पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 29 July 2009

आप का भी इंतजार कर रहा है वक्त

वक्त किसी का इंतजार नहीं करता यह कहना आसान लगता है लेकिन क्या हम खुद इसका पालन गंभीरता से कर पाते हैं? यदि कर पाते तो इस वक्त की कीमत भी पहचान लेते। हमारे बुजुर्ग सूर्य के तेवर और परछाई से समय का अंदाज लगा लेते थे और आज कलाई से लेकर जेब में रखे मोबाइल तक में पल-पल भागते समय की याद दिलाती घडिया मौजूद हैं लेकिन हम वक्त के प्रति कम लापरवाह नहीं हैं। हम यह भूल जाते हैं कि वक्त को हमारी जरूरत नहीं है बल्कि हमें वक्त की जरूरत है। वक्त को नजरअंदाज करते वक्त हम यह भी भूल जाते हैं कि एक वक्त वह भी आ सकता है जब खुद वक्त हमें नजर अंदाज कर देगा।

अपने बच्चों में हम वक्त के प्रति गंभीरता तब तक तो पैदा कर नहीं सकते जब तक हम खुद गंभीर न हों। दरअसल आज की जीवनशैली में हम कुछ इस तरह ढल गए हैं कि किसी काम के अंतिम दिन या अंतिम क्षणों में ही हमें वक्त की पाबंदी का खयाल आता है।
ऐसे कई उदाहरण हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं- बिजली का बिल हो या टेलीफोन का। ज्यादातर लोगों की नींद ठीक पेनल्टी वाली तारीख के दिन ही खुलती है। नतीजा यह कि उसी दिन बाकी लोगों को भी बिल जमा कराने की याद आती है। लंबी कतार, काउंटर पर पदस्थ कर्मचारी की धीमी गति और हमारे पास समय की कमी, धूप, गर्मी से परेशानी और जेब में पड़ी बाकी कामों की फेहरिस्त। जाहिर है हम मन ही मन या मौका मिलते ही सार्वजनिक तौर पर काउंटर पर बैठे कर्मचारी को टारगेट कर सारे कर्मचारियों को कामचोर का प्रमाण-पत्र जारी करने में देर नहीं लगाते। ऐसा व्यवहार आप को कुछ पल के लिए बाकी लोगों की नजर में हीरो बना सकता है लेकिन एक पल के लिए कल्पना तो करिए यदि आप ही उस कर्मचारी की जगह बैठे हों तो? तो आप भी तो पाई-पाई का हिसाब जोड़ने के बाद ही अगले ग्राहक को पुकारेंगे। इन्हीं कारणों से बैंकों में कैश काउंटर पर बैठने वाले कर्मचारी से शायद ही कोई ग्राहक खुश रहता हो।

दरअसल जब से हमने बस दो मिनट में खाना तैयार वाली बात विज्ञापनों से सीखी है तभी से हम जिंदगी के हर मोड़ पर, हर रिश्ते में भी इंस्टेंट फूड जैसा परिणाम चाहने लगे हैं। बस हम जाएं और काउंटर पर बैठा बाबू पलक झपकते ही हमारा काम निपटा दे। हां ज्यादातर लोग फिल्म देखने तो समय से पहुंच जाते हैं। जहां तक शवयात्रा या दहाके में शामिल होने की बात है तो यहां भी शार्टकट निकाल लिया है। मृतक के घर से श्मशान घाट तक का समय खराब करने से ज्यादा बेहतर लगता है सीधे कल्याण भूमि पहुंचकर शवयात्रा में शामिल होना। यही हाल दहाका में भी होता है। कौन बैठे एक घंटे अमृतवाणी में। आखिर के वक्त दो मिनट पहले पहुंचेंगे, चेहरा लटकाए शोक मुद्रा में हाथ जोड़ते फटाफट बाहर आ जाएंगे। वक्त का इंस्टेंट फूड की तरह उपयोग देखा जाए तो ठीक भी है बशर्ते आप का हर पल बिल गेट्स या मनमोहन सिंह की तरह कीमती हो।

