पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 29 December 2010

कुछ तो संकल्प लिया होगा आपने

साल की शुरुआत कैसी हो, जब यह हमे ही तय करना है तो क्याें ना कुछ अच्छे से ही आरंभ करें. रोज ना सही महीने या साल मे तो कुछ अच्छा कर ही सकते हैं। इस अच्छा करने की सीधी सी परिभाषा है जिस काम को करके आप के मन के अंदर खुशी का झरना फूट पड़े। इसके लिये हजारों-लाखाें भी खर्च नहीं करने पड़ते, कई बार तो तन और मन को भी अच्छे काम में लगाया जा सकता है। इस नए साल मे किसी एक उदास चेहरे पर मुस्कान लाने का ही संकल्प लिया जा सकता है, यह भी खर्चीला लगता हो तो घर में पानी, बिजली, टेलीफोन, पेट्रोल की फिजूलखर्ची रोकने का संकल्प तो इस बढती महंगाई मे हमें ही राहत देने वाला साबित हो सकता है।

कपड़े तैयार कर लिए क्या? मेरे इस प्रश्न के जवाब में दूसरी तरफ से फोन पर दोस्त ने कहा इस बार कपड़ों के साथ कुछ दोस्तों से भी मदद ली है, ठंड इस बार कुछ ज्यादा है ना. इन दोस्तों ने गर्म कपडे ज़ुटाए हैं, अब तक तीन-चार बडे पैकेट तैयार हो गए हैं. हम लोग अगले सप्ताह निकलेंगे।
नए साल को सब अपने-अपने अंदाज में मनाते हैं उद्देश्य यही रहता है कि साल की शुरुआत यादगार बन जाए, अन्य शहर में रहने वाले मेरे एक दोस्त साल के अंतिम सप्ताह से ही नए साल के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं। परिवार के बडे-छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे कपडे प्रेस करा लेते हैं, बच्चाें के लिए चाकलेट-खिलौने जुटाते हैं, इस सब के लिये जो खर्च होता है उसका इंतजाम भी इस तरह करते हैं कि एकदम आर्थिक बोझ ना पड़े परिवार के सभी बडे सदस्य प्रति सप्ताह पांच रु. जमा करते हैं. बच्चों को भी कुछ राशि हर माह बचाने के लिये प्रेरित किया जाता है, साल के अंत मे इस सारी जमा राशि से सामान खरीद लेते हैं।
क्या हम भी इस तरह से नये साल की शुरुआत नहीं कर सकते? हम भी हर माह कुछ ना कुछ फिजूलखर्ची तो करते ही हैं, उसमें कटौती करके पैसा बचा सकते हैं, हम नए कपडे, ग़र्म कपड़े लगभग हर साल खरीदते तो रहते हैं लेकिन छोटे और पुराने होते कपड़ाें के ढेर का क्या करें तय नहीं कर पाते, जबकि हमारे आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनके लिये ये कपड़े नए के समान होते हैं। हमारी ठंड दो-तीन गर्म कपड़ों के बाद भी कम नहीं हो पाती लेकिन कोई है कि जगह-जगह छेद वाले स्वेटर मे ही तीखी हवाओं का सामना करने को मजबूर हैं, हमारे पास धन की कमी हो सकती है लेकिन मन मे दया भाव किसी कोठी वाले से कम नही. हम सारे समाज के पीडिताें के चेहरे पर मुस्कान नही ला सकते लेकिन किसी एक के चेहरे पर तो चमक ला ही सकते हैं।
