किसी एक कार्य को कई लोग अलग-अलग तरीकों से करते हैं, लेकिन उस काम को बेहतर तरीके से करने के कारण कोई एक ही पहचान बना पाता है। अफसोस तो यह है कि हमें अपने आसपास के लोगों की खासियत भी तब पता चलती है, जब तुलना की स्थिति बन जाए। बुरे से बुरे आदमी में भी एक अच्छी बात तो होती ही है। हमारी नजर और उसके भाग्य का दोष होता है कि बुराइयों के पहाड़ तले उसकी यह खासियत इतनी दबी होती है कि हमें नजर नहीं आती।
पानी पिलाने के लिए हर वक्त तैयार रहने, हर समय मुस्कराते हुए मिलने, किसी की निंदा के वक्त चुप्पी साधे रहने, चाय अच्छी बनाने या बिना खाना खाए नहीं आने देने, किसी भी परेशानी में सबसे पहले पहुंचने, गंभीर और अपरिचित घायल के लिए भी चाहे जब रक्तदान के लिए तत्पर रहने जैसे कई कारणों से परिवार के किसी एक सदस्य की पहचान बन जाती है। इसी पहचान की रिश्तेदारी में बढ़-चढ़कर मिसाल भी दी जाती है।
क्या कभी सोचा हमने जब उस व्यक्त ने शुरू-शुरू में यह कार्य किया था, तब हममें से ही कई लोगों ने हंसी भी उड़ाई थी, मजाक में 'पागल हैं जैसे शब्द भी उछाले थे और कई बार उसके उत्साह का सार्वजनिक रूप से मजाक भी उड़ाया था। क्योंकि तब उस छोटे से काम को हमने व्यापक नजरिए से नहीं देखा था। महाभारत के कथा प्रसंगों में जिक्र है योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जूठी पत्तलें उठाने का काम अपने लिए चुना था। स्वर्ण मंदिर में भी विश्व के सैकड़ों एनआरआई कुछ देर के लिए ही सही जूताघर में सेवा करके खुद को धन्य मानते हैं।
क्या हममें कोई खासियत है कि लोग हमें अपनी उस खासियत के कारण पहचानें? यूं तो समय की पाबंदी और कही हुई बात पूरी करना सबके लिए आसान नहीं, परंतु जिन लोगों ने इसे आदत बना लिया, उनके लिए ये सामान्य बात है। ऐसे में हम भी सोचें कि हम भीड़ का हिस्सा बनकर ही खत्म हो जाएंगे या अलग चेहरे के रूप में पहचान बनाएंगे। आज भी हमें अपने गांव, मोहल्ले के वो दादा, मामा, भुआजी, नानीजी याद हैं। मोहल्ले के किसी भी घर में शादी हो, भंडार की व्यवस्था उन्हें ही सौंपी जाती थी, शोक किसी भी परिवार में हो अथीü सजाने से लेकर चिता के लिए लड़कियां जमाने में उनकी ही सलाह मानी जाती थी। मोहल्ले में चाहे गाय ही अंतिम सांस ले रही हो गंगाजल नानीजी के घर से ही मिलता था। गांव में आने वाली बारात के लिए भुआजी खुद अपने विवेक से ही उस घर की बहू-बेटियों को इस अधिकार से हिदायत देती थीं कि बाहर से आए रिश्तेदार भी पहली बार तो यही मान लेते थे कि भुआजी ही घर की मुखिया हैं।
हम ऐसी कोई खासियत अपने में ढूंढ नहीं पाते तो उसके कई कारणों में एक कारण तो यही है कि हम कछुए की तरह खुद को खोल में समेटे रखते हैं, सामाजिक होना भूलते जा रहे हैं। इसीलिए दूसरों की खासियत देखकर भी खुद को बदलना नहीं चाहते। और तो और हम अपने बच्चों की खासियत को पहचानना भी भूलते जा रहे हैं. लिटिल चैंप, डांस इंडिया डांस जैसे रियलिटी शो हों या स्कूल, कॉलेज में किसी स्पर्द्धा में प्रथम आए स्टूडेंट। शायद ही कोई परिवार हो जो तत्काल रिएक्ट न करता हो अपने बच्चों पर। क्षेत्र कोई सा हो शीर्ष पर कोई एक ही रहेगा और किसी एक में सारी ही खासियत हो यह भी संभव नहीं। अच्छा तो यही होगा कि हम खुद में और अपनों में खामियां तलाशने की अपेक्षा छोटी-मोटी खासियत को ढूंढने की कोशिश करें। क्वबाकी सब में सब कुछ हैं यह शोक मनाने से बेहतर तो यही होगा कि जो खासियत हम में है उसकी खुशी मनाएं और उसे ही अपनी पहचान बनाएं। साथी के पास 99 सिक्के हैं लेकिन हमारे पास एक ही सिक्का होना इसलिए भी खास है कि उस एक के बिना 99 सौ नहीं हो सकते।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...