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Wednesday 23 June 2010

बस प्यार नहीं खरीदा जा सकता

अथाह संपत्ति होने के बाद भी हम अपने दिवंगत परिजन के लिए जीवन खरीदना तो दूर परिवार के दो सदस्यों के बीच समाप्त हुआ प्यार तक नहीं खरीद सकते। फिर ऐसे पैसे की अंधी दौड़ भी किस काम की जो भाइयों में दीवार खड़ी कर दे, एक दूसरे के खून का प्यासा बना दे। और हम अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले संस्कारों को भी भुला दे।
पिता जी की माली हालत ठीक नहीं थी। एक परिचित के पेट्रोल पंप पर सर्विस कर के परिवार पाल रहे थे। किस्मत को कोसने की अपेक्षा सपने देखने में विश्वास करने वाले बाकी पिताओं की तरह इनका भी सपना था कि ऐसा ही एक पंप अपना भी होना चाहिए। उन्हें पता था कि जो सपने देखते हैं उन्हें उस शिखर तक पहुंचने के लिए रात-दिन भी एक करना पड़ता है। संघर्ष किया तो परिणाम भी मनमाफिक आया। रोड से करोड़पति बने, तरक्की होती गई। पिता के कारोबार को दोनों बेटों ने और आगे बढ़ाया, चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, इसलिए जब वह प्रसन्न होती है तो उसका वाहन भी अपनी खुशी जाहिर करता है लिहाजा कई बार व्यक्ति की अच्छा बुरा सोचने की क्षमता भी क्षीण कर देता है। धन ने मन में मतभेद की दीवार उठा दी, दोनों भाई अलग हो गए। अथाह संपत्ति के बाद भी जो खोया वह था पारिवारिक सुख और आत्मिक शांति। अंतत मां की समझाइश, आध्यात्मिक गुरु की सीख ने देर से ही सही हृदय परिवर्तन कर दिया। किसी सुपर हिट हिंदी फिल्म के सुखद अंत की तरह अब दोनों भाइयों के परिवार एक हो गए हैं। चौका चूल्हा भले ही अलग है लेकिन मतभेद की वह दीवार ढह गई है।
ये दोनों भाई हमें जानें यह जरूरी नहीं, लेकिन हम में से ज्यादातर लोग इन्हें जानते हैँ। लगभग हर महीने एकाध बार मुकेश और अनिल अंबानी की संपत्ति, इनके वेतन, बंगला निर्माण, मंदिर दर्शन के दौरान भारी भरकम दान, समाजसेवा के कार्य आदि को लेकर कुछ ना कुछ पढऩे-सुनने में आता ही रहता है। अंबानी बंधुओं की संपत्ति की खबरों से अधिक हममें से ज्यादातर लोगों को इस बात ने सुकून दिया है कि सुबह के भूले शाम को घर आ गए। ये अलग थे तब और अब एक हो गए तो भी हम में से तो किसी का भला होना नहीं लेकिन इस एक केस स्टडी से हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अकूत संपत्ति से भी बढ़कर कोई अनमोल चीज है तो वह है भाइयों, परिवार के बीच का प्यार।
झोपड़ी में रहने वाले दो निरक्षर भाइयों के बीच मतभेद की यही स्थिति रही होती तो संभवत: इनमें से कोई एक दूसरी दुनिया में और दूसरा भाई सींखचों के पीछे होता। सम्पन्न और संस्कारिक भाइयों को यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि सब कुछ होते हुए भी पे्रम का अभाव है। मुझे तो यह समझ आया कि पैसे से प्रेम प्रदर्शित करने वालों की फौज तो खड़ी की जा सकती है फिर भी पे्रम नहीं खरीदा जा सकता। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि पैसा कमाने की ऐसी होड़ भी क्या कि अंधी दौड़ में एक ही कोख से जन्में दो भाई एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाए।
कहा भी तो है एक लकड़ी को तो आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन जब लकडिय़ों का ढेर हो तो कुल्हाड़ी के वार भी बेकार साबित हो जाते हैं। अंगुलियां जब एक होकर मुट्ठी में बदल जाती हैं तो उस घूंसे की चोंट ज्यादा प्रभावी होती है। बिखरा हुआ परिवार सबकी अनदेखी, हंसी का पात्र भी बनता है। परिवार के बीच बहती प्रेम की नदी ही सूख जाए तो हिलोरे मारता अथाह संपत्ति का समुद्र भी किस काम का। पैसा होना चाहिए लेकिन पैसा ही सब क ुछ हो जाए तो भी महल से लेकर झोपड़ी तक भूख मिटाने के लिए तो रोटी ही चाहिए। फ र्क है भी तो इतना कि अमीर आदमी रोटी पचाने के लिए दौड़ता है और गरीब रोटी कमाने के लिए भागता रहता है। रोटी चाहे घी में तरबतर हो या रूखी-सूखी, वह तभी अच्छी लगती है जब परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्यार हो, परिवार में मतभेद हो तो भाई लोग अपने कमरे में बैठकर चाहे रसमलाई ही क्यों ना खाएं वह भी बेस्वाद लगती है।। एक कतरा प्यार पाने के लिए पैसों का पहाड़ खड़ा किया जाए यह जरूरी नहीं है। रोटी से पहले गोली खाना पड़े, नींद भी बगैर गोली खाए नहीं आए तो मान लेना चाहिए हमारे तन,मन और मानसिकता में विकार पैदा हो गए हैं और बुजुर्गों से जो संस्कार हमें मिले थे उनका हम हमारे स्वार्थों, सुविधा के मुताबिक पालन कर रहे हैं।

Monday 21 June 2010

चिड़िया फुर्र हो गई!

मां जो हमारे लिए पिता भी थीं और यह संयोग है कि उन्हें दिवंगत हुए फादर्स डे पर एक साल हो रहा है।


चिड़िया फुर्र हो गई!


कीर्ति राणा



आज पूरा एक साल हो गया है... हर महीने की तरह जब कमाजी की याद में एक वृद्ध, असहाय महिला को भोजन करा के वस्त्रदान किए, तो हम सब की भावना यही थी कि ये भोजन मां की आत्मा को सुकून देगा। उस रात कुछ भी तो नहीं खाया था कमाजी ने। बस सुबह हमेशा की तरह मेरे हाथ की बनी कॉफी पी थी और दो ब्रेड बटर में से आधी ही खाई थी। तबीयत कुछ अनमनी सी दिख रही थी, लेकिन हम सभी को तब आश्चर्य हुआ, जब किसी के कहे बिना खुद नहाने चली गइंर्।

बाथरूम से आवाजें लगा रही थी, अरे दुल्हन मुझे उठा ले, पलंग तक छोड़ दे, चलते नहीं बन रहा है। हम दोनों ने जैसे-तैसे हड् डी के ढांचे को उठाया और नाराजी भी जाहिर करते रहे कि कमाजी तुमसे किसने कहा था नहाने के लिए, नहाना ही था तो देर से नहाते, सुबह-सुबह या जरूरत थी नहाने की। दुल्हन ने कपड़े पहनाएं और पलंग पर लेटा कर सब अपने-अपने काम में लग गए।

दोपहर में पीछे वाले कमरे में नजर डाली तो वे हमेशा की तरह घोड़े बेचकर सोने की मुद्रा में लेटे हुए थे। पत्नी से पूछा कमाजी ने खाना खाया कि नहीं? जवाब मिला बस सुबह वह ब्रेड ही खाई थी। दोपहर में खाने का पूछा भी तो कहने लगीं इच्छा नहीं है। दवाई-गोली का जरूर पूछ रही थी और बेग से थैली निकालकर शायद गोली ली भी है। कुछ कमजोरी दिख रही है।

