tag:blogger.com,1999:blog-57800971756607805162024-02-18T19:53:46.532-08:00पचमेल...यानि विविध...
जान-पहचान का अड्डा...कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.comBlogger118125tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-28132701727598585242011-05-26T06:07:00.000-07:002011-05-26T06:08:20.650-07:00तुम याद बहुत आओगे<blockquote><em><strong>कौन, कब, कितना याद आता है इसका आज तक तो कोई बेरोमीटर बना नही है। न ही कोई ऐसा पैमाना है कि जिससे पता चले कि हमने किसी को कितना याद किया। किसी की याद तभी आती है जब वह हमारे पास नहीं होता या हमें यह पता चल जाए कि हम उस अपने से दूर होने वाले हैं। </strong></em></blockquote><br />हम जब किसी अंजान शहर मे जाते हैं। तो भीड़ का हिस्सा बन जाने के बाद भी अलग-थलग से रहते हैं तो इसलिए कि हम जानते हैं कि इस भीड़ में जितने लोग हैं वह सब अंजाने हैं। बस ऐसे ही वक्त में हमें अपनों की याद आती भी है तो कैसे कि उन अपरिचित चेहरों में हम किसी अपने का चेहरा देखने लगते हैं। उस शहर के चौराहों, गलियों में अपने शहर की कोई मिलती-जुलती गली-मकान खोज लेते हैं और इस तरह वह अंजान शहर फिर चाहे वह शिमला हो, गंगानगर, उदयपुर हो या उजैन जाने कब हमारा अपना बन जाता है। पता ही नहीं चलता। अंजाना शहर हम में कितना रच-बस गया है यह भी तब पता चलता है जब अचानक उस शहर को छोड़ने के हालात बन जाएं। सरकारी नौकरी में तबादले का दर्द सहने वाले कर्मचारी वर्ग से कौन यादा समझ सकता है अपने शहर को छोड़ने और किसी भी अंजाने शहर से जुड़ी अपनी यादों का आइना टूटने का दर्द।<br />शिमला की ही बात करें तो यहां का मौसम, देवदार-चीड़ के दरख्त कहां भुलाए जा सकते हैं। संघर्षों के बीच दाना-पानी के लिए संघर्ष करते बन्दर और बाकी पशु-पक्षी, संकरे रास्तों और उंचाई पर बने मकानों तक के सफर को आसान बनाते कुली(खान), चाहे जितने तनाव में भी पेशेंस नहीं खोने वाले आम लोग, बर्फीले मौसम में भी अपने दायित्व आसानी से पूरे करने वाले होकर, डाककर्मी, यादा की चाहत नहीं और जो है उसमें खुश रहने के आध्यात्म को दर्शाते लोग ये सब बताते हैं कि पहाड़ों की इस चुनौतीपूर्ण जिन्दगी को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। <br />पहाड़ों के शिखर पर इठलाते, आसमान छूने की कोशिश करते नजर आने वाले देवदार क्या भुलाए जा सकते हैं। जाने क्यों मुझे ये ऊंचे-ऊंचे दरख्त अहसास कराते हैं कि जीवन में कुछ पाने, ऊंचा उठने के लिए संघर्ष के सफर वाले रास्ते पर चलना है तो पीछे काफी कुछ छोड़ते हुए चलना पडेग़ा। देवदार बताते हैं कि जो उंचा उठते हैं उन्हें कई तरह के त्याग करने पड़ते हैं। देवदार जैसे खड़ा सौ साल का और आड़ा भी इतने ही साल का तो जो ऊंचा उठने की चाहत रखते हैं वे सब भी अपना नाम-काम इतने वर्षों तक तभी बनाए रख सकते हैं जब वे देवदार-चीड़ जैसे वृक्षों की तरह हर हाल में अपना वजूद बनाएं रखने को तत्पर रहना सीख लें। <br />कोई भी अंजान शहर, अपरिचित लोग आप के तभी हो सकते हैं जब आप इन सब से तालमेल बैठाना सीख लें। आप जिस शहर में जाएं उस के प्रति एहसानमंद ना हो अपने शहर और अपने लोगों का ही गुणगान करते ना थके तो यह उस शहर के प्रति नाइंसाफी ही होगी। ऐसी तो बहू भी अपने ससुराल में कभी किसी का दिल नहीं जीत पाएगी जो रहे तो ससुराल मे लेकिन बात-बात मे मायके का जिक्र करना नहीं भूले। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धियों वाली मंजिल तक तभी पहुंचा जा सकता है जब उस काम के प्रति शतप्रतिशत समर्पण वाला भाव हो। यानी अंजान शहर, वहां के लोगों को आप अपना तभी बना सकते हैं जब वहां के रंग-ढंग मे ढलना भी सीख लें। ऐसा होने पर ही पता चल सकता है कि कल तक जो शहर, जो लोग अपरिचित से थे वह सब तो अपने से हो गए हैं। यह अपना सा लगने का भाव ही शहर छोड़ते वक्त तुम्हे कैसे भुलाऊं की पीड़ा मे बदल जाता है।