समीप के सरकारी अस्पताल मे दाखिल ऐसे मरीज भी मिल जाएंगे जिनके परिजनो के पास महंगी दवाई, ऑपरेशन का सामान खरीदने के लिये पर्याप्त पैसा नही होता. एक बोतल खून जुटाना भी इनके लिये सबसे चुनौतीपूर्ण रहता है। किसी एक मरीज के मन मे हमारी भगवान जैसी छवि तो बनाने का प्रयास करके तो देखें पर हमारी मानसिकता तो ऐसी हो गई है कि हम अस्पताल से स्वस्थ होकर घर लौटते वक्त प्रार्थना तो यह करते हैं कि फिर कभी अस्पताल का मुंह ना देखना पड़े लेकिन बची हुई दवाइया खजाने की तरह अपने साथ घर लेकर आ जाते हैं और कुछ दिनो बाद खुद ही इसे कचरे के ढेर पर फेक भी देते हैं, हम यह याद रखना ही नहीं चाहते कि जिन दवाइयों ने हमें जीवनदान दिया वही बची दवाइया किसी गरीब मरीज के भी काम आ सकती हैं। हम सोचते ही नहीं कि अस्पताल मे एक काउंटर ऐसा भी है जहा बची हुई दवाइया इसी उद्देश्य से एकत्र की जाती हैं कि असहाय मरीजों की मदद हो जाए जिस दवाई का हम पैसा दे चुके होते है, उन सारी दवाइयों को थोडे मोलभाव के बाद फिर से उसी दुकानदार को बेच देते हैं। पुराने कपड़ाें से हमें बर्तन खरीदना, इन कपड़ों को कार की सफाई के लिये उपयोग मे लाना ज्यादा आसान लगता है। आसपास के मित्रों को प्रेरित कर के हम पुराने कपड़ों को जरूरतमंदों तक पहुचाने के बारे में क्यों नहीं सोच सकते।
नए साल पर हम कोई ना कोई संकल्प लेते ही हैं, एक संकल्प किसी अच्छे काम को शुरू करने का भी तो ले सकते हैं और किसी के भले के लिये नही तो अपनी किसी बुरी आदत को छोड़ने की हिम्मत भी नहीं दिखा सकते? हमें याद ही नहीं रहता खुद अपने बच्चो, पत्नी से कई बार इस तरह पेश आते हैं कि अकेले में खुद हमें इस पर अफसोस होता है क्योंकि इस तरह का व्यवहार हम अपने लिये भी पसंद नहीं करते, इतना भी नहीं कर सकते तो पानी-बिजली, मोबाइल, पेट्रोल की फिजूलखर्ची ना करने का प्रण भी कर सकते हैं, ये सारी चीजे भी फिजूल लगती हो तो हम सोने से पहले आज का दिन बेहतर तरीके से गुजरने पर ईश्वर के प्रति धन्यवाद तो व्यक्त कर ही सकते हैं, इस काम मे ना तो एक धेला खर्च होना है और न ही इस दो-चार मिनट की मौन प्रार्थना का लाभ हमारे दुश्मन को मिलना है, हम जो भी करते हैं पहले उसमे अपना स्वार्थ देखते हैं कभी बिना स्वार्थ के कुछ कर के देखे तो सही, उस वक्त सुख की जो अनुभूति होगी वह यादगार तो होगी ही, तब ही पता चलेगा कि मन के अंदर खुशी का झरना किस तरह बहता है।

