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Friday 28 August 2009

याद तो करिए किनके सहयोग से आगे बढ़े हैं?

घर से सटे गार्डन में अनार-आम-अमरूद के बोझ से टहनियां जमीन पर झुकती नजर आने लगती हैं, तो मुझे ऐसा लगता है मानो घर मालिक का आभार व्यक्त कर रही हों- धन्यवाद आपका, जो आपकी देखभाल, संरक्षण ने हमें इस लायक बना दिया।

याद करिए आज से पांच-दस साल पहले जब ये सारे पौधे गार्डन में लगाए थे तब तो यह भरोसा भी नहीं था कि पौधे पनपेंगे या नहीं, फल भी आएंगे या नहीं। फिर भी हमने धूप, बारिश, तेज आंधी से नन्हें पौधों की प्राण रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब जब इन वृक्षों पर फलों की बहार है, तो आभार के बोझ से टहनियां झुकी-झुकी जाती हैं।

दूसरी तरफ आप हम हैं। हमें अपने दोस्तों-परिजनों से मिले अनपेक्षित व्यवहार, कटु प्रसंग तो बरसों बाद भी याद रहते हैं, लेकिन बुरे वक्त में जब ये ही सारे लोग हमारे पीछे चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे थे। हमारे दुख में अपना खाना-पीना भूलकर हर कदम पर साथ चले थे, तब हम थैंक्स तक नहीं कह पाते थे, वो वक्त हमें याद नहीं रहता। हम हैं कि थोड़ी सी उपलब्धि हांसिल होने पर, थोड़ा-सा भी अपने मनमाफिक न होने पर अपने ही लोगों की बाकी अच्छाईयों, हर मोड़ पर मिले सहयोग को पल भर में भुला देते हैं। बात जब अहसान याद दिलाने तक पहुंच जाए, तो हमें अपना किया तो याद आ जाता है, पर बाकी लोगों ने हमारे लिए जो करा वह याद नहीं आता।

उज्जैन में आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स को अटैंड करने के दौरान शिविर समापन के अंतिम दिन प्रशिक्षक ने सभी शिविरार्थियों को अंगूर के गुच्छे से एक-एक अंगूर इस हिदायत के साथ मुंह में रखने को दिया कि जब तक निर्देश न मिले, इसे चबाएं नहीं।

निर्देश मिला जरा सोचिए इस अंगूर में कितने बीज हैं, उन्हीं में से एक बीज अंकुरित हुआ। उसके अंगूर बनने तक प्रकृति ने हवा, पानी, धूप, छांव का निस्वार्थ सहयोग किया। किसान ने देखभाल की। जाने कितने हाथों के सहयोग, सेवा, उपकार लेता यह अंगूर अब आपके मुंह में है। क्या कभी ऐसे सारे गुमनाम सहयोगियों के प्रति आपका मन धन्यवाद भाव से प्रफुल्लित हुआ है?

जाहिर है बाकी शिविरार्थियों की तरह मेरा जवाब भी नहीं में था। बात छोटी सी, लेकिन कितनी गहरी है। हम प्रकृति को धन्यवाद दे ना दें पेड़ तो पत्थर खाकर भी फल ही देता है।

हर दिन तरक्की को लालायित हमारी जिंदगी के हर मोड़ पर, निरंतर ऊंचाइयों के शिखर तक पहुंचने में न जाने, किन-किन लोगों का सहयोग रहा है, वे सभी जड़ नहीं चैतन्य हैं। आप ही की तरह उनमें भी अपेक्षा का भाव है कि उनके सहयोग का आप भले ही ढिंढोरा न पीटे, लेकिन अपनों के बीच स्वीकार करने का साहस तो दिखाएं। हालत तो ऐसी है कि जब हम अपनी गलती ही आसानी से नहीं स्वीकार पाते तो साथियों के सहयोग को कैसे दस जनों के बीच कहें। हम भूल जाते हैं कि जिन लोगों के छोटे-छोटे सहयोग से हम बडे़ बने हैं, हम समाज की नजर में भले ही ऊंचे उठ जाएं, लेकिन उन सारे सहयोगियों की नजर में तो नीचे ही गिर जाते हैं।