मैं तबीयत पूछने उनके कमरे में गया भी, लेकिन वे निश्चिंत भाव से सोए थे। अधखुला मुंह, अधखुली आंखे, तकिए पर बिखरे मेहंदी लगे बाल। मैं लौट आया कि सोते हुए को क्यों उठाएं।

दोपहर को पत्नी ने किराने का सामान लाने की याद दिलाई, बच्चे पीछे पड़ गए पापा विशाल मेगामार्ट से लाएंगे, फटाफट तैयार हो गए। कमाजी को कहने गए हम लोग सामान लेकर आते हैं। आदत के अनुसार उन्होने आंखें मूंदे हुए निर्देश दिया बेटा दरवाजा बाहर से लगाकर जाना। पत्नी ने हमेशा की तरह पूछा मम्मी तुम्हारे लिए कुछ लाना है? अभी कुछ चाहिए? वही जवाब नहीं बेटा, बस आधा गिलास पानी भर कर रख दे।

विशाल मेगामार्ट में दो घंटे में खरीदारी में करीब 3 हजार के बिल में बच्चे १०० ग्राम वाली नेसकेफे की कॉफी बोतल लेते व मजाक करते हुए बोले लो पापा, बई की कॉफी खूब देना रोज बनाकर। एक काम करते हैं एक बड़ा थर्मस भी खरीद लेते हैं, रात में कॉफी बनाकर बई के पास रख दिया करेंगे। खूब पिएगी बई कॉफी। दोनों बच्चे बई के कॉफी प्रेम की मजाक उड़ाते-उड़ाते अचानक बई की हालत को लेकर फिक्रमंद होते हुए बोले पापा आज बई की तबीयत कुछ ज्यादा खराब नजर आ रही है, डाक्टर को दिखा देना चाहिए।

मैंने कहा बेटा बई ने दवा-गोली ले ली है। अभी अपने साथ कुल्लू-मनाली चली थी। आठ दिन एक भी दिन गोली ली? पत्नी बोली आज सुबह बिना कहे नहाने चली गई कोई मान सकता है कि तबीयत खराब रहती है।

बच्चे फिर बोले बट पापा, दिखा देना चाहिए। या पता बई हमसे नहीं बता रही हो। मैंने उन्हें संतुष्ट करते हुए कहा, अच्छा शाम को दिखा देंगे।

विशाल मेगा मार्ट से खरीदारी कर लौटते हुए शाम के 7 बज गए थे। ऑफिस नजदीक आने पर मैने गाड़ी सड़क किनारे रुकवाई और बच्चों को हिदायत दी अभी जाते व त तेल का डिब्बा भी खरीद लेना, कल शनिवार है, तेल नहीं खरीदते।

मैं ऑफिस में व्यस्त हो गया, बच्चों ने घर पहुंचकर फोन पर सूचना दी तेल का डिब्बा ले लिया है। पत्नी ने बताया मम्मी ठीक हैं, नीचे वाली ताई जी (मकान मालकिन) उनसे चाय-पानी का पूछ गई थी। अभी सो रहे हैं। आप खाना खाने कब आओगे...?

रात के करीब ११.३० बजे घर पहुंचा, बच्चे टीवी देख रहे थे। हमेशा की तरह पूछा तुम दोनों ने खाना खा लिया, जवाब हां में मिला। बई ने खाया कि नहीं? पत्नी ने कहा उन्होंने नमकीन-मीठा दलिया बनवाया था। शाम को खाने के लिए कहा भी था, तो अभी इच्छा नहीं है कह कर मना कर दिया।

पत्नी से कहा तुम खाना परोसो, मैं उन्हें जगा कर लाता हूं। उस कमरे में गया, वे निश्चिंत भाव से सोई हुई थी। मैंने दो-तीन आवाज लगाई, कोई असर नहीं हुआ। नजदीक जाकर सिर छुआ, हाथ छुआ, नाक के पास हाथ ले जाकर देखा सांस सामान्य चल रही थी। कंधा पकड़कर हिलाया कमाजी-कमाजी... चलो उठो खाना खा लो।

आंखे पूरी खोलने के साथ ही हाथ के इशारे के साथ फुसफुसाहट भरे शब्दोें में कहा-मेरी इच्छा नहीं है, तुम लोग खाओ।

मैंने आकर पत्नी से कहा वो तो सो रहे हैं, उनकी इच्छा नहीं है, अपन लोग ही खा लेते हैं। पत्नी ने कहा लगता है, आज जरूर उन्होंने नींद की गोली ली है। सुबह बैग में ढूंढाढपोली भी कर रहे थे।

पत्नी खाना परोसने लगी तभी, दोनों बच्चों ने कहा पापा बई के गले में खराश सी लग रही है, उन्हें गरम पानी से गोली दे देते हैं। मैंने कहा हम लोग खाना खाते हैं, तब तक तुम दोनों थाे़डा पानी गरम करके बई को गोली देकर आओ।

दोनों बच्चे किचन में गैस पर पानी गरम करते हुए मजाक करते जा रहे थे, ऐसा करते हैं पानी की बजाए बई को कॉफी बनाकर दे देते हैं,उससे ही गोली दे देंगे। मैंने ऊंचे स्वर में पूछा लाला पप्पी पानी हुआ कि नहीं गरम, जाओ गोली देकर आओ।

हम दोनों ने खाना शुरू किया। उधर, बई के कमरे में गरम पानी और गोली लेकर गए तनु और लाला दाै़डते हुए घबराए से वापस आए रूआसे स्वर में बोले जल्दी चलो। पापा-बई के मंुह से खून आ रहा है, दोनों के आंसु थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

हम खाना छोड़कर भागते हुए उनके रूम में पहुंचे आंखे अध खुली, अधखुले मुंह पर होठों की किनोर से खून की पतली सी लकीर बहते-बहते सूख गई थी।

कमाजी-कमाजी उठो, मम्मी ओ मम्मी... क्या हुआ तुम्हें... आँखें तो खोलो... कुछ बोलो तो सही... बई-बई उठो बई। बेसुध सी पड़ी मां के चेहरे पर बहू-बच्चों की आंखो से आंसुओं की बूँदें टप-टप गिर रही थी।

मिसेज ने रैलिंग से नीचे झांकते हुए आवाज लगाई ओ अमन भैया 'जरा जल्दी आओ तो ऊपर` देखो तो मम्मी को क्या हो गया।

दोनों बच्चे कह रहे थे पापा १०८ को कॉल करो फटाफट... अमन ने आकर कमाजी के सीने को हल्के-हल्के दबाया। नब्ज देखी, नाक पर हाथ रखा सबकी गति सामान्य थी। अंकल अम्माजी को अस्पताल ले चलते हैं, आप ने १०८ पर एंबुलेंस को फोन किया है या। बच्चेे जिद कर रहे थे पापा एंबुलेंस का इंतजार मत करो, हम कार से अस्तपाल लेकर चलते हैं।

मैं उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था बेटा एंबुलेंस जल्दी आती ही होगी, उसमें सारी सुविधा रहती है, दो मिनट और देख लेते हैं।

मैंने पुलिस कंट्रोल रूप फोन किया, जवाब मिला आपके पते पर १०८ रवाना हो गई है १२ बजकर ०७ मिनट पर। आपके घर की लोकेशन तलाश रही होगी। मैंने कंट्रोल रूप को सूचित किया आप गाड़ी वालों को मैसेज कर दें हम पायल सिनेमा के यहां खड़े हैं।

