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Friday 23 April 2010

थैंक्स की अपेक्षा के बिना भी कुछ अच्छा करके तो देखिए

हम किसी की मदद करें और बदले में वह हमें थैंक्स तक न कहे तो हम मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और मौका मिलते ही उसे खरी-खोटी सुनाने में देर नहीं करते। अब जरा यह तो याद करें हमने कितने लोगों के प्रति धन्यवाद का फर्ज अदा किया। हम तो इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जिस भी मुकाम पर पहुंचे हैं, रात-दिन एक कर अपनी मेहनत से पहुंचे हैं। जबकि सफलता वाली मंजिल के हर मोड़ पर प्रकृति से लेकर परिजन तक जाने कितने लोगों ने हमारे लिए त्याग किया है, उन सब ने तो आजतक हमसे धन्यवाद की अपेक्षा नहीं की।
शिमला में ट्रांसफर के बाद भी मेरी वही धारणा है कि पूर्वजन्म में इस शहर के लोगों का कुछ कर्ज बाकी रह गया होगा। इससे पहले जहां-जहां ट्रांसफर हुए, इसी सोच ने मुझे चुनौतियों का सामना करने की ताकत भी दी है।
जब आप किसी शहर में नए, अकेले होते हैं तो सबसे अनियमित खानपान ही होता है। आज यहां, कल वहां, जब जहां जैसा मिल जाए, ये सारी चीजें हमें स्वाद से ज्यादा हर हाल में एडजस्ट करना तो सिखाती ही हैं। उस दिन मैंने अपने मित्र जसवंत सिंह पवार को फोन लगाया कि चलो कुछ कर्ज उतार आएं। उन्होंने कहा मैं गेयटी में मैनेजर के रूम में बैठा हूं, यहीं आ जाओ। इस विश्व प्रसिद्ध थियेटर के मैनेजर सुदर्शन शर्मा से यह मेरी पहली मुलाकात थी। जितनी देर बैठे, जो चर्चा हुई, मुझे सीखने को यह मिला कि काम करते रहो फल की चिंता मत करो। वैसे भी यदि हम आम के बीज बोएंगे तो कैक्टस नहीं आम ही पैदा होंगे।आग में खाक होने के बाद गेयटी आज सिर ऊंचा किए खड़ा है तो सरकारी मदद के साथ सुदर्शन शर्मा जैसे न जाने कितने छोटे कर्मचारियों सहयोग रहा है।
गेयटी की ही तरह हमने भी न जाने कितनी ठोकरें खाईं, जाने कितने पापड़ बेले, तब कहीं मुकाम हासिल कर पाए। हमारी उपलब्धियों का जब यशोगान होता है तो हम और अकड़ कर बैठ जाते हैं। उन क्षणों में हमें भीड़ में ताली बजाते लोगों में वो चेहरे भी अंजान लगते हैं जिनके छोटे-छोटे त्याग की सीढिय़ों से हम सम्मान के मंच तक पहुंचते हैं।