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-91308296786119444692011-05-12T04:37:00.000-07:002011-05-13T13:40:23.872-07:00सीखने की कोई उम्र नहीं होती<blockquote><em><strong>हर दम सीखने की आतुरता से मिलने वाली सफलता और ना सीखने के लिए दिमाग के दरवाजे बंद रखने का दर्द वही जान सकता है जो इन दोनों में से किसी एक हालात से गुजरा हो। यदि हम मान कर चलें कि हमें तो सब आता ही है, अब क्या जरूरत है सीखने कि तो नुकसान हमारा ही होगा। हम टायपिंग में माहिर हों और कम्प्युटर की वर्किंग ना जानते हो, कम्प्युटर के जानकार हों और गूगल, नेट, इमेल आदि की जानकारी ना रखते हों तो हाथ आए अवसर भी फिसल जाते हैं क्योंकि कोई दूसरा हम से ज्यादा जानता है। अवसर ना तो बार-बार आते हैं और ना ही समय हमारा इंतजार करता है। समय के साथ चलना है तो उसके मुताबिक ढलना होगा, यह आसान सी बात जो समझ लेते हैं उन्हें किसी भी क्षेत्र में परेशानी नहीं आती।</strong></em></blockquote><br /><br />कमरे में बड़े तैश से प्रवेश किया उस युवक ने और बिना आगा-पीछा सोचे अपना निर्णय सुना दिया कि अब वह काम नहीं करेगा। टेबल की दूसरी तरफ बैठे उसके बॉस ने कारण पूछा तो उसका जवाब था मेरे ढाई-तीन साल के कॅरिअर में यह पहला अवसर है जब काम को लेकर उसे इस तरह जलील किया गया। इस सारे घटनाक्रम के दौरान मेरा मूकदर्शक बने रहना इसलिए भी जरूरी था कि यह उन लोगों के बीच का आंतरिक मामला था।<br />अब बॉस उस युवक से पूछ रहे थे कि तुम्हें किसी निजी काम के लिए फ़टकार लगाई या सौंपे गए काम में कोताही बरतने के लिए? उस सहकर्मी के तेवर यही थे कि आप ने मेरी बात सुनी नहीं और बेवजह डांटा। बॉस ने पूछा तुम्हें जो निर्देश दिए गए थे, क्या उस प्लानिंग के मुताबिक अपने काम को अंजाम दिया? इस प्रश्न का जवाब देने की अपेक्षा वह मुझे अब काम नहीं करना कहते हुए उठ कर चला गया।<br />संस्थान के बॉस ने मुझे जो बताया वह यह कि उसे काम सौंपते वक्त ही बता दिया गया था कि इसे कैसे किया जाए। यही नहीं वर्क प्रोग्रेस को लेकर फालोअप भी किया गया। इस सब के बाद भी उसने जो फायनल रिपोर्ट तैयार की उसमें वही सारी गलतियां की जिसके लिए उसे सतर्क किया <br />गया था।<br />एक तरफ तो हम यह मानते हैं कि पूरी उम्र सीखा जा सकता है। यानी सिर्फ कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने या डिग्री लेने से ही सीखने की सीमा समाप्त होना नहीं है। आप जिस भी फील्ड में हंै वहां हर दिन, हर पल अपने सहकर्मी, अपने दोस्तों, अपने दुश्मनों से कुछ ना कुछ तो सीख ही सकते हैं। अपने सहकर्मी से सीख सकते हंै कि काम को लेकर उसमे कोई कमी हो तो हम उस आधार पर अपनी कमियां दूर कर ले। दोस्त से सीख सकते है कि वह किन अच्छाइयों के कारण पहचाना <br />जाता है, वह सारी बातें हम भी अपना सकते हैं। इसी तरह दुश्मन की कमजोरी जान-पहचान <br />कर हम उसे आसानी से शिकस्त देना सीख <br />सकते है।<br />यह सीखने की प्रवृति तभी आएगी जब हम दिलो दिमाग से तैयार भी रहें। रोज तकनीक में हो रहे परिवर्तन, तेजी से बदलते जमाने के मुताबिक हम खुद को बदलाव के लिए तैयार ना रखें, खुद को अपडेट भी ना रखें तो इसमें नुकसान भी हमारा <br />ही है।<br />कई बार हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि संस्थान में हम सबसे पुराने कर्मचारी हैं तो हमें तो सब कुछ आता ही है। इसी तरह गोल्ड मेडल प्राप्त, सर्वाधिक अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला छात्र भी यह मान लेता है कि उसे तो सब आता ही है। यूनिवर्सिटी के मास कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट से 3 या 6 महीने के ट्रेनिंग पीरियड पर अखबारों में काम समझने के लिए आने वाले छात्रों को कुछ दिनों तक बड़ा अटपटा लगता है क्योंकि जिस यूनिवर्सिटी से वो डिप्लोमा/डिग्री कोर्स कर रहे होते हैं वहा उन्हें किताबी ज्ञान तो भरपूर मिलता है लेकिन अखबारों में होने वाले रूटीन वर्क या फील्ड वर्किंग की जानकारी नहीं होती। ट्रेनिंग पीरियड के दौरान ये छात्र सब कुछ जाने-समझने के साथ ही अपने नोलेज को अपडेट भी करते चलते हैं।