पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday 28 January 2010

एक न बन पाएं तो जीरो हो जाएं

शब्द और अंकों में कितना फर्क है इसका गहराई से अनुभव हाल ही में हुआ जब हिसाब-किताब में उलझना पड़ा। किसी को सम्मानित करना हो, उसके कार्य की प्रशंसा करनी हो तो लंबी चौड़ी बात की अपेक्षा काम करने के मामले में नंबर वन कहने से ही काम चल जाता है और सारी कमियां गिनानी हों तो बिल्कुल जीरो है कह कर भी राहत पाई जा सकती है। वैसे शून्य होना कितना पीड़ादायी है, कोई इस अकेले जीरो से पूछे इसमें असुरक्षा का भाव भी इतना ज्यादा कि अंकों की भीड़ में अकेला रह ही नहीं सकता। पहली फिल्म से ही कोई दर्शकों का दिल जीत ले तो वह जीरो से हीरो हो जाता है, लेकिन जब आप बडे तीसमार खां कहलाने के बाद भी अपने साथ वालों का विश्वास नहीं जीत पाते तो ऐसे हीरो की असलियत भी जीरो ही होती है। अकेला एक अकड़कर खड़ा रहे तो अन्त तक अकेला ही रहता है, उसे पता होता है, एक से एक जुड़कर ही दो या ग्यारह हो सकते हैं। अकेले एक बने रहना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है, इसके लिए कितना संघर्ष करना होता है, यह नंबर एक पर रहने वालों को देखकर ही समझा जा सकता है। एक नंबर यह भी सिखाता है कि हम अनेक होकर भी एक हो सकते हैं। लेकिन इस अकेले एक को भी जीरो की मदद बिना पूर्णता नहीं मिल पाती या कहें कि एक-दूसरे के मान-सम्मान में वृद्धि के लिए दोनों में आपसी समझ बनी होती है। नौ में एक जुड़ते ही शून्य दस में बदल जाता है। निन्यानवे में एक जुड़ते ही दो जीरो सौ होने का मान बढ़ा देते हैं और कभी एक हजार के आगे शून्य तो दूर छोटा सा पॉइंट (दशमलव) लग जाए तो हजार होने के गुरूर पर पानी फिर जाता है। शब्द की तरह अंक भी हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। एक से दस के अंकों में अरब-खरब छुपे हैं, लेकिन इन अंकों में अपने एक, दो, तीन होने पर न तो हीन भावना न ही जीरो में अरब-खरब की क्षमता वाला घमण्ड नज़र आता है। मुझे लगता है हम सब एक की तरह अपनी अकड़ में रहने से मुक्त हो नहीं पाते, इसलिए जीरो जैसी महानता का मर्म भी नहीं समझ पाते। हम दोस्त तो जीरो जैसा चाहते हैं जो अपने सुख-दुख भुलाकर हमारा मान बढ़ाता रहे, जो मिले मुझे ही मिले। हम बाकी लोगों के लिए एक से अनेक होना नहीं चाहते। हम अपने लिए तो हमेशा दो का भाव रखते हैं, लेकिन जब लोग हमसे सात की अपेक्षा रखते हैं, तब साथ देने के बदले हम नो की मुद्रा में आ जाते हैं। नौ को हम नो (इंकार) की तरह अपना लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि एक से आठ तक का कड़ा संघर्ष करने के बाद ही नौ पहुंच पाता है दस की सीढ़ी पर। ये सारे अंक जानते हैं कि एक-दूसरे के साथ, सहयोग, समर्पण भाव से ही सफलता के शिखर तक पहुंचा जा सकता है। दस की गिनती हम सबने सीखी तो बचपन में ही है, तब गुरुजनों ने अंकों की इस एकजुटता का रहस्य बताया भी हो तो हमें याद नहीं। क्योंकि वह वक्त रटने का था।वैसे अंकों के इस गणित को जीवन में उतारने के लिए जितना भी समय मिले उसी में हमें सन्तोष करना चाहिए। कालिख का एक जरा सा छींटा सफेद कागज पर अलग से ही नज़र आ जाता है। इसे हम समझते तो हैं लेकिन अंजाने में ही अपने जीवन की इस गिनती में कितने दशमलव लगाते रहते हैं हमें ही पता नहीं होता। जीवन भर हम नंबर वन के लिए दौड़ते हैं, कुछ सफल होते भी हैं, तो अहं की चिकनाई के कारण लंबे समय खडे नहीं रह पाते। एक न बन पाने की सत्यता समझ आने के बाद भी हम अन्य किसी के लिए सहयोगी नहीं बनते। यदि हमारा शून्य की तरह स्वभाव हो जाए तो न सुखी होने पर दंभ होगा न मुसीबतों में घिरे रहने का मलाल कितना दुर्भाग्य जुड़ा है हम सब के साथ, बचपन में जोड़-घटाव सीख तो लिया लेकिन समझ नहीं पाए और एक, दो, नौ से शून्य का अर्थ समझने की उम्र में पहुंचते-पहुंचते हम में से ज्यादातर की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है। दस...नौ...तीन...दो...एक...

