पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday 24 September 2009

संस्कार ही नहीं देंगे तो श्रद्धा कैसे पाएंगे

फोटो फ्रेम करने वाले की दुकान पर एक सज्जन टूटे कांच वाली तस्वीर लिए आए और शीशा कम से कम दाम में बदलने का अनुरोध करने लगे। तस्वीर की हालत बता रही थी कि महीनों से झाड़-पोंछ तक नहीं की गई है। उन दोनों की चर्चा में जो कुछ समझ आया वह यह कि तस्वीर उनकी माताजी की है और श्राद्ध की तिथि होने के कारण टूटा शीशा इसलिए बदलवाना पड़ रहा है कि कुछ रिश्तेदारों को भोजन पर बुलाया है, ऐसी तस्वीर अच्छी नहीं लगेगी।

एक सप्ताह पहले के इस प्रसंग ने मुझे कबीर की पंक्तियां याद दिला दी जिसका भाव यह था कि जीते जी तो मां-बाप को पूछते नहीं और मरे बाद उनके श्राद्ध पर खीर-पूरी का भोग लगाते हैं। हर वर्ष श्राद्ध पक्ष आता ही है, दिवंगत बुजुर्गों की हमें याद भी आती है, श्राद्ध कर्म भी करते हैं। श्राद्ध पक्ष वाली तिथि पर तो हमारा रोम-रोम दिवंगतों के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण रहता है लेकिन जब वे लोग जिंदा थे तब? तब तो उनके कमरे के सामने से दबे पांव निकल जाते थे। उनकी सलाह-समझाइश उक्ताहट पैदा करती थी।

सिर्फ श्राद्ध ही दिवंगतों की याद की औपचारिकता बनकर रह गए हैं ऐसा नहीं है। नवरात्रि के इन दिनों को नारी शक्ति पर्व के रूप में मनाने, नौ दिन उपवास रखकर देवी आराधना करने के बाद भी हमें बेटियों का महत्व समझ नहीं आ रहा है। कंजक पूजन करने के लिए हमें हर नन्हीं परी में देवी स्वरूप नजर आता है। हंसती-खिलखिलाती इन नासमझ बालिकाओं के कदम हमारे घर में कुछ ही देर के लिए पड़ते हैं, उतने में ही हम माता रानी की कृपा से भावविभोर हो जाते हैं। पूजन के लिए नौ कन्याओं को जुटाने के लिए एक सप्ताह से की जाने वाली मशक्कत भी हममें यह समझ पैदा नहीं करती कि बेटे से वंश चलाने का सपना भी तभी पूरा होगा जब परिवार में बहू आएगी। इन नौ दिनों में हम देवी के शçक्त रूप की आराधना तो इसी भावना से कर रहे हैं कि पौराणिक कथाओं में देवी के हाथों दानवों के संहार हमें रोमांचित करते हैं। अब उल्टा हो रहा है, बस पता चल जाए कि कोख में बेटी है, हममें से ही कई लोग पल भर में दानव नहीं बन जाते हैं?

कितना अफसोसजनक है कि न श्राद्ध हमें जीवित बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव याद दिला रहे हैं और न ही कम होती बेटियों के लिए नवरात्रि हमें कंजक पूजा का अर्थ बता पा रही है। हमारी चेतना कमरे में लगे स्विच बोर्ड से भी बदतर हो गई है। वहां तो फिर भी स्विच ऑन करने पर कमरा रोशन हो जाता है लेकिन हमारे तो दिमाग का बल्ब ही फ्यूज़ हो गया है। रूटीन लाइफ का हिस्सा बन गए हैं पर्व-त्यौहार! यही कारण है कि साल में एक बार वरिष्ठ नागरिक दिवस तो मनाना ही पड़ रहा है। बहू-बेटियों को संस्कारित करने के लिए भी प्रशिक्षण शिविर लगाने पड़ रहे हैं। जब हम ही संस्कारों को भूलते जा रहे हैं तो अपने बच्चों से किसी तरह की अपेक्षा करना कितना उचित होगा? इसलिए जरूरी है कि हम बच्चों को अच्छे संस्कार स्वयं के आचरण से दें, तभी तो बदले में उनसे हमें श्रद्धा मिलेगी।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