लाला ने कार स्टार्ट की। मैंने, अमन ने कमाजी को हाथों में उठाया, पहली मंजिल सीढ़ियों से उतरते हुए कार में बैठे पत्नी और लड़की तनु भी कार में जैसे-तैसे समाए। हम पायल सिनेमा पर कुछ पल रुके फिर ब्लाक एरिए के निजी अस्पताल गोविंदम् पर पहुंचे। अस्पताल गेट पर ताला लगा था और हम गोद में मां को लिए गेट खुलवाने के लिए जूझ रहे थे।

खड़खड़ की आवाज सुनकर अस्पतालकर्मियों की नींद खुली, आंखे मलते हुए दरवाजे का ताला खोला। हमने इमर्जेंसी रुम में कमाजी को टेबल पर लिटाया, उबासी लेते हुए जूनियर डॉ टर ने उनका प्रारंभिक परीक्षण किया और कहा इन्हें वेंटीलेटर पर लेना पड़ेगा। मैंने कहा एडमिट कर लीजिए और तुरंत वेंटीलेटर पर ले लीजिए।

डॉ टर का जवाब था हमारे यहां तो वेंटीलेटर है नहीं या तो आप इन्हें बेदी हॉस्पीटल ले जाइए या सिविल अस्पताल, वहां मिल जाएगी ये सुविधा। अमर और मैंने फिर से कमाजी को उठाया, अस्पताल के ढलान वाले रास्ते पर संतुलन न संभलने से पत्नी गिर पड़ी, किसी को पूछने की फुरसत नहीं थी कि लगी तो नहीं, हाथ पैर झटकार कर वह तुरंत खड़ी हो गई। तीनों ने मिलकर कमाजी को कार में लिटाया। लाला से कहा बेटा मेरी प्रेस के आगे सिविल अस्पताल है, वहीं ले चल। अमन ने कहां बेदी हॉस्पीटल देख लें अंकल। मैंने कहा यार वहां कोई फिर नई परेशानी खड़ी हो इससे अच्छा है, सिविल अस्पताल ही चलें।

कार ने शिव चौक के यहां से टर्न किया ही था कि पुलिस कंट्रोल रूम से फोन आया क्०त्त् आपके घर के वहां कब से खड़ी है आप लोग कहां हैं। मैंने कहा हमने प्राइवेट अस्पताल में दिखाया था। अब हम सिविल अस्पताल ले जा रहे हैं, योंकि उन्हें वेंटीलेटर पर रखना पड़ेगा।

कंट्रोल रूम से बताया गया- एंबुलेंस में वेंटीलेटर तो वैसे है भी नहीं। आप बताएं या जवाब दें गाड़ी को। मैंने कहा आप बता दीजिए हम पेशेंट को लेकर सिविल अस्पताल पहुंच रहे हैं, एंबुलेंस की जरूरत नहीं है।

सिविल अस्पताल आ चुका था पोर्च में कार लगते ही मैंने और अमन ने कमाजी को गोदी में लिया और अस्पताल के स्ट्रेचर पर डाल कर इमजेंसी में पहुंचे। डॉ टर ने प्रारंभिक परीक्षण किया। स्टेथस्कोप सीने पर रखा, एक हाथ उनकी नाक पर रखा। ठंडी आवाज में हमें सलाह दी कुछ नहीं बचा है, आप इन्हें घर ले जाइए। मैंने सीने पर हाथ रखा बदन देखा गरम था।

मैंने डॉ टर से अनुरोध किया- डाक सा. जरा ठीक से देख लीजिए एक बार।

डॉ टर ने कहा कुछ नहीं बचा है, मैं फिर भी इसीजी करके दिखा देता हूं। वार्ड बाय ने हाथ-पैर मेें इसीजी के लिए वायर लगाए, मशीन चालू की, मशीन से निकल रही इसीजी रिपोर्ट वाले पेपर में सारी लाइनें सीधी और रिपोर्ट जीरो थी। डॉ टर ने वह रिपोर्ट दिखाई, उसकी आंखें प्रश्न पूछ रही थी- अब तो आप लोग संतुष्ट हैं!

कमाजी को घेर कर खड़े पत्नी-बच्चे जो अब तक चुपचाप सारी कार्रवाई देख रहे थे फफक-फफक कर रो पड़े, खून से लथपथ एक मरीज को लेकर आए पुलिसकर्मी, उस मरीज के परिजन झुक-झुक कर स्ट्रेचर पर पड़ी कमाजी की देह को देखकर आत्मा को शांति देने की मुद्रा में हाथ जाे़डकर हटते जा रहे।

डॉ टर पूछ रहा था-हां आप लोग बताओ इनका एडमिशन कार्ड बनवाया है या? भर्ती करोगे तो डेड बॉडी अभी नहीं सुबह मिलेगी, पीएम भी करना पड़ सकता है।

डॉ टर ने डैड घोषित कर ही दिया था लिहाजा हम उल्टे पांव उनको पुन: गोदी में लेकर कार में आ गए, जाते समय हम सब के चेहरे पर उम्मीद की एक हल्की सी लकीर थी और अब जब मरी हुई मां को लेकर कार की तरफ बढ़ रहे थे, आंखों से आंसू बह रहे थे, दिल रो रहा था और अस्पताल के अंदर और पोर्च में खड़े लोग दया दृष्टि से हमें देख रहे थे।

पहले ही चूंकि स्टाफ के हरेराम, राजेंद्र बतरा, मुकेश सोनी आदि साथी अस्पताल पहुंच गए थे, लिहाजा उन्होंने ऑफिस में भी बाकी साथियों को 'सर की मदर की डैथ` होने की सूचना दे दी थी।

हम घर पहुंचे बदहवास चेहरे और अजीब सी चुप्पी के साथ सीढ़ियों से शव लेकर ऊपर चढ़े। ताऊजी, ताईजी हमें ढांढस बंधा रहे थे। बच्चों और मिसेज के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे ओर मैं चाहकर भी रो नहीं पा रहा था। शायद कारण यही होगा कि किसी को तो हिम्मत रखनी पड़ेगी।

बच्चों से मैंने गंगाजल की शीशी और तुलसी के गमले से कुछ मिट् टी लाने को कहा। रात मेंें गोबर मिलना संभव नहीं था सो गंगाजल और तुलसी के गमले वाली मिट् टी से फर्श लीपा। इस बीच अमन और हरेराम मिलकर सोफा-टेबल, कुर्सी पीछे वाले गलियारे में रख आए थे।

गंगाजल से पवित्र किए फर्श पर मृत देह रखी। ब्लाउज-पेटीकोट में कमाजी वैसी ही सोई लग रही थी, जैसे सुबह से रात तक पीछे वाले रुम में सो रही थी। सिर के पास अगरबत्ती लगाई। तुलसी और गंगाजल मुंह में डालने के लिए रोता हुआ लाला बोला, पापा पहले मैं डालूंगा बई कहती थी ना या पता मेरे मुंह में गंगाजल भी डालेगा या नहीं। कोने में खड़ी तनु रोए जा रही थी। लाला के बाद हम तीनों ने उनके अध खुले मुंह में तुलसी का पत्ता रखा और चम्मच से गंगाजल डाला। पत्नी ने याद दिलाया और मैंने कमाजी की पलकों पर हल्के से हाथ रख कर आंखें बंद कर दी।

स्टाफ के साथियों का आना शुरू हो गया था। दिमाग काम नहीं कर रहा था। या करूं, कैसे करूं, पत्नी ने साड़ी देते हुए कहा बई को साड़ी तो आे़ढा दो। लाल चादर पर जिस तरह लेटी थी। लगभग साड़ी भी चादर की तरह उनके शरीर पर डालकर आस-पास से शरीर के नीचे दबा दी, ताकि पंखे की हवा से उड़े नहीं। मुंह वैसा ही खुला हुआ था। अध खुली आंखों को बंद करते व त मैंने बच्चों से पूछा था, बई की आंखेें दान कर दे, बच्चों की मनुहार थी पापा रहने दो, वैसे भी बई को चश्मा लगता था।

पत्नी ने अपनी रुलाई रोकते हुए कहा मीनू जीजी को तो बता दो।

मैंने फोन लगाया- मीना, कमाजी चली गई। जैसी कि कमाजी की अदा थी बिना बताए चले जाना, यही समझते हुए मीना ने सहज पूछा-कहां चली गई।

मैं- हम सब को छाे़डकर चली गई, मर गई ...! अभी अस्पताल से हम लोग डैड बॉडी घर लेकर आ गए हैं।

उधर, से फूट-फूट कर रोने की आवाज के बीच ही मीना बच्चों को बता रही थी बिट् टू बई मर गई..!

