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Thursday 25 June 2009

पड़ोसी से पहले आप तो कुछ करें

हमारा पड़ोसी क्या कर रहा है यह देखना छोड़कर यदि हम यह तय कर लें कि हमें क्या करना है तो इसका असर काफी ज्यादा प्रभावी हो सकता है। कुछ ऐसी ही मानसिकता हमें किसी अच्छे काम की शुरुआत करते वक्त रखनी चाहिए तभी काम के दौरान आने वाली चुनौतियों और उससे बनने वाली हताशा की स्थिति का सामना करने की ताकत मिल सकती है। लेकिन उसकी शुरुआत पड़ोस के घर से पहले हो, फिर हम शुरू करेंगे यह स्थिति ठीक वैसी ही है कि देश में क्रांति तो होनी चाहिए लेकिन भगत सिंह पड़ोसी के यहां पैदा हो और आजादी में सांस लेने का सुकून हमें मिलता रहे। आप यह क्यों भूल जाते हैं कि आपके जैसी सोच आपके पड़ोसी की भी तो होगी। पहले आप, पहले आप लखनवी अंदाज में गाड़ी ही स्टेशन से चल दी और दोनों में से कोई चढ़ ही नहीं पाया। यदि आप समाज में रहते हुए समाज के लिए कुछ अच्छा करने की सोच रहे हैं तो यह तो भूल ही जाइए कि पड़ोस के लोग आपका उतने ही उत्साह से साथ देंगे। आप अपना काम करते रहिए आपके काम में दम होगा तो देरी से ही सही उसका असर बाकी लोगों पर होगा ही। बुजुर्ग कहते भी तो हैं पुण्य का पेड़ नजर नहीं आता लेकिन उसकी जड़ पाताल तक होती है। दूर क्यों जाएं दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से जब गोरी चमड़ी वालों ने मोहनदास कर्मचंद गांधी को बोगी से सामान सहित बाहर फेंका था तब किसे पता था कि इसी अकेले आदमी द्वारा शुरू किया गया संघर्ष पूरे देश को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट कर देगा और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता जैसी कहावत बेमानी हो जाएगी।
24 एफ ब्लाक निवासी और डाककर्मी एसपी भाटिया ने एक लंबा खत मुझे तब लिखा, जब नेट और एसएमएस के इस जमाने में पत्र लेखन को शहरी क्षेत्र में लगभग भुला सा दिया है। जागरूक पाठक भाटिया जी (9887319143) को इस पत्र लेखन की प्रेरणा गत सप्ताह क्वप्रायश्चित तो कर सकते हैं´ के विषय से मिली है। उनके इस पत्र की मूल भावना यह है कि उन्हें क्या करना है यह उन्होंने तय कर लिया है। आसपास के लोग तारीफ करें, आलोचना करें, साथ दें ना दें लेकिन उनका कार्य, उनका लक्ष्य स्पष्ट है जबकि आज हो रहा है इसके विपरीत । लक्ष्य पता नहीं है, कार्य की योजना तय नहीं है। कई लोग बस बे मतलब दौड़े जा रहे हैं। खेल हो, प्रतियोगी परीक्षा हो या जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने की तमन्ना हो, इच्छित कार्य में सफलता तभी मिल सकती है जब पहले से कार्य योजना बना रखी हो और लक्ष्य भी पता हो। गुरु द्रोण की परीक्षा में अर्जुन इसीलिए सफल हुए थे कि उन्हें अपना लक्ष्य स्पष्ट था। भाटिया जी जैसे व्यक्तियों की सोच होती है कि समाज में बदलाव से पहले खुद को बदलें। उन्होंने शपथ ली है कि रोजमर्रा के कार्यों में पोलीथीन की थैली का उपयोग नहीं करेंगे। प्रतिमाह कपड़े के पांच थैले बनाकर लोगों में बांटेंगे। साथ ही ऐसे ही थैलों के उपयोग का लोगों से निवेदन भी करेंगे। हर माह एक पेड़ किसी ऐसी जगह लगाएंगे जहां उसकी नियमित देखभाल भी कर सकें। मुझे लगता है कि समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए ऐसी ही सोच जरूरी है। समाज ने आपको नाम दिया, हैसियत दी और कुछ करने लायक बनाया है तो आपका ये दायित्व होना चाहिए कि समाज के इस कर्ज को चुकाने के लिए आप भी कुछ समाज को लौटाएं। फिर यह तो देखना और सोचना ही नहीं चाहिए कि हमारे पड़ोसी ऐसा कुछ कर रहे हैं या नहीं। जागरूक पाठक भाटिया जी के संकल्प से भले ही प्रेरित न हों लेकिन ऐसा कुछ संकल्प तो ले ही सकते हैं जो बाकी लोगों के लिए प्रेरणा का काम करे।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 17 June 2009

प्रायश्चित तो कर सकते हैं?

