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Wednesday 23 February 2011

दोस्तों का कर्ज कैसे उतारेंगे?

बैंकों से लिया कर्ज तो हम जैसे-तैसे उतार भी सकते हैं लेकिन हम पर जब दु:ख पड़ा तो अपने गम भुला कर जिन यार-दोस्तों ने अपनी रातें हमारे लिए जागते हुए काटी उनका कर्ज कैसे उतारेंगे? रिश्तेदार सुख में पहले पहुंच जाते हैं और दोस्त दु:ख बांटने बिना बुलाए पहुंचते हैं। मित्रों को यह अपेक्षा भी नहीं होती कि कोई याद रखे उन्होंने क्या किया। दूसरी तरफ कई रिश्तेदार ऐसे भी होते हैं जो करते कम गिनाते ज्यादा हैं। हम कभी तो वक्त निकालें और हिसाब-किताब ही लगा लें दोस्तों ने हमारे लिए कब-क्या किया और बदले में हम भी कुछ कर पाए या नहीं। कहीं दोस्तों को भी दो रुपए के पेन की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहे-यूज एन थ्रो..!
कालका रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद काफी देर तक इंतजार के बाद भी कालका चौराहे पर जब कोई बस आती नहीं दिखी तो मेरी तरह कुछ अन्य यात्रियों ने भी टैक्सी से ही शिमला जाने का निर्णय कर लिया। एक बड़ी गाड़ी रोकी लेकिन गाड़ी चालक की शर्त थी चार से ज्यादा सवारी नहीं बैठाऊंगा, जबकि गाड़ी की क्षमता सात-आठ सवारी की थी। खैर, हम चार लोग सवार हो गए। कुछ दूर जाने के बाद उसने गाड़ी रोक दी, पूछने पर कारण बताया कि उसका दोस्त शिमला की तरफ से सवारी लेकर काफी पहले चल पड़ा है बस पहुंचने ही वाला है। बहुत अच्छी गाड़ी है, मेरा दोस्त भी बहुत अच्छा है, आप लोगों को जरा सी भी परेशानी नहीं होगी। जितनी देर उसका टैक्सी चालक दोस्त नहीं आया वह उसकी तारीफ करता रहा। बाद में यही सिलसिला उस दूसरे दोस्त ने भी अपने दोस्त की तारीफों के साथ निभाया।
इन दोनों में से एक की गाड़ी हरियाणा पासिंग है और दूसरे की गाड़ी हिमाचल के नम्बर वाली। दोनों में से किसी एक की टैक्सी हिमाचल बैरियर के उस पार जाए तो निर्धारित टैक्स तो चुकाना ही पड़ेगा और बाकी झंझट तो हैं ही। दोनों 20 साल से पक्के दोस्त भी हंै, रास्ता यह निकाल रखा है कि एक कालका से शिमला के लिए सिर्फ चार सवारी अपनी गाड़ी में बैठाता है, मोबाइल पर अपने दोस्त को जानकारी देता है। दूसरा दोस्त शिमला से हरियाणा की ओर जाने वाली सवारी बैठाता है। दोनों दोस्तों ने बैरियर से पहले ऐसी सुविधाजनक जगह तय कर रखी है जहां सवारी की अदला-बदली कर लेते हैं। फिर चल पड़ते हैं अपने-अपने राज्य के रास्तों पर सवारी लेकर। इन दोनों दोस्तों ने अपनी मित्रता और ड्राइवरी पेशे में ये जो ईमानदारी रखी है उसका फायदा यह कि इन्हें सवारी छोडऩे के बाद वापसी में बहुत कम खाली गाड़ी लेकर आना पड़ता है।