घर के किसी कोने में रखे गमले में बड़ा होता मनी प्लांट का पौधा भी एक पतली सी लकड़ी और रस्सी के सहयोग से ही छत तक ऊंचा उठ पाता है पर क्या करें हमारा तो स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि मनी प्लांट की तारीफ तक ही सीमित रहते हैं। सच भी तो है मंदिर के दूर से नजर आने वाले स्वर्ण शिखर के लिए आस्था से सिर झुकाते वक्त हमें नींव के पत्थरों का त्याग नजर नहीं आता।

स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा पद, प्रतिष्ठा की हमारी इस फलती-फूलती बेल को न जाने कितनी पतली लकडियों का सहारा मिला, यह हमें याद तक नहीं है। कभी जब हम कुछ फुरसत में आंखें बंद कर के फ्लैश बेक में जाएं, तो ऐसे कई चेहरे, कई प्रसंग याद आ जाएंगे और लगेगा यदि उस दिन उनकी सलाह, सहयोग, आर्थिक मदद नहीं मिली होती, तो वह काम हो ही नहीं पाता। अस्पताल में जब आप लंबे वक्त बिस्तर पर थे, किसी परिजन के ऑपरेशन के वक्त कौन सबसे पहले खून देने को तैयार हुआ था, आधी रात में किसने आपको अपने वाहन से स्टेशन, अस्पताल तक छोड़ा था। आपके अचानक बाहर जाने की स्थिति में बच्चों को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी किसने पूरी की। परीक्षा हाल में पड़ोस की टेबल वाले किस परीक्षार्थी ने पेन मुहैया कराया था, ऐसे कई अनाम सहयोगियों को तो हम याद रख ही नहीं पाते। ऐसे लोगों ने जब हमारी मदद की थी, तब उनकी यह अपेक्षा तो कतई नहीं थी कि आप धन्यवाद कह कर उनके सहयोग का कर्ज उतारें, लेकिन यदि आप यह अपेक्षा रखते हैं कि सहयोग के बदले आप पर धन्यवाद के फूल बरसें तो आप को भी अपने सहयोगियों के प्रति धन्यवाद वाला दायित्व तो निभाना ही चाहिए। नेकी करो भूल जाओ-यह कहना तभी ठीक लगता है, जब अपेक्षा दुख का कारण न बने। जिन अनाम-अंजान लोगों ने आपकी तरक्की में बिना किसी अपेक्षा के सहयोग किया, उनके अहसान को उतारने का एक आसान तरीका यह भी हो सकता है कि हम भी किसी मोड़ पर किसी के काम आ जाएं, फिर जब खाली वक्त में अच्छे कामों का हिसाब-किताब करेंगे, तो ऐसे ही काम याद आएंगे। दुयोüधन और धर्मराज कहीं स्वर्ग या महाभारत में नहीं हमारे मन में ही आसन जमाए बैठे हैं। अच्छे बुरे का हिसाब मन की किताब में ही दर्ज होता है। जीते जी इस किताब के पन्ने पलटने की आदल डाल लें तो हमें खुद ही पता चल जाएगा कि हमारी सीट स्वर्ग में रिजर्व हो सकती है या नहीं।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

एक दिन बच्चा बनकर तो देखें

हम बड़ी आसानी से कह तो देते हैं बच्चे भगवान का रूप हैं। इसका मतलब थोड़ा बहुत समझते भी हैं, लेकिन बड़े होने का गरूर हमें उस बचपन की ओर जाने से रोकता है। बड़ा होना जितना आसान है उससे अधिक कांटों भरा है बड़े होकर भी बच्चा बनना। किसी एक दिन बच्चा बनकर देखें तो सही आसपास सब अच्छा ही अच्छा लगेगा। बच्चा तो खिलौने की जिद करते रोते-रोते सो जाता है और हम बड़ों के पास सारे सुख-साधन होने के बाद भी कुछ घंटों की नींद के लिए ध्यान शिविर, योग-आसन और डॉक्टरों का परामर्श लेना पड़ता है।