दूर क्यों जाएं, बोर्ड एग्जाम में उपलब्धि हासिल करने पर हमारी तरह हमारे बच्चे भी सफलता का सारा श्रेय रात-रात भर जागकर की गई पढ़ाई को देते हैं। तब याद नहीं रहता कि बड़ी बहन अलार्म लगाती थी, वह पढऩे के लिए उठाती और हम झिड़क देते थे। मां जागती रहती थी कि हमारी आंख न लग जाए, चाय-काफी बनाकर देती थी। सुबह परीक्षा के लिए रवाना होने से पहले दही-शक्कर, पेड़े से मुंह मीठा कराकर भेजती थी। परिजनों की तरह हमारे टीचर भी हर वक्त हमारी परेशानी दूर करने को तत्पर रहते थे। मदद करते वक्त भी इन सबका यही स्वार्थ रहता था कि किसी तरह हम मंजिल हासिल कर लें। परीक्षा देते वक्त जब हमारा पेन चलते-चलते अचानक रुक गया था, तब पड़ोस की टेबल के उस अंजान परीक्षार्थी ने अपना एक्स्ट्रा पेन देकर हमारी मदद नहीं की होती तो उस पेपर में शायद ही हमें अच्छे नंबर मिल पाते।
बचपन से लेकर पचपन तक हर मोड़ पर अकसर ऐसे व्यक्ति मिलते ही रहे हैं जो बिना किसी स्वार्थ के हमारी मदद करके खुशबू के एक झोंके की तरह आए और चले गए। एक पल को आंखें बंद करें तो सही, रिप्ले में वो सारे खुदाई खिदमतगार सामने आ जाएंगे, इस पल ही हमें अहसास होगा कि जिस ऊंचाई पर हमारे पैर जमे हुए हैं वह नीचे की जमीन ऐसे ही लोगोंं के अहसान के कारण सख्त बनी हुई है। मन में यह विचार भी आ सकता है कि ये सारे लोग मिल जाएं तो थैंक्स कहकर एहसान उतार दें।
अच्छा तो यह होगा कि जिन लोगों ने हमारी थोड़ी सी भी मदद की है उनका यह कर्ज उतारने के लिए हम भी किसी के काम आ जाएं और यह अपेक्षा भी न करें कि कोई हमारा नाम याद रखेगा। हमारी संस्कृति में गुप्तदान की परंपरा भी तो सदियों से चली आ रही है। मोमबत्ती का ही त्याग देखिए, घुप्प अंधेरे में हमें उजाला देने के लिए जलती-पिघलती जाती है, लाइट आते ही हम उसे फूंक मार कर बुझा देते हैं। फिर जब अचानक लाइट चली जाती है तो माचिस की तीली के आगे खुशी-खुशी आत्मदाह करने वाली मोमबत्ती यह नहीं कहती की उसके त्याग का इतिहास लिखा जाए।
बिना किसी चाह की कामना के जब पत्थर मारने वालों को भी पेड़ मीठे फल देते हैं, बिना किसी भेदभाव के बादल सबका आंगन गीला करते हैं, झोपड़ी से लेकर सीएम हाउस तक रोशनी बांटने में सूरज समाजवाद के पुरोधा की तरह काम करता है, फिर हम क्यों किसी के काम नहीं आ सकते। प्रकृति का आभार व्यक्त करना तो हम भूल ही गए हैं लेकिन क्या हवा, बादल, सूरज, चांद, पेड़ और हमारी अपनी मां से बिना किसी अपेक्षा के सबके भले के लिए काम करते रहने के संस्कार भी नहीं ले सकते?

