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Wednesday 17 November 2010

खुद की गलतियों को भी तलाशें

कभी खुद हमें अपना मूल्यांकन भी कर लेना चाहिए। ऐसा करना इसलिए भी काम का साबित हो सकता है क्योंकि समाज का नियम है मुंह पर प्रशंसा और पीठ फेरते ही आलोचना। हमें यदि यह पता नहीं है कि हम कितने पानी में हैं तो मान कर चलिए पानी सिर के ऊपर से कब निकल जाएगा यह भी पता नहीं चल पाएगा। बाकी लोग चाहकर भी किसी की गलती या कमजोरी इसलिए नहीं बताते कि बेवजह कोई बुरा नहीं बनना चाहता। लोगों को करने दीजिए आपकी अच्छाइयों का गुणगान आप तो अपनी गलतियों को तलाशने के काम में लगे रहिए। इस सुधार से ही तो आप में अच्छाई का प्रतिशत भी बढ़ेगा।
एक कार्यक्रम में वक्ता के रूप में शामिल होने पर मुझे अपनी कमजोरी का अहसास भी हो गया। जिस विषय पर बोलना था उसके नोट्स भी थे। लेकिन जब पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारा जा रहा था तो बस उसी वक्त पता चला कि विषय संबंधी नोट्स वाले कागज की जगह दूसरा कागज था जेब में। जो बोला, जैसा बोला उसमें विषय आधारित तो था पर वैसा नहीं जैसे नोट्स तैयार किए थे। वक्ता के भाषण पश्चात तालियां बजना, कार्यक्रम समाप्ति पश्चात कुछ लोगों द्वारा भाषण की सराहना करना यह तो रिवाज है ही। अच्छे वक्ता न भी साबित हो तो लोगों की बॉडी लैंग्वेज से अंदाज लग जाता है कि आप की बात का कितना प्रभाव पड़ा है।
इस प्रसंग से फिर यह साबित हुआ कि अवसर अपनी सुविधा से मिलते नहीं और पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारे या दूसरे क्रम पर अपनी बात कहने का तो आपको वक्त मिलता ही है। यह पहला क्रम जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। अवसर के साथ वक्त भी मिल जाता है लेकिन हममें से कई लोग उस मौके को झपट नहीं पाते फिर अफसोस करने के अलावा भी क्या बचता है। सामने से बेकाबू हुआ ट्रक तेज गति से आ रहा हो और आप देखकर भी न हटे तो ट्रक का तो कुछ बिगड़ना नहीं है। सीमा पर दुश्मन सामने हो और आप निशाना लगाने में चूक जाएं तो मान लेना चाहिए अवसर को दुश्मन सैनिकों ने झपट लिया।
कभी जब हम किसी टॉस्क में फैल हो जाएं तो खुद हमें अपना भी मूल्यांकन कर ही लेना चाहिए कि आखिर हमसे चूक कहां हुई। एक सेकंड के सौवें हिस्से के फर्क से गोल्डमेडल से वंचित रहने वाला खिलाडी अौर उसका कोच अगले गेम्स में भागीदारी से पहले अपनी उस चूक का हर एंगल से मंथन करता है। तभी वह अन्य गेम्स में अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़कर गोल्ड का हकदार बन पाता है।
स्कूल और जिंदगी की पाठशाला में हम बचपन से अब तक पढ़ते-सीखते-समझते ही तो रहते हैं। फर्क है भी तो जरा सा, स्कूल के वक्त हम पहले सबक याद करते थे। जितना जैसा याद कर पाते, उस आधार पर परीक्षा देते थे, परिणाम भी वैसा ही मिलता था। जिंदगी की इस पाठशाला में हम परीक्षा हर मोड़ पर देते हैं और सबक में मिलता है।
छात्र जीवन में परीक्षा के एक दिन पहले ही सारी तैयारी रात मेंं ही कर लेते थे। पैन, कंपास, रोलनंबर आदि रख लेते थे। स्कूल के लिए निकलने से पहले भी चैक कर लेते थे। परीक्षा हाल में भी समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते और तीन घंटे की अवधि में दिमाग पर जोर डालकर हर प्रश्न का जवाब खोज ही लेते थे। जिंदगी की पाठशाला में भी हमें हर मोड़ पर अवसर मिलते हैं। वक्त भी मिलता है और घर-समाज के लोग अपेक्षा भी करते हैं कि हम अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर के दिखाएं। एक ही नाम, एक ही समय, एक ही राशि में जन्मे कई लोगों में से कुछ ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। बचे बाकी में से कुछ कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करते, हर ठोकर से सीख लेकर मंजिल तक पहुंच जाते हैं। लेकिन कुछ भाग्य और परिस्थिति को दोष देते हुए अंत तक रेंगते ही रहते हैं। तेज बारिश में छाता हमें भीगने से बचा सकता है किंन्तु छाते को खोलने का काम भी तो हमें ही करना होगा ना। बारिश और तेज आंधी में कई बार छाता उलटने और हाथ से छूटने को हो जाता है। हम तत्काल हवा के विपरीत दिशा में घूम कर छाते और सिर को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं।
जीवन में संघर्ष करने वालों को पहले असफलता का ही सामना करना पड़ता है। लेकिन वे हताश नहीं होते। उन्हीं असफलताओं में छुपे सफलता दिलाने वाले सूत्रों को भी ढूंढ लेते हैं। अच्छा तो यही है कि हताश होकर बैठने की अपेक्षा हम खुद का मूल्यांकन करें कि क्या कारण रहे असफलता के। जब निष्पक्ष रूप से अपना मूल्यांकन करेंगे तो हमें हमारी कमजोरी कोयले के ढेर में पड़े कांच के टुकड़े सी चमकती नजर आ जाएगी। असफलताओं का हल भी है यह समझ आ जाएं तो घर-बाहर हमारी कद्र हीरे की माफिक होने लगेगी।

