गोल बाजार में हम जिस दुकान से सजावट का सामान ले रहे थे, उससे कुछ आगे पटाखे की एक दुकान पर खरीदारी कर रहे सज्जन ने स्कूटर पर बैठे अपने पुत्र को फुलझड़ी का पैकेट यह कहते हुए थमाया कि देखो ये बड़ी वाली अच्छी है, तुम्हारा हाथ भी नहीं जलेगा। उसी दौरान स्कूटर के समीप हाथ फैलाए एक छोटा बच्चा कुछ भीख मिलने की हसरत में बार-बार उन सज्जन को छूकर कुछ देने का इशारा करने लगा। झुंझलाते हुए उन्होंने उसे झिड़क दिया। पटाखों को हसरत भरी निगाहों से देखता वह बच्चा आगे बढ़ा ही था कि स्कूटर पर बैठे बच्चे ने फुलझड़ी का पैकेट उसके हाथ पर रख दिया।
अपने बच्चे की इस हरकत पर एक पल के लिए तो उन सज्जन के चेहरे पर शिकन नजर आई, उनके हाथ फुलझड़ी का पैकेट छीनने के लिए उठे भी लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने उठे हुए हाथों में अपने बेटे का चेहरा लिया और झुककर उसका माथा चूम लिया। पापा के इस प्रेम से उस मासूम की खिलखिलाहट के साथ दोनों की आंखों की चमक बढ़ गई।
कुछ पल में इतना कुछ घटित हो गया। उन दोनों (पिता-पुत्र) के इस प्रसंग को कुछ और लोग भी देख रहे थे, उन सबकी मुस्कान ने खुशी के इस छोटे से प्रसंग को अनमोल बना दिया।
फुलझड़ी का एक पैकेट कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल से भी कम कीमत का था लेकिन जिस बच्चे को अप्रत्याशित रूप से यह मनचाहा उपहार मिला उसके चेहरे की खुशी ऐसी थी मानो पटाखे की पूरी दुकान मिल गई हो। वरना तो जले-अधजले पटाखों के कचरे में से बिना जले पटाखे ढूंढकर भी ये बच्चे दिवाली मनाते ही हैं।
रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कई बार महंगे खिलौने थाली पर चम्मच की थाप के सामने बौने साबित हो जाते हैं। कौन सी पहल, कौनसा पल, कब-किसके चेहरे पर मुस्कान ले आए यह अंदाज नहीं लगाया जा सकता, लेकिन क्या हम खुशी की छोटी सी कंकरी भी फेंकने का प्रयास करते हैं, जिंदगी को बोझ मान चुके अंजान लोगों के चेहरों पर खुशी की लहर के लिए।
जिंदगी के उल्लास को रोशनी की जगमग में और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले त्योहारों में दीपावली के मुकाबले कोई और त्योहार नहीं हो सकता। मुझे तो यह त्योहार लक्ष्मी के बहुरूपों में कांपिटिशन का त्योहार लगता है। जिसकी जेब भरी है वह और ज्यादा खर्च करने की उधेड़बुन में लगा रहता है और जिनके घर इस त्योहार पर भी बदरंग रहते हैं, वे सड़क से सातवें आसमान तक बिखरी रंगीनियों को देखते हुए दीपावली को शुभ बना लेते हैं। यह पर्व हमें अपनी हैसियत का आईना भी दिखाता है। ऐसे में भी वह मासूम बच्चा बिना किसी अपेक्षा के फुलझड़ी का पैकेट उस अधनंगे बच्चे के हाथों में रखकर खुश हो जाता है।
हमारे आसपास भी ऐसे बच्चों, परिवारों या आश्रमों में दया पर जिंदगी काट रहे लोगों की कमी नहीं है जिनके लिए दिवाली का मतलब उदासी ही है। मदर टेरेसा और महाभारत के कर्ण जैसे हम हो नहीं सकते लेकिन किसी एक चेहरे पर खुशी की लहर से हमें यह तो पता चल ही जाता है कि अनमोल खुशी पाने के लिए बहुत ज्यादा खर्च भी जरूरी नहीं है। दिन में चाय, सिगरेट, पाउच पर या पीने-पिलाने में एक दिन में कितना खर्च हो जाता है, हिसाब कहां रख पाते हैं लेकिन ईश्वर की कृपा, खुद के पुरुषार्थ से हम सक्षम हैं। हर दिन पांच रुपए भी बचाएं तो एक महीने या एक साल में अच्छी खासी रकम जमा हो सकती है। कौन पात्र है, कौन अपात्र, कौन आश्रम और दान की रकम का दुरुपयोग कर रहे हैं, दान के लिए सुपात्र कौन? ऐसी अनेक जिज्ञासाओं का जवाब फुलझड़ी का पैकेट भेंट करने वाले प्रसंग से मिल सकता है।