ये छोटी सी कविता लिखी तो थी दस-बारह साल पहले लेकिन अब लगता है काश हम फिर बच्चे हो जाएं तो कितना अच्छा हो। कई लोगों की तरह मेरी भी आदत रही है कि चाहे दीपावली का संदेश हो या सुख-दुख, उल्लास के एसएमएस कुछ अलग हट कर भेजूं वरना तो इसकी टोपी उसके सिर यानी फारवर्ड करना तो बेहद आसान तरीका है ही। तब दीपावली बधाई संदेश के लिए जो पंçक्तयां लिखी वो चार लाइनें कुछ इस तरह थीं-

समझदार होने से तो, बचपन ही भला है

ना यहां बाबरी मस्जिद, ना रामलला है।

अब जब हम जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं बचपन को तरसते हैं और जब उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी जब बच्चों की तरह हो जाते हैं तब हमारे बच्चे कभी दया दिखाते हैं तो कभी हंसते हैं।

बचपन के दिन भी कितने प्यारे होते हैं यह हम तब समझ पाते हैं, जब हम उस उम्र को काफी पीछे छोड़ आते हैं। अब तो समझदारी का आलम यह है कि पूजा करते वक्त अगरबत्ती और दीपक भी जलाते हैं तो पर्याप्त सतर्कता रखते हैं और बचपन में जलते दीपक और चिमनी पर भी झपट्टा मार देते थे। तब मन में न आग का भय होता था न हाथ जलने का। अब दस बार सोचते, हजार बार मन ही मन लाभ-हानि का गुना भाग करते हैं, तब कहीं एक डेढ़ इंच ओठ फैला पाते हैं, चाहकर भी ठहाका इसलिए नहीं लगा पाते कि लोग क्या कहेंगे। एक वक्त वह था जब कोई तुतलाती जुबान में बोलता, ताली बजा कर गर्दन हिलाकर थोड़ा सा अपनापन दिखाता हम अपना है या पराया जाने-समझे बिना हम दिल दे चुके सनम जैसे हो जाते थे।

अब जब हम ही किसी से बिना मतलब के नहीं मिलते, चिट्ठी लिखना तो दूर जब तक मजबूरी न हो फोन तक नहीं करते, जब तक कंफर्म नहीं हो जाए कि अगला अब दुनिया से जाने को ही है। तब तक तबीयत पूछने का वक्त नहीं निकाल पाते तो किसी और से भी यह अपेक्षा करना ठीक नहीं कि वो हमारी चिंता पाले।

किसी से घुलते-मिलते भी हैं तो इस सतर्कता के साथ कि हमारा हमपना बरकरार रहे इसलिए 'मैं से मुक्त नहीं हो पाते, जैसे दूध में चाय की पत्ती जो घुलते ही अपना ऐसा असर दिखाती है कि दूध को चाय हो जाना पड़ता है। लेकिन दूसरों से हमारी अपेक्षा रहती है कि वो हम से मिले भी तो दूध में पानी की तरह यानी हम बनें रहें। पानी का तो गुण ही है जिसमें मिला दो वैसा हो जाए। त्याग की बात करें तो दूध में मिला हो या दाल में पहले पानी ही जलता है। बचपन भी तो पानी जैसा ही लगता है जो जैसा हंस-बोले उसके साथ उसी भाव से मिल गए ट्रेन-बस में सहयात्री की गोद में खेलता बच्चा भी तब आपकी बाहों में आने को मचल पड़ता है जब वह आपकी आंखों में निश्छल प्रेम की भाषा पढ़ लेता है। उस बच्चे के मन में मैल नहीं होता क्योंकि वह नासमझ है और हम समझदार! ऊपर से जितने उजले अंदर से उतने ही काले-कलूटे। मन पर ये भेद का रंग उसी दिन से चढ़ना शुरू हो जाता है, जब हम अक्षर ज्ञान सीखना शुरू कर देते हैं। बोलते तो ग गणेश का हैं लेकिन दिमाग की हालत गोबर से भी बदतर होती जाती है। गोबर तो फिर भी घर-आंगन शुद्ध रखता है, लेकिन दिमाग में भरा गोबर अपना अच्छा भी चाहेगा तो दूसरों के बुरे की कामना के साथ। हालत ये हो जाती है कि मंदिर में भी हम आंखें मूंदकर अपने लिए सब कुछ मांगने की प्रार्थना के साथ दुश्मनों के नाश की कामना करना नहीं भूलते। भला हो भगवान का जो सबके आवेदन तत्काल स्वीकृत नहीं करता। वरना तो पड़ोस के मंदिर में हमारे लिए प्रार्थना कर रहे हमारे प्रतिस्पर्धी की अर्जी का भी तुरंत निराकरण हो जाता।