Thursday 23 December 2010

हर दिन हो जाए साल के पहले दिन जैसा

हम जिस व्यवहार की अपेक्षा नही करते किसी दिन वैसा हमारे साथ हो जाए तो? कई दिनो तक ना तो हम ठीक से सो पाते है और ना ही उस व्यक्ति को भूल पाते हैं. हम भी तो पूरे साल जाने-अंजाने में कितने लोगों से अप्रत्याशित तरीके से पेश आते हैं. क्या वो सारे लोग हमें भी भूल पाते हाेंगे? साल के पहले दिन हम सब के साथ अच्छे से पेश आते भी हैं तो अपने स्वार्थ के कारण कि हमारा पूरा साल सुख-शांति से बीत जाए. हमारा हर दिन अच्छा बीत सकता है बशर्ते हम हर दिन को साल के पहले दिन की तरह जीना सीख लें और इतना याद रख लेकिन ईश्वर ने दिल और जुबान बनाते वक्त ह्ड्डी का इस्तेमाल इसीलिए नहीं किया क्योंकि उसे इनके इस्तेमाल में कठोरता पसन्द नहीं है।
अरे, अब नए साल में बस एक सप्ताह बचा है! जैसे-जैसे दिसम्बर अंतिम सांसे गिन रहा है, नए साल के आगमन की आहट भी तेज होती जा रही है. समाप्त होता यह साल हमे यह कहने को तो मजबूर करता ही है कि पता ही नहीं चला कितनी जल्दी बीत गया यह साल. हम में से ज्यादातर लोगो को साल के पहले दिन या दीवाली वाले दिन अपने बचपन के साथ ही परिवार के बुजुर्गों की वह सीख भी याद आ जाती है जब भाई-बहन या पड़ौस के दोस्त से झगडे की शुरुआत ही होती थी कि दादी-नानी प्यार से समझाने आ जाती थीं. आज के दिन तो मत झगड़ो नहीं तो पूरे साल लड़ते-झगड़ते रहोगे। बचपन मे मिले इन संस्कारों की छाप हमारे मन पर इतनी गहरी पड़ी हुई है कि अब हम तो साल के पहले दिन इस बात का ध्यान रखते ही है, साथ ही बच्चों को भी उसी अन्दाज में समझाते हैं।

साल के उस पहले दिन के 24 घंटाें ंका हिसाब तो हम सब के दिलो-दिमाग मे दर्ज रहता है लेकिन बाकी 364 दिनाें का हिसाब उन लोगों के पास सुरक्षित रहता है जो काम और बिना काम के हम से मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। जरूरी नहीं कि कोई बार-बार ही मिले, किसी से बार-बार मिलने के बाद भी वह शख्स हमें पसन्द नही आता इसी तरह हमे भी कहा याद रहता है कि जो हमसे मात्र एक बार कुछ पल के लिए ही मिला था हम उसे खुश कर पाए या नहीं।
दुकानदार के लिए ग्राहकों की कमी नहीं है और हर ग्राहक खरीदारी कर के ही जाए यह भी जरूरी नहीं, लेकिन सफल दुकानदार वही है जो हर ग्राहक का मुस्कुराते हुए स्वागत करता है और जो ग्राहक के आगमन पर अपनी कुर्सी से उठना, पेट का पानी हिलाना भी पसन्द नहीं करता वह यह भी नहीं समझ पाता कि पड़ौसी दुकानदार को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही और वह मक्खी मारने वाली मुद्रा में सुबह से शाम तक क्यों बैठा रहता है जबकि दोनों दुकाना पर एक ही कम्पनी का माल समान भाव में ही मिलता है।
जब हम साल के पहले दिन सबसे बेहतर तरीके से पेश आ सकते है तो पूरे साल क्यों नहीं? यह असम्भव भी नहीं है क्योकि पहले दिन तो हम बेहतर एक्टर साबित हो ही गए है। उस एक दिन भी हमारा स्वार्थ यही रहता है कि यह पहला दिन अच्छा बीत जाए। हमें अपने भले की तो चिंता रहती है लेकिन हमारे कारण किसी का मन ना दुखे, किसी का दिन, किसी का मूड खराब ना हो इसकी चिंता क्यों नहीं रहती। हम एक दिन में कितने लोगों की हंसी-खुशी का कारण बने यह हम बार-बार गिनाते हैं, लेकिन बाकी पूरे साल क्या हम वैसा व्यवहार कर पाते हैं? तो क्या माना जाए साल के पहले दिन की शुरुआत हम मुखौटा लगा कर करते हैं या बाकी दिनों में अपने असली चेहरे के साथ जीते हैं।
यह भी तो हो सकता है कि किसी और की सलाह मान कर अच्छे की शुरुआत करने की अपेक्षा साल के पहले दिन ही यह संकल्प लें कि बनते कोशिश हर दिन यह प्रयास करेंगे कि अपने कार्य-व्यवहार से किसी का दिल नहीं दुखाएंगे, यह संकल्प लेना हमारे इसलिए भी आसान है कि हम भी किसी से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करते, कोई और रखे ना रखे हम तो हर दिन का हिसाब हाथोहाथ आसानी से पता कर सकते हैं - या तो हम किसी की खुशी का कारण बन जाएं या किसी को अपनी खुशी में बिना किसी स्वार्थ के शामिल कर लें। कहते है भगवान कभी भी हमारे दिल और जुबान में कठोरता पसन्द नहीं करता इसलिए ही इन दोनों को बिना हड्डी के बनाया है। दिल और जुबान के कारण ही तो संसार में प्यार और नफरत का कारोबार फलफूल रहा है. तो नए साल में अच्छा करने के लिए पहला दिन ही क्यों? हर दिन साल के पहले दिन जैसा भी तो हो सकता हैं।