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 21 January 2010

छोटे होकर तो देखिए बहुत बड़े हो जाएंगे

बड़े लोगो का अपनों से छोटों, सहकर्मियों के प्रति विन्रम व्यवहार हम देखते तो हैं लेकिन कई लोगों को यह नाटक लगता है। कभी सम्बंधित लोगों से बात करें तो पता चलेगा वे इस विनम्रता के बदले कितना सम्मान देते हैं। किसी दिन अपने कार्य-व्यवहार में हम भी छोटे होने का प्रयोग करके देखें तो सही, हम सच में अपनों की नज़र में बड़े हो जाएंगे। याद रखें प्रकृति ने बरगद को अन्य वृक्षों के मुकाबले बड़े होने की सुविधा दी है लेकिन यह दुर्भाग्य भी उसी के साथ जोड़ दिया है कि छोटे पौधे उसके नीचे नहीं पनपते जबकि कडुवे नीम को कार्य व्यवहार में प्रणरक्षक का सम्मान मिला हुआ है। छोटे पौधे, तेजी से पनपने वाली बेल सहारा पाकर नीम से ऊंची निकल जाएं तो भी उसका प्राणवायु वाला व्यवहार नहीं बदलता। तय हमें करना है बरगद बनें या नीम। एक निजी संस्थान में शाखा प्रबंधक स्तर के एक अधिकारी से मुलाकात के लिए सुबह पहुंचा तो मुझे एक रोचक अनुभव हुआ। कुछ पल बैठने का इशारा करके वे विभाग के अन्य वरिष्ठ-कनिष्ठ साथियों से रामा-श्यामा करने लगे। लगभग हर सहकर्मी के पास जाकर उन्होंने मुस्कुराते हुए गुडमोरिंग की, सहकर्मी ने और अधिक प्रसन्नता दर्शाते हुए जवाब दिया।पांच-सात मिनट में वे अपने सभी सहकर्मियों से मिलकर लौट आए और बोले आज का दिन भी अच्छा ही गुजरेगा। मेरे चेहरे पर क्यों के भाव देखकर उन्होंने स्पष्ट किया कि यह उनका रोज का नियम है। सबके पास जाकर गुडमोरिंग करते हुए मिलते हैं। सुबह की यह हंसी शाम तक पॉजिटिव एनर्जी का काम करती है। अगली सुबह फिर गुडमोरिंग से बैटरी रिचार्ज कर लेते हैं।अमूमन कार्यालयों में आठ घंटों की वोर्किंग तो होती ही है और पॉजिटिव एनर्जी में इस तरह की किसी पहल में दस मिनट भी नहीं लगते, लेकिन कार्यालयों, फ्रेण्ड सर्कल या परिवार में कितने लोग पॉजिटिव एनर्जी बनाने में सहयोग करते हैं? जबकि यह एनर्जी जुटाने के लिए पॉवर कट जैसी समस्या से भी नहीं जूझना पड़ता।