दोनों मित्रों में यूं तो खूब पटती थी लेकिन कॉलेज की पिकनिक से लौटने के बाद से बोलचाल बंद है। आमने-सामने होते हैं तो मुंह फुलाए रहते हैं। एक ने आकर अपना दुखड़ा मेरे सामने रोया। उसने जितना बताया, मैंने जो समझा वह यह कि उस मित्र ने अपने इस अजीज दोस्त को मित्रमंडली में उस वक्त टोककर चुप करा दिया था जब वह क्लास के ही एक अन्य साथी, जो वहां मौजूद नहीं था, की खिल्ली उड़ा रहा था। खिल्ली उड़ाने से रोकने वाले दोस्त ने इतना ही कहा था कि तुझमें हिम्मत है तो ये सारी बातें उसकी मौजूदगी में कर।
बात बिलकुल सही थी। ऐसे प्रसंग हमारे साथ भी कार्यालयों, पारिवारिक समारोह में होते ही हैं। कई लोग हां-हूं करते हैं और कुछ चटखारे लेकर उन बातों को पल भर में फैला देते हैं। बदनामी होती है उस शख्स की जिसने किसी के बारे में लूज टॉक की थी। उस शख्स की बाकी अच्छाइयां तो गौण हो जाती हैं और ऐसी बुराई उसके नाम से जुड़ जाती है। शायद इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने बहुत पहले ही कह दिया था-बुराई आदमी के आगे और अच्छाई उसके पीछे चलती है।
इस सहज सत्य को हम मरते दम तक भी समझने की कोशिश नहीं करते। इसीलिए जब हमारे मुंह पर ही कोई हमारी कमियां गिनाने लगता है तो हम ऐसे बिलबिला पड़ते हैं जैसे कटी अंगुली पर किसी ने मिर्च डाल दी हो। एक तो वैसे ही मधुर संबंध डायबिटीज का शिकार होते जा रहे हैं। ऐसे में परिवार में, कार्यालय में या किसी समारोह में अपना ही कोई साथी हमारी कमजोरी बताने लगता है तो बिना एक पल की देरी किए दिल की किताब में उसे ब्लैकलिस्टेड करने के साथ ही मोबाइल की फोनबुक से भी नाम, नंबर डिलीट कर देते हैं।
हनुमानगढ़, सूरतगढ़, श्रीगंगानगर सहित अभी पूरे राजस्थान में निकाय चुनाव हुए हैं। सभापति से लेकर पार्षद पद के लिए जितने भी प्रत्याशी मैदान में थे, इन सबने लोगों से मतों की गुहार के दौरान इसे अच्छी तरह समझा है कि जिन कॉलोनी, समाज वालों को वे अपना मानते रहे, वे भी कितनी छोटी-छोटी बातों की नाराजगी पाले हुए हैं। वैसे तो चुनाव मैदान में उतरने का मतलब ही है अपनी सात पीढ़ियों का अच्छा-बुरा इतिहास लोगों से जान लेना। आईने के सामने खड़े होकर हम नाक पर लगी कालिख, बालों में उलझा तिनका, शर्ट की मुड़ी हुई कॉलर आदि तो ठीक कर सकते हैं लेकिन खुद की बुराइयां पता करने की तो कोई दवाई ईजाद हुई ही नहीं। सोनोग्राफी मशीन भी ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं दे सकती। इन प्रत्याशियों ने मुस्कुराकर, गले मिलकर, चाय-नाश्ता भोजन के सहारे लोगों की नाराजी दूर करने की कोशिश भी की। ये प्रत्याशी जहां जा रहे थे, वहां उनसे पहले उनकी बुराई पहुंच रही थी, कुछ प्रत्याशी ऐसे भी थे जिनके पीछे उनकी अच्छाई चल रही थी।
जो हमारी बुराइयां, कमियां हमारे मुंह पर बताने की हिम्मत रखता है, हम उसे अपना दोस्त भले ही नहीं मानें लेकिन वह हमारा दुश्मन भी नहीं हो सकता। दुश्मन हमारे साथ दोस्त बनकर साथ चलते हैं लेकिन हमें उनकी असलियत जब पता चलती है, तब तक देर हो चुकी होती है। हम भूल जाते हैं कि मुंह पर झूठी तारीफ करने वालों की भीड़ में हमने उस सच्चे आलोचक को खो दिया है, जो अच्छा दोस्त साबित हो रहा था।
