बेटा स्कूल से घर आया तो शर्ट पर धूल-मिट्टी के निशान थे। अस्त-व्यस्त ड्रेस से आभास तो ऐसा ही हो रहा था कि दोस्तों के साथ गुत्थमगुत्था होकर आया है। स्कूल बैग पलंग पर फेंका और हम कुछ पूछें इससे पहले खुद ही उत्साह के साथ बोल पड़ा- पता है मम्मी, मैंने और मेरे दोस्तों ने आज एक अच्छा काम किया है? आगे बताने से पहले वह हमारा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसके इस अच्छे काम को जानने की उससे दो गुनी उत्सुकता दिखाई, वह भी शायद ऐसी ही कुछ प्रतिक्रिया चाहता था। उसने उत्साह के साथ अपनी बात आगे बढ़ाई-हम तीन-चार दोस्त स्कूल से आ रहे थे। आगे चल रहे एक ऑटो वाले को एक अन्य वाहन ने टक्कर मार दी। आटो में फंसा ड्राइवर निकलने की कोशिश कर रहा था, आसपास के दुकानदार देख रहे थे, लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आया। हम दोस्तों ने सड़क पर ही बाइक तिरछी खड़ी की, बाकी वाहन घूमकर निकलते रहे। ऑटो से उस ड्राइवर को निकाला तो उसकी चोटों से खून बह रहा था। एक दोस्त को 108 पर एंबुलेंस के लिए कॉल करने को कहा। जैसे ही गाड़ी आई, उसमें उसे लिटाया, उसका ऑटो साइड में लगाया, इसी कारण घर आने में मुझे देरी हो गई।
कुछ देर पहले तक उसकी मम्मी के चेहरे पर चिंता की लकीरें थी कि बेटा अभी तक स्कूल से नहीं आया, लेकिन बेटे के मुंह से अच्छे काम का पूरा वृतांत सुनकर अब संतोष के भाव थे। जाहिर है कि उसके दोस्तों की भी उनके माता-पिता ने पीठ थपथपाई होगी।
मैंने भी उसके इस अच्छ काम की तारीफ की। फिर सोचा-पूछूं कि इससे पहले ऐसा कोई अच्छा काम कब किया था? शब्द बस मुंह से निकलने को ही थे कि होठों ने मेरी जुबान पर ताला लगा दिया? मेरा मन मुझसे ही सवाल कर रहा था कि यदि बेटे ने पूछ लिया-पापा आपने कब किया था ऐसा कोई अच्छा काम? क्या मैं उसे संतुष्ट कर पाऊंगा!
क्या मैं ही ऐसे किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे सकता या हममें से ज्यादातर मां-बाप के पास अपने बच्चों के ऐसे सवालों के जवाब नहीं हैं?
हम सब अपने बच्चों से तो यही अपेक्षा करते हैं कि वे संस्कारवान हों, हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरें। जो हम नहीं बन पाए, हम जो नहीं कर पाए वह सब हम अपने बच्चों से कराने की अपेक्षा उन पर थोपने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा करना अभिभावकों की अपेक्षा हो सकती है, लेकिन जब बच्चों की नजर में यह अपेक्षा ही तानाशाही बनती जाती है तब या तो बच्चे एकाकी हो जाते हैं या विद्रोही। ऐसे में या तो अभिभावक हताश हो जाते हैं या बच्चों के किसी अप्रत्याशित कदम से हाथों से तोते उड़ने जैसे हालात भी बन जाते हैं।
कहा तो यह भी जाता है कि बेटे के पैर में जब बाप का जूता आने लगे तो वह बेटा नहीं, दोस्त हो जाता है। ऐसे ही जब बेटी में स्त्रियोचित लक्षण नजर आने लगे तो मां को उसे अपनी सहेली मान लेना चाहिए। क्या ऐसा हम कर पाते हैं? घर-घर की कहानी का अंत इतना ही सुखद हो जाए तो सारे चैनलों को प्राइम टाइम में ढूंढे से दर्शक नहीं मिलें। कहीं हम ही लोग धारावाहिकों के पात्र बन जाते हैं तो ज्यादातर धारावाहिक के कथानक हमारे आसपास घटी घटनाओं से चुराए लगते हैं। अच्छा करें तो उसकी चर्चा कम होती है, यही नहीं उस कथा में बाकी लोगों का भी कम लगाव रहता है, लेकिन बुरा करने, बुरा सुनने में हमें बड़ा आनंद आता है।
हम लोग जिस भी पेशे में हैं, बेईमानी या ईमानदारी से अपना काम तो करते ही हैं। कोई दिन भर में 25-50 फाइलें निपटा देता है तो कोई एक फाइल लेकर बाकी कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेता है कि शाम को ऑफिस छोड़ने से पहले ही वह फाइल निपट पाती है। इस सारे काम का हमें मेहनताना मिलना भी तय ही रहता है। रूटीन के इस काम में क्या हम कोई अच्छा काम भी कर पाते हैं? सोचें या समीक्षा करने बैठें तो हैरत हो सकती है कि काम तो रोज किया लेकिन अच्छा काम कब किया याद ही नहीं आया। आसपास नजर दौड़ाएं, समीक्षा करें तो कई बार अपने उस पड़ोसी-सहकर्मी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि वह हर दो-चार दिन में कोई ऐसा काम कर दिखाता है जो उसे अगले कुछ दिनों तक ऊर्जा प्रदान करता है और हम उसके ऐसे काम को पागलपन मानकर खारिज करते रहते हैं। आप किसी के अच्छे काम से प्रेरित हों यह बाध्यता नहीं, आपने आज तक कोई अच्छा काम किया या नहीं इसका हिसाब किताब रखना भी जरूरी नहीं लेकिन आप के अपनों ने यदि कुछ अच्छा काम किया है तो उनकी पीठ थपथपाने में तत्परता तो दिखा ही सकते हैं। जो अच्छा करने के लिए उत्साहित हैं, वह तो अपना काम बताने के साथ उत्साहित करने वालों में आपका भी नाम लेगा ही। कम से कम इसी तरह हम सबका नाम अच्छा करने वालों की सूची में तो जुड़ ही जाएगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
कुछ देर पहले तक उसकी मम्मी के चेहरे पर चिंता की लकीरें थी कि बेटा अभी तक स्कूल से नहीं आया, लेकिन बेटे के मुंह से अच्छे काम का पूरा वृतांत सुनकर अब संतोष के भाव थे। जाहिर है कि उसके दोस्तों की भी उनके माता-पिता ने पीठ थपथपाई होगी।
मैंने भी उसके इस अच्छ काम की तारीफ की। फिर सोचा-पूछूं कि इससे पहले ऐसा कोई अच्छा काम कब किया था? शब्द बस मुंह से निकलने को ही थे कि होठों ने मेरी जुबान पर ताला लगा दिया? मेरा मन मुझसे ही सवाल कर रहा था कि यदि बेटे ने पूछ लिया-पापा आपने कब किया था ऐसा कोई अच्छा काम? क्या मैं उसे संतुष्ट कर पाऊंगा!