मेरा मानना है बड़ा होना या बड़े पद पर बैठना आसान है लेकिन उस बड़े पद की गरिमा के मुताबिक काम करना ज्यादा चुनौतिपूर्ण है। शासकीय कार्यालयों में तो वरिष्ठ अधिकारियों के दो-तीन साल में ट्रांसफर होते ही रहते हैं। शासकीय कार्यालयों में तो पूर्व में कौन-कौन अधिकारी पदस्थ रहे बोर्ड पर सभी के नाम भी लिखे होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि ढेरों नामों की सूची में गिने-चुने अधिकारियों के नाम ही विभागीय कर्मचारियों या शहर के लोगों को याद रहते हैं? बड़ी कुçर्सयों पर बैठने वाले कितने लोग अपने से छोटे लोगों का दिल जीत पाते हैं? खुद बॉस टेबल टू टेबल जाकर अपने मातहत साथियों से गुडमोरिंग नहीं भी करें तो बॉस या स्टॉफ की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, फिर कुछ ही लोग क्यों ऐसे होते हैं! शायद इसीलिए कि याद रखने योग्य भी तो कम ही लोग होते है!दस लाख की गाड़ी खरीदने वाला तो इस हकीकत को जानता है कि जब अचानक बीच रास्ते में गाड़ी रुक जाएगी तो धत लगाने के लिए ठेला धकाने, पंचर पकाने वाले का भी सहयोग लेना पड़ सकता है। अचानक नहर-तालाब फूटने के हालात बनने पर रेत का एक कण हमें अनुपयोगी लग सकता है लेकिन इन्हीं सारे रेतकणों वाली बोरियां तबाही मचाने को आतुर पानी को कुछ देर में असहाय कर देती हैं।काम बड़ा हो या छोटा सिर्फ बोलते रहने से ही हो जाए तो सारे लोग घरों में रट्टू तोते ही न पाल लें! कोई भी काम को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए सामूहिक सहयोग जरूरी होता है और यह टीम वर्क से ही सम्भव होता है। मैच जीतने पर कप्तान को ट्रॉफी, युद्ध जीतने पर सेनाध्यक्ष की पीठ जरूर थपथपाई जाती है लेकिन इन सभी को पता रहता है बिना टीम एफर्ट के जीत सम्भव नहीं थी। जब आपसी समझ ही नहीं बन पाएगी तो साथ काम करते हुए भी कोई क्यों एक-दूसरे को सहयोग करेगा। बड़े पद वाले यदि अपनी कुर्सी, मोटी तन्खवाह के अहं से घिरे रहेंगे तो नुकसान उन्हीं का होना है क्योंकि छोटे लोगों का प्रतिशत घर-कार्यालय में अधिक होता है।मुझे तो लगता है बड़े पदों वाले अपने कार्य-व्यवहार से जितने छोटे हो जाएं अपने कार्यक्षेत्र में उतने ही बड़े हो सकते हैं। खजूर और बरगद की तरह बड़ा होना किसी काम का नहीं क्योंकि न तो किसी को छांव मिल पाती है और न ही बाकी पौधे पनप पाते हैं। वैसे अब तो बरगद का दंभ भी टूटने लगा है। कई घरों में बोंसाई बरगद छोटे से गमले में देखा जा सकता है। बोंसाई बरगद, उन घरों-कार्यालयों में जरूर होने चाहिए जहां ओहदे, तनखवाह, संपन्नता की धुंध, भीषण गर्मी में भी नहीं छंट पाती। छोटे बनकर हम और बड़े हो सकते हैं यह सूत्र याद रखलें तो घर-बाहर, हमारे व्यवहार में जो बदलाव आएगा निश्चित ही वह पॉजिटिव एनर्जी ही बढ़ाएगा।