<br />घर की सुन्दरता बढ़ाने वाले फिशपॉट की मछलियों को तेज बहाव वाली नदियों में छोड़ दिया जाए तो वह खुद को सुरक्षित रखते हुए तैर लेती हैं लेकिन कुएं के मेंढ़क को किसी बड़ी नदी में काफी संघर्ष इसलिए करना पड़ता है कि इससे पहले तक उसे कुआं ही समुद्र नजर आता था। जब हम यह याद रखते हैं कि जीवन में हर पल किसी ना किसी से कुछ ना कुछ सीखा जा सकता है तो हमें विपरीत परिस्तिथियों में भी सब कुछ आसान लगता है। पर यदि ऐसा ना करें तो यह भी समझ नहीं आता कि कल तक जो हमारे साथ थे वे सब आगे बढ़ते गए और हम वहीं के वहीं कदमताल क्यों कर रहे हैं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-55679677797923714382011-04-07T07:31:00.000-07:002011-04-07T07:32:07.529-07:00फालतू नहीं है मदद करने वाले<span style="font-weight:bold;">आप के मोहल्ले, कालोनी में भी कुछ ऐसे लोग होंगे ही जो किसी भी घर में मुसीबत की जानकारी मिलने पर तन, मन, धन से मदद में जुट जाते हैं। तब इन्हें अपने परिवार के सुख-दुख की भी याद नहीं रहती। अंजान चेहरों पर मुस्कान के लिए मदद को दौड़ पड़ने वाले ऐसे निस्वार्थ लोगों को हम में से ही कई लोग फालतू कहने में भी नहीं हिचकते। जरा सोचिए कितने लोगों का ऐसा व्यवहार है, ऐसे लोगों के कारण ही समाज में मानवीय पर्यावरण बचा हुआ है जबकि हम सब उसे भी प्रदूषित करने में कोई कसर नही छोड़ रहे। जिनका काम हमें फालतू लगता है जरा एक दिन उनके जितना वक्त दूसरों के लिए देकर तो देखें।<span style="font-style:italic;"></span></span><br />बस स्टैंड के समीप सड़क के बीचोंबीच खड़ी गाड़ी का फ्रंट गेट खुला हुआ था, उस गेट का सहारा लेकर गर्दन झुकाए खडे अधेड़ उम्र के सरदारजी बुरी तरह हांफ रहे थे। उन्हें पकड़े हुए युवती अपने दूसरे हाथ से उनकी पीठ सहला रही थी। रात का वक्त होने के बावजूद गाड़ी के आसपास भीड़ एकत्र थी। समीप पहुंच कर देखा और वहां खडे लोगों की चर्चा सुनी तो समझ आया कि उन्हें अस्थमा का अटैक पड़ा है। वह युवती उनकी पुत्री है तथा ये लोग चंडीगढ़ के रहने वाले हैं। इन दोनों को एक सिख युवक ढांढ़स बंधा रहा था कि यादा परेशानी हो तो आइजीएमसी हास्पिटल ले चलते हैं। इसी युवक ने यहां-वहां भागदौड़ कर अस्थमा मरीज के लिए बेहद जरूरी इनहेलर (पम्प) एवं दवाइयों का इंतजाम किया था। वह सलाह भी दे रहा था कि ये दवाई तो हमेशा आप को साथ रखना चाहिए। <br />दूसरी तरफ इन लोगों का कहना था हमें याद नही रहा कि पहाड़ी इलाके में जा रहे हैं। ये लोग होटल से चेकआउट करके निकले और उनकी तबीयत बिगड़ गई। समीप ही दवाई की दुकान थी, वहां से लाइफ सेविंग ड्रग खरीदना चाही लेकिन दुकानदार ने यह कहकर दवाइयां देने से इंकार कर दिया कि आडिट चल रहा है। कुछ देर बाद उन सरदारजी की हालत बातचीत करने जैसी हुई, उन्होंने समय पर दवाइयां उपलब्ध करा कर जीवन बचाने वाले उस युवक का आभार माना। बेटी ने मां को आंखों ही आंखो में दवाई के पैसे देने के लिए इशारा किया। मां ने पर्स से नोट निकाल कर देना चाहे उस युवक ने विनम्रता से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि दवाई से बढ़कर नोट नही है। आसपास खडे लोगों ने उस सिख युवक के इस कार्य की सराहना करते हुए उसे देवदूत कहा तो उसका कहना था ये सब तो मुझ से रब ने कराया है जी, मैं कौन हूं। यदि यह युवक समय रहते दवाइयां उपलब्ध नहीं कराता तो उनकी हालत और गम्भीर हो सकती थी।