आप यदि किसी के दुःख में सहभागी न बन पाएं, उसके आंसू न पोंछ पाएं तो कैसे संबंध और कैसा अपनापन। जब आप के लिए किसी के सुख-दुःख में शामिल होने का वक्त नहीं है तो कल आपके सुख-दुज्ख में कौन खड़ा रहेगा आपके साथ। मेरे एक परिचित हैं जिनकी अच्छी आदत का मैं भी कायल हूं उनके कार्यक्षेत्र या फे्रंड सर्कल में किसी के यहां चाहे खुशी का प्रसंग हो या दुज्ख का। वे बगैर एक पल की देरी किए बाकी साथियों को फोन करके या एसएमएस से सूचना पहुंचा देते हैं। शादी की सालगिरह हो या जन्मदिन बस उन्हें पता भर चलना चाहिए, तुरंत बधाई वाला एसएमएस पहुंच जाएगा। निजी संस्थान, कॉलेज, चिकित्सा क्षेत्र हो, बैंक, बीमा का क्षेत्र हो या आपका फ्रेंड सर्कल ही क्यों न हो हर जगह एक न एक व्यक्ति तो ऐसे मिल जाएंगे जो आप ही की तरह घर, संस्थान दुकान की जिम्मेदारी के साथ ही ऐसे सारे सामाजिक दायित्वों के लिए भी वक्त निकाल ही लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए हमारी पहली प्रतिक्रिया तो 'फालतू आदमी´ जैसे शब्दों से ही शुरू होती है। उनके द्वारा जो सूचनाएं हमें एसएमएस या फोन से चर्चा में मिलती है उनका उपयोग हम बॉस की नजरों में, रिश्तेदारों या मित्रों की नजरों में ऊंचा उठने के लिए तो तुरंत कर लेते हैं लेकिन जो फालतू आदमी हमारे लिए काम का साबित होता है उसके लिए हम धन्यवाद जैसा छोटा सा शब्द भी खर्च करना नहीं चाहते। मित्र तो दूर की बात है हमारे घर परिवार में ही हमारे बेटे-बेटियां-बहन ऐसी कई जिम्मेदारियां निभाते हैं, रिश्तेदारों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह की याद दिलाकर रिश्तों में मिठास बनाए रखने में मदद करते हैं लेकिन हमारे पास इन अपनों को भी धन्यवाद देने का वक्त नहीं है।

उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंचे और एक कमरे में कैद होकर रह जाने वाले परिवार के बुजुर्गों के लिए भी हमारे पास वक्त नहीं है जिन्होंने अपना पेट काटकर या रात-रात भर जागकर हमें व्यस्त रहने लायक बनाया। बुजुर्गों को दिन भर बोलने वाले टीवी की नहीं आपसे कुछ पल बतियाने की लालसा रहती है लेकिन हमारे पास वक्त नहीं है।

उन बुजुर्गों के पास अब बच्चे भी नहीं जाते क्योंकि वो आप से ही सीख रहे हैं। आज आपके पास अपने दादा-दादी, माता-पिता के लिए वक्त नहीं है, कल वही कमरा आपका इंतजार भी करेगा, पलंग टीवी-पंखा वैसे ही रहेगा, कमरे का कैदी बदल जाएगा। आप के बच्चे आपको 'बुड्ढा पगला गया है´ वाली हिकारत भरी नजरों से नहीं देखें इसके लिए सबसे आसान तरीका यही है कि अपनों के लिए कुछ वक्त तो निकालिए, जरा हिसाब तो लगाइए कितने साल पहले पूरे परिवार ने एक साथ बैठकर खाना खाया था। पत्नी, बच्चों के साथ संडे एंजाय करने जाते ही होंगे एकाध बार आजाद जेल में रह रहे अपने बुजुर्गों को ज्यादा लंबा नहीं तो कम से कम मंदिर दर्शन कराने ही ले जाइए। तरक्की के लिए आशीर्वाद पाना है तो पैरों तक सिर झुकाने का वक्त तो निकालना ही पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि बाद में जीवन भर पछताते रहें। कहावत तो सही है कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता लेकिन मेरा मानना है यही वक्त हम सब का इंतजार कर रहा है- कुछ अच्छी शुरुआत के लिए।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 23 July 2009

एक बार सोचें तो सही अच्छा लगेगा

मन को समझाने के यूं तो कई साधन हैं लेकिन बिना एक धेला खर्च किए कोई सर्वोत्तम साधन मुझे लगता है तो वह शब्द ही है। शब्द आपको सांत्वना देते हैं, साहसी भी बनाते हैं और समझदार तो आप हो ही जाते हैं। मुझे अच्छे-बुरे वक्त में जो शब्द सहारा देते हैं या जिन वाक्यों की ताकत से छोटे-बड़े दुखों का आसानी से सामना कर सकता हूं वो शब्द हैं 'जो हुआ अच्छा हुआ´ और 'साथ क्या लाए थे´।