क्या यही अच्छा हो कि सप्ताह में नहीं तो महीने या साल के किसी एक दिन हम फिर से बच्चा बनकर देखें। वैसे बच्चा बनने की कोशिश तो हम अक्सर करते रहते हैं, लेकिन वह भी फरेब ही होता है। रोते हुए बच्चे को चुप कराने या अपनी गोद में लेने के लिए हम बच्चों जैसा अभिनय करके उस नासमझ को भी छल-फरेब का गंडा ताबीज बांध देते हैं। फिर कभी जब वही बच्चा हमारे हाथ फैलाने, गोली-चाकलेट दिखाने पर गोद में आने की आतुरता दिखाकर तत्काल बाद खिलखिलाता हुआ वापस मां के कंधे से चिपट जाता है, तो हमारे मुंह से बरबस निकल जाता है-पहले से कितना चंट, कितना शैतान हो गया है।

उस मासूम का चंट होना तो हमारी समझ में आ जाता है, लेकिन उसकी निर्भय, निर्विकार, निर्विचार, निष्पक्ष बाल सुलभ हरकतों से कुछ सीखना नहीं चाहते। बच्चे को भगवान का रूप शायद इसीलिए कहा जाता है कि उसके मन में न तो किसी के प्रति द्वेष होता है ना पाप, जो उसे जोर से चिल्लाकर अचानक डरा और रुला देता है, उसी की गोद में हिचकियां लेता बच्चा गहरी नींद में सो भी जाता है। नींद से जागने पर उसे तो यह याद भी नहीं रहता कि किस ने फटकारा किस ने दुलारा था। हम है कि सोने से पहले अगले का प्लान बनाकर सोते हैं किस को कैसे निपटाना है। उठते हैं तो मान-अपमान की गठरियां सिर पर लादे रहते हैं। पता है कि परेशानियां किसी न किसी बीमारी का रूप लेकर हमारे साथ कदम ताल करती रहेंगी, मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ेंगी। फिर भी हम अपने ही घर के दुधमुंहे बच्चों के निष्कपट भाव को न तो समझ पाते हैं न ही बच्चों की तरह अपने में मस्त रहना। हम जिस दिन सीख लेंगे तब सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी, पता नहीं हम कब बच्चे बनेंगे।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 13 August 2009