आप किसी भी शहर में जाएं, अपने शहर और अपने लोगों की शक्ल से मिलते-जुलते लोगों से सामना हो ही जाएगा। उस बेगाने में जब हम अपना खोजते हैं तो सहजता से गुण-दोष भी देखते चलते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। गत सप्ताह पंजाब, हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों की यात्रा की। इस दौरान रह-रहकर श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ याद आता रहा। श्रीगंगानगर से साथ चलने वाली नहरें पंजाब के रास्तों में भी साथ-साथ चल रही थी। मुझे वहां की नहरों के आसपास फैली हरियाली देखकर जलन होती रही। ठीक है वहां की नहरों का फैलाव नदियों की तरह हैं, लेकिन हमारे जिलों में नहरों जैसी नहर तो है ही। वहां दोनों किनारों पर घनी हरियाली में कई जगह धूप को अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए संघर्ष करते देखा। दूसरी तरफ हमारी नहरें दूर तक नंगे बदन, हरियाली की उतरन तक नजर नहीं आती उनके शरीर पर। पौधे एक दिन में पेड़ नहीं बन सकते, लेकिन पंजाब की नहरें जब हरियाली के बीच से अठखेलियां करते हुए हमारे जिलों तक आ सकती हैं, तो हम अपनी नहरों के किनारों को क्यों हरा भरा नहीं कर सकते। इन दोनों जिलों के नहरी विभाग में पदस्थ होने वाले अधिकारी जरूर हरे भरे होते रहते हैं, लेकिन नहरों के आसपास हरियाली के लिए नहीं सोचते और तो और यह चिंता भी कम ही पालते हैं कि जो पेड़ लगे थे, वहां अब ठूंठ क्यों नजर आते हैं। यहां के नहरी अधिकारी भी पंजाब आते-जाते रहते हैं। हमारी नहरों के आसपास ऐसी हरियाली क्यों नहीं हैं, जैसे प्रश्नों पर अपने परिवार के बाकी सदस्यों को कैसे संतुष्ट करते होंगे। अब तक जो भूल, अनदेखी होती रही उसके लिए कौन-कितना दोषी है, इस बहस में पड़ने से अच्छा तो यह होगा कि जिला प्रशासन, वन विभाग, नहरी विभाग, जनसंगठन और नहरों के आसपास के गांवों के लोग मिलकर युद्धस्तर पर पौधारोपण करके अपने पूर्ववर्तियों के पापों का प्रायश्चित तो कर ही सकते है। इसी यात्रा में पंजाब के आगे हिमाचल प्रदेश के शहरों में पोलीथीन पर पाबंदी के नियम का सस्ती से पालन भी देखा। सामान चाहे दस रुपए का लें या हजार का, जो मिलेगा कागज के लिफाफे में ही मिलेगा। पर्यावरण के प्रति जागरूकता का यह कानून लोगों के सहयोग से ही सफल हो रहा है। हमारे जिलों में पोलीथीन के खिलाफ अभियान तो कई बार चले, लेकिन स्थायी तौर पर कुछ नहीं हो पाया तो इसलिए कि लोग मन से तैयार नहीं हो पाए। यदि हम अपने घर से ही कपड़े का थैला लेकर जाएं तो पोलीथीन पर स्वतज् प्रतिबंध में सहयोग करने लगेंगे। राज्य सरकार कानून बनाए तो फिर जिला प्रशासन को पालन कराना ही होगा। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पर्यावरण सुधार की दिशा में जिला प्रशासन ही कुछ ऐसा करे कि राज्य में मिसाल कायम हो। खुली कचरा गाड़ी देखकर परिषद आयुक्त की खिंचाई करने से अच्छा है कि पोलीथीन विरोधी अभियान की कमान खुद प्रशासन अपने हाथ में ले।
अच्छी सड़क होने का दुर्भाग्य!