Wednesday 14 April 2010

पड़ोसी का सुख बना हमारा दुख

माल रोड की एक दुकानू पर मैं भी बाकी ग्राहकों की तरह सामान लेने के लिए खड़ा था। ज्यादा ग्राहक भी नहीं थे। जिस ग्राहक से दुकानदार बात कर रहा था, वह कोई सामान चेंज कराना चाहता था। दुकानदार ने सामान के बदले पैसे लौटाना चाहे तो ग्राहक दंपति पसोपेश में पड़ गया। उनके चेहरे को भांप चुके दुकानदार ने समझाया कोई जरूरी नहीं है कि आप कोई दूसरा सामान लें ही। ग्राहक भी सज्जन थे, उन्होंने कुछ सामान खरीद ही लिया। यह सामान कुछ कम कीमत का था दुकानदार ने बाकी पैसे लौटाए, उन्होंने संकोच के साथ पैसे लिए।
मैंने जो खरीदना था, खरीद कर पेमेंट करने लगा तो दुकानदार ने उसी कंपनी का एक अन्य प्रॉडक्ट दिखाते हुए कहा इसकी कीमत कम है और क्वालिटी सेम है। जाहिर है मैंने दूसरा प्रॉडकट ही लिया होगा। मैंने पेमेंट करते हुए कहा आप जैसे दुकानदार बहुत कम देखने को मिलते हैं। उसका जवाब था, जी हम ग्राहक को भगवान समझते हैं। वैसे भी जो हमारी किस्मत में होगा वह तो हमें ही मिलेगा। उनके इस कथन में चौंकाने वाली कोई बात नहीं थी, अमूमन हर दुकानदार का यही जवाब रहता है। गौर करने वाली बात थी दूसरे के सुख में खुश होना।
मुझे लगता है हम सब जिस भी पेशे में हैं अपने पड़ोसी से ज्यादा हासिल करने की रेस में पूरी जिंदगी गुजार देते हैं फिर भी एक फांस दिल में चुभी रहती है और उसका दर्द कानों में गूंजता रहता है कि 'बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकलेÓ। कितना अफसोसजनक है हमारे पास जो कुछ है उसका तो उपभोग कर नहीं पाते, रातों की नींद इसलिए उड़ी रहती है कि बस एक रुपए का इंतजाम और हो जाए तो निन्यानवे पूरे सौ रुपए हो जाएंगे। इस नाइंटी नाइन का चक्कर हमें घनचक्कर बना देता है।
शताब्दियों पहले हमारे पूर्वज समझा गए 'संतोषी सदा सुखीÓ। इन तीन शब्दों का मतलब समझ नहीं पाते इसलिए हमेशा दु:खी रहते हैं कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों है? हमने नीचे देखना छोड़ दिया है, वरना हमेें अहसास हो जाता कि ऐसे लोग भी जी रहे हैं जिनके पास कमीज ही नहीं है। हमारा पड़ोसी अपने दुश्मन की कोठी, महंगी गाड़ी देखकर ही दु:ख में दुबला हुए जा रहा है। हम सब की हालत उस मृत फटेहाल भिखारी की तरह हो गई है जिसकी लाश उठाने के बाद मटमैली चादर झटकारने पर सौ-सौ के नोटों की गड्डियां नजर आती है। ऐसे किस्सों पर हम भी उस भिखारी की किस्मत पर शोक व्यक्त करने में विलंब नहीं करते, पर तब भी यह भूल जाते हैं कि कहीं हम सब भी तो उन्हीं रास्तों पर सफर नहीं कर रहे। हमारे नासमझ बच्चे गुब्बारे की जिद्द करते हैं और जिद्द पूरी हो जाने पर खुश भी हो जाते हैं।
हम तो अपने बच्चों से भी गए-गुजरे हो गए हैं, जो पाना चाहते हैं, छलछद्म से प्राप्त भी कर लेते हैं लेकिन अपनी इस सफलता को खुद ही नकार देते हैं क्योंकि तब-तब हमारी इच्छाओं का आकाश और फैल जाता है। इस आकाश के अंतिम छोर को हम मरते दम तक नहीं छू पाते क्योंकि हमारी इच्छाएं कभी खत्म ही नहीं होती। ऐसे ही कारणों से हम संतोषी सदा सुखी जैसे सहज शब्दों का मर्म नहीं समझ नहीं पाते।
हम अपने लोगों की मेहनत और तरक्की को भी नहीं पचा पाते। कैसा अजीब मनोविज्ञान है यह, हमें अपना संघर्ष तो महानतम लगता है किंतु दिन-रात मेहनत करके सफलता का शिखर छूने वालों को हम एक सैकंड में यह कह कर खारिज कर देते हैं कि जोड़-तोड़ की बदौलत सफलता मिली है। मानसिकता का यह दिवालियापन भी इसलिए सामने आ जाता है क्योंकि पहुंचना तो हम भी चाहते थे उस शिखर पर लेकिन सारा वक्त तो हम आगे बढऩे वालों की टांग खींचने में ही लगे रहे। न तो आगे बढऩे वालों से सफलता के मूलमंत्र सीख पाए और न ही पानी से ही सीख पाए कि सात तालों में बंद रखने, तमाम अवरोध लगाने के बाद वह और अधिक ताकत के साथ आगे निकलने का रास्ता खोज ही लेता है। पानी जैसे हो नहीं पाते और पानी से कुछ सीखते भी नहीं, हमारी स्थिति कबीर की उलटबासी जैसी रहती है पानी में रहने के बाद भी मछली प्यासी की प्यासी।