गलती स्वीकारने का साहस भी दिखाइए

आप यदि अपना काम पूरी ईमानदारी से करने का दावा करते हैं तो फिर काम में होने वाली गलतियों को स्वीकारने का साहस भी होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। हम हमेशा यही चाहते हैं कि अपने मित्रों-सहकर्मियों के सहयोग से यदि कुछ बहुत अच्छा हुआ है तो उसका सारा श्रेय तो सिर्फ हमारे खाते में दर्ज हो और किए गए काम में चूक हो गई है,तो उसके लिए कोई दूसरा दोषी नजर आए! हमारा यह चरित्र हमें कुछ देर के लिए तो आत्म संतुष्टि दिला सकता है, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे काम का मूल्यांकन करने वालों को भी तो नजर और दिमाग दे रखा है प्रकृति ने।स्कूल के दिनों में आप-हम सब इस हकीकत से गुजरें भी हैं, उस बाल मनोविज्ञान को हम ताउम्र साथ लेकर चलते हैं। इस कारण ही कथनी और करनी में अंतर जैसी हालत कमोबेश सभी के साथ रहती है। स्कूल में दिए होमवर्क के कठिन सवालों को हम अपने दोस्तों या परिवार के बड़े सदस्यों की सहायता से हल कर लेते थे, कॉपी चेक कराते वक्त हमें गुरुजी शाबाशी भी देते थे, तब हमें अपने लोगों से ली गई सहायता याद नहीं आती थी और न ही सफलता में सहयोग करने वालों का नाम बता पाने की इच्छा होती थी। जब कभी होमवर्क में गलतियां रह जाती थी या दिया हुआ काम जानबूझकर नहीं करते थे, तब क्लास में फटकार, पिटाई से बचने के लिए एक से एक नायाब बहानों की झड़ी लगा देते थे। गुरुजी के गुस्से से मुçक्त मिलने पर मन ही मन अपने झूठ से मिली सफलता पर खुश भी हो जाते थे। ये भूल जाते थे कि क्लास टीचर वर्षों से ऐसी बहानेबाजी और इसके पीछे की हकीकत समझते आ रहे हैं। पढ़-लिखकर ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद अब जब अचानक गुरुजी किसी मोड़ पर मिल जाते हैं, तो हमारा मन श्रद्धा से भर जाता है, स्कूली यादों को शेयर करते वक्त हम उस समय की बहानेबाजी के पीछे का सच अपनी शैतानी गिनाते हुए गर्व से बयान कर देते हैं।
उम्र का अंतर आ गया है, पद-नाम बदल गया है, परिस्थितियां बदल गई हैं, लेकिन जोड़-तोड़ कर श्रेय लेने की होड़ और अपनी गलती किसी ओर पर थोपने के मामले में हम आज भी नहीं बदले हैं। मनोविज्ञान में फर्क आया है, तो बस इतना कि गलत के खिलाफ बोलने की अपेक्षा चुप रहना हमें ज्यादा आसान लगता है। अपने हित में गलत को सही कराने के लिए हमें गलत तरीके अपनाना भी बड़ा सहज लगता है। हमारे एक परिचित अधिकारी ने अपने विभाग के कर्मचारियों की कार्यशैली और मनज्स्थिति का एक रोचक किस्सा बताया तो मुझे लगा कि स्कूल से कॉलेज की पढ़ाई, डिग्री, ओहदे के बाद भी हम सब बच्चे ही बने हुए हैं। किस्सा कुछ ऐसा है कि उनके एक सहकर्मी से लापरवाही के कारण फाइल में एक त्रुटि रह गई, दूसरे सहकर्मी ने भी फाइल में हुई उस भूल पर गौर नहीं किया। तीसरे कर्मचारी के पास फाइल पहुंची वहां भी यहीं हाल था। चौथे, पांचवें कर्मचारी ने भी पूरी फाइल गौर से देखी, लेकिन बस वही भूल नजर नहीं आई। एक के बाद एक लापरवाही के इस सिलसिले के साथ वह फाइल ओके कर के भेज दी गई। कुछ समय बाद वह जो छोटी सी लापरवाही थी महाभूल बनकर सामने आ गई। कार्यालय के रिकॉर्ड में दर्ज इस ऐतिहासिक भूल की जांच-पड़ताल शुरू हुई तो संबंधित सारे कर्मचारी उस चूक को स्वीकारने की बजाए यह सफाई देते नजर आए कि हमने अपने स्तर पर तो पूरी निष्ठा और लग्न से काम किया, ये गलती मेरी नहीं उसकी है।
ऐसी स्थितियों से हम सब को भी गुजरना ही पड़ता है, लेकिन हम कितनी बार सच का सामना करने या सच कहने का साहस जुटा पाते हैं। निर्जीव दीवारों, कुर्सी, टेबल से कभी गलतियां हो ही नहीं सकती, जो काम करेगा गलती उससे ही होगी फिर गलती स्वीकारने का साहस क्यों नहीं दिखा पाते। सीमा पर तैनात जवान को तो पता होता है निशाने में जरा सी चूक उसकी जान भी ले सकती है, जब वह साहस के साथ दुश्मनों को ढेर करने में लापरवाही नहीं बरतता तो हम रोजमर्रा के काम में वह बात क्यों नहीं ला सकते। हम अपनी गलती छुपाने में माहिर हैं, तो क्या कोई और हमारी असलियत पकड़ने में उस्ताद नहीं हो सकता। जिस वक्त हम नजर से नजर मिला कर झूठ को सच की तरह बोलने का नाटक करते हैं, उस वक्त यह भूल जाते हैं कि इस नाटक का एक दर्शक हमारा मन भी है, जो झूठ पर डालने के लिए किए अभिनय की असलियत समझता है। रोजमर्रा की जिंदगी में यदि अपनी गलती छुपाने के लिए दूसरों को दोषी ठहराने के बाद भी आराम से नींद आ रही है, एक पल को भी बेचैनी नहीं रहती तो मान लेना चाहिए कि अभिभावकों और शिक्षकों ने बालपन में हमारे मन में अच्छे इंसान वाले संस्कारों का जो पौधा लगाया था वह सूख चुका है और उसकी जगह कैक्टस पनप गया है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