ये दोनों लाइनें लगभग सभी धर्मग्रंथों का-विशेषकर गीता का-तो निचोड़ ही मानता हूं। रामचरित मानस-गीता आदि धर्मग्रंथों के पं. तनसुखराम शर्मा सहित अन्य कई मर्मज्ञ हमारे दोनों जिलों में हैं, जो बहुत सरल-सहज तरीके से व्याख्या कर सकते हैं। मैंने अपने अल्पज्ञान से भगवान श्रीकृष्ण को स्थितप्रज्ञ कहे जाने का यही अर्थ समझा है जो हर हाल में एक-सा रहे यानी 'क्या साथ लाए थे´ का भाव रखें। इसी तरह 'जो हुआ अच्छा हुआ´ का नजरिया हमें हर दृष्टि से साहसी, संयमवान भी बनाता है। मेरा मानना है जिन्हें रोकर मन हल्का करने के लिए कंधे नहीं मिलते या जिनके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं होता वे भी 'भगवान की ऐसी ही मर्जी थी´ कहकर फिर से सामान्य जिंदगी जीने लगते हैं तो उनके लिए भी शब्द ही सहारा बनते हैं।

बाकी पाठक भी सुख-दुःख में अपने मन को ऐसे ही किन्हीं शब्दों से समझाते होंगे जैसे मैं 'सोचो क्या साथ लाए थे´ या कभी 'जो हुआ अच्छा हुआ´ शब्दों की ताकत से अब तक छोटी-बड़ी मुसीबतों से पार पाता रहा हूं। इन वाक्यों में पता नहीं कितनी और कैसी अद्भुत शक्ति है कि बड़े से बड़े हादसे में संयत रहने की क्षमता मिल जाती है। दुःख का पहाड़ भी राई जैसा छोटा और कपास जितना हल्का लगने लगता है।

मुझे तो उक्त लाइनें 'मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा´ जितनी ही प्रेरणादायी लगती हैं। ये लाइनें मैंने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के किसी साक्षात्कार में पढ़ी थी जिसका उल्लेख उन्होंने अपने बाबूजी (हरिवंशराय बच्चन) को याद करते हुए किया था।

मेरे प्रिय शब्दों ने इस बार फिर ढाढ़स बंधाया। हुआ यूं कि बिटिया का फोन आया, बाकी बातों के बाद उसने कहा पापा एक दुःख भरी खबर भी सुनानी है। मैंने पूछा- क्या हुआ? उसने जो कुछ बताया उसका सार यह है कि वह जिस दुपहिया वाहन से आ रही थी वह अचानक स्लिप हो जाने से गिर गई, उसे ठोडी में चोट लगी, चार टांके भी लगे, पीछे बैठी भाभी को भी चोटें लगीं।

मैंने जब हमेशा की तरह वाक्य दोहराया कि जो हुआ अच्छा हुआ तो उसे जरा भी न तो आश्चर्य हुआ न मजाक लगा। मैंने उससे ही पूछा ऐसा क्यों कहा, इसका मतलब बता, उसने कहा अरे पापा मुझसे ज्यादा बोलते नहीं बन रहा आप ही बता दो। मैंने उसे समझाया यह तो तुम्हारी गाड़ी गली में फिसली यदि किसी व्यस्त चौराहे या हाइवे पर फिसलती पीछे से कोई भारी वाहन आ रहा होता तो क्या हालत होती- इसलिए जो हुआ अच्छा हुआ।

इसी एक लाइन के दर्शन ने मुझे मां की अचानक हुई मृत्यु का सदमा सहने में भी ताकत दी। मैं यदि कहीं टूर पर होता, पत्नी-बच्चों सहित कहीं घूमने निकल जाते और घर में अकेली रही मां चल बसती तो, हम सब ताउम्र खुद को अपराधी मानते रहते कि अंतिम समय में कोई पास नहीं था। पता नहीं क्या इच्छा रही होगी, कैसे प्राण निकले होंगे।

मेरे अब तक के जीवन में तो इन लाइनों का प्रेरणादायी प्रभाव रहा है। परिवार, मित्रों, नौकरी आदि में कई बार उतार-चढ़ाव आए, हताशा, कुंठा और आक्रोश ने भी मनमानी करने की कोशिश की लेकिन अंधेरी सुरंग में जो हुआ अच्छा हुआ शब्द पंक्ति रोशनी की पतली सी किरण बनकर चमक उठी।