<br /> आज जब यादातर लोग सड़क पर तड़पते किसी व्यक्ति को देखने के बाद भी मदद को आगे नहीं आते ऐसे में इस युवक का काम सराहना योग्य तो था ही। हमारे आसपास भी ऐसे कई लोग हैं जो हर वक्त लोगों की मदद को तत्पर रहते हैं, पर हम कहां उनके इस काम की कद्र कर पाते हैं। पहली नजर में उनका काम ढोंग लगता है तो कई लोग इसे कम अक्ल के नमूने कहने की जल्दबाजी करते हैं। और जब हमारा ही मन हमें ऐसे कार्य करने वालों की सराहना के लिए बाध्य करता है तो हम रब के ऐसे बन्दों का हौसला बढ़ाने में भी कंजूसी करते हैं। एक प्रसंग और याद आ रहा है। एक मित्र का बेटा खेलते-खेलते सड़क पर आ गया और उसी वक्त वहां से निकल रही एक कार से टकरा जाने के कारण उसके पैर मे फ्रेक्चर हो गया। मित्र के लिए बहुत आसान था कि वे पुलिस में रिपोर्ट लिखाते, फिर लंबे समय तक केस चलता। मित्र के मन में केस दर्ज कराने की बात इसलिए नहीं आई क्योंकि उस कार मालिक ने बच्चे को अस्पताल में दाखिल कराने, कई रात अस्पताल में बिताने के साथ ही उपचार का सारा खर्च भी वहन किया। वरना तो उसके लिए यह यादा आसान था कि एक मुश्त राशि देकर राम-राम कर लेता या घायल बालक को सड़क पर तड़पता छोड़कर फरार हो जाता। पुलिस केस दर्ज होता भी तो अंतत: दोनों पक्षों में विवाद आपसी समझौते से ही निपटता। सारा काम धन्धा छोड़कर उस कार मालिक का दिन-रात अस्पताल में हाजिर रहना गुनाह से यादा मानवीयता की मिसाल पेश करने जैसा ही है। क्या ऐसे सारे लोगों के काम को अनदेखा किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण ही हमारे आसपास मानवीयता का थोड़ा बहुत स्वच्छ पर्यावरण बचा हुआ है। क्यों हम शंका-कुशंका की नजर से देख कर इसे भी प्रदूषित करने में लगे हैं? हम खुद तो किसी के लिए खुदाई खिदमतगार बनना नहीं चाहते लेकिन जो लोग बिना किसी अपेक्षा के अंजान लोगों के दर्द को खुशी में बदलने के लिए तन-मन-धन से लगे रहते है क्या हम उनकी सराहना भी नहीं कर सकते। अपनों के दर्द में तो अपने ही खडे रहते है लेकिन चर्चा उस अंजान की यादा होती है जो मुश्किल काम भी आसान करता जाता है और आभार, धन्यवाद की चाहत भी नहीं रखता। कई बार हम ऐसे काम में उलझे होते हैं कि हम अपने ही पारिवारिक सदस्य की मदद नहीं कर पाते, उन लोगों का हमें कई बार उलाहना भी सुनना पड़ता है लेकिन हर वक्त मदद को तत्पर रहने वाले ये सारे वो लोग होते हैं जिनका अपना घर-परिवार भी होता है लेकिन अंजान लोगों के चेहरों पर मुस्कान की खातिर अपने परिवार की प्राथमिकताओं को भी भुला देते हैं, अच्छा होगा कि हम ऐसे लोगों को कम से कम फालतू मानना तो छोड़ ही दें।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-66913122064194398852011-03-03T04:44:00.000-08:002011-03-03T04:58:09.969-08:00कभी तो खुश हो जाएं<em><strong>कई तरह के टेस्ट कराने के बाद जब रिपोर्ट निल आती है तब भी हम यह खुशी नहीं मनाते कि कोई बीमारी नहीं निकली। हम तो सिर्फ इसलिए दुखी हो जाते हैं कि टेस्ट और एमआरआई के नाम पर हजारों रु खर्च हो गए। दरअसल हमने दुखों का इतना मोटा कम्बल ओढ़ रखा है कि छोटी-छोटी खुशियो की गरमाहट महसूस ही नहीं होती। हम तो किसी परिचित की मिजाजपुर्सी के लिए अस्पताल भी जाते हंै तो सीधे उसी पलंग से ताल्लुक रखते हैं। आसपास के बेड पर दर्द से कराह रहे मरीज का हालचाल जानने, मुस्कुराते हुए उसे दिलासा देने का ख्याल भी नहीं आता। किसी दिन जब हमें खुद मरीज के रूप में अस्पताल में दाखिल होना पडे तब जरूर मन ही मन चाहते हंै कि वार्ड में जितने भी लोग अन्य मरीजों के पास आए वो सब हमसे भी हंस-बोल कर जाएं। </strong></em><br /><br />अस्पताल से लौट रहे एक मित्र का चेहरा बड़ा उतरा-उतरा सा दिखा तो सहज रूप से पूछ लिया कोई चिंता की बात तो नहीं?<br />उनका जवाब था-अभी क्या बताऊ। डॉक्टर ने ढेर सारी जांच कराने का पर्चा थमा दिया है। कल सुबह जाना है लेब पर, सारे टेस्ट होंगे, एमआरआई भी कराना है। रिपोर्ट मिलेगी फिर डॉक्टर को दिखाउंगा तब पता चलेगा क्या बीमारी है।