अनहोनी टालने जैसे इंतजामों की कमी है गोगामेड़ी मेले में

गोगामेड़ी मेला निर्विघ्न संपन्न हो जाए यह कामना गोगादेव से ही करनी चाहिए क्योंकि प्रशासन की गंभीरता तो नजर नहीं आ रही है। जिस तरह से बिजली, पानी, सफाई व सुरक्षा व्यवस्था को लेकर çढलाई बरती जा रही है, उससे तो यहां आने वाले श्रद्धालुओं का अनुभव अच्छा नहीं है। प्रशासन यह भूल रहा है कि ये लाखों श्रद्धालु सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी तैयार कर रहे हैं। छोटे से गांव गोगामेड़ी में कम से कम 70 हजार श्रद्धालु तो हर दिन रहते ही है। यह संख्या मेले की खास तिथियों पर डेढ़-दो लाख को पार कर जाएगी। अभी जिस तरह सारे देश में स्वाइन फ्लू का खतरा बढ़ता जा रहा है उस दृष्टि से यहां कोई एहतियात नहीं बरती जा रही है। गोगामेड़ी के लिए चल रही स्पेशन ट्रेन, बसों और निजी वाहनों से हजारों श्रद्धालु आस्था, विश्वास और श्रद्धा के साथ आ रहे हैं। स्थानीय सामाजिक संगठन इन श्रद्धालुओं की सेवा के साथ सांप्रदायिक सद्भाव के बंधनों को भी मजबूत कर रहे हैं। प्रशासन इन्हें सहयोग करने से क्यों कतरा रहा है, ये बात समझ से परे है।
रही बात जिला एवं पुलिस प्रशासन की तो मेले में भी पुलिसबल की सजगता कम ही नजर आ रही है। पार्किंग शुल्क के नाम पर मनमानी जैसी छोटी-मोटी अनदेखी किसी बड़े विवाद का रूप लेकर मेले की छवि बिगड़ने का कारण न बन जाए इसकी चिंता नजर नहीं आती। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद गहलोत सरकार के लिए राजस्थान और आसपास के राज्यों से आने वाले लाखों श्रद्धालुओं में अपनी संवेदनशील छवि दर्शाने का पहला अवसर है। श्रद्धालुओं को इससे कोई मतलब नहीं है कि मेले की व्यवस्थाओं की समीक्षा के लिए संभागीय आयुक्त और पुलिस महानिरीक्षक को गोगामेड़ी आने का वक्त क्यों नहीं मिल रहा। नवमी और दशमी को मेले में आस्था का सैलाब उमड़ेगा। शनिवार-रविवार का अवकाश होने से और अधिक दबाव रहेगा। उस दिन मंत्री या अन्य वीआइपी धोक लगाने आएं तो गोगामेड़ी में मेहरानगढ़ जैसी त्रासदी के हालात न बनें इस संदर्भ में अभी से सतर्कता बरतनी ही चाहिए। जोधपुर के देवी मेले में रही खामियां यहां किसी नए रूप में सामने न आए इसकी समीक्षा तो कम से कम अब तो कर ही लेनी चाहिए। क्योंकि नवमी-दशमी की तिथियां नजदीक ही है।
देश में पैर फैलाते जा रहे स्वाइन फ्लू को लेकर प्रधानमंत्री तो चिंतित हैं लेकिन इतने बड़े मेले में ऐसी कोई चिंता नजर नहीं आती जबकि आसपास के उन राज्यों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आ रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की तरह सफाई इंतजामों का भी बुरा हाल है। लाखों श्रद्धालु आएंगे तो नित्यकर्म भी करेंगे। यह अनिवार्य बातें प्रशासन को शायद पता नहीं है। हालत यह है कि रेल पटरियां, मेला क्षेत्र के खुले स्थानों पर गंदगी बढ़ती जा रही है। भीषण गर्मी, फैलती बदबू, सफाई का अभाव महामारी को निमंत्रण के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए।