वैसे तो माना यह जाता है कि कोई बिजनेस दोस्त के साथ मिलकर शुरू करो तो कुछ साल में ही साझेदारी में बढ़ती हिसाब-किताब की दरार दोस्ती के दूध में नींबू की एक बून्द जितना असर दिखा देती है और दही बनने के बाद उसे फिर से दूध नहीं बनाया जा सकता। इन दोनों की मित्रता लंबे समय से निभ रही है तो सबसे बड़ा कारण यही है कि दोनों ने उतनी ही ईमानदारी पेशे में भी बनाए रखी है। हम अपनी प्रशंसा तो सुनते ही रहना चाहते हैं लेकिन अपने दोस्त की प्रशंसा करते वक्त रवैया ऐसा हो जाता है जैसे शब्दों को खरीद कर लाए हों।
हम सब यह तो जानते हैं कि कई मामलों में पत्नी, बच्चों, परिजनों से ज्यादा अपने दोस्त पर भरोसा करते हैं, उसे वह सारे राज भी बताने में नहीं हिचकते जो हम बाकी लोगों से छुपा लेते हैं। लंबी मित्रता भी तभी चल सकती है जब दोनों बिना किसी निमंत्रण की अपेक्षा के एक-दूसरे के दु:ख में रिश्तेदारों के आने से पहले पहुंच जाते हैं और हजारों की भीड़ में भी गला फाड़ कर नहीं चिल्लाते कि हम कब, किस मोड़ पर काम आए थे। दोस्त ही होते हैं जो न तो अपना अहसान गिनाते हैं और कोई ऐसी चर्चा छेड़ भी दे तो खुद बात भी बदल देते हैं।
दोस्तों ने हमारे लिए क्या किया जब इसका हिसाब लगाने बैठे तो हाथों-हाथ यह भी देख लें आपने दोस्तों के लिए क्या किया? हो सकता है तब हमें झटका लगे क्योंकि वो सब तो हमारे दु:ख में अपनी रात काली करते रहे और जब इन दोस्तों में से किसी को हमारे फोन की अपेक्षा थी तब हम खर्राटे भर रहे थे। साहूकार और बैंक का कर्ज तो हम देर-सवेर उतार देते हैं लेकिन दोस्तों के अहसान का कर्ज तो मासिक किश्तों से भी नहीं उतारा जा सकता। इसका आसान तरीका तो यही है कि जब दोस्त मुसीबत की बौछारों में भीगता नजर तो बिना विलम्ब के हम छाते जैसा व्यवहार करते नजर आएं।
अभी दोस्ती की मिसाल का दिल को छू जाने वाला एक और प्रसंग देखने को मिला। लंबे समय से बीमार चल रहे दोस्त की मौत हो गई। सरकारी विभाग में कार्यरत इस दोस्त के परिजनों को नियमानुसार जो मिलना होगा वह तो मिलेगा ही समस्या तो अभी की थी। उसके दोस्त ने परिजनों को जाकर दिलासा दिया कि प्रतिमाह 10 हजार रुपए मंै भिजवाऊंगा साथ ही यह भी खुलासा कर दिया कि यह उस लाखों की राशि के ब्याज की राशि है जो उस दोस्त ने बिना लिखा-पढ़ी के उसके पास बीमारी से पहले बैंक में जमा करने को दिए थे। यदि यह दोस्त लाखों की इस राशि की जानकारी नहीं भी देता तो कोई क्या कर लेता, वैसे भी लिखा-पढ़ी तो कहीं है नहीं। अन्य दोस्त भी अपनी इच्छा से इस दोस्त के परिवार की मदद कर रहे हैं तो इसलिए कि वह भी बिना किसी अपेक्षा के दोस्तों के सुख-दु:ख में दिन-रात एक कर देता था। हम किसी के ऐसे दोस्त साबित हुए क्या, और यदि कोई हमारा ऐसा दोस्त हो सकता है तो छोटी-मोटी नाराजी को याद रखने जैसा महान काम करके हम उसे पा कर खोने जैसी घटिया हरकत तो नहीं कर रहे?