खुद को संभालते हुए मीना ने पूछा या तबीयत ज्यादा खराब थी। अब बता तेेरी या इच्छा है!

मैं- हम लोग उन्हें लेकर इंदौर ही आ जाते हैं। वो कहते रहते थे भैया मैं मरुं तो इंदौर में ही जलाना।

मीना- सुन दादा इंदौर ले आ, लेकिन कहां लेकर आएगा।

मैं- तेरे घर ही लेकर आते हैं, या तू बता।

मीना- देख मेरे यहां तो तीसरी मंजिल का मामला है। बार-बार चढ़ना-उतरना पड़ेगा, पानी का भी संकट चल रहा है, लोगों का आना जाना रहेगा, यहां तो बहुत परेशानी हो जाएगी। सुन तू रुक मैं भाभाी से बात करती हूं।

इस बीच तनु और लाला अपने-अपने मोबाइल से बड़ी मम्मी और बैंक कॉलोनी में बई के न रहने की सूचना दे चुके थे। सुदामानगर से भाभी का फोन आया- मुन्ना या सोचा।

मैं- इंदौर ही लेकर आ रहे हैं,कहां लाऊं यह तय नहीं किया है। अभी मीना से चर्चा करके बताता हूं।

बात समाप्त हुई ही थी कि मीना का फोन आ गया सुन दादा, भाभी के यहां ले आ सुदामानगर। भाभी तेरे से कह नहीं पा रही है, इसलिए मेरे से कहा है, मीनू जीजी तुम कहो ना मुन्ना से कमाजी को अपने यहीं लेकर आ जाए।

मैं- चलो सोचते हैं, या करना है। बात खत्म हुई थी कि मोटू का फोन आ गया- अंकल कब निकल रहे हो... आप तो सीधे सुदामानगर ही लेकर आना।

मैं - देखते हैं बेटा, मीना से बात कर रहे हैं।

मोटू- अरे अंकल, कुछ मत सोचो आप सुदामानगर ले आओ ना, मम्मी आप से कह नहीं पा रही हैं। मीना बुवा भी सुदामानगर ही आ रही हैं।

मैं- हां बेटा, चल हम लोग सुदामानगर ही लेकर आएंगे, तू प्रतीक्षा को भी फोन कर दे, मैं तेरी मम्मी से बात करता हूं।

भाभी को फोन लगाकर बताया कि हम लोग गाड़ी का इंतजाम कर रहे हैं, जैसे ही गाड़ी हुई, तुरंत रवाना हो जाएंगे, सीधे सुदामानगर ही लेकर आएंगे।

भाभी- हां मुन्ना, यहीं ले आओ, अपन सब लोग हैं तो सही। मीनू जीजी भी यहीं आ रही हैं और सुनो कमाजी के हाथ-पैर, छाती-पेट, मुंह पूरे शरीर पर शुद्ध घी अ%छी तरह से लगा दो। बच्चों और राजू को संभाल के आना, घबराना मत।

मैं- हां कर देते हैं। हम यहां से निकलते व त फोन कर देंगे। मैं बच्चों को हिदायत दे रहा था, बेटा तुम लोग अपने मोबाइल चार्जिंग पर लगा दो और चलते व त चार्जर याद से रख लेना। स्टाफ के कुछ साथी पूछते हैं सर प्रॉपर इंदौर ही जाना है। ये सुदामानगर गांव है या इंदौर में है। यहां कौन आपकी सिस्टर रहती हैं। मैं उन्हें बताता हूं, प्रॉपर इंदौर में ही है सुदामानगर, यहां हमारे कजिन ब्रदर रहते हैं, उन्हीं के घर ले जाएंगे। सिस्टर भी वहीं आ जाएगी। स्टाफ वाले अन्य रिश्तेदारों के बारे में पूछते हैं मैं बताता हूं सब इंदौर में ही हैं, बाहर से कोई नहीं आना है।

बच्चों ने पूछा पापा बेबी बुवा, आसु बुवा को बता दिया।

मैंने कहा लाओ मेरा मोबाइल दो उन्हें भी बता देते हैं। मैंने बेबीजी को फोन लगाया, सुन बेबीजी कमाजी चली गई।

बेबीजी- एें, कब? तबीयत खराब थी, या कहते-कहते उसकी रुलाई फूट पड़ी।

मैं- बेबीजी तू रो मत.... तबीयत तो ठीक थी, अचानक ही चल बसी।

बेबी- सुन कीरू वहां आएं तो कौनसी गाड़ी मिलेगी, मुझे तो गाड़ियों की जानकारी भी नहीं है।

मैं- बेबी जी सुन, परेशान मत हो, हम वहीं लेकर आ रहे हैं।

बेबी- तुम लोग संभल कर आना। और सुन बुवा के सिरहाने च कू रख देना, थाे़डी राई छिड़क देना और तुम सब लोग भी अपने साथ राई के दाने रख लेना। घबराना मत। हां, मैं आसु को भी बता दूंगी।

बच्चे- पापा आसु बुवा को भी फोन आप ही लगा दो।

मैं- हां बेटा लगा रहा हूं, इंगेज जा रहा है। हां, अब बेल जा रही है।

मैं- आसुजी, कमाजी चली गई...

आसुजी- हां कीरु, अभी बेबी से बात चल रही थी। बता या तय किया। बेबी बता रही थी तुम लोग यहीं ला रहे हो।

मैं- हां अभी दोस्त लोग गाड़ी का इंतजाम कर रहे हैं, जैसे ही गाड़ी मिली, हम लोग फटाफट निकल जाएंगे। सुन तू जीजाजी को भी बता देना।

इस बीच स्टाफ के साथी, यूनिट हैड, गिल्होत्रा, लोक सम्मत के पत्रकार (श्रीगंगानगर %वाइन करने से पहले उज्जैन के मेरे कवि मित्र (स्व)ओम व्यास ओम ने जिनके नाम-स्वभाव से अवगत कराया था)रेवतीरमण जी, आदि घर पर जुट गए थे। इन सभी की सलाह थी कि इंदौर ले जाना बहुत लंबा सफर हो जाएगा। आप को तो अंतिम संस्कार यहीं कर देना चाहिए।

मां की अंतिम इ%छा बताते हुए मैं उन्हें समझाता हूं- हमारी मां अ सर कहती रहती थी, भैया तू तो मुझे यहां जेल में ले आया है। न कहीं आने- जाने की, न किसी से बोल बतिया सकती। या मालूम कब तक रहना पड़ेगा इस जेल में, लेकिन सुन मैं मरुं तो मुझे जलाना इंदौर में। हमारी मां की अंतिम इ%छा इंदौर में दाह-संस्कार की थी, इसलिए वहां ले जाना जरूरी है। फिर यदि यहां दाहकर्म किया तो क्ख्-क्फ् दिन में इंदौर से यहां सभी रिश्तेदारों-मित्रों को आना पड़ेगा। मेरे लोग तो श्रीगंगानगर आना सजा मानते हैं, वो सब परेशानी उठाएं, इससे ज्यादा ठीक तो यहीं है कि हम इन्हें वहां ले जाएं, परेशानी होगी भी तो हम चार लोग सह लेंगे।