Wednesday 15 December 2010

एक बार मिल तो लीजिए

हमारे पास सोशल नेटवर्किंग के लिए तो वक्त खूब है, जिन्हें हम जानते तक नहीं उन अंजान लोगों को फेसबुक पर एक क्लिक करते ही मित्र बना कर हम कितने उत्साहित होते हैं लेकिन हमारे आसपास जो लोग रोज हमसे नजरें मिलाते गुजरते हैं उनसे हेलो-हाय में हमारा दम्भ आड़े आ जाता है। हम लोगों से मिलने, उन्हें जानने-समझने से पहले ही धारणा बना लेते हैं कौन अच्छा और कौन नकचड़ा है। विज्ञापनों की भाषा में भी बदलाव आया है कि पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वाश करें, हमारे दिलो-दिमाग को तो ये आसान सी बात भी समझ नहीं आ रही है।बहुत ही नजदीकी दोस्त के परिवार में शादी समारोह था। जाना तो मुझे भी परिवार सहित था लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाया। मैंने उसी शहर में पढ़ रही और होस्टल में रह रही बिटिया से अनुरोध किया कि वह पूरे परिवार की तरफ से शामिल हो जाए। मुझे जिस उत्तर की अपेक्षा थी बिल्कुल उसी अंदाज में उसने झुंझलाहट भरे लहजे में कहा मैं जिन्हें जानती तक नहीं, जो लोग मुझे भी नहीं जानते वहां जाकर मैं क्या करूंगी? मैंने अपने तरीके से उसे समझाने की कोशिश की जब तक हम किसी से मिलेंगे नहीं एक-दूसरे को कैसे जाने-पहचानेंगे?
खैर, मेरे अनुरोध पर उसने मन मारकर वहां जाने की सहमति दे दी। मैं तो मान कर ही चल रहा था कि अगली सुबह वह फोन करके अपनी भड़ास निकालेगी। मेरा यह अनुमान तब गलत साबित हो गया जब उसी रात उसने शादी समारोह से बाहर निकलते ही मुझे फोन लगाया और उत्साह से बताती रही कि वहां जाकर उसे बहुत अच्छा लगा। परिवार के जितने लोगों से भी मिली यह लगा ही नहीं कि वह उन सबसे पहली बार मिल रही है। सभी लोगों ने उसका उत्साह और पारिवारिक आत्मीयता के साथ स्वागत किया और परिवार का कोई न कोई सदस्य पूरे वक्त न सिर्फ उसके साथ रहा वरन बाकी रिश्तेदारों से भी मिलवाया।
मैंने उसकी सारी बात सुनने के बाद पूछा अच्छा बता तेरी पहले से बनाई धारणा गलत साबित हुई या नहीं? उसने बिना किसी किंतु-परंतु के मान लिया कि आप सही कह रहे थे। हमेशा कि तरह मैंने पूछा इस सारे प्रसंग से हमें क्या सीखने को मिला? उसका जवाब था कभी भी किसी इंसान के बारे में पहले से कोई धारणा नहीं बनाना चाहिए।
पर हम सब ऐसा कहां कर पाते हैं। कुछ हमारा अपना अहम और कुछ चेहरा देख कर लोगों के बारे में अनुमान लगा लेने के अपने झूठे दम्भ के कारण कई बार हम लोगों को पहचानने में भूल भी कर बैठते हैं लेकिन अपनी गलती को मानने का साहस फिर भी नहीं दिखा पाते। हम जिसके बारे में अनुमान लगाते हैं कि वह शख्स बहुत अच्छा होगा, वह एक-दो मुलाकात के बाद ही मतलबी नजर आने लगता है। और जिसका चेहरा देखकर हम सोच लेते हैं कि वह तो बहुत घमंडी होगा, वह नेकदिल और आधी रात में भी मदद के लिए तत्पर रहने वाला निकलता है।