Friday 15 January 2010

पिछली बार कब मुस्कुराए थे?

ऐसा क्यों है कि हममें से ज्यादातर को दिल दुखाने वाली यादों के रूप में ही बीता कल याद रहता है। ऐसा भी नहीं कि हमारे साथ कुछ अच्छा हुआ ही न हो। हम हैं कि दिल में लगी चोट वाले किस्से तो सीने से लगाकर रखते हैं, लेकिन होठों पर मुस्कान लाने वाली बातें या तो याद नहीं आती या चीनी के बढ़ते दाम के कारण संबंधों की चाशनी से भी मिठास वाला चिपचिपापन ख़त्म होता जा रहा है।कितना अजीब लगता है हमारे किसी नजदीकी रिश्तेदार, दोस्त की कड़वी बात तो हमें बरसों बाद भी याद रहती है लेकिन पारिवारिक प्रसंगों में उन्हीं सारे रिश्तेदारों की हंसी मजाक बहुत जल्द याद नहीं आती। और याद करते वक्त भी पहले यह देख लेते हैं कि उससे किस्से में महानायक हम ही हों।कहीं ऐसा तो नहीं कि हम खुद मुस्कुराना, ठहाका लगाना भूलते जा रहे हैं, इसीलिए या तो दूसरों को भी मुस्कान की बजाय तनाव देने में व्यस्त हैं या फिर हंसते-ठहाके लगाते लोग हमें कम पसंद आते हैं।एक दिन में हम दिल खोलकर एक बार भी नहीं हंस पाते और तो और बे-आवाज मुस्कुराना भी भूलते जा रहे हैं या यह भय सताने लगता है कि मुस्कुराने की जानकारी आसपास वालों को लग जाएगी तो समाज में हमारी इज्जत घट जाएगी।जरा याद तो कीजिए पिछली बार कब ठहाका लगाया था, एक सप्ताह में कितनी बार मुस्कुराए? नए साल में अच्छे-बुरे का हिसाब रखने में डायरी बहुत जल्द भर जाएगी। एक महीने यही प्रयोग कर लें कि एक दिन में कितनी बार मुस्कुराए, कितनी बार नाराज हुए। मुझे लगता है कि बहुत कम के खाते-बही में मुस्कुराहट के आंकड़े बढ़ेंगे।पहले तो अच्छे प्रसंग, पीड़ादायी प्रसंग पर अपनों से फोन पर बात भी कर लेते थे अब तो ये अपनापन भी मुफ्त की एसएमएस सर्विस में सिमट कर रह गया है। कई बार व्यस्तता, याद न रख पाने की कमजोरी, किसी पुरानी घटना की टीस, मैं ही क्यों फोन लगाऊं- जैसे थोथे अहं के कारण हम संबंधों की डोरी इतनी खींच देते हैं कि टूटने पर यह भी तय नहीं कर पाते कि किसने ज्यादा जोर से खींचा था इसे। संबंधों की डोरी में लचीलापन रहे तो ही मुस्कान और नाराजी का दैनिक हिसाब-किताब भी संतोषजनक रहेगा। हमारा परिवारं, 'मेरा परिवारं और अब हम 'मैं के दायरे में सिमट गए हैं। यानी अपनी खुशी के लिए मैं दूसरे का दर्द देखना ही नहीं चाहता, जबकि पचास रुपए के गुलदस्ते से ज्यादा खुशी तो हम किसी को एक हल्की सी मुस्कान से दे सकते हैं।मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों ने मुफ्त बातचीत जैसी सुविधा भी दे रखी है फिर भी हम इगो के इस कोहरे से बाहर नहीं आ पा रहे हैं कि 'मैं पहले फोन क्यों करूं? एसएमएस से जोक सेंड करने में तो हम उदार हो गए हैं, हमें भी खूब एसएमएस मिलते हैं। जब हमारे होठों पर मुस्कान नहीं आती तो कैसे मान लें कि बाकी लोग भी ठहाके लगाते होंगे। यह तो वैसा ही हुआ कि किसी भूखे को क्वरोटीं लिखा कागज थमा दिया जाए। बाकी लोगों को नाराज होते रहने दीजिए, हम तो मुस्कुराना सीख लें। दिखावा और होड़ करनी ही है तो मुस्कुराहट बिखेरने में कीजिए, क्योंकि गाड़ी-कोठी के मामले में तो हर आदमी दूसरे के सामने बौना हो ही जाता है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 7 January 2010