Thursday 11 November 2010

अच्छा ही है बैलेंस बनाकर चलना

चाय के साथ बिस्कुट का नाश्ता करते वक्त हम सबकी पूरी कोशिश रहती है कि चाय में बिस्कुट उतनी ही देर डुबोएं कि उसे आसानी से मुंह तक ले जा सकें, वरना कपड़ों पर चाय-बिस्कुट गिर जाने का खतरा रहता है। इतनी ही सजगता क्या हम रिश्तों में ताजगी बनाए रखने में दिखलाते हैं। जो हमारे प्रति अधिक विनम्र होता है, उसे हम या तो मूर्ख मान बैठते हैं या फिर यह सोच लेते हैं कि हम इसके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। अकसर ऐसी ही गलती हाथी भी चींटी के संबंध में करता रहता है। चींटी जब अपने वाली पर आती है तो हाथी की सारी हेकड़ी धरी रह जाती है। और तो और वह चींटी को पैरों तले रौंद भी नहीं सकता।
बधाइयों को आदान-प्रदान करने वाले इस सप्ताह में पहुंची मित्रों की टोली ने नाश्ता खत्म किया ही था कि चाय के साथ प्लेट में बिस्कुट भी हाजिर थे। ना-नुकर पर मनुहार भारी पड़ी। दोस्तों ने एक हाथ में चाय का कप थामा और दूसरे में बिस्कुट। बातचीत तो जारी थी ही, कप में बिस्कुट डुबोए, चाय तेज गर्म होने के कारण कुछ मित्रों के बिस्कुट का आधा गला हिस्सा कप में ही रह गया। कुछ ने बिस्कुट खाने के लिए मुंह थोड़ा नीचे झुकाया ही था कि गला हिस्सा तेजी से नीचे झुका और डप्प से कप में जा गिरा। कप से उड़े चाय के छींटे दोस्त के मुंह एवं कपड़ों पर फैल गए। बाकी दोस्तों का ठहाका तो गूंजा ही, अब बात दीवाली से हटकर चाय से जुड़े किस्सों पर शुरू हो गई कि कब किसके साथ क्या हुआ।
चाय और बिस्कुट से जुड़ा यह दृश्य न तो नया है और न अनूठा, हम में से कई के साथ ऐसा हो भी चुका है। इस दृश्य में भी सीखने वाली बात जो है वह यह कि जिंदगी में आप किस तरह से संतुलन बनाकर चलें। चाय अधिक गर्म हो तो बिस्कुट खाते वक्त सावधानी बरतनी जरूरी है और बिस्कुट-चाय में यादा देर तक गलता छोड़ दें तो उसे खाते वक्त और अधिक सावधानी बरतना पड़ेगी। मुझे यह जीवन दर्शन भी नजर आया कि हम कब, कहां, कितनी सावधानी बरतें, कितनी सजगता रखें। जिंदगी की डोर भले ही बेहद मजबूत हो, लेकिन रिश्तों की डोर तो बेहद पतली एवं कच्चे सूत की होती है। जहां पल-पल हमें अपने व्यवहार और दूसरे की खुशी का ख्याल रखना होता है। अपेक्षा हर पक्ष की अधिक होती है। सबकी अपेक्षा पर