फोन/एसएमएस पर प्रतिक्रिया
बेटियों को बचाने के लिए आपने बहुत अच्छा लिखा है। ऐसा ही लिखते रहिए। कुछ तो असर होगा। 98281-94116, वेद प्रकाश शर्मा, मिस्त्री घडसाना
आपके सारे लेख का कलेक्शन कर रखा है। अच्छा लिखते हैं। छोटी सी बात को शब्दों में ढालना आता है। मैं प्रशंसक हूं, आपके लेखों का।
96024-12161, मोहित (एमआर), हनुमानगढ़
संस्कार दे कहां से, हम खुद संस्कार विहीन हैं, हम केवल नाटक करते हैं। साहित्य का भी असर इसलिए नहीं होता, क्योंकि वह भी पुरस्कार पाने के हिसाब से लिखा जा रहा है।
94145-64666, दीनदयाल शर्मा, बाल साहित्यकार, हनुमानगढ़
आज का पचमेल ज्यादा प्रसंगिक है। पूजन की क्या प्रासंगिकता है, यह याद दिलाता है पाठकों को।
98291-76391, विनोद स्वामी, परलीका
जो पढेगा जिनको पुत्र होने की चाहत होती है, उन्हें कुछ तो समझ आएगी।
91660-76645, सुरेंद्र कुमार सत्संगी, तहसीलदार नोहर
बेटियों को बचाने के लिए अच्छा लिखा है। लेकिन कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण दहेज प्रथा है, जब तक यह प्रथा खत्म नहीं होती, बेटियों के प्रति क्रूर रवैया भी खत्म नहीं होगा।
92142-64998, विनोद कौशिक, योग प्रशिक्षक, श्रीगंगानगर।