परिवार के तनाव, बच्चों की परेशानी, बिजनेस के उतार-चढ़ाव, नौकरी की टेंशन से जूझते मित्रों-पारिवारिक सदस्यों का मन बड़ा हल्का हो जाता है जब उन्हें इस एक लाइन का मर्म समझ आ जाता है। कभी आप याद करके देखिए आपके बच्चे के हाथ से कांच का गिलास फिसलकर फर्श पर गिरा, आपने एक पल की देर किए बिना उसे तमाचा जड़ दिया, फर्श पर बिखरे कांच के टुकड़ों के साथ बच्चे की आंखों से टपकते आंसू भी घुलमिल गए। आपके तमाचे से न तो कांच के टुकड़े गिलास में तब्दील हुए न ही बच्चे को सीख मिली, वह हमेशा के लिए कांच के गिलास और तमाचे के भय से जरूर पीड़ित हो

यदि यहां 'जो हुआ अच्छा हुआ´ के नजरिए से सोचें तो? बच्चे के हाथ से गिलास तो छूट ही गया पर यह तो अच्छा हुआ कि उसके हाथ में कांच नहीं लगा। कल्पना कीजिए भयभीत-नासमझ बच्चा फर्श पर फैले कांच के टुकड़ों पर से भागता हुआ आपकी मार के डर से किसी कोने में दुबकने का प्रयास करता तो... उस पांच रुपए के गिलास के बदले घाव ठीक न होने तक उसकी मरहम पट्टी पर अच्छा खासा खर्च हो जाता। यह लाइन जिंदगी आराम से गुजारने, अपना खून न जलाने के हिसाब से देखें तो अति उत्तम है लेकिन सिर्फ दर्शन से जीवन भी तो नहीं चलता। आप लापरवाही से गाड़ी चलाएं खुद के हाथ-पैर तुड़वाएं, दूसरे को घायल करें, नियंत्रण के अभाव में बच्चे बिगड़ते जाएं, आप धंधे-पानी में ध्यान न लगाएं न समय पर दुकान खोलें और न ग्राहक को भगवान की नजर से देखें, घी-तेल दूध-मसालों में मिलावट करते पकड़े जाएं, प्रकरण दर्ज हो जाए, लोगों के काम समय पर न करें, न अपनी नौकरी के प्रति ईमानदार रहें और बगैर भेंट पूजा के फाइल आगे न बढ़ाएं, रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडे़ जाएं फिर भी यदि आप जो हुआ, अच्छा हुआ वाला भाव रखें तो यह न तो खुद के लिए, न परिवार के लिए न कर्म और न मानव धर्म की दृष्टि से ठीक है।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Friday 17 July 2009

फोड़े का उपचार करिए, पैर मत काटिए

जिला कोर्ट भवन के बाहर, सड़क किनारे वर्षों से चाय-पान व फोटो कॉपी आदि की दुकानें संचालित करने वालों को अब स्व. जरनैलसिंह जैसा अधिवक्ता नजर नहीं आ रहा है। वर्षों पहले इन दुकानदारों को यहां से हटाए जाने के नोटिस दिए गए थे तब उन्होंने इनकी लड़ाई लड़ी थी, उस वक्त न्याय मंदिर के प्रति इन दुकानदारों की भी आस्था मजबूत हुई थी। आज परिषद ने जब कोर्ट का चेहरा दिखाने के लिए इन्हें हटाने का मन बना लिया है तब रास्ता नहीं सूझ रहा, न्याय के लिए कौन सा दरवाजा खटखटाएं। जिला प्रशासन ने यह कहकर हाथ ऊंचे कर दिए कि उसे तो कुछ पता नहीं है।पीढ़ियों से यहां व्यवसाय कर रहे इन दुकानदारों को यदि हटाने का संकल्प ले ही लिया गया है तो उजाड़ने से पहले इन दुकानदारों को विश्वास में लिया जाना चाहिए, ताकि ये खुद अपने हाथों से सामान समेट लें। वरना, न्याय मंदिर के बाहर यह मजाक ही होगा कि अपना पक्ष रखने के प्राकृतिक न्याय के अधिकार से लोग परिषद की मनमानी के कारण वंचित हो जाएं। गंगासिंह चौक से ए-माइनर तक फैले दुकानदारों को सड़क चौड़ीकरण व बेहतर यातायात के लिए हटाया जाना तो बहुत साहस का काम है, परिषद अमले ने कमर तो कसी। ऐसे अभियान को तो पूरे शहर में सख्ती के साथ चलाना चाहिए। एक जगह से खदेड़े गए रेहड़ीवाले कल किसी उद्यान, कॉलोनी में सड़कों के आसपास बैठे नजर नहीं आएं, यह अभी से सुनिश्चित करना ही चाहिए, वरना तो शहर से आवाज उठने लगेगी कि अधिकारियों के बंगले और कार्यालय तक चलकर ही क्यों थक जाते हैं बुलडोजर।परिषद आयुक्त तब यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि हमने तो कलेक्टर के निर्देश पर कार्रवाई की थी। अच्छा होगा कि कार्रवाई का साहस दिखाने से पहले रेहड़ीवालों को अन्यत्र बसाहट की समझ दिखाई जाए। जिला प्रशासन के आदेश पर आंख मूंद के अमल करने से पहले यह भी ध्यान रखा जाए कि धृतराष्ट्र और कुंती ने आंखें मूंदे रखीं, भीष्म हस्तिनापुर के प्रति निष्ठावान रहे और इन सब ने नाइंसाफी की जो निरंतर अनदेखी की, वही महाभारत का कारण बनी। आदेश का पालन होना चाहिए, लेकिन पैर में फोड़े का आसान उपचार यह नहीं हो सकता कि पैर ही काट दिया जाए।