जरा याद करिए स्कूल, कॉलेज के दिन, नौकरी-व्यवसाय की शुरुआत के वक्त हमारे भी कुछ दोस्त हुआ करते थे, जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही स्वीकार भी लेते थे कि मुझे झूठी तारीफ करना नहीं आता। कुछ समय तक तो हम ऐसे मित्रों की झूठी प्रशंसा करते हुए कहते थे कि क्वमुंह पर ही खरी-खरी सुनाने की उसकी यही आदत मुझे पसंद हैं लेकिन आज जब उस वक्त को याद करें तो लगेगा हममें से ज्यादातर ने सबसे पहले ऐसे दोस्तों से ही किनारा किया है।
दोस्त ही क्यों, अपने परिजनों में हमें वे ही लोग पसंद नहीं आते जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही अपने अनुभव के आधार पर उस गलती को दुरुस्त करने या झूठ के जंजाल से निकलने का रास्ता भी बताते हैं। चूंकि हम ऐसे लोगों को एक झटके में ही खारिज कर चुके होते हैं, इसलिए उनकी सलाह-सुझाव को भी अनसुना कर देते हैं। यदि किसी की सलाह-सुझाव से हम अपनी गलती सुधार लेते हैं तो उस सलाह देने वाले का तो कोई लाभ होना नहीं है। बचपन में जब गिनती लिखने, जोड़-घटाव करने में हम गलतियां करते थे, तब गुरुजी कभी प्यार से, कभी फटकार और कभी मार से हमारी गलतियां हमसे ही ठीक कराते थे। आज जब मित्रों के बीच हमारा मैथ्स अच्छा होने, बिना केलकुलेटर की मदद से फटाफट हिसाब-किताब जोड़ लेने पर तारीफ होती है तो बड़े गर्व से कहते हैं-बचपन में सर ने मार-मार कर सवाल ठीक कराए, इसलिए आज गणित अच्छा है!
अभी जब हर मोड़ पर अपनी भूल का अहसास कराने वाले अपने ही मिलते हैं तो वे हमें दुश्मन नजर आते हैं।लेकिन झूठी तारीफ करने वाले दोस्तों की भीड़ में तो दुश्मन तलाशना मुश्किल ही रहता है जो आस्तीन के सांप की तरह हमारे साथ रहते हैं और मौका मिलते ही डसने से नहीं चूकते। मुगलों का इतिहास तो हम सभी ने पढ़ा ही है, जितने भी त�ता पलट हुए किसी न किसी बेटे-भाई ने ही इसे अंजाम देकर सत्ता प्राप्त की और सिंहासन पर बैठने के बाद फिर किसी भाई-बेटे ने उसके साथ भी वही सब दोहराया।
अगले हपते फैरूं,खम्मा घणी-सा...
बात बिलकुल सही थी। ऐसे प्रसंग हमारे साथ भी कार्यालयों, पारिवारिक समारोह में होते ही हैं। कई लोग हां-हूं करते हैं और कुछ चटखारे लेकर उन बातों को पल भर में फैला देते हैं। बदनामी होती है उस शख्स की जिसने किसी के बारे में लूज टॉक की थी। उस शख्स की बाकी अच्छाइयां तो गौण हो जाती हैं और ऐसी बुराई उसके नाम से जुड़ जाती है। शायद इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने बहुत पहले ही कह दिया था-बुराई आदमी के आगे और अच्छाई उसके पीछे चलती है।
इस सहज सत्य को हम मरते दम तक भी समझने की कोशिश नहीं करते। इसीलिए जब हमारे मुंह पर ही कोई हमारी कमियां गिनाने लगता है तो हम ऐसे बिलबिला पड़ते हैं जैसे कटी अंगुली पर किसी ने मिर्च डाल दी हो। एक तो वैसे ही मधुर संबंध डायबिटीज का शिकार होते जा रहे हैं। ऐसे में परिवार में, कार्यालय में या किसी समारोह में अपना ही कोई साथी हमारी कमजोरी बताने लगता है तो बिना एक पल की देरी किए दिल की किताब में उसे ब्लैकलिस्टेड करने के साथ ही मोबाइल की फोनबुक से भी नाम, नंबर डिलीट कर देते हैं।