दीपावली से हजार गुना अच्छा त्योहार मुझे रंगों का पर्व लगता है। इन दोनों ही त्योहारों में खुशियों के रंग बिखरते हैं लेकिन एक में जितना खर्च उतनी खुशी तो दूसरे में बिना खर्च के भी खुशी ही खुशी। दिवाली में आईना हमारी हैसियत दिखा देता है और होली में हैसियत वाला भी फटे-पुराने कपड़ों में शान से घूमता है। बिना जेब वाले कपड़े होली पर ही अच्छे लगते हैं। रंग गुलाल रखने की हैसियत भी नहीं हो तो मुन्नाभाई की झप्पी से ही रंगों के इंद्रधनुष बिखर जाते हैं। अध्यात्म के नजरिए से देखें तो दीपावली हमें माया-मोह-बाहरी प्रदर्शन के बंधनों में जकड़ी खुशी का अहसास कराती है। दूसरी तरफ होली है जो हमें सिखाती है निर्भर होना। जो है उसे भी छोड़ो, त्याग और अंदर की खुशी पाने के लिए माया से दूर रहो, कैसे आए और कैसे संसार से जाना है? आत्मिक आनंद का यह रहस्य होली समझाती है।
इस दीपावली के स्वागत में खूब खर्च करें। लक्ष्मी हम सब के घर में आसन जमा कर बैठ जाए, ऐसे प्रयास करने में भी कोई हर्ज नहीं। बस, मिठाई खाते और रॉकेट छोड़ते वक्त एक नजर पासपड़ोस के घरों पर भी डाल लें। देखें तो सही वहां भी नन्हा सा दीपक टिमटिमा रहा है या नहीं। बुझते दीपक की रोशनी बढ़ाने के लिए भी तो हम तेल-घी डालने में देरी नहीं करते। किसी एक चेहरे पर आपकी उदारता से आई मुस्कान से मन को जो सुकून मिलेगा, वह दीपावली के भारी-भरकम गिफ्ट पर भारी पड़ेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
अपने बच्चे की इस हरकत पर एक पल के लिए तो उन सज्जन के चेहरे पर शिकन नजर आई, उनके हाथ फुलझड़ी का पैकेट छीनने के लिए उठे भी लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने उठे हुए हाथों में अपने बेटे का चेहरा लिया और झुककर उसका माथा चूम लिया। पापा के इस प्रेम से उस मासूम की खिलखिलाहट के साथ दोनों की आंखों की चमक बढ़ गई।
कुछ पल में इतना कुछ घटित हो गया। उन दोनों (पिता-पुत्र) के इस प्रसंग को कुछ और लोग भी देख रहे थे, उन सबकी मुस्कान ने खुशी के इस छोटे से प्रसंग को अनमोल बना दिया।
फुलझड़ी का एक पैकेट कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल से भी कम कीमत का था लेकिन जिस बच्चे को अप्रत्याशित रूप से यह मनचाहा उपहार मिला उसके चेहरे की खुशी ऐसी थी मानो पटाखे की पूरी दुकान मिल गई हो। वरना तो जले-अधजले पटाखों के कचरे में से बिना जले पटाखे ढूंढकर भी ये बच्चे दिवाली मनाते ही हैं।
रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए कई बार महंगे खिलौने थाली पर चम्मच की थाप के सामने बौने साबित हो जाते हैं। कौन सी पहल, कौनसा पल, कब-किसके चेहरे पर मुस्कान ले आए यह अंदाज नहीं लगाया जा सकता, लेकिन क्या हम खुशी की छोटी सी कंकरी भी फेंकने का प्रयास करते हैं, जिंदगी को बोझ मान चुके अंजान लोगों के चेहरों पर खुशी की लहर के लिए।