Thursday 16 July 2009

बोली हो या गोली जरा सोच-समझकर

बिना सोचे बोलने का कितना घातक परिणाम होता है इसे दोनों जिले के लोगों से ज्यादा कौन समझ सकता है फिर भी मुझे आश्चर्य होता है कि हम ऐसा तीखा और अनर्गल बोलने का कोई अवसर छोड़ना ही नहीं चाहते फिर भले ही हमें संगत के बीच माफी ही क्यों न मांगनी पड़े। अभी जो हालात दोनों जिलों में बने हुए हैं उसने आपकी तरह मुझे भी विचलित कर रखा है। न तो आप-हम धर्म के ठेकेदार हैं और न ही ऐसे हकीम-लुकमान जिनके पास हर मर्ज की दवा होती है। हम ठहरे प्रभुजी तुम चंदन हम पानी की भावना रखना वाले साधारण लोग, इसी आस्था के साथ हम अपने खुदा से यह प्रार्थना तो कर ही सकते हैं कि इन सात दिनों में इतना पानी बरसा कि आग उगलने को आतुर नजर आने वाले बंदों का गुस्सा भी पानी-पानी हो जाए। जिन बातों से हमारा सीधा ताल्लुक नहीं होता कई बार वो बातें ही बेवजह हमारे टेंशन का कारण बन जाती है। डेरामुखी का गुरुसर मोडिया आना और सिख समुदाय द्वारा मरने-मारने को उतारू होना हर साल दो-चार बार सभी के लिए टेंशन का कारण बनता ही है। कौन सही है, कौन गलत, किसने माफी मांगी, किसने नहीं मांगी, शहर की फिजां बिगाड़ने वालों के साथ प्रशासन को सख्ती करनी चाहिए या नहीं, किसी को अपने गांव-घर आने की आजादी मिलनी चाहिए या नहीं ये सारे प्रश्न बर्र के छत्तों के समान ही हैं और मैं तो इस छत्तों को फिलहाल छूना नहीं चाहता। हमारे प्रधानमंत्री जिस कौम का प्रतिनिधित्व करते हैं वह कौम अपनी आन-बान-शान के लिए मर मिटने का जज्बा रखती है, खूब समझदार भी है लेकिन नामसमझी मुझसे भी हो तो हो सकती है। डेरा मुखी कितने सही-कितने गलत हैं यह तय करने का हमारा अधिकार है भी नहीं। रह-रहकर मन में जो प्रश्न उठ रहा है वह यह कि कौनसा धर्म सही है- दिलों को जोड़ने वाला या दरार बढ़ाने वाला? ऐसी स्थिति क्यों बनी कि 32 दांतों के बीच दुबककर बैठी रहने वाली बिना हड्डी की जुबान तलवार जैसी हो गई। मेरा तो मानना है कि विवाद चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी जननी तो यह जुबान ही होती है। संत-फकीर तो सदियों पहले कह गए हैं ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय...। ऐसी सारी अमृतवाणी, उक्तियाँ हम याद तो रखते हैं लेकिन उनका पालन नहीं करते इसलिए ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनती है।