स्टाफ के साथी- सर, देख लीजिए बहुत लंबा रास्ता हो जाएगा, बच्चों को परेशानी होगी, बहुत पैसा लग जाएगा।

मैं- आप सब का कहना ठीक है, लेकिन हमने इंदौर ले जाना तय कर लिया है। आप लोग तो जितनी जल्दी हो सके कोई ढंगढांग की गाड़ी का इंतजाम कर दो।

साथी- सर, राजेंद्र बतरा और मुकेश सोनी को बोल दिया है, दोनों पता कर रहे हैं, जल्दी इंतजाम हो जाएगा।

मैं- (पत्नी-बच्चों से) सुनो तुम लोग फटाफट कपड़े और बाकी जरूरी सामान बेग में भर लो।

पत्नी- यों पानी के लिए वॉटर बोटल बड़ी वाली रख लूं, रास्ते में गर्मी रहेगी, पानी तो ठंडा रहेगा।

मैं- हां, रख लो, लेकिन जल्दी कर लो। बेटा सारे मोबाइल चार्जर पर लगा रखे हैं ना। लाला सुन, ये कार्ड ले जा एटीएम से २० हजार रुपए निकाल ला, कोड नं. पता है ना। सुन रितेश तू साथ चले जा इसके।

हरेराम- सर गाड़ी का इंतजाम हो रहा है। अस्पताल के बाहर प्राइवेट एंबुलेंस रहती हैं, मुकेश उनसे बात कर रहा है। किराया करीब ६ रुपए किलोमीटर। आना-जाना १२ रुपए (किमी) बता रहा है।

बाकी साथी- सुन, मुकेश से बोलो कुछ कम कराएं।

हरेराम- सर बतराजी ने भी बात किया है। साढ़े ५ रुपए से कम नहीं हो रहा है, दो ड्राइवर साथ चलेंगे। उनका खर्चा, गाड़ी की धुलाई का खर्चा भी देना होगा।

मैं- ठीक है। फाइनल कर दो, गाड़ी ठीक होना चाहिए। परेशानी न आए।

ताऊजी (मकान मालिक एचएस लखीना) - जी आपने माताजी का डेथ सर्टिफिकेट लिया कि नहीं अस्पताल से। सफर बहुल लंबा है, डैड बॉडी के साथ सर्टिफिकेट रखना ही चाहिए। आप राजस्थान से एमपी में जा रहे हैं, दो स्टेट का मामला है, लंबा सफर है। रास्ते में कोई परेशानी न आए। इसलिए सर्टिफिकेट होना ही चाहिए।

मैं - जी अस्पताल में स्टाफ के साथी हैं, मुकेश सोनी उसको बोल देता हूं, बनवा कर ले आएंगे।

ताऊजी- उस पर मुहर वगैरह भी लगवा लेना, काम प का होना चाहिए।

मैं- (फोन लगाता हूं) यार मुकेश अस्पताल में जो डॉ टर ड् यूटी पर हैं। उनसे एक डेथ सर्टिफिकेट बनवा लो। सील भी लगवा लेना। हमें रास्ते में परेशानी नहीं होगी। डिटेल नोट कर लो इस नाम से बनवाना। मां का नाम कमलादेवी पति इंद्रसिंह राणा, उम्र होगी करीब... स्त्रत्त्, पता हाल मुकाम प्रेमनगर, मूल निवासी सुदामानगर इंदौर.., तो जल्दी बनवा लो।

गिल्होत्रा- सर, आप देख लीजिए, यदि संभव हो तो फ्यूनरल यहीं कर दीजिए, बाकी काम वहां कर सकते हों तो परिवार वालों से बात कर लीजिए। बहुत लंबा सफर हो जाएगा श्रीगंगगानगर से कम से कम क्ख्०० किमी तो होगा इंदौर। आप लोग परेशान हो जाएंगे। गर्मी बहुत है फिर आप डैड बॉडी लेकर जा रहे हैं।

मैं- सर, इंदौर ले जाना तय कर लिया है, जो भी परेशानी होगी हम लोग उठा लेंगे। ए.सी. गाड़ी मिल जाएगी तो थाे़डी आसानी हो जाएगी सफर में। बर्फ के इंतजाम का तो कोई मतलब नहीं है।

हरेराम- सर गाड़ी वाले से बात हुआ है। बतराजी बता रहे हैं ५.५० रुपए से कम नहीं होगा, आने का भी पूरा पेमेंट देना होगा, दो ड्राइवर रहेंगे। गाड़ी क्रूजर या बोलेरो मिलेगा, ए.सी. गाड़ी है जितनी देर एसी चलाएंगे उसका रेट अलग से लगेगा, या बोलूं।

मैं- ठीक है, ओके कर दो। कह दो गाड़ी के कागजात पूरे होने चाहिए, रास्ते में हमें कोई परेशानी न हो, गाड़ी जल्दी आ जाए।

हरेराम- सर, मदनजी का फोन है न्यूज का पूछ रहे हैं, या बोलूं।

मैं- आज रहने दो, कल लगवा देना खबर, ये फोटो रख लो। खबर में यह जरूर लिखवा देना कि अंतिम संस्कार सहित सारे शोक कार्य इंदौर में ही करेंगे और वहां से लौटकर एक शोक बैठक श्रीगंगानगर में करेंगे। खबर पेज स्त्र पर नहीं पेज क्० पर लगवाना।

गिल्होत्रा- ये ठीक है, वरना लोग आपको वहां फोन करके परेशान करते रहेंगे। कम से कम न्यूज से सभी को सूचना हो जाएगी।

(सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, अब बस गाड़ी का इंतजार है, स्टाफ के लोगों का आना जारी है। सीढ़ियों के पास जूते-चप्पलों का अस्त-व्यस्त ढेर सा लगा हुआ है। बैठक कक्ष में मां सोई हुई हैं, पंखे की हवा में अगरबत्ती की खुशबू फैल रही है, कुछ लोग कमरे में, कुछ बॉलकनी में और कई साथी नीचे सड़क किनारे खड़े हैं। इतनी हलचल के बाद भी आस-पड़ोस के मकानों में लोग इस सब से बेखबर आराम से सोए हैं।

मैं-(फ्रीज में रखी दूध की तपेली ताईजी को देते हुए आग्रह करता हूं) आप थाे़डी चाय बना दीजिए सभी के लिए।

ताईजी- कोई नी, दूध तो नीचे भी पड़ा है मैं बना लाती हूं।

मैं- ताई जी ये दूध बेकार हो जाएगा, आप ले जाइए। फ्रीज में रखे बाकी सामान में से आप सब कुछ यूज कर लेना नहीं तो वैसे भी खराब हो जाएगा।

(ताई जी बीच वाले रूम में पड़े जूठे बर्तन, रोटी-स?जी का ड?बा चौके में रख चुकी हैं। वे दूध की तपेली लेकर नीचे चाय बनाने जा रही हैं। स्टाफ के लोग एक-दूसरे से बतिया रहे हैं गाड़ी अब तक नहीं आई... इंदौर किस रूट से जाएंगे, गर्मी तो बहुत है... रास्ते में परेशानी होगी..। ताई जी ट्रे में १०-१२ कप जमाकर दूसरे हाथ में चाय से भरा जग लेकर ऊपर आ रही हैं। मैं कुछ कप में चाय भर कर देना चाहता हूं कि पत्रकार रेवती रमण जी मुझे रोक कर सब लोगों को चाय सर्व करने लगते हैं। इतने में नीचे गाड़ी के घर्राटे के साथ ही बॉलकनी में खड़े स्टाफ के लोग मु़डकर कहते हैं सर, गाड़ी आ गई है। कुछ चाय पीते रहते हैं और कुछ अधूरी चाय छाे़डकर सहायता के लिए आगे बढ़ते हैं।)