Wednesday 16 September 2009

अपने ही होते हैं आंसू बहाने वाले

फोन पर जानकारी मिली कि हमारे एक परिचित के बेटे की बाइक स्कूल से लौटते वक्त किसी अन्य वाहन चालक से टकरा गई है। हालांकि उनके बेटे को चोट वगैरह नहीं लगी थी लेकिन हमारा मन नहीं माना। क्योंकि जब किसी भी बच्चे के साथ कोई अनहोनी, अकल्पनीय घटना होती है तो हमें अपने बच्चों की चिंता सताने लगती है और जब कोई अंजान बच्चा उपलब्धियों के झंडे गाड़ता है, तब भी हमें तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच पर मुस्कुराते उस चेहरे में अपने बच्चे नजर आते हैं।
जितनी भी देर हम वहां बैठे मुझे रह-रहकर दिमाग में ये पंक्तियाँ याद आती रहीं, 'हम उन्हें ही रुलाते हैं जो हमारी परवाह करते हैं।' बाइक-लूना की टक्कर में गाड़ी ही डेमेज हुई थी, बच्चा सुरक्षित था। मां-बाप बेटे को हिदायत दे रहे थे- भगवान का शुक्र है कि कुछ नहीं हुआ। एक तरह से यह तेरे लिए चेतावनी है, गाड़ी धीरे चलाया कर!
परिजनों की समझाइश को अनसुनी करते हुए पुत्र बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था- मुझे चोट तो नहीं लगी न, आप लोग बेवजह परेशान हो जाते हैं। आपको तो यही लगता है मैं गाड़ी तेज चलाता हूं।
आंसुओं को बरबस रोकने की कोशिश करते और वाहेगुरु का शुक्रिया अदा करते हुए मां कह रही थी- पुत्तर तैनूं चोट तां नईं लग्गी, जे कुझ घट-वद हो जांदा तां की करदे? पुत्तर था कि हाथ में बंधे डोरे दिखाने के साथ ही बात को घुमा रहा था- माता रानी का डोरा बंधा है कैसे होता कम ज्यादा। मेरे फ्रेंड सही कह रहे थे, ये सितंबर महीना सभी के लिए खराब है।
एक्सीडेंट छोटा सा सही लेकिन हुआ तो था। मुझ सहित उसके परिजनों को तो यह दिन शुभ लग रहा था कि एक्सीडेंट के बाद भी वह सही सलामत था। हमारी सोच भी अपने शुभ-लाभ के मुताबिक तय होती है। किसी दिन कुछ अच्छा हो जाए तो दिन को सेहरा बांध देते हैं और कुछ अशुभ हो जाए तो उसी दिन के मुंह पर कालिख पोत देते हैं। कैलेंडर गवाह है कि रविवार के बाद सोमवार का आना तय है लेकिन हर सवाल के जवाब की फीस लेने वाले प्रकांड ज्योतिष भी यह दावा नहीं कर पाते कि अगला पल उनके लिए कैसा रहने वाला है। ऐसे में यदि हम अपने स्तर पर सजगता, सावधानी और समझ से काम लें तो हमें दिन को दोषी ठहराने का बहाना शायद ही ढूंढना पड़े। रही बात गंडे-ताबीज और माता रानी के डोरे की तो आंसुओं में भी आशीर्वाद की इबारत लिखने वाले मां-बाप से बड़े कोई देवी-देवता हो नही सकते। फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तमाम देवी-देवताओं ने भी मां-बाप का प्यार पाने के लिए जन्म लिया है। कच्चे धागों के प्रति तो हम अटूट विश्वास रखते हैं लेकिन मां-बाप की समझाइश में छुपी हमारे भविष्य की खुशहाली का एहसास हमारे मन को नहीं छू पाता। अपनों के आंसू हमें इसलिए अनमोल नहीं लगते क्योंकि वह हमारी खुशहाली के लिए बहाए जाते हैं।
शायद ही कोई परिवार हो जहां ऐसे दृश्य दिखाई न देते हों। जिसने नौ माह पेट में रखा, जन्म दिया, मुसीबतें झेल कर बड़ा किया, उस मां और हर सुख उपलब्ध करवाने वाले पिता की सीख और समझाइश पर झुंझलाते बच्चों को पेरेंट्स की आंखों में कैद खारे पानी का समंदर नजर नहीं आता। अब तो लगता है मदर्स डे, फादर्स डे, टीचर्स डे के लिए फूल और उपहार पर खर्च भी अधिकांश बच्चे इसीलिए करते हैं कि बाकी 364 दिनों के लिए फिर से अपने मन की करने, अपनों का दिल दुखाने का नया खाता शुरू कर सकें। उपहार भेंट कर आप अपनी भावना प्रदर्शित करना तो जानते हैं लेकिन जरूरी यह भी है कि अपनों की भावना को समझना भी सीखें।
दिल रोए और चेहरा मुस्कुराता नजर आए इसके लिए मां से बढ़िया और कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। बच्चे को लगी हल्की सी चोट पर रात भर जागने वाली मां की चिंता को बच्चे भले ही मजाक में उड़ा दें लेकिन क्वचोट तो नहीं लगीं यह पूछते वक्त भी वह अंदर ही अंदर रोती रहती हैं। ज्यादातर माएं तो अब 'मन ही मन रोना फिर भी मुस्कुराते रहना' इसलिए भी सीख गई हैं क्योंकि जिन बच्चों के हल्के से दर्द पर वे खाना-पीना भूल जाती हैं, उन बच्चों को पता ही नहीं है कि दर्द और आंसू क्या होते हैं।
किसी को भी रुलाना ज्यादा आसान है लेकिन हंसाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। अब तो चाहे पेट में गुदगुदी करो या पंजे में। कई लोगों के चेहरे पर हंसी तो दूर हलचल तक नजर नहीं आती। सब कुछ पाने की आपाधापी में हम परवाह करने वालों के आंसुओं को भी नजरअंदाज करने लगेंगे तो मिलने वाली खुशियां भी बदकिस्मती में बदलती जाएंगी। हमारे परिवारों में तो बेमतलब हंसना भी पागलपन की नजर से देखा जाता है। ऐसे में अपनी नासमझी से परिजनों के लिए आंसुओं को आमंत्रित करना समझदारी तो नहीं कही जा सकती।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