<br />सारे टेस्ट की जानकारी देने के साथ ही उनकी चिंता यह भी थी कि यदि कोई गंभीर बीमारी निकल आई तो? इस तो के साथ उनकी चिंता परिवार, बच्चो आदि को लेकर भी थी। मंैने उन्हें ढांढस बंधाया कि ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक ही होगा। <br />दो दिन बाद मंैने उन्हें टेस्ट रिपोर्ट का परिणाम जानने के साथ ही हालचाल पूछने के लिए मोबाइल लगाया। उनकी आवाज से आभास हो रहा था कि सब कुछ नॉर्मल ही होगा। बातचीत में उनकी पीड़ा कुछ और ही थी कि 5-7 हजार रु बेमतलब के खर्च हो गए, कोई बीमारी तो निकली ही नहीं। वर्षों से उनके परिवार से जुड़े उन डॉक्टर के प्रति शंका का भाव यह था कि ये सारे डॉक्टर लोग अपने कमीशन के चक्कर में बेवजह फालतू के महंगे टेस्ट कराते रहते हंै।<br />मानव स्वभाव भी क्या है जब तक टेस्ट रिपोर्ट नही आई थी तब तक उस डॉक्टर के प्रति खूब भरोसा था साथ ही अपने परिवार, बच्चों के भविष्य को लेकर भी चिंता का भाव था। जब रिपोर्ट नार्मल निकली तो वही डॉक्टर कमीशंनखोर नजर आने लगा साथ ही इस बात का भी अफसोस कि कोई बीमारी तो निकली ही नही, यानी हमारा पैसा <br />खर्च हुआ है तो कोई तो बीमारी रिपोर्ट में आना ही चाहिए थी।<br />हम जिस मेहनत से पैसा कमाते हंै तो नहीं चाहते कि एक पैसा भी व्यर्थ खर्च हो, इसी मानसिकता के कारण टेस्ट रिपोर्ट नॉर्मल आने पर हमें इस बात की खुशी नही होती कि हम पूर्णत; स्वस्थ तो हैं। हम तो प्रतिमाह हेल्थ इंश्योरेंस की किस्ते जमा कराते वक्त भी यह दुख पाले रहते हंै कि इतने साल में इंश्योरेंस का लाभ एक बार भी नहीं लिया। हमें उन दोस्तों से जलन होती है जो डॉक्टर और बीमा एजेंट से साठगांठ के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहते हैं। साथ ही फर्जी तरीके से बीमा क्लेम की राशि लेने के दावे भरते रहते हैं। <br />हमारा स्वभाव भी क्या है भगवान से तो प्रार्थना स्वस्थ रखने की करते हैं लेकिन जब जांच रिपोर्ट नॉर्मल निकलती है तो मन ही मन दुखी भी होते है कि हाय हमें कुछ क्यों नहीं हुआ। दरअसल यह सारा व्यवहार हमें अपने आसपास से ही देखने-सीखने को मिलता है। हमारे किसी अपने को सर्दी-जुकाम-बुखार की जानकारी मिले तो हम फोन पर ही हालचाल पूछ लेते हंै और उसकी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते। और यदि उन्ही में से किसी मित्र को हार्टअटैक या अन्य कोई गम्भीर बीमारी होने की सूचना मिले तो पहली फुरसत में अस्पताल जाकर अपना चेहरा दिखाने के साथ ही मिजाजपुर्सी का मौका नहीं गवाना चाहते। हम तो मान कर ही चलते हैं कि अगला आदमी पता नही अस्पताल से अब वापस घर आए या नहीं, इसलिए जितनी जल्दी हो अपने सामाजिक होने की जिम्मेदारी निभा दी जाए।<br />हम खुशी के अवसर खोते जा रहे हंै इसलिए स्वस्थ होने का सर्टिफिकेट मिलने पर भी हम खुश नहीं होते। हमारे परिजनों, मित्रों को तो टेस्ट रिपोर्ट नॉर्मल होने की खुशी होती है पर हम उस खुशी को महसूस नहीं कर पाते क्यों कि हमें तो अपना पैसा पानी में बहाने का गम सता रहा होता है। हमें तो अपनी बीमारी में भी तब खुशी होती है जब हम से ज्यादा गंभीर बीमारी के उपचार के लिए हमारा कोई पुराना दुश्मन समीप के पलंग पर कराहता नजर आता है। तब हमें अपनी बीमारी को बडाचडा कर बताना अच्छा लगता है। यही नहीं तब हम अपने बेड पर पड़े-पड़े इसलिए कसमसाते रहते है कि पड़ौस वाले मरीज का हालचाल पूछने ज्यादा लोग क्यों आ रहे हंै? हम अस्पताल में दाखिल उस मरीज से भी कुछ सीखना नहीं चाहते जो अपनी बीमारी भूल कर वार्ड में एक से दूसरे बेड पर जाकर मरीजो के हालचाल पूछने के साथ ही उनके तीमारदारों के आने तक उनकी छोटीमोटी परेशानी अपने स्तर पर दूर करने के साथ ही डॉक्टरों-नर्सों को सहायता के लिए बुला कर ले आता है। <br />हम तो इतने स्वार्थी होते जा रहे हंै कि अस्पताल मे किसी परिचित की तबीयत पूछने जाना भी पड़े तो वार्ड में सीधे उस पलंग से ही ताल्लुक रखते हैं। आसपास के बेड पर उपचार के लिए दाखिल मरीजों की बीमारी जानने, उन्हें दिलासा देने जैसी औपचारिकता भी नहीं दिखा पाते। परिचित मरीज का हाल जानने के लिए तो सभी जाते हंै, कभी अपरिचित मरीज की तरफ एक बार मुस्कुरा कर ही देख लीजिए, उसके चेहरे पर जो खुशी नजर आएगी वह आप को भी सुकून तो देगी ही।