Thursday 10 February 2011

अभी नहीं तो कभी नहीं

हम एक साथ कई कामों को करने की सोचते हैं जो काम नहीं कर पाते उसके लिए बड़ा सहज कारण भी तलाश लेते हैं कि वक्त ही नहीं मिलता। इसी कारण कई कामों को कल पर टाल देते हैं वक्त की नदी कल-कल करती बहती रहती है और कल के लिए छोड़ गए काम तब हमारे लिए पहाड़ से हो जाते हैं जब हमारे पास वक्त तो होता है, लेकिन उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर उन छोड़े गए कामों की गठरी खोलने जितनी ताकत भी नहीं होती हाथों में।
मीडिया से जुड़े मेरे एक अजीज दोस्त से फोन पर बात हो रही थी। फ्यूचर की अपनी प्लानिंग बताते हुए उन्होंने कहा दो किताबें लिखना है, दिमाग में खाका तैयार है। तो कब से काम शुरू कर रहे हैं, यह मान कर चलें कि इसी साल में ये किताबें पूरी हो जाएंगी। मेरी इस जिज्ञासा पर मित्र का जवाब था बस थोड़ा वक्त मिल जाए। मैने उन्हें याद दिलाया कि आज से करीब तीन महीने पहले भी आप ने इसी उत्साह से एक किताब की भूमिका बताई थी, इसका मतलब यह कि वह किताब प्रिंट होने के लिए दे दी है? उन्होंने कहा अरे नहीं यार, उस किताब का काम भी रुका पड़ा है। एक चेप्टर भी नही हो पाया। बस थोड़ा वक्त की प्रॉब्लम है, समय मिलते ही सबसे पहले उसी किताब का काम शुरू करूंगा। फिर वे खुद ही अपने उन मित्रों के नाम गिनाने लगे जिन्होंने अपने मन पसंद सब्जेक्ट पर एक से अधिक किताबें लिख डाली है और इन किताबों के कारण उनकी अलग पहचान भी बनी है। मुझे लगता है यह मेरे मित्र की ही नहीं हम सब की प्रॉब्लम है। हमें जो काम करना होता है बस उसी के लिए वक्त नहीं मिलता बाकी सब कामों के लिए वक्त मिल जाता है। घर से निकलते वक्त टेलीफोन, बिजली का बिल तो लेकर निकलते हंै, लेकिन जमा कराने का वक्त नहीं मिलता। नतीजा यह कि हम में से ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है कि लेट फी के साथ ही बिल जमा कराते हैं, देरी से बिल जमा कराने के लिए जाने कहां से वक्त मिल जाता है। आयकर विभाग महीनों पहले रिटर्न दाखिल करने की अंतिम तारीख घोषित कर देता है लेकिन हमारी चेतना अंतिम तारीख वाले दिन ही जाग्रत होती है। इसके ठीक विपरीत फ्लाइट का टिकट पहले से बुक करा रखा हो, ट्रैन या फिल्म का टिकट करा रखा हो तो इन सारी जगहों पर हम यह नहीं करते कि वक्त मिलने पर चले जाएंगे। यहां तो हम बाकी काम निपटा कर समय से दस मिनट पहले ही पहुंचने की कोशिश करते हैं। चौबीस घंटे बाद अगले दिन का सूर्योदय होना ही है यह हमें पता है। किसी दिन ऐसा नहीं हुआ कि सूरज इसलिए नहीं निकला हो कि उसे वक्त ही नहीं मिला। ना ही कभी ऐसा हुआ कि चांद इसलिए सुबह देर तक चांदनी बिखेरता रहा कि उसे अस्त होने का वक्त ही नहीं मिला। कभी ऐसा हुआ क्या कि पतझड़ के मौसम में चार महीने बारिश होती रही हो या ठंड के मौसम में लगातार महीनों तक तेज गर्मी पड़ती रही हो। प्रकृति में होने वाले बदलाव के महीने तय हैं। शुक्लपक्ष में चांद महीने से शुरू होकर पूर्णिमा को ही पूर्णाकार नजर आएगा। सब के काम तय हैं और वक्त भी निर्धारित है, कभी प्रकृति को ना वक्त कम पडऩे की शिकायत करते सुना और न ही यह सुनने में आया कि पूर्णिमा पर दूज जैसा चांद इसलिए दिखा कि उसे पूरा निखरने का वक्त ही नहीं मिल पाया।
आखिर हमें ही क्यों वक्त कम पड़ जाता है या जो काम जब कर लेना हो उसके लिए बस उसी वक्त हमें समय नहीं मिल पाता। जो काम हम आज जितने अधिक उत्साह से कर सकते हैं जरूरी नही कि दस-बीस साल बाद भी उतनी ही स्फूर्ति से कर पाए। हम सपने तो देखना जानते हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने की प्लानिंंग नहीं कर पाते लिहाजा हमारे पास वक्त ही नहीं होता। पढ़ते तो बचपन से रहे हैं 'काल करे सो आज करÓ लेकिन इस का मतलब उम्र के अंतिम पड़ाव पर तब पता चलता है जब हमारे पास वक्त तो खूब होता है लेकिन खुद के बलबूते चार कदम चलने जितनी ताकत भी नहीं रहती। कितना मशीनी जीवन है हमारा पैसा कमाने के चक्कर में सपने पूरे करने का वक्त नहीं और जब वक्त होता है तब लम्बे समय से कल पर टाले गए सपने पूरे करने का हौसला नही रह पाता। जबकि हमारे आसपास ही ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो समय को हर दिन के अपने कामों के हिसाब से बांट कर तय समय में उस काम को पूरा कर ही लेते हैं। हमारी ही तरह ऐसे लोगों को भी वही चौबीस घंटे ही मिलते है। वक्त तो सबको समान ही मिलता है और अवसर सब के दरवाजे पर दस्तक भी देते हैं जो दरवाजा खोल कर अवसरों का स्वागत करते हैं वक्त उनके कदमों में लिपट जाता है और जब हम वक्त की रफ्तार के मुताबिक चल नहीं पाते तो गुजर गए कारवे के बाद उड़ती हुई धूल को निहारते हुए हाथ मलने से ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाते। तब हालात बिल्कुल ऐसे ही हो जाते हैं कि तेज भूख लगे, जेब बादाम-अखरोट सहित बाकी ड्रायफू्रट भी भरे हो लेकिन चबाने के लिए दांत ही नहीं हो।