बात चाहे समाज में स्वस्थ वातावरण की हो या व्यक्ति के स्वस्थ होने की, यह तभी संभव है जब जुबान पर लगाम हो वरना तो अक्सर यही होता है कि जुबान तो अपना काम करके दांतों के बीच छिप जाती है मार सहनी पड़ती है बेकसूर सिर को। यदि जुबान काबू में न हो तो डाक्टर की दवाइयां, वैद्यजी का बताया परहेज भी बेअसर हो जाता है, नतीजा समय से पहले राम-नाम सत्य।शब्दों की कमी नहीं है, बस बोलने से पहले एक पल सोच लें कि क्या बोल रहे हैं तो, मजाल है जुबान अपनी मनमानी कर ले। बोली और गोली तो छूटते ही असर दिखाती है फिर या तो खूनखराबा होता है या बात बंद। मुझे दिगंबर जैन मुनि तरुण सागर जी के प्रवचनों की एक बात बहुत अच्छी लगती है- सब कुछ कर लो लेकिन बात बंद मत करो। बात बंद तो सुलह-सफाई के सारे रास्ते बंद, दोनों अपना खून जला रहे हैं पर यह नहीं सोचते कि ऐसे शब्द बोले ही क्यों कि बात बंद करने की नौबत बनी। बेवजह बोलना उतना ही खतरनाक है जितना कि बोलने के हालात बने हों और आप चुप रह जाएं। एक किस्सा तो मेरे अपने ही परिवार का है। मैंने अपने कुछ मित्रों को भोजन पर आमंत्रित किया हमारी महारानी ने प्रेम से मालवी भोजन बनाया, मित्रों को पसंद भी आया। मनुहार के साथ वे परोसती रहीं लेकिन कान थे कि भोजन की तारीफ सुनने को तरस गए, मित्र लोग तो विदा हो गए उलाहने मुझे सुनने पड़े। यानी यहां जब कुछ बोलना जरूरी था तब नहीं बोलने से बात बिगड़ गई। इस प्रसंग से मैंने जरूर सबक लिया और वह तब काम भी आया जब परलीका यात्रा के दौरान राजस्थानी भाषा को मान्यता के लिए वर्षों से संघर्षरत सत्यनारायण सोनी के निवास पर रामस्वरूप किसान, विनोद स्वामी आदि मायड़ भाषा सपूतों के साथ भोजन का सौभाग्य मिला। पेट-पूजा के बाद बातचीत करते हुए हम घर से बाहर निकल आए अचानक मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ, सोनी जी को साथ लिया और रसोईघर में व्यस्त भाभीजी से चाव से खाना खिलाने के प्रति आभार व्यक्त किया। मेरा मानना है कि चमड़े की यह जुबान बेमौसम जूतों की बारिश भी करा सकती है और यही जुबान अगली बार सुस्वादु भोजन का निमंत्रण भी दिलवा सकती है। मेरी भी कोशिश रहती है कि बोला ऐसा ही जैसा हम सुनने की ताकत भी रखते हों। वैसे कब, कैसा, कितना बोलें यह सीखना हो तो अदालत की कार्रवाई कम से कम एक बार तो देखना ही चाहिए।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Saturday 11 July 2009