मैं- बेटा तुम लोगोें ने बैग तैयार कर लिए, मोबाइल चार्जर रख लेना, पानी की बड़ी बोतल भर लेना।

पत्नी - बर्फ डालकर भर ली है। दो-दो जाे़ड कपड़े रख लिए हैं सबके टूथब्रश-पेस्ट रख लिया है।

मैं- मेरा शेविंग वाला बेग रख लेना उसमें ब्रशडाल देना।

लाला- पापा आपका वो बैग मेेरे बैग में रख लिया है।

स्टाफ के साथी- पूरी तैयारी हो गई। सर, गाड़ी आ गई है नीचे।

मैं- हां चलो करो तैयारी (मैं खुद के आंसू रोकने की कोशिश करते हुए पत्नी बच्चों से कहता हूं) चलो आओ सब लोग हाथ लगाओ बई को ले चलें। मैं इसी दौरान अपने बैग में इत्र और स्प्रे की शीशी रखने लगता हूं तो बच्चेे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हैं कि पापा यहां भी इत्र लगाओगे, मैं शीशियां बैग में रख चुका हूं। बच्चों को बता भी नहीं सकता कि ये स्प्रे और इत्र गर्मी से जब डेड बॉडी से स्मेल आने लगेगी तब काम आएगा।

आंसुआें की धार सबके चेहरों पर है। चादर और साड़ी मेें लिपटी कमला बंदी को जेल से आजाद करने के लिए हम पहली मंजिल की सीढ़ियों से गाड़ी के लिए जा रहे हैं। कमाजी हमेशा कहती थी 'मुन्ना तूने तो जेल में लाकर पटक दिया है, जाने कब मुझे मुि त मिलेगी यहां से। तेरा यहां से ट्रांसफर नहीं हो सकता, तू मालिकों से यों नहीं बोलता। देख भैया मैं मर जाऊं तो मुझे जलाना इंदौर में ही` उनकी इस अंतिम इ%छा को पूरा करने के लिए हम सब रास्ते में होने वाली परेशानियों का सामना करने के लिए भी तैयार हैं। सीढ़ियोंें पर थाे़डी मुश्किल होती है तेजी से रेवतीरमण जी, अमन शव नीचे तक ले जाने में सहयोग करते हैं। नीचे ताऊजी और गिल्होत्राजी गाड़ी और उसके कागज को लेकर ड्राइवर से पूछताछ करने के साथ ही उसे समझाइश दे रहे हैं कि इन लोगों को रास्ते में कोई परेशानी न हो, रास्ते में तू किसी तरह की झिकझिक मत करना। ड्राइवर समझा रहा है बाबूजी हमारा तो रोज का काम है, हम यों परेशान करेंगे। उस गाड़ी से ये बोलेरो ज्यादा ठीक है। स्ट्रेचर वाली सीट खूब मजबूत है, बॉडी को बांधने की कोई जरूरत नहीं है, डैड बॉडी हिलने या गिरने की नौबत नहीं आएगी।

(गाड़ी के आस-पास खड़े साथी जगह बनाते हैं और कहते हैं...) सर ले आइए सीधे ही ले जाइए।

मैं- (पूछता हूं) सिर आगे रखे या पैर।

ताऊजी - सिर तो आप ड्राइवर वाली सीट की तरफ ही रखिए, पैर बाहर की तरफ रखिए। स्टे्रचर पर कमाजी को लिटा दिया है। बच्चों की रुलाई जारी है।

मैं- (पत्नी से) वाटर कूलर रख ली? गिलास रखा या नहीं।

पत्नी- (सिर हिलाते और आंसू पोंछते हुए) बोतल तो रख ली, गिलास नहीं रखा (वह गिलास लेने सीढियों की तरफ बढ़ती है)

ताई जी - (उन्हें रोकते हुए) कोई नी, मैं दे देती हूं गिलास। ताईजी नीचे से ही स्टील का गिलास लाकर देती हैं।

ढाई तीन घंटे की इस सारी गतिविधियों में हमारा डॉग (डेश हाउंड) जेंबो बच्चों और पत्नी के आस-पास सिर झुकाए उदास सा बैठा और खड़ा रहता है। अब जब गाड़ी में शव रखा जा चुका है, वह मेरे पैरों में आकर इस तरह सिर झुकाता है मानो कह रहा हो मैं भी आप सब के साथ चलूंगा। बच्चे अनुरोध भी करते हैं पापा जेंबो को ले चलो ना हम संभाल लेंगे। मैं जैसे-तैसे समझाता हूं, बेटा सफर बहुत लंबा है, गर्मी बहुत है। उसके साथ हम और ज्यादा परेशानी में आ जाएंगे। गाड़ी में चढ़ने के लिए जेंबो की उछलकूद और कूं-कूं वाली मनुहार जारी है। सभी लोग उसकी हरकत देख रहे हैं। मैं गाड़ी वाले को कुछ पल रुकने का इशारा करता हूं और आओ जेंबो कहता हूं तो वह दोनों पैरों से मेरे पैरों का सहारा लेकर खड़ा होने की कोशिश करता है। मैं गाड़ी से दूर जाते हुए पीछे मु़डकर उसे प्यार से पुकारता हूं आजा जेंबो। अब जेंबो मेरे साथ घूमने के लिए दाै़डता हुआ पीछे आ रहा है, मैं उसे कुछ दूर घूमाता हूं। इस बीच ड्राइवर गाड़ी वापिस माे़डने के लिए स्टार्ट करके थाे़डी आगे ले जाकर रोक देता है।

मैं जेंबो को घुमाकर प्यार से सिर थपथपा कर समझाता हूं जाओ अंदर जाओ वह अनसुनी करके गाड़ी की तरफ जाना चाहता है। मैं उसे पुकारते हुए मकान वाले गेट के अंदर जाता हूं वह भी दाै़डता हुआ पीछे गेट के अंदर जैसे ही घुसता है, मैं बाहर से गेट लगा देता हूं। सींखर्चों के पीछे से वह मुझे उदास चेहरे, सूनी आंखों के साथ कू-कू करते हुए देख रहा है।

मैं- (ताई जी से कहता हूं) ताई जी आप ध्यान रखना इसका, दूध वाले से रोज आध लीटर दूध लेे लेना इसके लिए, फ्रीज में जो सामान लगे ले लेना, लाइटें आप बंद कर देना।

साथी लोग- सर आप गाड़ी में बैठिए, बहुत लंबा सफर है।

मैं- साथियों का धन्यवाद व्य त करने के साथ रुलाई को भरसक रोकने का प्रयास करते हुए रुंधे गले से कहता हूं- अच्छा चलता हूं। गंगानगर हम चार आए थे अब तीन रह जाएंगे। (कार की चाबी मोदी जी को सौंपते हुए अनुरोध करता हूं) आप गाड़ी वहां प्रेस पर खड़ी करवा लीजिएगा। लाला दोनों ड्राइवरों के बीच में आगे बैठा है।

दोनों ड्रायवर पूछते हैं- सर आप रूट बता दो ख्भ्-फ्० घंटे तो लग ही सकते हैं, सफर लंबा है। गर्मी खूब है, एसी के बाद भी कुछ घंटों बाद बॉडी स्मेल मारने लगेगी। आप लोगों को यहीं कर देना था संस्कार... बच्चे साथ में हैं त्त्-क्० घंटे बाद परेशानी शुरू हो जाएगी। आप बर्फ रखते तब भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