इसमें ऐसे सारे लोगों का कम हमारा खुद का दोष ही ज्यादा होता है। क्योंकि हम खुद तय करते हैं किससे मिलें, किस का चेहरा पसंद करें और किस को अस्वीकार करें। जिससे हम मिलना चाहते हैं वह तो हमें अच्छा लगने लगता है और जिससे हम मिलना नहीं चाहते उसे हम बिना बातचीत किए ही नकार देते हैं।
मुझे उन तीन दोस्तों में से एक द्वारा सुनाए किस्से की याद आ रही है। इन तीनों को याद आई कि उसी शहर में उनके पूर्व शहर का एक अन्य दोस्त भी वर्षों से रह रहा है। तीनों ने तय किया कि चलो आज उससे भी मिल लेते हैं, फिर कहने लगे पहले जिस काम के लिए चल रहे हैं वह कर लें बाद में देखेंगे। बातचीत में अहम, दम्भ और पूर्व धारणा भी आड़े आने लगी। अंतत: यह तय हुआ कि आज उससे मिल लेते हैं, व्यवहार-विचार नहीं मिले तो भविष्य में कभी नहीं मिलेंगे। उस दोस्त को फोन करके सूचित किया डेढ़ घंटे बाद आपके घर आएंगे। उसकी उत्साहजनक प्रतिक्रिया से इन तीनों ने अपना काम निपटाने के बाद फिर फोन लगाया। घर गए, चाय-नाश्ते जितने वक्त में ही इतनी प्रगाढ़ता हो गई कि एक घंटे पहले तक वह जो दोस्त इन सबसे अपरिचित था, उसे परिवार सहित उसी रात खाने पर भी आमंत्रित कर लिया और अब ये चारों अच्छे मित्र हो गए हैं। यही नहीं अब अपने पूर्व शहर के अन्य लोगों को भी तलाश रहे हैं।
एक तरफ जमाना सोशल नेटवर्किंग की साइट्स पर तेजी से दौड़ रहा है, दूसरी तरफ हम हैं कि अपने आस-पास के लोगों, एक ही रास्ते पर रोज आते-जाते टकराने वालों से बात करना तो दूर हल्के से मुस्कुराने में भी इसलिए होंठ कसकर भीचे रहते हैं कि सामने वाला रोज टकराता है तो क्या हुआ पहले वह मुस्कुराए फिर हम तय करेंगे कितने हाेंठ फैलाना है। दरअसल यह हालात भी बने हैं तो इसलिए कि हमें भय बना रहता है कि हमने मैत्रीपूर्ण संबंधों का दायरा बढ़ाया तो कही कोई चुइंगम की तरह हमसे चिपक ही न जाए।
कितनी अफसोसजनक स्थिति होती जा रही है, अब हमारा ज्यादातर वक्त सोशल नेटवर्किंग साइट पर फे्रंडशिप बढ़ाने में बीत रहा है। बडे फ़ख्र से हम फेसबुक सहित अन्य साइट पर अपने दोस्तों की बढ़ती संख्या का आंकड़ा बताते हैं लेकिन अपने आसपास हमारे संबंधों का पौधा कब सूख गया यह पता ही नहीं चल पाता। जिन्हें हम जानते-पहचानते नहीं उनकी फे्रंड रिक्वेस्ट को तो एक क्लिक पर स्वीकृत कर देते हैं लेकिन हम जिस मल्टी स्टोरी, जिस कॉलोनी, जिस मोहल्ले में रहते हैं वहा पड़ोस के फ्लैट में कौन रहता है यह तक पता नहीं होता। जब नेट और टीवी नहीं हुआ करते थे तब किसी की भी लोकप्रियता का मापदंड इस बात से लगाया जाता था कि उसकी अंतिम यात्रा में कितनी भीड़ उमड़ी। अब तो हालत यह है कि हम शादी का रिसेप्शन तो महंगे से महंगे होटल में रखना चाहते हैं लेकिन प्रति प्लेट खर्च अधिक लगने पर थोड़ा सस्ता होटल पसंद करने की अपेक्षा बनाई गई आमंत्रितों की सूची में से अपने कई नजदीकी मित्रों का नाम काटना ज्यादा आसान लगता है।