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-21287533293401340742011-03-03T04:21:00.000-08:002011-03-03T04:26:55.465-08:00कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-65084975506114749832011-02-23T08:21:00.000-08:002011-02-23T08:22:14.961-08:00दोस्तों का कर्ज कैसे उतारेंगे?<em><strong>बैंकों से लिया कर्ज तो हम जैसे-तैसे उतार भी सकते हैं लेकिन हम पर जब दु:ख पड़ा तो अपने गम भुला कर जिन यार-दोस्तों ने अपनी रातें हमारे लिए जागते हुए काटी उनका कर्ज कैसे उतारेंगे? रिश्तेदार सुख में पहले पहुंच जाते हैं और दोस्त दु:ख बांटने बिना बुलाए पहुंचते हैं। मित्रों को यह अपेक्षा भी नहीं होती कि कोई याद रखे उन्होंने क्या किया। दूसरी तरफ कई रिश्तेदार ऐसे भी होते हैं जो करते कम गिनाते ज्यादा हैं। हम कभी तो वक्त निकालें और हिसाब-किताब ही लगा लें दोस्तों ने हमारे लिए कब-क्या किया और बदले में हम भी कुछ कर पाए या नहीं। कहीं दोस्तों को भी दो रुपए के पेन की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहे-यूज एन थ्रो..!</strong></em><br />कालका रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद काफी देर तक इंतजार के बाद भी कालका चौराहे पर जब कोई बस आती नहीं दिखी तो मेरी तरह कुछ अन्य यात्रियों ने भी टैक्सी से ही शिमला जाने का निर्णय कर लिया। एक बड़ी गाड़ी रोकी लेकिन गाड़ी चालक की शर्त थी चार से ज्यादा सवारी नहीं बैठाऊंगा, जबकि गाड़ी की क्षमता सात-आठ सवारी की थी। खैर, हम चार लोग सवार हो गए। कुछ दूर जाने के बाद उसने गाड़ी रोक दी, पूछने पर कारण बताया कि उसका दोस्त शिमला की तरफ से सवारी लेकर काफी पहले चल पड़ा है बस पहुंचने ही वाला है। बहुत अच्छी गाड़ी है, मेरा दोस्त भी बहुत अच्छा है, आप लोगों को जरा सी भी परेशानी नहीं होगी। जितनी देर उसका टैक्सी चालक दोस्त नहीं आया वह उसकी तारीफ करता रहा। बाद में यही सिलसिला उस दूसरे दोस्त ने भी अपने दोस्त की तारीफों के साथ निभाया। <br />इन दोनों में से एक की गाड़ी हरियाणा पासिंग है और दूसरे की गाड़ी हिमाचल के नम्बर वाली। दोनों में से किसी एक की टैक्सी हिमाचल बैरियर के उस पार जाए तो निर्धारित टैक्स तो चुकाना ही पड़ेगा और बाकी झंझट तो हैं ही। दोनों 20 साल से पक्के दोस्त भी हंै, रास्ता यह निकाल रखा है कि एक कालका से शिमला के लिए सिर्फ चार सवारी अपनी गाड़ी में बैठाता है, मोबाइल पर अपने दोस्त को जानकारी देता है। दूसरा दोस्त शिमला से हरियाणा की ओर जाने वाली सवारी बैठाता है। दोनों दोस्तों ने बैरियर से पहले ऐसी सुविधाजनक जगह तय कर रखी है जहां सवारी की अदला-बदली कर लेते हैं। फिर चल पड़ते हैं अपने-अपने राज्य के रास्तों पर सवारी लेकर। इन दोनों दोस्तों ने अपनी मित्रता और ड्राइवरी पेशे में ये जो ईमानदारी रखी है उसका फायदा यह कि इन्हें सवारी छोडऩे के बाद वापसी में बहुत कम खाली गाड़ी लेकर आना पड़ता है।<br />वैसे तो माना यह जाता है कि कोई बिजनेस दोस्त के साथ मिलकर शुरू करो तो कुछ साल में ही साझेदारी में बढ़ती हिसाब-किताब की दरार दोस्ती के दूध में नींबू की एक बून्द जितना असर दिखा देती है और दही बनने के बाद उसे फिर से दूध नहीं बनाया जा सकता। इन दोनों की मित्रता लंबे समय से निभ रही है तो सबसे बड़ा कारण यही है कि दोनों ने उतनी ही ईमानदारी पेशे में भी बनाए रखी है। हम अपनी प्रशंसा तो सुनते ही रहना चाहते हैं लेकिन अपने दोस्त की प्रशंसा करते वक्त रवैया ऐसा हो जाता है जैसे शब्दों को खरीद कर लाए हों।