कुछ तो रहम करें नन्हीं परियों के लिए

मेरे पंसदीदा गीतों में साहिर का लिखा और लता मंगेशकर का गाया 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी...´ गीत मुझे बेहद पसंद है। शायद इसकी एक वजह यह भी हो कि मेरी पहली संतान बिटिया है। अभी रह-रहकर यह गीत याद आता रहा जब मीडिया में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई कि एक दुधमुही बालिका को बाबा दीपसिंह गुरुद्वारे की चौखट पर कोई मां लावारिस हालत में छोड़ गई।यह खबर पढ़-सुन कर बाकी पाठकों की तरह मेरा मन भी दुखी हुआ। उस मां पर गुस्सा भी आया लेकिन मन यह भी कहता रहा कि कोई ऐसी मजबूरी होगी कि उसे अपने कलेजे के टुकड़े को इस हाल में छोड़ने पर विवश होना पड़ा। दूसरे दिन राहत महसूस हुई, जिस गुरु के द्वारे वह बिटिया को छोड़ गई थी उसी वाहे गुरु ने उसे सद्बुद्धि भी दी।एक मां को कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा निर्णय इसलिए लेना पड़ा की उसकी दूसरी संतान भी पुत्री हुई थी और परिजनों की जलीकटी सुनते-सुनते वह तंग आ गई थी। हकीकत जो भी हो लेकिन इस पूरे मामले में उसके पति की भूमिका सराहनीय है जिसने न सिर्फ पत्नी को समझाया बल्कि अपने परिजनों का विरोध भी सहा होगा। गुरुद्वारे की चौखट पर एक अंधेरी रात के बाद उस अबोध के जीवन में दोनों की समझ से फिर उजाला लौट आया।बेटियों के प्रति यह घटिया मानसिकता उसी समाज में है जिसका प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि विधानसभा से लेकर संसद तक में महिलाओं को 33 और 50 प्रतिशत तक आरक्षण देने की वकालत करते हैं। यह दिल दुखाने वाली घटना सोचने पर मजबूर करती है कि नारी समाज की मानसिकता में बदलाव क्यों नहीं आ रहा है।बच्चों को संस्कार या तो पाठशाला से मिलते हैं या मां के आंचल तले। विभिन्न समाजों में आज भी बेटियों के प्रति नजरिए में बदलाव तेजी से नहीं हो पा रहा है तो उसका एक मुख्य कारण कहीं न कहीं घर में मिलने वाले संस्कार और वातावरण भी है। जो सास, दादी, नानी अपनी बहू, पोतियों-नातिनों को बेटी जन्मने पर कोसती-कचोटती और लांछित करती रहेंगी तो वे बहुएं-बेटियां अपने बच्चों को विरासत में मिले संस्कार भी देंगी। टीवी चैनल पर जितने धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं फिर चाहे वह उतरन, बालिका वधू, ना आना इस देश मेरी लाड़ो हो, मेरे घर आई एक नन्हीं परी या अगले जन्म मुझे बिटिया ही कीजो... इन सब में बेटियों का क्रांतिकारी किरदार हमें पसंद तो आता है लेकिन हम अपने परिवार में आज भी बेटियों को बेटों की अपेक्षा प्यार-दुलार-सम्मान कम ही दे पाते हैं। कल्पना चावला की मौत पर हम आंसू बहा सकते हैं, सपना देखते हैं कि हमारी बेटी भी किरण बेदी जैसी बने किंतु जब पहली के बाद दूसरी संतान भी पुत्री हो जाती है तो बहू करमजली और कुलटा क्यों नजर आने लगती है। बेटियों के प्रति हमारी संकीर्ण सोच का ही नतीजा है कि असहाय मां या तो नवजात पुत्री को कंटीली झाçड़यों में फेंक देती है या गुरुद्वारे की चौखट पर छोड़ आती है।बेटियों का विरोध करने और उनके जन्म पर विलाप करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हें जन्म देने वाली मां भी तो किसी की बेटी है। अपने बेटे के लिए जिस चांद सी बहू के सपने संजो रहे हैं वह भी तो किसी मां-बाप के कलेजे का टुकड़ा है। सरकारी घोषणाओं, जिला प्रशासन की सजगता के बाद भी अस्पतालों में लिंग परीक्षण, भ्रूण हत्या के मामले नहीं थम रहे हैं तो इसलिए कि हमारी मानसिकता में बदलाव नहीं आया है। तरस तो उन अस्पताल संचालकों पर भी आता है जिनके मेटरनिटी होम के मुख्यद्वार पर तो लिंग परीक्षण कानूनी अपराध है सूचना लिखी होती है और पिछले दरवाजे से कचरापेटी में भ्रूण फेकें जाते हैं। अंधी कमाई की होड़ में कसाई को भी पीछे छोड़ रहे ये लोग शाम को उन्हीं हाथों से कैसे खाना खाते होंगे? अपनी बेटियों के सिर पर हाथ फेरते वक्त इन्हें कैसा लगता होगा?

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Saturday 4 July 2009

कुछ ऐसा जरूर करें कि मन को मिले सुकून

अचानक एक रात मेरी मां की मृत्यु के बाद स्थिति ऐसी बनी कि हमें कष्टप्रद यात्रा के साथ मां की पार्थिव देह इंदौर ले जाना पड़ी। जितने भी दिन इंदौर में रहे इंदौर सहित पूरे मध्यप्रदेश में पेयजल को लेकर हर दिन खूनी संघर्ष की खबरें पढ़ने और सुनने को मिलीं। हालांकि हमारा दुःख कम नहीं था किंतु पेयजल संकट की इस स्थिति ने हमें कुछ अच्छा करने की राह भी सुझाई। हम चाहते थे कि मृत्युभोज और पगड़ी के नाम पर किए जाने वाले फिजूल खर्च को किसी अच्छे काम में लगाना चाहिए। मेरा विश्वास फिर मजबूत हुआ है कि यदि आप कुछ अच्छा करने की सोचें तो राह खुद बखुद बनती जाती है।