जिंदगी के उल्लास को रोशनी की जगमग में और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले त्योहारों में दीपावली के मुकाबले कोई और त्योहार नहीं हो सकता। मुझे तो यह त्योहार लक्ष्मी के बहुरूपों में कांपिटिशन का त्योहार लगता है। जिसकी जेब भरी है वह और ज्यादा खर्च करने की उधेड़बुन में लगा रहता है और जिनके घर इस त्योहार पर भी बदरंग रहते हैं, वे सड़क से सातवें आसमान तक बिखरी रंगीनियों को देखते हुए दीपावली को शुभ बना लेते हैं। यह पर्व हमें अपनी हैसियत का आईना भी दिखाता है। ऐसे में भी वह मासूम बच्चा बिना किसी अपेक्षा के फुलझड़ी का पैकेट उस अधनंगे बच्चे के हाथों में रखकर खुश हो जाता है।
हमारे आसपास भी ऐसे बच्चों, परिवारों या आश्रमों में दया पर जिंदगी काट रहे लोगों की कमी नहीं है जिनके लिए दिवाली का मतलब उदासी ही है। मदर टेरेसा और महाभारत के कर्ण जैसे हम हो नहीं सकते लेकिन किसी एक चेहरे पर खुशी की लहर से हमें यह तो पता चल ही जाता है कि अनमोल खुशी पाने के लिए बहुत ज्यादा खर्च भी जरूरी नहीं है। दिन में चाय, सिगरेट, पाउच पर या पीने-पिलाने में एक दिन में कितना खर्च हो जाता है, हिसाब कहां रख पाते हैं लेकिन ईश्वर की कृपा, खुद के पुरुषार्थ से हम सक्षम हैं। हर दिन पांच रुपए भी बचाएं तो एक महीने या एक साल में अच्छी खासी रकम जमा हो सकती है। कौन पात्र है, कौन अपात्र, कौन आश्रम और दान की रकम का दुरुपयोग कर रहे हैं, दान के लिए सुपात्र कौन? ऐसी अनेक जिज्ञासाओं का जवाब फुलझड़ी का पैकेट भेंट करने वाले प्रसंग से मिल सकता है।
दीपावली से हजार गुना अच्छा त्योहार मुझे रंगों का पर्व लगता है। इन दोनों ही त्योहारों में खुशियों के रंग बिखरते हैं लेकिन एक में जितना खर्च उतनी खुशी तो दूसरे में बिना खर्च के भी खुशी ही खुशी। दिवाली में आईना हमारी हैसियत दिखा देता है और होली में हैसियत वाला भी फटे-पुराने कपड़ों में शान से घूमता है। बिना जेब वाले कपड़े होली पर ही अच्छे लगते हैं। रंग गुलाल रखने की हैसियत भी नहीं हो तो मुन्नाभाई की झप्पी से ही रंगों के इंद्रधनुष बिखर जाते हैं। अध्यात्म के नजरिए से देखें तो दीपावली हमें माया-मोह-बाहरी प्रदर्शन के बंधनों में जकड़ी खुशी का अहसास कराती है। दूसरी तरफ होली है जो हमें सिखाती है निर्भर होना। जो है उसे भी छोड़ो, त्याग और अंदर की खुशी पाने के लिए माया से दूर रहो, कैसे आए और कैसे संसार से जाना है? आत्मिक आनंद का यह रहस्य होली समझाती है।
इस दीपावली के स्वागत में खूब खर्च करें। लक्ष्मी हम सब के घर में आसन जमा कर बैठ जाए, ऐसे प्रयास करने में भी कोई हर्ज नहीं। बस, मिठाई खाते और रॉकेट छोड़ते वक्त एक नजर पासपड़ोस के घरों पर भी डाल लें। देखें तो सही वहां भी नन्हा सा दीपक टिमटिमा रहा है या नहीं। बुझते दीपक की रोशनी बढ़ाने के लिए भी तो हम तेल-घी डालने में देरी नहीं करते। किसी एक चेहरे पर आपकी उदारता से आई मुस्कान से मन को जो सुकून मिलेगा, वह दीपावली के भारी-भरकम गिफ्ट पर भारी पड़ेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
बहुत सुन्दर व प्रेरक पोस्ट है।बधाई।
ReplyDeletebahut excellent.
ReplyDeletemujhe pasand aayi aapki yeh post.
thanks.
agar aapki is post par hum-sab milkar amal kare to iss baar ki diwaali kaa anand do-gunaa ho jaayegaa.
ReplyDeletesaath hi, iss baar ki diwaali saarthak bhi ho jaayegi.
again thanks.
बहुत सच्ची बात, अगर हम सभी एक एक बूँद भी डालेंगे तो घडा भर ही जाएगा
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