मैं- जिस भी रुट से चलना हो तुम अपने हिसाब से चलो, जितनी जल्दी पहुंचा सको पहुंचा देना। जितना पैसा लगेगा दूंगा, रास्ते में चाय-सिगरेट-नाश्ते, खाने के लिए जहां रोकना हो रोक लेना, बस कम से कम समय लगाना। अंतिम यात्रा के लिए हमारी यात्रा शुरू हो चुकी है। कमाजी आराम से सोई हैं, जैसे घर में गर्मी में भी ओढ़कर सोती थी, ठीक उसी तरह चादर से ढकें मुंह पर शायद निश्चिंतता के भाव ही होंगे, योंकि जेल से आजाद होने के साथ ही चिड़िया फुर्र हो गई है, अनंत यात्रा की उड़ान के लिए।

Thursday 17 June 2010

दर्द बढ़ाने के लिए ना जाएं

अस्पताल मे दाखिल अपने किसी परिचित को हम जाते तो हैं यह अहसास कराने के लिए कि इस संकट में हम आपके साथ हैं। इसके विपरीत अंजाने में ही हम अपने अधकचरे मेडिकल नालेज को इस तरह बयां करते हैं कि इलाज करने वाले डाक्टरों की टीम से मरीज के परिजनों का विश्वास उठने लगता है। इसके विपरीत एक अन्य मित्र हैं, जितनी देर मरीज के पास बैठते हैं हल्के-फुल्के मजाक से कुछ देर के लिए ही सही मरीज की सारी उदासी ठहाकों में बदल देते हैं।
हमारे एक दोस्त की माताजी आईजीएमसी अस्पताल मे दाखिल थीं। सूचना मिली तो हम भी उनकी मिजाजपुर्सी के लिए चले गए। करीब आधा घंटा वहां रुकने के दौरान मेरे लिए सीखने की बात यह थी कि वे डाक्टरों द्वारा दिए जा रहे उपचार से पूर्ण संतुष्ट दिखे शायद यही कारण था कि मां के स्वास्थ्य को लेकर अनावश्यक रूप से चिंतित भी नहीं थे। उनका तर्क सही भी था चिंता करने से तो मां ठीक होने से रही। हमने भी माताजी की बीमारी को लेकर अपना अधकचरा ज्ञान नहीं बघारा। जितने वक्त वहां बैठे, हम उनके साथ इधर उधर की बातें करते रहे। सुबह से रात तक अकेले ही मां की सेवा में लगे रहने के साथ अस्पताल से ही आफिस के अपने साथियों को कार्य संबंधी निर्देश भी देते जा रहे थे।
मैं जिस मित्र के साथ गया था, उन्होंने मदद के लिए जो प्रस्ताव रखा सुनकर मुझे अच्छा लगा। उन्होंने कहा माताजी की देखभाल के लिए या रात में अस्पताल रुकना हो तो तुम्हारी भाभी और मैं रुक जाऊंगा। तुम आराम कर लेना । चूंकि वे दिन रात अकेले ही अस्पताल में रुक रहे थे तो मैने उन्हें वक्त काटने के लिए किताब भिजवाने का प्रस्ताव रखा, उन्होंने जिस उत्साह से स्वीकृ ति दी उससे हमें लग गया कि अकेले आदमी के लिए, वह भी अस्पताल में समय काटना कितना मुश्किल होता है।
इस सोच के विपरीत हमारे सामने अकसर ऐसे दृश्य भी आते रहते हैं जब अस्पताल में मरीज की तबीयत देखने की खानापूर्ति करने वाले बजाय उसे और परिजनों को ढाढस बंधाने की अपेक्षा उसी तरह की बीमारी के शिकार रहे लोगों की ऐसी हारर स्टोरी सुनाते हैं कि ठीक होता मरीज भी दहशत का शिकार हो जाता है। यही नहीं बीमारी को लेकर अपना आधा अधूरा ज्ञान इस विश्वास के साथ दोहराते हैं कि कई बार मरीज और परिजन पसोपेश में पड़ जाते हैं कि ईलाज सही भी हो रहा है या नहीं।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने किसी प्रियजन के अस्पताप में दाखिल होने की सूचना मिले तो कल देख आएंगे कि अपेक्षा बाकी कामों से थोड़ा वक्त निकाल कर उसी दिन देख आएं क्योंकि कल किसने देखा, शायद इसीलिए कहा भी तो जाता है काल करे सो आज क र । कोई भरोसा नहीं कि कल हम और ज्यादा आवश्यक काम में उलझ जाएं, मरीज को अस्पताल से छुट्टी मिल जाए या हालत ज्यादा बिगड़ जाने पर अन्य किसी शहर ले जाना पड़े।
हममें से कई लोग अस्पताल में तबीयत देखने जाते भी हैं तो खाली हाथ। एक गुलदस्ता साथ लेकर तो जाएं, अस्पताल के उस पूरे रूम के साथ मरीज के चेहरे पर भी फूलों सी ताजगी झलकती नजर आएगी। एक परिचित हैं उन्हें बस पता चलना चाहिए कि कोई अपना परिचित दाखिल है। उसके परिजनों को अपना ब्लडग्रुप बताएंगे, फोन नंबर नोट कराएंगे कि आपरेशन की स्थिति में खून की जरूरत पड़े तो तत्काल सूचित कर दें। मरीज के पास जितनी देर भी बैठेंगे, उससे उसकी बीमारी पर तो चर्चा करेंगे ही नहीं। उसे जोक्स सुनाएंगे, हल्के फुल्केे मजाक करते रहेंगे। मैंने जब उनसे कारण पूछा तो उनका जवाब था, एक तो पहले ही वह सुबह से शाम तक अपनी बीमारी को लेकर लोगों के सुझाव सुनता रहता है। लोग आते तो हैं उसका दुख कम करने के लिए लेकिन अंजाने में ही उसका तनाव बढ़ाकर चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में हल्के फुल्के मजाक से वह थोड़ी देर खुलकर हँस लेता है तो इसमें गलत क्या है। बात तो एकदम सही है। मैने जब खुद का मूल्यांकन किया तो कई कमियां नजर आई हैं जिनमें सुधार के लिए मैने तो शुरुआत भी कर दी है। कहा भी तो है हम दूसरों की गलतियों से खुद में सुधार ला सकते हैं।