एक सप्ताह में श्योपुराकस्सी जैसे गांव में वाहन दुर्घटना में दो लोगों की मौत हो चुकी है। कारण वहीं है वाहनों की तेज रफ्तारराजस्थान सड़कों के मामले में बेहतर स्थिति में है और इन अच्छी सड़कों पर तेज गति से दौड़ते वाहन परिवार भी उजाड़ रहे हैं। वाहन अपना है तो जान भी तो अपनी ही है। श्रीगंगानगर हो या हनुमानगढ़ शायद ही कोई महीना ऐसा जाता हो जब इन अच्छी सड़कों से बुरी खबर न आती हो। तेज गति वाले वाहनों के साथ ही बिना रिफ्लेक्टर वाले ट्रक्टर, जुगाड़ भी दुर्घटना का कारण बन रहे हैं पता नहीं कब अभियान शुरू होगा ऐसे वाहनों के खिलाफ।
हरित श्रीगंगानगर भी हो
ऊहापोह तो खत्म हुई कि कौन आएगा राजीवसिंह की जगह। अब आशुतोष के हाथों जिले की कमान है। हरित राजस्थान की भावना से लबरेज कलेक्टर से यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि प्रदेश में सर्वाधिक पौधरोपण का सम्मान श्रीगंगानगर को मिले। यह पौधरोपण सिर्फ फाइलों में नहीं जिले में नजर भी आना चाहिए। अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Monday 15 June 2009

बूढ़ा पेड़ तो काट देंगे और बूढे़ मां-बाप का क्या करेंगे

बात बहुत छोटी सी है, लेकिन गहरी है और सीधे हमारी मानसिकता में आते जा रहे बदलाव की तरफ भी इशारा करती है। हुआ यूं कि कार्यालय के एक साथी को किसी जागरुक पाठक ने फोन पर सूचना दी कि पुरानी आबादी में एक मकान के आगे पार्किंग निर्माण में बाधा बन रहे एक पुराने झाड़ को कुछ लोग काटने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें रोकने की कोशिश की, तो वो लोग हमसे झगड़े और तर्क दिया कि अब पुराना हो जाने से झाड़ उतना हरा-भरा भी नहीं है। खैर, प्राप्त सूचना के आधार पर हमने संबंधित एजेंसियों को फोन किया और झाड़ काटने के प्रयास बंद हो गए, पार्किंग के लिए बरामदा भी निर्मित हो गया। उस वृक्ष के बूढे़ शरीर पर कुल्हाड़ी के घाव अब भी हरे हैं। एक तो वैसे ही हमारा जिला भीषण गर्मी के कारण राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों में भी बदनाम है। हालत यह है कि मेरे रिश्तेदार भी इसी गर्मी के कारण अभी तक यहां आने का साहस नहीं जुटा पाए हैं। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए कि पौधे लगाने के लिए खुद लोगों में भावना जागृत हो। अभी निर्जला एकादशी वाले दिन किसी संत महात्मा ने आह्वान नहीं किया, उसके बावजूद श्रीगंगानगर से लेकर हनुमानगढ़ तक के रास्ते, बाजारों, चौराहों पर लोग चिलचिलाती धूप की परवाह किए बिना बसों, कारों, दोपहिया वाहन चालकों को रुकने की मनुहार के साथ ही शरबत पिलाकर शाम तक पुण्य कमाते रहे। हमारे बुजुर्ग कहते हैं, धर्मग्रंथ साक्षी हैं और विज्ञान सिद्ध भी है कि पेड़ हमारे दोस्त व ही नहीं प्राण रक्षक भी हैं। एकांत में खड़े इमली के जिस घनेरे वृक्ष में हम टोटके वाले धागे, तंत्र-मंत्र वाली सामग्री बांध देते हैं। वहां भूत-चुडैल का डेरा है कह कर उस पेड़ को बदनाम करते हैं। इन सारी बुराइयों को गले लगाने के बाद भी वह पेड़ पत्थर मारने पर इमली ही देता है। फिर कोई पेड़ बूढ़ा होने पर बेकार