हम खरे इसलिए नहीं उतर पाते क्योंकि बाकी सब भी हमारी अपेक्षा पर भी कहां खरे उतरते हैं। चाय-बिस्कुट वाला दर्शन यह तो सीख देता है कि जब जैसे हालात हों उसके मुताबिक अपना मान-सम्मान बचाकर रखते हुए व्यवहार करें। इसके लिए दूसरे पक्ष से सजगता और सहयोग की अपेक्षा भी न करें। हमें यदि पता है कि चाय बेहद गर्म है तो यह हमें ही तय करना होगा कि बिस्कुट इतनी देर ही गलाएं कि उसे हम आराम से खा भी सकें। रिश्तों को हम कितना मजबूत बनाएं कि उन्हें निभा भी सकें। कोई एक पक्ष बिस्कुट की तरह झुकता-गलता ही जाए और दूसरा पक्ष गर्म मिजाज, अपनी अकड़ बरकरार ही रखे तो बात नहीं बन सकती। रिश्ते यादा लंबे नहीं खिंच सकते। लंबे वक्त तक रिश्तों में ताजगी तभी बनी रह सकती है जब दोनों पक्ष अपनी अकड़ छोड़े और सहयोग की भावना भी बरकरार रखें। एक पक्ष चाय सा गर्म बना रहे और दूसरा विनम्रता में झुकता चला जाए तो इस विनम्रता को उसकी मूर्खता मान लेना भी ठीक नहीं क्योंकि तूफान के हालात बनने पर अकड़ा खडा खजूर का दरख्त ही धूल चाटता है। जमीन पर मखमली गलीचे की तरह फैली दूब का तो तूफान भी बाल बांका नहीं कर सकता। एक छोटी सी चींटी हाथी को बदहवास कर सकती है, लेकिन हाथी इस चींटी को अपने पैराें तले रौंदने में भी असहाय रहता है।
हमारा कोई मित्र, कोई रिश्तेदार हमारे प्रति अत्याधिक स्नेही है तो सामाजिकता का तकाजा है कि हमें भी उसके प्रति अपना नजरिया सकारात्मक रखना ही होगा। सिर्फ इसलिए उसे उपेक्षा या हिकारत की नजर से देखें कि वह पद में, संपन्नता में हमसे छोटा है। दृष्टि दोष हमारी ही हंसी उड़ने का कारण भी बन सकता है। हमारे ही मित्रों, संबंधियों में कई चेहरे ऐसे याद आते हैं कि जिनकी तारीफ हम इसलिए करते हैं कि वे हर हाल में सेक्रिफाइज, समझौता सिर्फ इसलिए करते रहते हैं कि बाकी लोगों को खुशी मिले। ऐसे लोग कम ही होते हैं, और ये कम लोग ही हमे सिखाते हैं कि बाकी लोगों को खुश रखने वालों को जिदंगी में हर मोड़ पर कितने समझौते करने पड़ते हैं। हम हैं कि समझौते में भी अपनी जीत के कारण गिनाना नहीं भूलते। अच्छा होगा कि रिश्तों को लंबे वक्त तक निभाने के चाय-बिस्कुट जैसा तालमेल बनाकर चलें। इससे यह फायदा तो होगा ही कि हम दूसरे की खुशी का कारण भले ही न बने पाएं अपने मैं तो खुश रहना सीख ही लेंगे।