया होगा।
बचपन में हम सब ने दादा-दादी, नाना-नानी के कपड़े भी खराब किए, उनके बाल खींचे, जो चीज हाथ में आई रोते हुए वह उन्हेंं मारने के लिए भी फेंकी। इस सब के बाद भी हमारी आदतों क ो हमारे बुजुर्गों ने बच्चा मानकर नजर अंदाज कर दिया तो इसलिए कि उनके मन मेंं सदैव यह भाव रहा कि है तो हमारा ही खून। फिर ऐसा क्यों होता है कि हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं हमारी प्राथमिकताएं तो बदल ही जाती हैं जो लोग हमारी एक कराह पर पूरी रात जागते हुए गुजार देते थे उनके प्रति हम इतने निष्ठुर भी हो जाते हैं। नया घर बनाते वक्त हर बच्चे के लिए उसका एक बड़ा कमरा तय रहता है, कार के लिए गैराज बनाना पहली प्राथमिकता होती है लेकिन घर के बुजुर्ग के लिए या तो स्टोर रूम जितनी जगह निकाल पाते हैं या जहां सारा अटाला रखना तय करते हैं वहीं इन लोगों का भी पलंग डाल देते हैं। बैल बूढ़ा हो जाए, गाय दूध देने लायक न रहे तो कई बार किसान उन्हेें कसाई को थमा देता है। अभी हमें समाज और अपने स्टेटस की चिंता रहती है इसलिए हम इतनी रियायत बरतते हैं कि अपने बुजुर्गों को घरों में रखते तो हैं लेकिन यह सतर्कता बरतते हैं कि उनका कमरा नितांत एकांत में हो जिससे हमारी लाइफ में खलल ना पड़े।
भरे-पूरे परिवार के बाद भी हमारे बुजुर्ग एकाकीपन के शिकार इसलिए हैं कि हमें उनकी फिक्र नहीं रहती। उन्होंने तो अपना कत्र्तव्य समझकर, अपना पेट काट कर हमारी परवरिश की। हमारी छोटी-छोटी खुशियों पर अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा दी। जिनकी बदौलत हम आज समाज में सिर ऊंचा कर शान से घूमने की स्थिति में हैं, अब वही हमें बोझ लगते हैं।
हमअपने बुजुर्गों के त्याग तो भूल ही रहे हैं, अपने दायित्व भी याद करना नहीं चाहते। नई कार की पार्टी तो हम दोस्तों के बीच देर रात तक मना सकते हैं लेकिन अपने बुजुर्गों को मंदिर दर्शन कराने की हमें फुर्सत ही नहीं मिल पाती। एक पल को सोचेंगे तो ताज्जुब होगा कि एक ही छत के नीचे रहने के बाद भी हम कई दिनों से उस स्टोर रूम तक गए ही नहीं। सैर सपाटे का प्रोग्राम बनाते वक्त बच्चों की जिद्द पूरी करने के लिए हम पालतू डॉग को साथ ले जाना तो अपनी शान समझते हैं लेकिन हमारी रुलाई को हंसी में बदलने के लिए जो कई वर्षों तक कु त्ते, बिल्ली, शेर की आवाज निकालकर हमें खुश करते रहे उन्हें साथ ले जाना हमें रास नहीं आता।
हमें जो संस्कार मिले उसके ठीक विपरीत कार्य करने से पहले हमें यह तो याद रख ही लेना चाहिए कि हमारे बच्चे काफी कुछ हम से भी सीखते हैं। कल ये बच्चे भी बड़े होंगे ही तब तक स्टोर रूम वाला वह कमरा भी खाली हो जाएगा। ऐसा न हो कि हमारे बच्चे तब हमें आइना दिखाएं तो उसमें हमारी सूरत हमें भयावह नजर आए। हम अपने हाथों अपना कल सुखद बनाने के बारे में आज ही से सोचना शुरू कर दे यही बेहतर है वरना तो बेरहम वक्त किसी को माफ नहीं करता।