क्या मैं ही ऐसे किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे सकता या हममें से ज्यादातर मां-बाप के पास अपने बच्चों के ऐसे सवालों के जवाब नहीं हैं?
हम सब अपने बच्चों से तो यही अपेक्षा करते हैं कि वे संस्कारवान हों, हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरें। जो हम नहीं बन पाए, हम जो नहीं कर पाए वह सब हम अपने बच्चों से कराने की अपेक्षा उन पर थोपने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा करना अभिभावकों की अपेक्षा हो सकती है, लेकिन जब बच्चों की नजर में यह अपेक्षा ही तानाशाही बनती जाती है तब या तो बच्चे एकाकी हो जाते हैं या विद्रोही। ऐसे में या तो अभिभावक हताश हो जाते हैं या बच्चों के किसी अप्रत्याशित कदम से हाथों से तोते उड़ने जैसे हालात भी बन जाते हैं।
कहा तो यह भी जाता है कि बेटे के पैर में जब बाप का जूता आने लगे तो वह बेटा नहीं, दोस्त हो जाता है। ऐसे ही जब बेटी में स्त्रियोचित लक्षण नजर आने लगे तो मां को उसे अपनी सहेली मान लेना चाहिए। क्या ऐसा हम कर पाते हैं? घर-घर की कहानी का अंत इतना ही सुखद हो जाए तो सारे चैनलों को प्राइम टाइम में ढूंढे से दर्शक नहीं मिलें। कहीं हम ही लोग धारावाहिकों के पात्र बन जाते हैं तो ज्यादातर धारावाहिक के कथानक हमारे आसपास घटी घटनाओं से चुराए लगते हैं। अच्छा करें तो उसकी चर्चा कम होती है, यही नहीं उस कथा में बाकी लोगों का भी कम लगाव रहता है, लेकिन बुरा करने, बुरा सुनने में हमें बड़ा आनंद आता है।
हम लोग जिस भी पेशे में हैं, बेईमानी या ईमानदारी से अपना काम तो करते ही हैं। कोई दिन भर में 25-50 फाइलें निपटा देता है तो कोई एक फाइल लेकर बाकी कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेता है कि शाम को ऑफिस छोड़ने से पहले ही वह फाइल निपट पाती है। इस सारे काम का हमें मेहनताना मिलना भी तय ही रहता है। रूटीन के इस काम में क्या हम कोई अच्छा काम भी कर पाते हैं? सोचें या समीक्षा करने बैठें तो हैरत हो सकती है कि काम तो रोज किया लेकिन अच्छा काम कब किया याद ही नहीं आया। आसपास नजर दौड़ाएं, समीक्षा करें तो कई बार अपने उस पड़ोसी-सहकर्मी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि वह हर दो-चार दिन में कोई ऐसा काम कर दिखाता है जो उसे अगले कुछ दिनों तक ऊर्जा प्रदान करता है और हम उसके ऐसे काम को पागलपन मानकर खारिज करते रहते हैं। आप किसी के अच्छे काम से प्रेरित हों यह बाध्यता नहीं, आपने आज तक कोई अच्छा काम किया या नहीं इसका हिसाब किताब रखना भी जरूरी नहीं लेकिन आप के अपनों ने यदि कुछ अच्छा काम किया है तो उनकी पीठ थपथपाने में तत्परता तो दिखा ही सकते हैं। जो अच्छा करने के लिए उत्साहित हैं, वह तो अपना काम बताने के साथ उत्साहित करने वालों में आपका भी नाम लेगा ही। कम से कम इसी तरह हम सबका नाम अच्छा करने वालों की सूची में तो जुड़ ही जाएगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
अच्छा काम यदि नजर आए तो जरूर करना चाहिए । वैसे यदि सिर्फ बुरे कर्म करना भी छोड दें तो भी बहुत अच्छा हो सकता है ।
ReplyDeleteशौकिया बुरे काम करने की आदत बहुत पायी जाती है ।
कम से कम इसी तरह हम सबका नाम अच्छा करने वालों की सूची में तो जुड़ ही जाएगा।-इतना ही हो जाये तो काफी.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख.
आम तौर पर ऐसा कम ही होता है, कि आप कुछ अच्छा करें और कोई दिल खोल कर आपकी तारीफ़ करे. तारीफ़ करने वाले को भय रहता है कि कहीं इसे मुझसे ज़्यादा न समझ लिया जाये.
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