17 सितंबर के पचमेल पर पाठकों के विचार
अपनों का दर्द अपने लोगों को जब तक समझ आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है फिर वो अपने ही बहाते हैं आंसू

दीनदयाल शर्मा, साहित्यकार, हनुमानगढ़

भाईसाब, आप के पचमेल ने तो सचमुच भावुक कर दिया, मेरी संवेदनाओं को छूने वाला, बहुत अच्छा, अद्भुत है।

सीपी जोशी, उद्यमी

पचमेल भावपूर्ण है, सधी हुई भाषा में समाज को संस्कृत करने का अच्छा प्रयास है, अभिव्यक्ति भी लाजवाब, साधुवाद।

एसएन सोनी, राजस्थानी भाषा साहित्यकार, परलीका।

आपके कॉलम में निरंतर निखार आ रहा है। इसे सीधे रोजमर्रा के मुद्दे से जोडें, जैसे यह टॉपिक रखा है। इसमें धीरे-धीरे व्यंग्य का पुट आता जाएगा।

गंगासिंह, पूर्व कर्मचारी, 97832-२२१२२

आज का पचमेल तो बहुत बढ़िया है, दिल को छूने वाला है। बृहस्पतिवार का इंतजार रहता है।

ज्योतिष जगदीश सोनी, 93527-04003

ये लेख ऐसा है, बाकी कुछ पढूं ना पढूं इसे जरूर आंखों से गुजार लेता हूं। ये लेख बहुत भावुक करने वाला है, ऐसे ही लिखते रहिए।

जनार्दन स्वामी, को-ऑप। बैंक, हनुमानगढ़, 94623-94625

आप जमीन से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं, आज का लेख बहुत अच्छा है।