<br />हम सब यह तो जानते हैं कि कई मामलों में पत्नी, बच्चों, परिजनों से ज्यादा अपने दोस्त पर भरोसा करते हैं, उसे वह सारे राज भी बताने में नहीं हिचकते जो हम बाकी लोगों से छुपा लेते हैं। लंबी मित्रता भी तभी चल सकती है जब दोनों बिना किसी निमंत्रण की अपेक्षा के एक-दूसरे के दु:ख में रिश्तेदारों के आने से पहले पहुंच जाते हैं और हजारों की भीड़ में भी गला फाड़ कर नहीं चिल्लाते कि हम कब, किस मोड़ पर काम आए थे। दोस्त ही होते हैं जो न तो अपना अहसान गिनाते हैं और कोई ऐसी चर्चा छेड़ भी दे तो खुद बात भी बदल देते हैं।<br />दोस्तों ने हमारे लिए क्या किया जब इसका हिसाब लगाने बैठे तो हाथों-हाथ यह भी देख लें आपने दोस्तों के लिए क्या किया? हो सकता है तब हमें झटका लगे क्योंकि वो सब तो हमारे दु:ख में अपनी रात काली करते रहे और जब इन दोस्तों में से किसी को हमारे फोन की अपेक्षा थी तब हम खर्राटे भर रहे थे। साहूकार और बैंक का कर्ज तो हम देर-सवेर उतार देते हैं लेकिन दोस्तों के अहसान का कर्ज तो मासिक किश्तों से भी नहीं उतारा जा सकता। इसका आसान तरीका तो यही है कि जब दोस्त मुसीबत की बौछारों में भीगता नजर तो बिना विलम्ब के हम छाते जैसा व्यवहार करते नजर आएं।<br />अभी दोस्ती की मिसाल का दिल को छू जाने वाला एक और प्रसंग देखने को मिला। लंबे समय से बीमार चल रहे दोस्त की मौत हो गई। सरकारी विभाग में कार्यरत इस दोस्त के परिजनों को नियमानुसार जो मिलना होगा वह तो मिलेगा ही समस्या तो अभी की थी। उसके दोस्त ने परिजनों को जाकर दिलासा दिया कि प्रतिमाह 10 हजार रुपए मंै भिजवाऊंगा साथ ही यह भी खुलासा कर दिया कि यह उस लाखों की राशि के ब्याज की राशि है जो उस दोस्त ने बिना लिखा-पढ़ी के उसके पास बीमारी से पहले बैंक में जमा करने को दिए थे। यदि यह दोस्त लाखों की इस राशि की जानकारी नहीं भी देता तो कोई क्या कर लेता, वैसे भी लिखा-पढ़ी तो कहीं है नहीं। अन्य दोस्त भी अपनी इच्छा से इस दोस्त के परिवार की मदद कर रहे हैं तो इसलिए कि वह भी बिना किसी अपेक्षा के दोस्तों के सुख-दु:ख में दिन-रात एक कर देता था। हम किसी के ऐसे दोस्त साबित हुए क्या, और यदि कोई हमारा ऐसा दोस्त हो सकता है तो छोटी-मोटी नाराजी को याद रखने जैसा महान काम करके हम उसे पा कर खोने जैसी घटिया हरकत तो नहीं कर रहे?कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-68337710175980705242011-02-10T03:44:00.000-08:002011-02-10T03:46:25.891-08:00अभी नहीं तो कभी नहीं<em><em><strong><strong>हम एक साथ कई कामों को करने की सोचते हैं जो काम नहीं कर पाते उसके लिए बड़ा सहज कारण भी तलाश लेते हैं कि वक्त ही नहीं मिलता। इसी कारण कई कामों को कल पर टाल देते हैं वक्त की नदी कल-कल करती बहती रहती है और कल के लिए छोड़ गए काम तब हमारे लिए पहाड़ से हो जाते हैं जब हमारे पास वक्त तो होता है, लेकिन उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर उन छोड़े गए कामों की गठरी खोलने जितनी ताकत भी नहीं होती हाथों में।</strong></strong></em></em><br />मीडिया से जुड़े मेरे एक अजीज दोस्त से फोन पर बात हो रही थी। फ्यूचर की अपनी प्लानिंग बताते हुए उन्होंने कहा दो किताबें लिखना है, दिमाग में खाका तैयार है। तो कब से काम शुरू कर रहे हैं, यह मान कर चलें कि इसी साल में ये किताबें पूरी हो जाएंगी। मेरी इस जिज्ञासा पर मित्र का जवाब था बस थोड़ा वक्त मिल जाए। मैने उन्हें याद दिलाया कि आज से करीब तीन महीने पहले भी आप ने इसी उत्साह से एक किताब की भूमिका बताई थी, इसका मतलब यह कि वह किताब प्रिंट होने के लिए दे दी है? उन्होंने कहा अरे नहीं यार, उस किताब का काम भी रुका पड़ा है। एक चेप्टर भी नही हो पाया। बस थोड़ा वक्त की प्रॉब्लम है, समय मिलते ही सबसे पहले उसी किताब का काम शुरू करूंगा। फिर वे खुद ही अपने उन मित्रों के