Thursday 2 December 2010

...और चाबी खो जाए?

बिना चाबी का कोई ताला कंपनियां बनाती नहीं और बनाए तो कोई ग्राहक खरीदे भी नहीं। ताले और चाबी के बीच जो अटूट रिश्ता है वह यह भी सिखाता है कि यदि मुसीबत आई है तो उसका हल भी होगा ही। दिक्कत तो यही है कि जब मुसीबत आती है तो हमारे हाथ-पैर फूल जाते हैं। भाग्य और भगवान को दोष को देते हैं। तब हमारी जेब में रखी छोटी सी चाबी का भी ख्याल नहीं आता। तेज बहाव में डूबी नाव के ऐसे कई यात्री अपनी जान बचाने में सफल हो जाते हैं, जिन्हें तैरना तक नहीं आता और हिम्मत हार जाने या गलत फैसला लेने के कारण अच्छे तैराक की पानी में डूब जाने से मौत हो जाती है।
सामान खरीदने के दौरान याद आया कि सफर पर आना-जाना पड़ता है तो बैग के लिए एक ताला भी खरीद लिया जाए।
दुकानदार ने पांच-सात ताले सामने रख दिए और भाव भी गिना दिए। उसे लगा था कि मुझे घर के लिए बड़ा ताला खरीदना है, उसने लिहाजा बड़े ताले निकाले। हर ताले के साथ तीन चाबी बंधी हुई थीं। मैंने जब बताया कि सफरी ताला चाहिए तो उसने छोटे ताले बताना शुरू कर दिए। किसी के साथ दो तो किसी ताले के साथ तीन चाबियां थीं। तालों के भाव बताने के साथ ही वह इनकी चाबियों के फायदे भी बताता जा रहा था कि एक चाबी बैग के साथ बांधकर रख दीजिए, दूसरी चाबी घर में और तीसरी ऑफिस में सुरक्षित रख दीजिए। कभी एक चाबी गुम गई तो दूसरी मिल जाएगी। ताला तो खरीदना ही था, लेकिन उससे कहीं अधिक मुझे उसकी चाबियों संबंधी सलाह पसंद आई। हम सब के साथ ऐसा होता ही है कि चाहे अटैची की चाबी हो या गोदरेज अलमारी की या अन्य तालों की, हम सारी चाबियां एक जगह इकट्ठी रख देते हैं। कभी-कभी तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाती है जब कोई एक चाबी गुम हो जाने पर एक जैसी चाबियों के ढेर में से दूसरी चाबी खोजने के लिए हमें एकएक कर सारी चाबियां लगाकर देखनी पड़ती हैं तब कहीं गुमी हुई चाबी वाली दूसरी चाबी मिल जाती है।
हमारे फ्रेंड सर्कल में भी हर दोस्त में कुछ न कुछ खासियत तो होती है, लेकिन कुछेक दोस्त ऐसे भी होते हैं, जिनके पास हर परेशानी का हल और हर समस्या के लिए गले उतर जाने वाला सुझाव भी होता है। ऐसे दोस्तों को हम मजाक में हर ताले में लगने वाली चाबी भी कह देते हैं।