Thursday 8 April 2010

मुखौटों से मुक्त हों तो जीवन का आनंद जानें

रूटीन के जीवन को भी हम ठीक से नहीं जी पा रहे तो इसलिए कि हमने जाने कितने मुखौटे लगा रखे हैं। घर में भी हम अधिकारी वाले मुखौटे से मुक्त नहीं हो पाते। कुछ देर के लिए ही सही इन मुखौटों को उतार कर देखें, जो अनुभव मिलेगा वह सुखदायी ही होगा। कस्तूरी मृग की तरह हम सब इसी सुख की तलाश में जिंदगी भर भटकते रहते हैं। माया-मोह के मुखौटों से मुक्ति की बात जब तक समझ आती है तब तक किराए का मकान खाली करने का वक्त आ जाता है।
रोज की तरह मॉर्निंग वाक से लौटते वक्त मैं रिज मैदान पर हॉकर से पेपर लेने के लिए रुका। पेपर की थप्पियां तो जमी हुई थी लेकिन भगवान दास चौधरी का पता नहीं था। मैंने कुछ पल इंतजार करना ठीक समझा। इसी बीच कंधे पर सफरी झोला टांगे एक सज्जन आए और दो पेपर उठाते हुए मेरी तरफ 10 रुपए का नोट बढ़ा दिया। मैंने एक पल सोचा कि उन्हें स्पष्ट कर दूं कि मैं भी आप ही की तरह ग्राहक हूं, फिर इरादा बदल दिया। छुट्टे की समस्या बताते हुए उन्हें एक पेपर और थमा दिया। इसी बीच एक और ग्राहक आ गए। यह सिलसिला करीब आधे घ्ंाटे चला। जब चौधरी जी लौटे तो मुझे दुकान संभालते देख आश्चर्य व्यक्त करने के साथ ही धन्यवाद की झड़ी लगा दी।
वैसे मेरे लिए भी इस आधे घंटे का अनुभव यादगार इस मायने में है कि उस दौरान जो भी लोग आए-गए उनके सामने मेरी कोई पहचान नहीं थी। देखा जाए तो पहचान के खोल से मुक्त होने का अपना एक अलग ही आनंद है। बचपन में हम सब कुल्फी और बर्फ के लड्डू सड़क पर ही खाने में नहीं झिझकते थे, मन तो अब भी ललचाता है लेकिन पहचान की खोल ऐसा करने से रोक देती है।
असली दिक्कत यह है कि हमने पहचान का ऐसा फेवीकोल लगा लिया है कि चाहते हुए भी मुखौटों को नहीं उतार पाते। इस चक्कर में यह भी याद नहीं रहता कि कहां मुखौटा नहीं लगाना है। नौकरी हम कार्यालय में करते तो हैं लेकिन सारा टेंशन घर लेकर जाते हैं, गलती पर मिली बॉस की फटकार पत्नी और बच्चों पर बिना-बात नाराजी के रूप में निकालते हैं। जिन्हें हमसे प्यार की अपेक्षा रहती है उनसे हम कई बार तो ऑफिस के प्यून से भी गया-गुजरा व्यवहार कर बैठते हैं। बात-बात पर कोल्हू के बैल की तरह काम करने का हवाला देते वक्त हमें यह भी याद नहीं रहता कि घर की महिलाओं का सूर्योदय किचन से तो होता है लेकिन काम के बोझ में सूर्यास्त कब हो गया यह तक उन्हें याद नहीं रहता। ऐसे कई पुलिसकर्मी मिल जाएंगे जो अपने बच्चों, घर के सदस्यों से आरोपियों वाली शैली मेें बात करना अपनी शान समझते हैं और इसे अपनी स्टाइल गिनाने में भी शर्म महसूस नहीं करते। यही नहीं ऐसे कई अधिकारी भी मिल जाएंगे जो घर में भी क्लासवन अफसर की ही तरह व्यवहार करते हैं। हद तो तब हो जाती है जब सेवानिवृत्ति के बाद भी ज्यादातर लोग इन मुखौटों से मुक्त नहीं हो पाते और परिवार के लिए बेवजह तनाव का कारण बने रहते हैं।
अपनों के सुख-दु:ख में हम कितनी देर रुकें , कितना बोलें, कितने इंच की मुस्कान बिखेरें यह सब भी हमारे मुखौटे ही तय करते हैं। आपसी संबंधों में आज जो पहले जैसी मिठास नहीं रही तो उसका कारण हमारी यह मुखौटे वाली जिंदगी भी है। हम समाज से अपनापन, मानवीयता, सद्भाव खत्म होने की चिंता के साथ ही टेक-एंड-गिव वाले रिश्तों की आलोचना भी करते हैं लेकिन यह नहीं स्वीकारना चाहते कि इस सामाजिक प्रदूषण को बढ़ाने में हमारी भी सक्रिय भागीदारी है। पेड़ को पता है पतझड़ के बाद उसकी खूबसूरती बढ़ जाएगी। मंदिर में स्थापित हनुमानजी की प्रतिमा जब सिंदूर का चोला छोड़ती है तब मंदिर में दर्शनार्थी उमड़ पड़ते हैं। सांप भी साल में एक-दो बार केंचुली उतार देता है। नदियां ऊंचाई का मोह त्याग कर पहाड़ों, जंगलों, टेड़े रास्तों से होती जनजीवन के बीच पहुंचती है तो उन नदियों का जल पूजाघरों में श्रद्धा-आस्था से रखा जाता है। हम हैं कि इन सब से भी कुछ सीखना समझना नहीं चाहतेे। इन मुखौटों के बल पर हमने अपना आभामंडल समुद्र जितना विशाल तो कर लिया लेकिन समुद्र कितना अभागा होता है कि पानी का इतना विशाल भंडार होने के बाद भी कोई उसमें से एक चुल्लू पानी पीना भी पसंद नहीं करता।