Thursday 10 June 2010

अच्छे सिर्फ बाहर के लिए ही क्यों

हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। हमारा चरित्र भी कुछ ऐसा ही हो गया है। हम अन्य शहरों में जब सपरिवार जाते हैं तो पत्नी बच्चों के साथ हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम खुद को उस शहर के मुताबिक ढालने का भी प्रयास करते हैं लेकिन जैसे ही अपने शहर की सीमा में प्रवेश करते हैं, फिर पुराने वाले हो जाते हैं। हम अच्छाइयां स्वीकार भी करते हैं तो अपनी सुविधा से लेकिन बुराइयां आसानी से और हमेशा के लिए पालन करने लग जाते है।
दो दिन की लगातार बारिश के बाद जैसे ही मौसम खुला शिमला में रंगीन छतरियों की रौनक के बदले माल रोड पर सैलानियों की चहल पहल नजर आने लगी। नगर निगम भवन के सामने माल रोड पर एक दुकान से अपने बच्चों के लिए पिता ने नाश्ते का सामान लिया और बच्चों के हाथ में प्लेट पकड़ा दी। ये सभी खाते-खाते आगे बढ़ गए। उनमें से एक बच्चे ने सबसे पहले नाश्ता खत्म किया और खाली प्लेट सड़क पर उछाल दी। कुछ आगे जाने पर पिता को ध्यान आया कि बेटे ने जूठी प्लेट सड़क पर ही फेंक दी है। बच्चों को वहीं रुकने की समझाइश देकर पिता पीछे लौटे और सड़क से प्लेट उठाकर एमसी भवन के बाहर सड़क किनारे रखे डस्टबीन में डाल दी। वापस बच्चों के पास लौटते वक्त उनकी आंखों में इस तरह के भाव थे कि उनके इस अच्छे काम को किसी ने नोटिस भी किया या नहीं।
कितना अजीब लगता है जब हम अपने किसी रिश्तेदार के यहां, किसी अन्य शहर या विदेश में कहीं जाते हैं तो हमारा व्यवहार बिना किसी की सलाह या समझाइश के खुदबखुद बदल जाता है। हम उस शहर के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश करने लग जाते हैं। इस बदलाव के पीछे दंड-जुर्माने का भय तो रहता ही है साथ ही अपने शहर, अपने परिवार की नाक नीची न हो जाए यह सजगता भी रहती है। इस दौरान हम अपने स्टेटस को लेकर इतने सतर्क रहते हैं कि पत्नी बच्चों से भी कुछ ज्यादा ही सम्मान से पेश आते हैं। कई बार तो हमारे बच्चे इस व्यवहार पर त्वरित प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर देते हैं।
ऐसा क्यों होता है कि अपने घर, अपने शहर पहुंचते ही फिर हम पुराने ढर्रे पर चलने लगते हैं। विदेशों, अन्य शहरों की अच्छाइयों को हम अपने लोगों के बीच प्रचारित भी करते हैं तो उसमें मुख्य भाव यह दर्शाना ज्यादा होता है कि लोग जान लें हम उस जगह होकर आए हैं। शहर तो दूर हम अपने घर तक में उन बातों क ो लागू नहीं कर पाते जिनकी प्रशंसा करते नहीं थकते । पत्नी को जो सम्मान हम बाहर देते हैं, घर पहुंचने के बाद उसे हम कामकाजी महिला से ज्यादा कुछ समझते ही नहीं। हमारा रवैया ऐसा क्यों हो जाता है कि उसकी उपयोगिता ऑर्डर का पालन करने वाली से ज्यादा नहीं है। तब हम यह क्यों नहीं याद रखते कि वह सुबह से शाम तक शासकीय कार्यालय, बैंक आदि संस्थान में सेवा देने के बाद घर के सारे काम अपनी पीड़ा छुपाकर पूरे कर रही है। हमें हमारा सिरदर्द तो असहनीय लगता है लेकिन भीषण कमर दर्द के बाद भी रसोईघर में काम निपटाती पत्नी का हाथ बटाना तो दूर उसका दर्द पूछना भी जरूरी नहीं समझते।
शिमला में पॉलीथिन पर प्रतिबंध हमें बहुत अच्छा लगता है लेकिन अपने शहर में जाने के बाद फिर हम यह अच्छी बात भूल जाते हैं। पहले की तरह फिर पॉलीथिन में रात का बचा खाना आदि बांधकर खिड़की से ही सीधे कचरे के ढेर की तरफ उछाल देते हैं। तब हमें यह अहसास नहीं होता कि उस जूठन को खाने की कोशिश में गाय पूरी पॉलीथिन भी निगल जाएगी।
हमारे कारण उसकी आंतों में उलझी यही पॉलीथिन उसकी मौत का कारण भी बन सकती है यह भी भूल जाते हैं। हमारा चरित्र कुछ ऐसा हो गया है कि अच्छाइयां या तो हमें स्थायी तौर पर प्रभावित नहीं करती या फिर अच्छी बातों का पालन भी हम अपनी सुविधा या डंडे के जोर से ही करने के आदी हो गए हैं।

Thursday 3 June 2010

काम तो अपने ही आएंगे,पैसा नहीं

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है।
माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही है। अकेलेपन की पीड़ा, बच्चों की याद और कुछ नशे के खुमार से उनकी आंखें छलछला आई। बार बार कह रहे थे पत्नी बच्चों के प्यार से प्यारा दुनिया में और कुछ नहीं, अभी वे लोग आ जाएं तो शिमला के ये गर्मी भरे दिन भी ठंडे हो जाएंगे मेरे लिए। अपना गम सुनाने के साथ ही वे ङ्क्षड्रक करने का सच स्वीकारने के साथ यह भी पूछते जा रहे थे स्मैल तो नहीं आ रही है, ज्यादा नहीं बस दो तीन पैग लिए हैं। मैंने जैसे-तैसे उनसे गुडबॉय कह कर पीछा छुड़ाया।
मैंने कई लोगों को देखा है, यूं तो फर्राटेदार हिंदी में बात करते रहते हैं लेकिन पता नहीं इस अंगूर की बेटी का क्या जादू है, इसका सुरूर चढ़ते ही अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोग अंग्रेजी शराब के कारण अंग्रजी बोलने लगते होंगे। दरअसल मुझे तो कुछ लोगों के साथ यह ठीक से अंगे्रजी नहीं बोल पाने की कुंठा लगती है जो थोड़ा सा नशा होने पर कुलांचे मारने लगती है। इस बहाने ही सही आदमी के मन में दबा सच और उसकी कुंठा बाहर तो आ जाती है। हल्के से नशे ने उस अधेड़ व्यक्ति के लिए तो आत्म साक्षात्कार का ही काम किया होगा वरना इतनी तीव्रता से बीवी, बच्चों से दूरी का अहसास नहीं होता।
इसके विपरीत हम अपने आसपास ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो दौलत के नशे में चूर होने के कारण हर चीज को पैसे से ही तोलते हैं उन्हें किसी की भलाई, अपनेपन की भी परवाह नहीं होती क्योंकि ऐसे लोग उस मानसिकता के होते हैं जो यह मानकर चलते हैं हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती है। ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसा भी वक्त आ सकता है जब पैसा होने के बाद भी कई बार हाथ मलते रह जाने जैसे हाल हो जाते हैं। जोर की भूख लगी हो लेकिन कुछ खाने को ही नहीं मिल पाए, किसी सुनसान रास्ते में हमारे किसी परिचित की तबीयत बिगड़ जाए और उपचार न मिल पाने के कारण जान ही चली जाए। इस तरह के हालात में तो जेब में रखे बैंकों के एटीएम, पर्स में रखे नोट भी कुछ देर तो बेकार ही रहेंगे।
सदियों से कहते और सुनते आए हैं पैसा तो हाथ का मैल है लेकिन हम है कि इस सच को समझना ही नहीं चाहते कि जब पैसा नहीं था तब हम लोगों के कितने करीब थे और जब से पैसा बरसने लगा तब से कौन लोग हमारे करीब हैं। क्यों हमें अपने लोगों की जरूरत अकेलेपन या मुसीबत में ही महसूस होती है। शायद इसीलिए की जो हमारे अपने होते हैं उन्हें हमारे पैसे कि नहीं हमारी परवाह होती है। जो अपना है वह सुख में हमसे दूरी बनाना जानता है लेकिन हम कभी मुसीबत में घिर जाए तो पल पल साथ रहने के बाद भी यह दर्शाने कि कोशिश नहीं करता कि वह हमारे साथ है। ये खुशियों की बारिश और सुख दु:ख के ये बादल शायद इसीलिए उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि हम अपने परायों कि पहचान करना तो सीख ही जाएं। ऐसे में भी यदि हम समझ ना पाएं तो फिर अपनों से दूर रहने पर उनकी कमी महसूस करना ही विकल्प बचता है। ऐसा बुरा वक्त जीवन मेें न आए इसका तरीका तो यही है कि हम पैसों से ज्यादा अपनों को महत्व दें। वरना तो चिडिय़ा खेत चुग जाएगी और हम हाथ ही मलते रह जाएंगे।