ताले की उस दुकान पर जितनी भी देर रहा यह भी समझने को मिला कि बिना चाबी के कोई ताला खुल नहीं सकता और हर ताले के साथ चाबियां होती ही हैं। ना तो कंपनियां बिना चाबी के ताले बनाती हैं और न ही कोई ग्राहक बिना चाबी का ताला खरीदता है। चाबी नहीं होगी तो ऑटोमेटिक लॉक सिस्टम वाले बैग हों या अटैची सब के लिए कोड तो तय करना ही पड़ता है, जब आप कोड नंबर घुमाएंगे तभी ताला खुलेगा या बंद होगा। ताला चाहे पच्चीस रुपए का हो या हजार-पांच सौ का उसके साथ दो या तीन चाबियां तो रहती ही हैं, जो इसलिए होती हैं कि एक गुम हो जाए तो दूसरी या तीसरी का उपयोग कर लें। सारी ही चाबियां गुम जाएं तो फिर ताला तोड़ने या अटैची चाबी बनाने वाले सिकलीगर तक ले जाने का विकल्प भी है ही। ताले और चाबी के इस अटूट रिश्ते से यह सीख भी मिलती है कि यदि मुसीबत है तो उसके हल भी हैं। हम प्रयास जारी रखें, हिम्मत न हारे तो एक बार में नहीं तो दूसरे या तीसरे प्रयास में सफलता मिलेगी ही। जरूरत है तो समझदारी और धैर्य की या तो तीनों चाबियां इस तरह संभालकर रखें कि जरूरत पड़ने पर पता हो कौन सी चाबी कहां रखी है पर ऐसा होता नहीं है।
हम ताला खरीदने, उसका उपयोग करने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी सजगता बाकी चाबियां संभाल कर रखने में नहीं दिखाते। जीवन में जब हमें मुसीबतों का सामना करना पड़ता है तो हममें से यादातर लोग जो सारा दोष भाग्य को देकर हताश हो जाते हैं। भूल जाते हैं कि समस्या आई है तो हल भी साथ लाई होगी, तब हम याद रख लें कि ताला है तो चाबी भी होगी ही। हम ठंडे दिमाग से सोचें तो समस्या का हल भी मिल सकता है, लेकिन या तो हम हताश हो जाते हैं या जल्दबाजी में ताला तोड़ने जैसा कदम उठा लेते हैं जिससे या तो हमारी अटैची का या घर के दरवाजे का ही नुकसान होता है। मुसीबतों के ताले खोलने की चाबियां हम सब की जेब में ही होती है, लेकिन हम इन चाबियों का उपयोग करना ही भूल जाएं तो ताले का क्या दोष। ताले-चाबी की तरह ही मुसीबत और हल का भी अटूट रिश्ता है। यह ध्यान रख लें तो बड़ी से बड़ी समस्या हल की जा सकती है। यात्रियों को ले जा रही नाव जब अचानक डूब जाती है तो कई ऐसे यात्री लहरों से जूझते हुए सकुशल बच जाते हैं जिन्हें तैरना तक नहीं आता कोई इसे चमत्कार कहता है तो बाकी यह भी कहते हैं कि उसने हिम्मत नहीं हारी।