हरिराम बिश्नोई, एडवोकेट, 94149-53121

बहुत अच्छा लगा, मेरे बेटे को भी बहुत पसंद आया। आप रोज लिखें।

पत्रकार राजेंद्र उपाध्याय, सूरतगढ़

आपने अभिभावकों के दर्द के साथ ही बच्चों को भी समझाइश दी है।

टीकमचंद, व्यवसायी, श्रीगंगानगर।

Thursday 10 September 2009

सुख को परखने के लिए दुख उम्दा कसौटी

नए शहर में मेरे मित्र अधिकारी ने ज्वाइन तो कर लिया लेकिन कई दिनों से कोई खबर नहीं मिलने पर मैंने ही फोन लगा लिया। घर-परिवार की बातों के बाद जब नई जगह और नौकरी को लेकर जानकारी चाही तो उनकी बातचीत से लगा कि संसार में उनसे ज्यादा दुखी कोई और नहीं होगा। तनख्वाह में कमी नहीं सुविधाएं यथावत, रुतबा पहले जैसा ही। दिक्कत थी तो यह कि उन्हें शहर रास नहीं आ रहा था। इससे पहले वाले शहर की खासियत इस उत्साह से गिना रहे थे, जैसे वहां तीन साल नहीं पीढ़ियों से रहे हों।
मैं उनकी बातें सुनते-सुनते लगभग ऊबने लगा था लेकिन हां-हूं करता रहा तो इसलिए कि कुरेदा भी तो मैंने ही था। अचानक वो बोले-मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां पोस्टिंग होगी। बातचीत का सूत्र मैंने झपटते हुए पूछा यदि आपकी पहली पोस्टिंग वहां के बजाय इस शहर में हो जाती तो? इस तो का कुछ पल जवाब नहीं आया, मैंने फिर प्रश्न दोहराया। ठंडे स्वर में उनका जवाब था-नौकरी तो छोड़ नहीं सकते, ज्वाइन करते और क्या! अब उनकी भाषा किंतु, परंतु, फिर भी, लेकिन वाली हो गई। भाव यही था कि ये शहर वैसे इतना बुरा भी नहीं है।देश काल, परिस्थितियां बदल जाती हैं, लेकिन हम सबके साथ भी अक्सर ऐसा होता रहता है। कुल मिलाकर सारे मामलों में सुख-दुख जुड़ा होता है। वैसे देखा जाए तो सुख को परखने के लिए दुख से उम्दा कोई कसौटी है भी नहीं। हमें आंख के साथ आंसू याद रहते हैं, दिन के साथ रात, बहार के साथ पतझड़ की याद रहती है फिर सुख के दिनों में बेफिक्री की जिंदगी गुजारते वक्त यह याद क्यों नहीं रहता कि दरवाजे के पीछे दुबका हुआ दुख भी तो अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहा है।
अच्छा तो यही है कि पहले दुख हमारा आतिथ्य स्वीकारे क्योंकि वही तो हमें सुख की प्रतीक्षा करना सिखाता है। दुख में अकेला दिन ही 24 घंटे का हो जाता है लेकिन सुख में दिन-रात 12 घंटे के हो जाते हैं। दुख है कि काटे नहीं कटता और सुख पलक झपकते ही फुर्र हो जाता है। पता है कि कहने से दुख कम होगा नहीं, सहना हमें ही पड़ेगा फिर हंसते हुए भी तो ये दिन काट सकते हैं, दुख के दंश बिना सुख की अनुभूति भी कहां होती है। केदारनाथ और वैष्णोदेवी की यात्रा करने वाले थकते-हांफते-पसीना बहाते, दवाइयां खाते जैसे-तैसे दरबार में पहुंचते हैं। बस चौखट पर कदम रखते ही सारा दुख पलक झपकते हवा हो जाता है। जितने घंटे की यात्रा करके मंदिर तक पहुंचते हैं। चाहकर भी उतने वक्त मंदिर में नहीं रुक पाते। लौटते वक्त परेशानियों वाली वही ऊबड़-खाबड़ राह हमें दुखों से जूझने में अभ्यस्त कर चुकी होती है। ज्यादातर प्राचीन मंदिर और शक्तिपीठ पहाड़ों वाले रास्तों पर संभवतज् इसीलिए स्थापित हैं कि हम दुख के बाद मिलने वाले सुख को जान सकें।जो जिंदगी मिली है जब वही स्थायी नहीं है तो यह मानकर हताश होना भी ठीक नहीं कि दुख तो पीछा नहीं छोड़ेगा। अपने उत्पाद बेचने के लिए बड़ी कंपनियों ने एक के साथ एक फ्री की स्कीम अब चलाई है, हमें तो जन्म लेते ही सुख-दुख के उपहार साथ मिल जाते हैं। जो दुखी है वह सुख की लालसा में सूखे जा रहा है और जो सुखी है उसे इस चिंता में नींद नहीं आती कि कोई उसे सफलता के उस शिखर से नीचे न धकेल दे। कांटों से घिरा रहने के बाद भी गुलाब अपनी खूबसूरती और खुशबू बिखेरता रहता है। हम हैं कि अपना दुख सुनाने के लिए तो आतुर रहते हैं और जब सुख मिलता है तो चुटकी भर भी बांटना नहीं चाहते।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 2 September 2009

