शब्द और अंकों में कितना फर्क है इसका गहराई से अनुभव हाल ही में हुआ जब हिसाब-किताब में उलझना पड़ा। किसी को सम्मानित करना हो, उसके कार्य की प्रशंसा करनी हो तो लंबी चौड़ी बात की अपेक्षा काम करने के मामले में नंबर वन कहने से ही काम चल जाता है और सारी कमियां गिनानी हों तो बिल्कुल जीरो है कह कर भी राहत पाई जा सकती है। वैसे शून्य होना कितना पीड़ादायी है, कोई इस अकेले जीरो से पूछे इसमें असुरक्षा का भाव भी इतना ज्यादा कि अंकों की भीड़ में अकेला रह ही नहीं सकता। पहली फिल्म से ही कोई दर्शकों का दिल जीत ले तो वह जीरो से हीरो हो जाता है, लेकिन जब आप बडे तीसमार खां कहलाने के बाद भी अपने साथ वालों का विश्वास नहीं जीत पाते तो ऐसे हीरो की असलियत भी जीरो ही होती है। अकेला एक अकड़कर खड़ा रहे तो अन्त तक अकेला ही रहता है, उसे पता होता है, एक से एक जुड़कर ही दो या ग्यारह हो सकते हैं। अकेले एक बने रहना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है, इसके लिए कितना संघर्ष करना होता है, यह नंबर एक पर रहने वालों को देखकर ही समझा जा सकता है। एक नंबर यह भी सिखाता है कि हम अनेक होकर भी एक हो सकते हैं। लेकिन इस अकेले एक को भी जीरो की मदद बिना पूर्णता नहीं मिल पाती या कहें कि एक-दूसरे के मान-सम्मान में वृद्धि के लिए दोनों में आपसी समझ बनी होती है। नौ में एक जुड़ते ही शून्य दस में बदल जाता है। निन्यानवे में एक जुड़ते ही दो जीरो सौ होने का मान बढ़ा देते हैं और कभी एक हजार के आगे शून्य तो दूर छोटा सा पॉइंट (दशमलव) लग जाए तो हजार होने के गुरूर पर पानी फिर जाता है। शब्द की तरह अंक भी हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। एक से दस के अंकों में अरब-खरब छुपे हैं, लेकिन इन अंकों में अपने एक, दो, तीन होने पर न तो हीन भावना न ही जीरो में अरब-खरब की क्षमता वाला घमण्ड नज़र आता है। मुझे लगता है हम सब एक की तरह अपनी अकड़ में रहने से मुक्त हो नहीं पाते, इसलिए जीरो जैसी महानता का मर्म भी नहीं समझ पाते। हम दोस्त तो जीरो जैसा चाहते हैं जो अपने सुख-दुख भुलाकर हमारा मान बढ़ाता रहे, जो मिले मुझे ही मिले। हम बाकी लोगों के लिए एक से अनेक होना नहीं चाहते। हम अपने लिए तो हमेशा दो का भाव रखते हैं, लेकिन जब लोग हमसे सात की अपेक्षा रखते हैं, तब साथ देने के बदले हम नो की मुद्रा में आ जाते हैं। नौ को हम नो (इंकार) की तरह अपना लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि एक से आठ तक का कड़ा संघर्ष करने के बाद ही नौ पहुंच पाता है दस की सीढ़ी पर। ये सारे अंक जानते हैं कि एक-दूसरे के साथ, सहयोग, समर्पण भाव से ही सफलता के शिखर तक पहुंचा जा सकता है। दस की गिनती हम सबने सीखी तो बचपन में ही है, तब गुरुजनों ने अंकों की इस एकजुटता का रहस्य बताया भी हो तो हमें याद नहीं। क्योंकि वह वक्त रटने का था।वैसे अंकों के इस गणित को जीवन में उतारने के लिए जितना भी समय मिले उसी में हमें सन्तोष करना चाहिए। कालिख का एक जरा सा छींटा सफेद कागज पर अलग से ही नज़र आ जाता है। इसे हम समझते तो हैं लेकिन अंजाने में ही अपने जीवन की इस गिनती में कितने दशमलव लगाते रहते हैं हमें ही पता नहीं होता। जीवन भर हम नंबर वन के लिए दौड़ते हैं, कुछ सफल होते भी हैं, तो अहं की चिकनाई के कारण लंबे समय खडे नहीं रह पाते। एक न बन पाने की सत्यता समझ आने के बाद भी हम अन्य किसी के लिए सहयोगी नहीं बनते। यदि हमारा शून्य की तरह स्वभाव हो जाए तो न सुखी होने पर दंभ होगा न मुसीबतों में घिरे रहने का मलाल कितना दुर्भाग्य जुड़ा है हम सब के साथ, बचपन में जोड़-घटाव सीख तो लिया लेकिन समझ नहीं पाए और एक, दो, नौ से शून्य का अर्थ समझने की उम्र में पहुंचते-पहुंचते हम में से ज्यादातर की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है। दस...नौ...तीन...दो...एक...
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...