पेयजल संकट के मुख्य कारणों में एक कारण घटती हरियाली और बिगड़ता पर्यावरण भी है ही। हमारे परिजनों ने मृत्युभोज का आयोजन नहीं करने और इस निमित्त होने वाले खर्च को किसी अच्छे कार्य में लगाने का संकल्प भी लिया। आपसी सहमति ने राह दिखाई और मृत्युभोज के बदले पौध वितरण करना तय किया। अब संकट यह था कि मृत्युभोज तो कर नहीं रहे फिर लोग जुटेंगे कैसे? कैसे हो पाएगा पौध वितरण। सुख-दुःख के साथियों ने भजन संध्या के आयोजन की सलाह दी। मुझे लगता है जब आपके विचार अच्छे हों तो बदले में भी अच्छे विचार ही मिलते हैं। वातावरण की शुद्धि-अशुद्धि का सीधा ताल्लुक इस पर भी निर्भर करता है कि आप खुद कैसा सोचते हैं। क्योंकि हम मृत्यु को महोत्सव का रूप देना चाहते थे लिहाजा साथियों ने भजन संध्या का सुझाव इसलिए भी सही ठहराया कि इस बहाने सारे आत्मीयजन एक जाजम पर एकत्र हो जाएंगे। फिर इन्हें आसानी से पौधें भेंट किए जा सकते हैं। इंदौर सहित पूरे मध्यप्रदेश में चार-सात दिन में एक बार पेयजल वितरण के हालात ने लोगों को वैसे भी हरियाली, पर्यावरण की बेहतरी का मतलब बता ही दिया है। भजन संध्या में जो पौधें वितरित किए जाएंगे तो भी प्रतिशत लोगों ने भी पौधें सहेज लिए तो यह हरियाली के लिए संबल का काम करेगा। भजन संध्या में आए आत्मीयजनों के बीच 1000 पौधों का वितरण करके हमारे परिजनों को तो लगा ही है कि वर्तमान सन्दर्भों में मृत्युभोज से कहीं जरूरी पौध वितरण, पौधरोपण या कुछ ऐसा करना है कि जिससे बाकी लोगों को भी सकारात्मक सोच की राह दिखे।इस अच्छी सोच की ओर बढ़ते वक्त लेकिन, अगर-मगर, किंतु-परंतु जैसे स्पीड ब्रेकर भी खूब आए कि मृत्युभोज से अधिक खर्च तो भजन संध्या, पौधवितरण आदि कार्य पर हो रहा है। बात सही भी थी किंतु हमारा यह विचार अधिक प्रभावी साबित हुआ कि यदि व्यक्त दो-चार महीने अस्पताल में दाखिल रहे, महीनों घर के बेड पर पड़ा रहे, हार्ट के आपरेशन पर भारी-भरकम खर्च हो तो उसके बाद भी मौत हो जाए तो ऐसी सारी स्थिति में भी प्रियजन को बचाने के लिए तो खर्च करना ही पड़ता है। हम जब समाज से अपेक्षा रखते हैं कि कुछ आदर्श कार्य किए जाएं तो बाकी समाज आपसे भी पूछ सकता है कि आपने अपने घर पर कुछ अच्छी शुरुआत की है क्या? अच्छे विचार बाकी लोगों को भी आ सकते हैं, लेकिन वो इतना खर्च नहीं कर पाएं तो- ऐसे सवाल तब भी खड़े हुए जब भजन संध्या, पौध वितरण आदि का खर्च जोड़ा जा रहा था। मेरा मानना है कि जितनी बड़ी चादर है उस हिसाब से तो आप पैर फैला ही सकते हैं। आप भव्य पैमाने पर पौधें नहीं बांट सकते तो प्रियजन की स्मृति में पांच पौधें तो लगवा ही सकते हैं। गायत्री परिवार, आर्ट ऑफ लिविंग, रोटरी-लायंस क्लब, महावीर इंटरनेशनल, भारत विकास परिषद, शिव लंगर समिति जैसी सद्कार्यों में लगी संस्थाओं के सदस्यों के भजन तो करा ही सकते हैं। अच्छे सोचने और अच्छा करने के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है। आप कुछ अच्छा करेंगे तो अगरबत्ती की सुगंध की तरह वातावरण में आपकी अच्छी सोच भी फैलेगी ही। बात वहीं आकर खत्म होती है कि पहले हम कुछ करें बाद में दूसरों को प्रोत्साहित करें। ठीक है कि कुछ लोग आपके विचारों से असहमत भी हो सकते हैं, लेकिन उनके मुकाबले सहमति व्यक्त करने और बढ़-चढ़कर सहयोग करने वालों की संख्या ज्यादा ही होगी।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...