आप भी टोकिए तो सही किसी का भला ही होगा

हाथ में एक्सरे रिपोर्ट, चेहरे पर चिंता की लकीरें लिए अस्पताल से बाहर निकल रहे एक मित्र को देखकर मैं ठिठक गया। लगा कि कुछ गड़बड़ है। मैंने पास जाकर पूछा। उन्होंने लापरवाही वाले अंदाज में कहा-मुंह और गले में कुछ छाले हो गए हैं, चैक कराने आया था, डॉक्टर का कहना है गुटका तंबाकू बंद कर दो।
मैंने भी जब डॉक्टर की बात मानने की सलाह दी, तो उनका जवाब संता-बंता के किसी जोक के जैसा ही था। बड़ी शान से कहने लगे-अरे भाई पहले दिन भर में एक डिब्बा जर्दा-पान मसाला खा जाता था। काफी कम कर दिया है अब 20-25 पाउच हो गए हैं। अब एक-दम तो बंद कैसे करूं?
साथ खड़ी उनकी पत्नी दुखी हो रही थीं, बिलकुल कम मिर्च का खना भी इन्हें तीख लगता है। पूरा मुंह भी नहीं खुल पाता। बेवजह मुझ पर, बच्चों पर गुस्सा करते रहते हैं। पूरे महीने भर से पीछे पड़ी थी। आज आए हैं जांच कराने। जेबों में अभी भी पाउच भर रखे हैं
मित्र ने पहले बुराई को गले लगाया और अब वह गले का हार बन गई। डॉक्टर ने जो संकेत दिए, उससे दोस्त को समझ तो आ गया है कि बार-बार होने वाले छाले मुंह के कैंसर में तब्दील हो रहे हैं। शायद इस कड़वी सच्चाई को सुन पाने से बचने के लिए ही वे लंबे समय से चैकअप को टाल रहे थे।
खाते-पीते परिवार के कई लोगों को ऐसे शौक हों तो समझ आता है कि वे बीमारी के उपचार का खर्च उठाने में सक्षम हैं, लेकिन यह तो याद रखना ही चाहिए कि बीमारी गले का हार बन जाए, तो अपने लोगों की सहानुभूति भी तभी तक रहती है, जब तक खुद आप के हाथ-पैर चल रहे हैं या लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
हमारे आस-पास ही ऐसे किस्से बिखरे पड़े हैं, जब बाथरूम में पैर फिसलने या ब्रेन हेमरेज हो जाने के बाद मरीज की तीमारदारी परिवार के सदस्यों को बोझ लगने लगती है। मरीज की सेवा करते-करते पूरा परिवार मानसिक रूप से बीमार हो जाता है, तब ये ही परिजन ईश्वर से प्रार्थना करने लगते हैं कि हमारे इस प्रिय सदस्य को जल्दी से जल्दी अपने पास बुला लो। अभी हम इतने निर्दयी भी नहीं हुए हैं कि जीवन रक्षक दवाई के बदले मरणासन्न परिजन को पीड़ादायी जिंदगी से मुक्ति के लिए सेल्फॉस घोलकर पिला दें।
ऐसे प्रसंगों से हम सब का जब सामना होता है, तो बड़ी सहजता से शब्द निकल पड़ते हैं-जैसी ईश्वर की मर्जी होगी। अचानक हुई दुर्घटना में गंभीर मरीज के प्रति तो फिर भी दयाभाव रखा जा सकता है, क्योंकि वह खुद घटना के लिए जिम्मेदार नहीं होता, लेकिन तंबाकू चबाना, धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जैसी चेतावनी साफ लिखी होने के बाद भी जो आंख मूंद कर दिन भर में एक डिब्बा साफ करने या दस-बीस पैकेट सिगरेट फूंकने की शान बघारे, उसके लिए क्यों दयाभाव रखा जाए। ऐसा भी नहीं कि ऐसी बुराइयों को अपनाने वालों को अपने भविष्य, परिवार की याद नहीं रहती। वैसे तो नेत्र ज्योति नहीं होने पर सूरदास कहते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को तो आंख के अंधे कहने में भी हर्ज नहीं। पेट के कीड़े मारने के लिए मच्छर-कॉकरोच मारने वाला हिट प्याले में डालकर नहीं पीते इसका मतलब इन में अक्ल भी भरपूर है।
ऐसे लोगों पर तब और ज्यादा तरस आता है जब अपने बच्चों से पाउच, सिगरेट, सोडा-शराब मंगवाना अपना अधिकार मान लेते हैं। रोज-रोज की किच-किच के बाद भी अनसुनी करने वालों का सामाजिक बहिष्कार संभव न हो तो घरेलु बहिष्कार तो किया ही जा सकता है। पति की लंबी उम्र के लिए भूखे-प्यारे रहकर करवा चौथ का व्रत करने की अपेक्षा पतियों को ही कुछ दिनों तक व्रत के सत नियमों का पालना कराना चाहिए। शायद तभी बिगडैल पतियों, बेटों, भाइयों को समझ आए कि यह घरेलू बहिष्कार भी उनकी लंबी उम्र के लिए ही किया जा रहा है।
अच्छे दोस्त होने का भी हम तभी दावा कर सकते हैं जब ऐसी किसी बुराई से घिरे अपने दोस्त को बचाएं। बार-बार टोकें, सार्वजनिक रूप से टोकें, उसके परिजनों को भी असलियत बताएं। फिर भी दोस्त नहीं बदले तो हम तो अपना रास्ता बदलने के लिए स्वतंत्र हैं ही।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...