पंखे और दरवाजे भी कुछ कहते हैं सुनिए तो सही

यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती है। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरियता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें।
रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे आसपास अच्छा करने वालों की कमी नहीं है, लेकिन उनसे सीखने, उनके अच्छे काम की तारीफ करने में हमारा ही अहं आडे अा जाता है। घर में ऐसी कई निर्जीव चीजें भी हैं जो बिना तारीफ के भी अपने काम से हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, हम इनसे ही कुछ समझ लें। इनके काम की तो हमें प्रशंसा भी नहीं करनी पडेग़ी और न ही इनसे यह उलाहना सुनने को मिलेगा कि हम कितने मतलबी हैं। काफी लंबी कतार लगी थी टेलीफोन बिल जमा कराने वालों की। काउंटर के उस तरफ बैठे कर्मचारी पर इधर वाले लोग झुंझला भी रहे हो कि तेजी से काम करो। जवाब में उस कर्मचारी का कथन सौ सुनार की एक लुहार की जैसा ही था। रौब गालिब करने वाले सान को उसने बडे ही प्यार से समझाया भाई साहब बिल में बिना जुर्माने की अंतिम तारीख भी लिखी रहती है। आप दंड सहित बिल राशि जमा कर रहे हैं तो इस पर एहसान नहीं कर रहे ये आपकी लापरवाही का नतीजा है और फिर बाकी लोग भी अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बात सौ प्रतिशत सही लगी मुझे। आप यदि लापरवाह हैं तो उसमें कैलेंडर की तारीखें महीने और तेजी से भागते वक्त का क्या दोष!
हम सब को पता है कल तो आएगा, लेकिन उस कल में आज वाला दिन नहीं होगा। यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं, जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती हैं। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि बस सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरीयता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें।
कभी रोज पावर कट लग रहा है, जैसे ही अचानक लाइट गुल होती है तो सबसे पहले हम मोमबत्ती तलाशते हैं और लाइट आते ही सबसे पहले जलती मोमबत्ती पर फूंक मार कर बुझा देते हैं। अब कई लोगों की टीस होती है कि जब जरूरत पड़ती है तभी उनके रिश्तेदार याद करते हैं, ऐसे लोग मोमबत्ती से भी नहीं सीखते हैं कि वह कभी अपनी पीड़ा नहीं सुनाती। दूर क्यों जाएं गर्मी में ठंडक देने वाले और बाकी महीनों में छत पर लटकते धूल में सने रहने वाले पंखे को ही देख लें, वह सिखाता तो है अपने हों या पराए सबके साथ ठंडे-ठंडे कूल-कूल रहो। हम तो फिर भी नहीं सीख पाते, हमारे अहं को जरा सी चोट तो लगी, वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं। फिर यह भी नहीं देखते कि किस पर नाराज हो रहे हैं उसने पहले कई बार हमारी मदद की है। सुबह पूजा के लिए अगरबत्ती जलाते हैं उसकी खुशबू सिर्फ पूजा घर को नहीं नहीं महकाती बाकी कमरों सहित आसपास के घरों तक भी खुशबू का झोंका बिना इजाजत के पहुंच जाता है। फिर भले ही हमारे पड़ोसी से हमारी अनबन ही क्यों न हो। पता नहीं हम बाकी लोगों के लिए खुशबू के एहसास जैसे क्यों नहीं बन पाते।
हमारे दिन की शुरुआत कैसे व्यवस्थित हो यह सूरज से लेकर चांद तक सभी सिखाते हैं इनके लिए न संडे का मतलब है न सेकेंड सटरडे का। बिना नागा उगते और अस्त होते हैं साथ ही अप टू डेट रहने का संदेश भी देते हैं। घर की खिड़कियां खोलते ही सामने नजर आने वाले मनोरम दृश्यों से हमारी तबियत प्रसन्न हो जाती है। हम इतनी आत्मीयता से मन की खिड़कियां तभी खोलते हैं अगले से हमारा कोई काम अटका हो। बाहर आते- जाते दरवाजा खोलना बंद करना तो हमें याद रहता है लेकिन किसी काम में असफलता मिलने पर हम हताश होकर ऐसे बैठ जाते हैं कि जैसे सफलता के सारे दरवाजे बंद हो गए। घर के ये दरवाजे हमे बिना बोले मैसेज देते हैं कि जब एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा खुलता है। हम हारे नहीं, हताश नहीं हों तो हमारी किस्मत के दरवाजे भी हम खोल सकते हैं।