Thursday 1 April 2010

बिन बोले बहुत कुछ कहते हैं ऊंचे पहाड़ और छोटे रास्ते

पहाड़ों के बीच जब हम पहुंचते हैं तो 'जो कुछ हैं हम ही हैं वाला अहं सर्पीले रास्तों वाली ढलान से फिसल कर कहां चला जाता है। हमें इसका अंदाज तक नहीं लग पाता। ऊंचे पहाड़ों के बीच सुरक्षित शिमला की खूबसूरती देखने के लिए देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को ये पहाड़ और इन पहाड़ों के बीच से होकर गुजरने वाले रास्ते कद, पद और मद की शून्यता का अहसास भी करा देते हैं।
माल रोड पर दिन में कई चक्कर लगाने वालों को बहुत जल्द ही यह पता चल जाता है कि रास्तों का उतार-चढ़ाव सांस फुला देने वाला होता है कोई सैलानी कुली से ज्यादा मोल भाव नहीं करना चाहता। दुकानों से सामान खरीद कर जब मालदार लोग बाहर निकलते हैं तो खरीदे गए सामान पर लोगों की नजर पड़े ना पडं़े इन सैलानियों की नजर जरूर कुली को तलाश रही होती है कि सब कुछ उसके हवाले कर के खाली हाथ सफर करें। ये पहाड़ सैलानियों को जीवन दर्शन कराते हैं कि जितना ऊंचा उठने की सोचोगे उतना ज्यादा खाली हाथ होना पड़ेगा। बात जीवन की अंतिम यात्रा की करेंं तो गौरीशंकर से मिलन के लिए भी तो निर्भर होकर ही पहुंचा जा सकता है।
जैसे अंतिम यात्रा पर जाते वक्त हम अपने साथ लाव-लश्कर नहीं ले जा पाते, उसी सत्य को ये पहाड़ भी बड़ी सहजता से समझाते हैं कि ज्यादा बोझ साथ रखोगे तो सांस फूल जाएगी, आसानी से सफर तय नहीं कर सकोगे। पहाड़ों की भाषा किसी को समझ न आए तो जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ाव की याद दिलाते, छोटी-छोटी सीढिय़ों को साथ लेकर चलने वाले संकरे रास्ते भी बताते चलते हैं कि इन पहाडों के सामने अपने पद और कद की अकड़ दिखाने की कोशिश भी मत करना, क्यों कि पहाड़ों केे आगे सिर्फ पहाड़ों की ही अकड़ चलती है। मुझे तो लगता है कि इन पहाड़ों को भी पता है कि उनकी यह अकड़ भी दर्शन काबिल तभी है जब अकड़बाज सैलानी यहां तक आ-जा सकें। इसीलिए इन पहाड़ों ने अपने से छोटे, तुच्छ समझे जाने वाले रास्तों को भी गले लगा रखा है। आसमान छूने को आतुर सी लगतीे चोंटियां और इनके बीच तंगहाल जिंदगी की तरह गुजर-बसर करते इन रास्तों की पहाड़ों से जुगलबंदी कृष्ण-सुदामा की मित्रता सी लगती है।
सैलानी यह संदेश लेकर भी जाते ही होंगे कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊंचा उठने वालों को सदैव याद रखना चाहिए कि जाने कितने छोटे-छोटे लोगों का सहयोग रहता है किसी एक को पहाड़ जैसी ऊंचाई तक पहुंचाने में। ये पहाड़ तो कुछ कहते नहीं लेकिन जो इन से मिलकर जाते हैं उन्हें तो ताउम्र याद रहता ही होगा कि झुककर चलने वाले ही ऊंचाई तक पहुंच पाते हैं और लंबे वक्त तक चोटी पर बने रहने के लिए अनुशासन, संयम और त्याग जरूरी होता है वरना तो एक जरा सी गलती पल भर में गहरी घाटियों के हवाले कर देती है। ऊपर आने का मौका तलाश रहे लोग तो वैसे भी घात लगाए बैठे रहते हैं कि शिखर पर शान से खड़े व्यक्ति से कोई चूक हो और उन्हें टांग खींचने का मौका मिल जाए।