Wednesday 5 August 2009

जरा नजरें नीचे तो झुकाइए

कई दुकानदारों से पूछा, नेट पर जानकारी ली, मित्रों से चर्चा कर ज्ञान बढ़ाया तब कहीं जाकर हमारे एक मित्र ने चार अंकों की राशि खर्च कर मोबाइल सेट खरीदा। जाहिर है उनके लिए अपना यह सेट सर्वश्रेष्ठ ही था, दिन-दिन बदलती टेक्नोलोजी के बाद भी उन्हें अपना सेट हर दृष्टि से उत्तम लग रहा था।

अभी जब फिर मुलाकात हुई तो उन्हें अपना मोबाइल घटिया लगने लगा था। एक के बाद एक कमियां गिना रहे थे, अफसोस भी कर रहे थे। ये मोबाइल लेकर बहुत बड़ी भूल कर दी। औने-पौने दाम में उसे बेचकर वह दूसरा सेट खरीदना चाहते थे। बातों-बातों में ही उनका दर्द सामने आ गया कि वैसे इस मोबाइल में बुराई तो नहीं है लेकिन उनके एक अन्य मित्र ने सात दिन पहले जो सेट खरीदा है वह सेट उन्हें अपने इस मोबाइल से ज्यादा बेहतर लग रहा है।