कैसे हो सकता है। पेड़ से बड़ा बलिदानी कहां मिलेगा। आम का वृक्ष खुद आम नहीं खाता, कांटों की पीड़ा के बीच भी गुलाब हमारे लिए मुस्कुराता है। पीपल, बरगद की टहनियों-जटाओं पर उछलकूद करता बचपन देखते-देखते बड़ा हो जाता है। बचपन में जो पेड़ हमारा दोस्त होता है, हमारी समझ बढ़ने पर वहीं हमारे लिए बूढ़ा, बेकार, नाकारा हो जाता है। क्यों याद नहीं रहता कि यही नाकारा पेड़ हमारे साथ खुद को जला कर हमारी आत्मा को अमरत्व प्रदान करता है। जिन लोगों को पेड़ बूढ़ा और बेकार लग सकता है, उन्हें खांसते-कराहते रात काटवाने वाले अपने बुजुर्ग मां-बाप भी पेड़ की तरह बेकार या हेडेक ही लगते होंगे। अब तो गांवों तक भी यह हवा पहुंच गई है। कल तक जिस गाय के दूध-घी से हमारा घर चलता था, बैल-ऊंट वर्षभर की कमाई का सहारा होता था। वह बूढ़ा होते ही बेकार नजर आने लगता है। गांव के किस घर में बच्चा जन्मा, कहां नई बहू आई इसकी जानकारी जैसे अपने स्तर पर वृहन्नलाओं को लग जाती है, वैसे ही कसाइयों को पता चल जाता है किस घर में गाय-बैल बुढ़ा गए हैं। अच्छा है अभी थोड़ी लोकलाज बची है, वरना तो बूढे मवेशियों के साथ बेकार नजर आने वाले बुजुर्गों को भी हम बूचड़खाने का रास्ता दिखाने में न चूकें। वैसे भी शहरों में बढ़ते जा रहे वृद्धाश्रम बहू-बेटों के लिए राहत का रास्ता बनते ही जा रहे हैं।कहने को तो मरा हाथी भी सवा लाख का होता है, लेकिन बूढ़े पेड़, बूढे़ मवेशी और बूढ़े मां-बाप के लिए हमारा नजरिया क्यों नहीं बदलता। एक पेड़ जब आप लगा नहीं सकते तो अपने घर-बरामदे के विस्तार के लिए मोहल्ले के सैंकड़ों बच्चों के बचपन के साक्षी उस बूढे़ वृक्ष पर कुल्हाड़ी से घाव पहुंचाने का अधिकार कैसे मिल गया। मत लगाइए पेड़, लेकिन जो पेड़ आपके मोहल्ले, कॉलोनी में लगे हैं, कम से कम उन्हें सहेज कर तो रखिए। पड़ोसी के आंगन में लगे हर सिंगार के फूल जब आपके बरामदे में झरते हैं या उस कोने वाले मकान में लगे चंपा, रातरानी की खुशबू का झोंका जब बिना अनुमति के आपके घर में फैल जाता है, तब कितना मन खुश हो जाता है। कितने घमंड से कहते हैं, हमारे यहां तक आती है खुशबू। फल वाला नहीं तो छाया और खुशबू वाला एक पौधा आप भी तो लगाइए। सुबह आप जब घूमने जाते हैं, अपने ऑफिस, दुकान जाने के लिए जिस सड़क से आते-जाते हैं, उसके दानों किनारों पर खडे़ कुछ वृक्ष भी मौनी बाबा की तरह आपको देखते रहते हैं। उन पर आप भी नजर डालें और सोचें इन्हें भी तो किसी ने हमारे लिए लगाया था। फिर हम भी तो लगाएं किसी के नाम का एक पौधा। पौधा नहीं लगा सकते तो लगे हुए पेड़-पौधों को बचाने का ही पुण्य कमाएं।

Thursday 4 June 2009

चिट्ठी न लिख पाएं तो अपनों से बात तो कर ही लीजिए