हनुमानगढ़, सूरतगढ़, श्रीगंगानगर सहित अभी पूरे राजस्थान में निकाय चुनाव हुए हैं। सभापति से लेकर पार्षद पद के लिए जितने भी प्रत्याशी मैदान में थे, इन सबने लोगों से मतों की गुहार के दौरान इसे अच्छी तरह समझा है कि जिन कॉलोनी, समाज वालों को वे अपना मानते रहे, वे भी कितनी छोटी-छोटी बातों की नाराजगी पाले हुए हैं। वैसे तो चुनाव मैदान में उतरने का मतलब ही है अपनी सात पीढ़ियों का अच्छा-बुरा इतिहास लोगों से जान लेना। आईने के सामने खड़े होकर हम नाक पर लगी कालिख, बालों में उलझा तिनका, शर्ट की मुड़ी हुई कॉलर आदि तो ठीक कर सकते हैं लेकिन खुद की बुराइयां पता करने की तो कोई दवाई ईजाद हुई ही नहीं। सोनोग्राफी मशीन भी ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं दे सकती। इन प्रत्याशियों ने मुस्कुराकर, गले मिलकर, चाय-नाश्ता भोजन के सहारे लोगों की नाराजी दूर करने की कोशिश भी की। ये प्रत्याशी जहां जा रहे थे, वहां उनसे पहले उनकी बुराई पहुंच रही थी, कुछ प्रत्याशी ऐसे भी थे जिनके पीछे उनकी अच्छाई चल रही थी।
जो हमारी बुराइयां, कमियां हमारे मुंह पर बताने की हिम्मत रखता है, हम उसे अपना दोस्त भले ही नहीं मानें लेकिन वह हमारा दुश्मन भी नहीं हो सकता। दुश्मन हमारे साथ दोस्त बनकर साथ चलते हैं लेकिन हमें उनकी असलियत जब पता चलती है, तब तक देर हो चुकी होती है। हम भूल जाते हैं कि मुंह पर झूठी तारीफ करने वालों की भीड़ में हमने उस सच्चे आलोचक को खो दिया है, जो अच्छा दोस्त साबित हो रहा था।
जरा याद करिए स्कूल, कॉलेज के दिन, नौकरी-व्यवसाय की शुरुआत के वक्त हमारे भी कुछ दोस्त हुआ करते थे, जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही स्वीकार भी लेते थे कि मुझे झूठी तारीफ करना नहीं आता। कुछ समय तक तो हम ऐसे मित्रों की झूठी प्रशंसा करते हुए कहते थे कि क्वमुंह पर ही खरी-खरी सुनाने की उसकी यही आदत मुझे पसंद हैं लेकिन आज जब उस वक्त को याद करें तो लगेगा हममें से ज्यादातर ने सबसे पहले ऐसे दोस्तों से ही किनारा किया है।
दोस्त ही क्यों, अपने परिजनों में हमें वे ही लोग पसंद नहीं आते जो मुंह पर ही हमारी गलतियां गिनाने के साथ ही अपने अनुभव के आधार पर उस गलती को दुरुस्त करने या झूठ के जंजाल से निकलने का रास्ता भी बताते हैं। चूंकि हम ऐसे लोगों को एक झटके में ही खारिज कर चुके होते हैं, इसलिए उनकी सलाह-सुझाव को भी अनसुना कर देते हैं। यदि किसी की सलाह-सुझाव से हम अपनी गलती सुधार लेते हैं तो उस सलाह देने वाले का तो कोई लाभ होना नहीं है। बचपन में जब गिनती लिखने, जोड़-घटाव करने में हम गलतियां करते थे, तब गुरुजी कभी प्यार से, कभी फटकार और कभी मार से हमारी गलतियां हमसे ही ठीक कराते थे। आज जब मित्रों के बीच हमारा मैथ्स अच्छा होने, बिना केलकुलेटर की मदद से फटाफट हिसाब-किताब जोड़ लेने पर तारीफ होती है तो बड़े गर्व से कहते हैं-बचपन में सर ने मार-मार कर सवाल ठीक कराए, इसलिए आज गणित अच्छा है!
अभी जब हर मोड़ पर अपनी भूल का अहसास कराने वाले अपने ही मिलते हैं तो वे हमें दुश्मन नजर आते हैं।लेकिन झूठी तारीफ करने वाले दोस्तों की भीड़ में तो दुश्मन तलाशना मुश्किल ही रहता है जो आस्तीन के सांप की तरह हमारे साथ रहते हैं और मौका मिलते ही डसने से नहीं चूकते। मुगलों का इतिहास तो हम सभी ने पढ़ा ही है, जितने भी त�ता पलट हुए किसी न किसी बेटे-भाई ने ही इसे अंजाम देकर सत्ता प्राप्त की और सिंहासन पर बैठने के बाद फिर किसी भाई-बेटे ने उसके साथ भी वही सब दोहराया।
अगले हपते फैरूं,खम्मा घणी-सा...
सही संदेश देती कथा..इन्तजार रहेगा अगले हफ्ते.
ReplyDeleteexcellent.
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