अच्छा करें या बुरा व्यर्थ नहीं जाएगा

जब हम दुखों से घिरे होते हैं तब अपेक्षा होती है कि लोग हमारी मदद न भी करें तो हमारा दुज्ख सुने और समझें। यह अपेक्षा भी जब पूरी नहीं होती तब हम कुछ इसी तरह नाराजगी व्यक्त करने से नहीं चूकते कि हमने कितना कुछ किया लेकिन हमारे लिए किसी ने कुछ नहीं किया। ऐसा उलाहना देने से पहले यह समीक्षा भी कर लें कि आपने जिनके लिए जो कुछ भी किया उसमें खुद का स्वार्थ कितना था।
आपने किसी के लिए कुछ निरपेक्ष भाव से किया है तो ऐसा भाव आएगा ही नहीं। यदि मन में ऐसा भाव आ जाए तो सब गुड़ गोबर हो गया। क्योंकि जब आपने किसी के लिए कुछ किया था तो आपको यह पता नहीं था कि भविष्य में आप पर दुखों बादल बरसेंगे और आप जिन्हें उपकृत कर रहे हैं वो राहत की छतरी आप पर तान कर खड़े रहेंगे।
हनुमान भक्त पं. विजयशंकर मेहता उज्जैन में जब किसी भी प्रसंग के दौरान अपना चिर-परिचित वाक्य दोहराते थे क्वकिया हुआ व्यर्थ नहीं जातां तब इन शब्दों की गंभीरता-गहराई कई सहकर्मियों को तत्काल समझ नहीं आती थी लेकिन मेरा मानना है यह बात जीवन के हर क्षेत्र में लागू होती है। पुलिसकर्मी अपने कार्य को ईमानदारी से न करे, स्कूल में कोई एक शिक्षक अपना कार्य समर्पण भाव से करें, किसान खेत में बीज बोए या धनाढ्य परिवार का बेटा नशाखोरी पर पैसा उड़ाए, किया हुआ व्यर्थ तो नहीं जाता। किसान ने जो किया तो फसल पाई, बिगड़ैल बेटे ने अपने जीवन के साथ ही परिवार की खुशियां तबाह कर डाली। स्कूल के दस-बारह शिक्षकों में कोई एक शिक्षक ही क्यों बच्चों में लोकप्रिय होता है इसे बच्चों से ज्यादा बाकी शिक्षक समझते हैं। एक पुलिसकर्मी की गैर जिम्मेदारी पूरे थाने, विभाग की नाक नीची करा देती है।
जिंदगी का जो उपहार मिला है इसके हर दिन का लेखा-जोखा हम ही लिखते हैं। हमारे कार्य-व्यवहार टेनिस की गेंद के समान है-जिस गति से हम दीवार की तरफ फेंकेंगे उसी गति से लौटेगी। सुख सदा साथ रहेगा इसकी गारंटी नहीं लेकिन दुज्ख पीछा नहीं छोड़ेगा यह तय है। इस सहज सत्य को हम समझने की कोशिश नहीं करते इसी कारण दूसरों के सुख हमें ज्यादा दुखी हैं। जब ईश्वर की कृपा होती है, अच्छा ही अच्छा होने लगता है, तब चार दिन की इस चांदनी में भूल जाते हैं कि शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष भी आने वाला है। चाहे जब होने वाली बिजली कटौती से वो लोग कम परेशान होते हैं जो अंधेरे को परास्त करने के इंतजाम मोमबत्ती, माचिस, इनवर्टर आदि तैयार रखते हैं। अंधेरे घुप्प कमरे में भी उन्हें माचिस, मोमबत्ती ढूंढने में परेशानी नहीं होती, क्योंकि पहले से पता होता है। बस इतना सा ही तो फंडा है सुख, दुःख बीच।
किया हुआ जब व्यर्थ नहीं जाता तो मानकर चलना चाहिए हमने कुछ अच्छा किया है तो देर-सवेर फल भी अच्छा ही मिलेगा। शबरी को उसकी तपस्या के बदले श्रीराम को जूठे बेर खिलाने का अधिकार मिला तो रावण ने जैसा किया उसे भी वैसा ही परिणाम मिला।
रोजमर्रा की जिंदगी में ही देख लें, गलत तरीकों से कमाई करके संपन्न होने का सपना पूरा जरूर हो जाए, लेकिन देर सवेर यही गलत कमाई पूरे परिवार के शारीरिक-मानसिक संताप का कारण भी बन जाती है, ऐसे कई किस्से हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं। घर में अभिभावक साल भर बच्चों को पढ़ाई, परीक्षा, कैरियर को लेकर आगाह करते रहते हैं, क्लास में टीचर्स भी बच्चों को बिना भेदभाव के पढ़ाते-समझाते हैं, लेकिन परीक्षा में क्लास के सभी स्टूडेंट तो टॉपर होते नहीं जिसने जैसा किया होता है वैसा ही परिणाम आता है। हम किसी के प्रति अपनापन रखें या बैरभाव यह तो चल जाएगा लेकिन किसी के लिए कुछ करें तो यह न भूलें कि बबूल बोएंगे तो उस पर आम तो नहीं लगेंगे। टिकट यदि जयपुर का लें और जमशेदपुर की यात्रा करना चाहें तो परिणाम का भी हमें ही सामना करना पड़ेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...