मेरी कोशिश तो यही थी कि चेंज हुए मोबाइल नंबर की जानकारी एसएमएस के जरिए सभी मित्रों, परिचितों-रिश्तेदारों को तत्काल दे दूं। एसएमएस कर भी दिए लेकिन कुछ लोगों के फोन और उनकी नाराजगी ने मुझे विचलित कर दिया। ऐसा मेरे ही साथ नहीं कार्यालय के अन्य साथियों के साथ भी हुआ, जो नंबर हमारी फोन बुक में सेव थे, उन्हीं पर हमने नंबर चेंज होने की सूचना भेज दी।हमें यह पता ही नहीं था कि जिन्हें सूचना भेजी है, उनमें से कई लोगों के नंबर पहले ही चेंज हो गए हैं। अभी जब एसएमएस किए तो वह नंबर जिस अपरिचित को मोबाइल कंपनी ने अलॉट कर दिया था, उन्होंने बिन बुलाए मेहमान की तर्ज वाले एसएमएस को लेकर नाराजी जाहिर की।आप गलती में हों तो सामने वाले को नाराजगी के नाम पर चाहे जिस तरह की भाषा में बात करने का अधिकार स्वत: ही मिल जाता है। हमारा शब्दकोश असीमित शब्दों से भरा पड़ा है, गुस्सा व्यक्त करने के भी कई पर्यायवाची शब्द हैं पर क्या किया जाए उन लोगों का जो गुस्सा जाहिर करने का मतलब गालियों जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना ही मानते हैं। हम लोगों के लिए खेद व्यक्त करने के अलावा अन्य कोई रास्ता भी तो नहीं था।मोबाइल ने सारी दुनिया हमारी मुट्ठी में जरूर कर दी है लेकिन सब कुछ 'टेक एंड गिव' वाला भी कर दिया है। फोन बुक में यूं तो सैंकड़ों नंबर दर्ज रहते हैं, लेकिन हम उन गिने-चुने लोगों से ही बात करते हैं जिनसे हमें मतलब है। जमाना जब चिट्ठी का था तब झूठे ही सही इतना तो लिख ही देते थे, 'आपके आशीर्वाद से हम यहां राजी-खुशी हैं। ईश्वर की कृपा से आप भी प्रसन्न होंगे।' ढाई रुपए वाले अंतरदेशीय पत्र से तो मोबाइल कॉल दर सस्ती है, लेकिन फिर भी हम अपनों के हाल-चाल पूछने में कंजूस हैं। फोन बुक ने बचे-खुचे रिश्तों की गरमाहट भी खत्म कर दी है। पहले रिश्तेदारों के नाम के साथ घर के पते भी रटे होते थे, लेकिन अब नाम भी अंग्रेजी के पहले अक्षर से या सरनेम से तलाशने पड़ते हैं और जब दो रिश्तेदारों के नाम मिलते-जुलते हों तो खुद की अकल पर ही तरसआने लगता है।हम सब की फोन बुक में सैंकड़ों नाम-नंबर दर्ज हैं। कंपनियों में कॉल दर कम करने की होड़ सी मची रहती है। मोबाइल रखना हमारी अनिवार्यता में शामिल हो गया है, लेकिन स्वार्थी इतने हो गए हैं कि हमें अपने फोन पर घंटी सुनना ही ज्यादा अच्छा लगता है। कॉल करना भी पड़े तो पहले चिंतन करते हैं- बात करने में अपना क्या फायदा है, एक मिनट से पहले ही बात निपटा लेंगे। यह ठीक है कि फोन-मोबाइल पर देर तक बात करना भी नहीं चाहिए, लेकिन यह ठीक नहीं कि हम जिन सैंकड़ों लोगों को सुबह से रात तक सीने से लगाए घूमते हैं, उनसे भी मतलब पड़ने पर ही बात करें, जब हम ऐसा ही करेंगे तो हमें कैसे पता चलेगा कि कब, किसने नंबर चेंज कर लिया।मेरा भी दोष यही था कि मैने नंबर चेंज होने की सूचना भेजने में तो तत्परता दिखाई लेकिन यह सोचा ही नहीं कि क्या उन सारे अपनों में से कुछ पराए हो चुके हैं। सबक यह भी है कि जिन लोगों को आपने नंबर चेंज होने की सूचना भेजी, उन्होंने आपको तो इस लायक भी नहीं समझा कि अपने बदले नंबर की जानकारी दें।
कुछ अच्छा, कुछ बुरा