कुछ ऐसा ही हम सब के साथ अकसर होता ही रहता है। मनुष्य का मनोविज्ञान भी गजब है। गंदी बस्ती में नारकीय जीवन जीने वाला पक्के मकान का ख्वाब देखता है, पक्के मकान वाला इसलिए दुखी है कि सामने वाला आलीशान कोठी में रहता है। कोठी वाले को रात भर इसलिए नींद नहीं आती कि पड़ोसी के यहां तीन-चार महंगी गाडियां हैं और उनके पास एक माचिस की डिब्बीनुमा कार ही है।
अभी राखी के लिए आप-हम ने शॉपिंग की ही है । दस-बीस दुकानों में देखने के बाद बच्चों को शर्ट-जींस बड़ी मिन्नतों के बाद पसंद आया होगा। यही स्थिति साडियां खरीदते वक्त भी बनी होगी। दुकानदार साड़ी की खूबी गिनाएं उससे पहले 'होम मिनिस्टर' ने प्रिंट, कपड़े, डिजाइन को लेकर अपना सारा नॉलेज उड़ेलते हुए खामियां गिना दी होंगी। जो साड़ी पसंद आई, एक सप्ताह बाद उससे मन उचट जाएगा। कारण वही बच्चों को पड़ोसी के बच्चों के शर्ट-पेंट का लुक ज्यादा अच्छा लगेगा वही, हाल साड़ी के मामले में रहेगा। होटल में हम खाना खाने जाते हैं मेनू कार्ड देखते हैं, वेटर से भी हर डिश की जानकारी लेते हैं लेकिन ऑर्डर देते वक्त वह डिश जरूर शामिल करते हैं जो पड़ोस की टेबल पर सर्व की गई है।
मुझे तो लगता है तनाव जन्य जितनी भी बीमारियां-फिर चाहे वह डायबिटीज, बीपी, डिप्रेशन वगैरह-बढ़ रही हैं उसके अदृश्य कारणों में दूसरे का सुख देखकर दुखी रहना भी प्रमुख कारण है।
टीवी, नेट, मोबाइल, अखबारों के सूचना जंजाल ने ऐसा ताना-बाना खड़ा कर दिया है कि हमारे पास जो है वह हमें संतोष नहीं देता। जो नहीं है उसे पाने के लिए हम रेस के घोड़े की तरह दिन-रात दौड़ते रहते हैं। पड़ोस के घर में खनकती खुशी ने हमारा सुख-चैन छीन लिया है। होड़ की इस अंधी दौड़ ने पारिवारिक रिश्तों की मिठास को भी फीका कर दिया है।
कहावत तो यह है कि संतोषी सदा सुखी लेकिन अब तो 'दूसरा सुखी तो हम दुखी वाली' स्थिति हो गई है। टीवी पर जितने धारावाहिक चल रहे हैं, सामूहिक परिवारों वाले कथानक में जिस तरह भाई, भाई के खिलाफ षड्यंत्र रचता नजर आता है। किचन में जेठानी-देवरानी पकवान से ज्यादा एक-दूसरे के खिलाफ साजिश पकाती दिखती हैं, उस सबने हालत यह कर दी है कि हमारी कॉलोनी, मोहल्ले में एक छत के नीचे रहने वाले तीन भाइयों के परिवार की एकता पर खुशी से ज्यादा हमें इस बात का दुःख रहता है कि भाइयों में आपसी फूट, तकरार की स्थिति अब तक क्यों नहीं बनी। वो संतोषी हैं सुखी हैं, लेकिन पड़ोसी संतोषी माता का व्रत-पूजन करने के बाद भी दुखी है।
पड़ोसी की तरक्की, उसका सुख हमें रात-रात भर सोने नहीं देता। हम यह भूल जाते हैं कि ईश्वर की कृपा और अपने पुरुषार्थ से जितना कुछ हमारे पास है वह भी कम नहीं है। खिचड़ी और घी तो हमारी थाली में भी है पर क्या करें इस मन का इसे तो दूसरे की थाली में ही अधिक घी नजर आता है।
सारी परेशानी की जड़ ही यह है कि हमारी आदत ऊपर देखकर ही जीवन शैली निर्धारित करने की पड़ गई है। दूसरे की कमीज अधिक सफेद कैसे है, इस सोच में हम यह भूल जाते हैं कि हमारी कमीज भी मैली नहीं है। यदि पड़ोसी की तरक्की से इर्ष्या के पहले एक पल के लिए सोच लें कि जितना कुछ मेरे पास है उतना तो दूसरे के पास भी नहीं है तो झंझट ही खत्म हो जाए। नजरें ऊपर उठने की बजाय नीचे देखना भी सीख लें तो बात बन सकती है। किसी फिल्म का एक संवाद था, हर स्थिति में सही लगता है-जो किस्मत में है उसे कोई छीन नहीं सकता और जो नहीं है सिर पटककर भी मर जाएं नहीं मिलेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...