पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 21 October 2009

उपहार के तराजू में भावनाओं का तौल क्यों!

अभी कई मित्रों-अधिकारियों के बीच दीपावली पर मिलने-मिलाने का अवसर आया। यह देखकर अच्छा लगा कि कई दिनों से स्टाफ के बीच बधाइयों के साथ ही मिठाइयों का दौर चल रहा था। ऐसे ही एक कार्यालय में मेरे सामने भी एक हाथ में मिठाई और दूसरे में ड्राईफ्रूट का खुला पैकेट लिए कर्मचारी खड़ा था। मैंने मिठाई का एक पीस लेते हुए सहज ही पूछ लिया कि ये किस खुशी में? अधिकारी मित्र का जवाब था। बस ऐसे ही!
अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैंने फिर कुरेदा। कोई तो कारण है, बताइए तो सही। उनका जवाब सुनकर अच्छा लगा कि दीपावली तो है ही खुशियां बांटने का पर्व। इन दिनों मुलाकात के लिए जितने भी लोग आए हैं, कोई ड्राईफ्रूट, मिठाई तो कोई चॉकलेट का गिफ्ट पैकेट भी बधाई के साथ देकर जा रहा है। आखिर हम कितना खाएंगे और कितने दिन तक खाएंगे? सोचा क्यों न अपने साथियों के बीच खुशियां बांटी जाएं, लिहाजा कई दिनों से यह दौर चल रहा है। कुछ पैकेट तो अनाथाश्रम में भी भिजवा दिए।
मैंने सहज रूप से कहा-ये तो हमारे लिए अच्छी खबर हो सकती है। उनका जवाब था, 'इसमें खबर जैसा क्या है? मैंने अपने पास से क्या किया, ये पद और ये त्योहार ही ऐसा है कि लोग अपनी आत्मीयता दिखाने का अवसर छोड़ना ही नहीं चाहते।'
बात छोटी सी है। मुझे जो अच्छा लगा वह यह कि खुशियों को बांटने के तरीके तो कई हैं, लेकिन क्या हम ऐसा भी कर पाते हैं? ऐसा नहीं कि स्टाफ के साथियों या अनाथाश्रम के बच्चों को मिठाई का स्वाद पता नहीं है, लेकिन उपहार वाली खुशियों को प्यार से अपनों में बांटना भी छोटी बात नहीं है। जब हम छोटे थे तब जन्मदिन पर मिली चाबी वाली कार भले ही सात दिन में खटारा कर दी हो, लेकिन अपने छोटे भाई-बहन के हाथ लगा लेने पर भी पूरा घर आसमान पर उठा लेते थे, क्योंकि वह हमें बर्थडे में मिला गिफ्ट जो था।
बड़े होने के साथ ही हममें समझ भी बढ़ती जाती है और तब बचपन के ऐसे किस्सों को याद कर हंसी भी आती है। संस्कारों, संवेदना और सामाजिक ताने-बाने के बीच अब फूल, मिठाई, गिफ्ट पैक जैसे उपहारों के सहारे हम सम्मान एवं खुशी व्यक्त करने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते। बात सिर्फ खुशी व्यक्त करने की ही नहीं है, अब तो रिश्तों की टूटन और मजबूती में भी उपहारों की अहमियत बढ़ती जा रही है।
विवाह समारोह हो, रक्षाबंधन, भाईदूज हो या जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ जैसे मंगल प्रसंग। हम सब अपेक्षा तो बहुत कुछ रखते हैं और जब अनुमान की तराजू पर उपहार का भार हल्का नजर आने लगता है तो मजबूत रिश्तों में भी दरार बढ़ने लग जाती है। शायद ऐसे ही कारणों से हमें वह निमंत्रण पत्र बहुत पसंद आते हैं जिनमें मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता है-आपका आशीर्वाद ही हमारे लिए उपहार है।
वर्ष में ऐसे कई अवसर आते हैं, जब हमें अपनी हैसियत या उससे भी आगे जाकर कुछ ना कुछ करना ही पड़ता है। यह सब समाज और रिश्तों की मजबूती के लिए अनिवार्य सा लगता है। जहां अपेक्षा अधिक हो, वहां महंगे से महंगे उपहार का मूल्य भी कम ही आंका जाता है। हमारे एक नजदीकी परिवार ने रिश्तों की अमरबेल को हरा-भरा रखने का अच्छा हल खोज रखा है। मुझे तो लगता है बाकी परिवारों को भी ऐसे ही कुछ मध्य मार्ग तलाशने चाहिएं। छोटे खर्च की बात हो तो परफ्यूम, किताब, पौधे, मूर्ति और बड़े खर्च की नौबत आए तो रिश्तेदार को फोन करके अपना बजट बता देते हैं और बड़ी विनम्रता से पूछ भी लेते हैं-आप चाहें तो यह राशि नकद दे दें जो आपके खर्चों में सहायक हो सकती है या इतनी ही राशि के आसपास की कोई ऐसी वस्तु ला दें जो अन्य कोई रिश्तेदार न दे रहे हों। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब तीन-चार रिश्तेदारों के बीच समझ बैठा कर उन्होंने भारी भरकम उपहार भेंट कर संबंधित रिश्तेदार का तनाव भी कम कर दिया।
कहने को तो यह बात उपहारों के आदान-प्रदान में सर्वसम्मत रास्ता निकालने की है, लेकिन जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में भी यदि इतना ही खुलापन आ जाए तो तनाव के साथ ठिठकने वाली रात के बाद का सूयोüदय तो राहत की रोशनी लेकर ही आएगा। हमारे साथ परेशानी यह है कि अकसर हम उपहारों के चक्कर में भावनाओं का तौल-मौल करने लग जाते हैं। जब हम किसी के लिए उपहार लेकर जाते हैं तो मन ही मन उधेड़बुन चलती रहती है कि सामने वाला हमारी भावनाओं को बेहतर समझ ले। पर क्या हम खुद अपनों की भावनाओं को समझ पाते हैं। हमें तो अपना दुःख पहाड़ और सुख राई के दाने सा लगता है। पराई थाली में अधिक घी नजर आने की ऐसी आदत पड़ी हुई है कि अच्छे मन से किए काम की भी मन से सराहना करने में इसलिए हिचकिचाते हैं कि हम उसमें कारण तलाशते रहते हैं। हमारा मन तो जैसा है, ठीक है हमारी नजर भी इतनी घाघ हो गई है कि रैपर उतारने से पहले ही उपहार का एक्सरे तो कर लेती हैं लेकिन भावनाओं की झंकार नहीं समझ पातीं। लिहाजा कई बार ये उपहार भी रिश्तों में तनातनी और तकरार का कारण बन जाते हैं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

4 comments:

  1. यूँ तो अपने घर में नीति है जो तोहफ़े पसंद न आएँ वह दफ़्तर में ले जा के बाँट दिए जाएँ!

    खम्मा घणी!

    ReplyDelete
  2. ji ye to chalta hi hai,is desh me....

    ReplyDelete
  3. अच्‍छी रचना लिखी है आपने .. जो काम खुद को पसंद नहीं .. वो स्‍वयं न करे तो दुनिया में किसी से संबंध क्‍यूं बिगडे ?

    ReplyDelete
  4. bahut badhiyaa likhaa hain aapne.
    mujhe pasand aayaa.
    aapne samaaj-jan upyogi shikshaa di hain.
    samaaj ke ghattate/badalte moolyo ko bachaane ki koshish ki hain aapne.
    iss lekh dwaaraa ki gayi aapka yeh prayaas jaroor safal hogaa.
    thanks.

    ReplyDelete