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय में राजीवसिंह ठाकुर की योग्यता का श्रीगंगानगर जिले को कुछ अतिरिक्त लाभ मिल सकता है, यह दिलासा तो मन को दिया ही जा सकता है। प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली जा रहे राजीवसिंह कम समय में जिले को समझ तो गए थे, लेकिन विधानसभा-लोकसभा चुनाव के चलते ज्यादा कुछ नहीं कर पाए थे और अब जब कुछ कर दिखाने का समय शुरू हुआ तो हुनर दिखाने के लिए सीपी जोशी ने बुला लिया। अब कौन यहां कब तक पदस्थ होगा, नए कलेक्टर को जिला व फाइलें समझने में टीम तैयार करने में भी कुछ वक्त लगेगा। जाहिर है इतने वक्त जिले के विकास की गति धीमी ही रहेगी।
शहादत एक गिलहरी की
पानी की टंकी साफ की जा रही थी, वाटर कूलर मशीन की भी साफ-सफाई की जा रही थी, कार्यरत कर्मचारी में से कुछ जी घबराने की शिकायत भी कर रहे थे और बाकी आपस में तय कर रहे थे कि अब तो परिंदों के लिए परिंडे रख ही देने चाहिए। यह सारे दृश्य हमारे परिचित मित्र के कार्यालय में नजर आए। उनके इस कार्यालय में छत पर बनी पानी की जिस टंकी से वाटर कूलर तक पानी सप्लाई होता था, उस टंकी में दो-तीन दिन पहले गिलहरी मर गई थी। जाहिर है वह भी प्यास बुझाने के लिए ही टंकी के अधखुले होल से अंदर गई थी। खैर टंकी की सफाई हो गई, फिर से वाटर कूलर भी शुरू हो गया। हमारे लिए सुकून की बात इतनी ही थी कि एक गिलहरी की शहादत के बाद बाकी परिंदों की प्यास बुझाने का इंतजाम वहां भी हो गया।
आलोचना हो गई, आदर्श दिखाएं
अरोड़वंशीय समाज के चुनाव का सिलसिला शुरू हो गया है। अभी लोकसभा चुनाव में पूरे देश में विभिन्न दलों ने एक-दूसरे के खिलाफ जो जहर उगला, उससे कहीं अधिक तो समाज के चुनाव से पहले उगला जा चुका है। अच्छा तो यह होगा कि अब एक-दूसरे की टोपी उछालने की अपेक्षा चुनाव इतनी शालीनता से लड़ा जाए कि समाज के बुजुर्गों को लगे कि बच्चे समझदार हो गए हैं। वैसे भी समझदारी इसी में है कि दूसरे के कार्यों की आलोचना का जवाब अच्छे कार्यों से अपनी लाइन लंबी खींचकर दिया जाए। आलोचना करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है इसे पचा पाना। समाजसेवा और सामाजिक राजनीति में सक्रिय रहने वालों को तो अपने विरोधियों तथा आलोचकों को ईश्वरप्रदत ऐसे उपहार की नजर से देखना चाहिए, जिनसे निरंतर अपने कार्य में सुधार की प्रेरणा मिलती रहती है।
आदेश बना अहं की दीवार
मामला तो एक महिला डाक्टर पर कार्रवाई का था लेकिन अब अहं पर बात अड़ गई है। समझदारी तो तब मानी जाए कि पहले लोगों की परेशानी देखी जाए वैसे दावा तो यही किया जा रहा है कि निलंबन लोगों की परेशानी देखते हुए ही किया है लेकिन यह बात किसी के गले नहीं उतर रही है। रावतसर स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर पदस्थ महिला डाक्टर रेखा गुप्ता ने अवकाश तो लिया था यात्रा पर जाने के लिए लेकिन निलंबन का कारण बना अवकाश पर होते हुए घर पर मरीज देखना।चिकित्सा सेवा से जुड़ा स्टाफ जिला प्रशासन के इस आदेश को बचकाना बता रहा है तो इसलिए कि अवकाश पर रहते हुए क्या करें, क्या न करें यह भी अब क्या जिला प्रशासन तय करेगा। रही बात मरीजों को घर पर देखने की तो इस समस्या से राहत के लिए अभियान ही चलाना चाहिए। अभी हनुमानगढ़ में हो यह रहा है कि अभियान का फुग्गा फुलाया तो जाता है लेकिन उसकी हवा कब निकल जाती है पता ही नहीं चलता।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...