नाम गिनाने लगे जिन्होंने अपने मन पसंद सब्जेक्ट पर एक से अधिक किताबें लिख डाली है और इन किताबों के कारण उनकी अलग पहचान भी बनी है। मुझे लगता है यह मेरे मित्र की ही नहीं हम सब की प्रॉब्लम है। हमें जो काम करना होता है बस उसी के लिए वक्त नहीं मिलता बाकी सब कामों के लिए वक्त मिल जाता है। घर से निकलते वक्त टेलीफोन, बिजली का बिल तो लेकर निकलते हंै, लेकिन जमा कराने का वक्त नहीं मिलता। नतीजा यह कि हम में से ज्यादातर लोगों के साथ यही होता है कि लेट फी के साथ ही बिल जमा कराते हैं, देरी से बिल जमा कराने के लिए जाने कहां से वक्त मिल जाता है। आयकर विभाग महीनों पहले रिटर्न दाखिल करने की अंतिम तारीख घोषित कर देता है लेकिन हमारी चेतना अंतिम तारीख वाले दिन ही जाग्रत होती है। इसके ठीक विपरीत फ्लाइट का टिकट पहले से बुक करा रखा हो, ट्रैन या फिल्म का टिकट करा रखा हो तो इन सारी जगहों पर हम यह नहीं करते कि वक्त मिलने पर चले जाएंगे। यहां तो हम बाकी काम निपटा कर समय से दस मिनट पहले ही पहुंचने की कोशिश करते हैं। चौबीस घंटे बाद अगले दिन का सूर्योदय होना ही है यह हमें पता है। किसी दिन ऐसा नहीं हुआ कि सूरज इसलिए नहीं निकला हो कि उसे वक्त ही नहीं मिला। ना ही कभी ऐसा हुआ कि चांद इसलिए सुबह देर तक चांदनी बिखेरता रहा कि उसे अस्त होने का वक्त ही नहीं मिला। कभी ऐसा हुआ क्या कि पतझड़ के मौसम में चार महीने बारिश होती रही हो या ठंड के मौसम में लगातार महीनों तक तेज गर्मी पड़ती रही हो। प्रकृति में होने वाले बदलाव के महीने तय हैं। शुक्लपक्ष में चांद महीने से शुरू होकर पूर्णिमा को ही पूर्णाकार नजर आएगा। सब के काम तय हैं और वक्त भी निर्धारित है, कभी प्रकृति को ना वक्त कम पडऩे की शिकायत करते सुना और न ही यह सुनने में आया कि पूर्णिमा पर दूज जैसा चांद इसलिए दिखा कि उसे पूरा निखरने का वक्त ही नहीं मिल पाया। <br />आखिर हमें ही क्यों वक्त कम पड़ जाता है या जो काम जब कर लेना हो उसके लिए बस उसी वक्त हमें समय नहीं मिल पाता। जो काम हम आज जितने अधिक उत्साह से कर सकते हैं जरूरी नही कि दस-बीस साल बाद भी उतनी ही स्फूर्ति से कर पाए। हम सपने तो देखना जानते हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने की प्लानिंंग नहीं कर पाते लिहाजा हमारे पास वक्त ही नहीं होता। पढ़ते तो बचपन से रहे हैं 'काल करे सो आज करÓ लेकिन इस का मतलब उम्र के अंतिम पड़ाव पर तब पता चलता है जब हमारे पास वक्त तो खूब होता है लेकिन खुद के बलबूते चार कदम चलने जितनी ताकत भी नहीं रहती। कितना मशीनी जीवन है हमारा पैसा कमाने के चक्कर में सपने पूरे करने का वक्त नहीं और जब वक्त होता है तब लम्बे समय से कल पर टाले गए सपने पूरे करने का हौसला नही रह पाता। जबकि हमारे आसपास ही ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो समय को हर दिन के अपने कामों के हिसाब से बांट कर तय समय में उस काम को पूरा कर ही लेते हैं। हमारी ही तरह ऐसे लोगों को भी वही चौबीस घंटे ही मिलते है। वक्त तो सबको समान ही मिलता है और अवसर सब के दरवाजे पर दस्तक भी देते हैं जो दरवाजा खोल कर अवसरों का स्वागत करते हैं वक्त उनके कदमों में लिपट जाता है और जब हम वक्त की रफ्तार के मुताबिक चल नहीं पाते तो गुजर गए कारवे के बाद उड़ती हुई धूल को निहारते हुए हाथ मलने से ज्यादा कुछ कर भी नहीं पाते। तब हालात बिल्कुल ऐसे ही हो जाते हैं कि तेज भूख लगे, जेब बादाम-अखरोट सहित बाकी ड्रायफू्रट भी भरे हो लेकिन चबाने के लिए दांत ही नहीं हो।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-57959935740419762502011-01-05T07:32:00.000-08:002011-01-05T07:33:35.768-08:00रिश्तों में तो बर्फ ना जमने दे<span style="font-weight:bold;">सुख इस बर्फबारी के कारण परेशानी तो हुई लेकिन इस ने बहुत कुछ सिखाया भी है. सब से बड़ी सीख तो यही मिली हैं कि रास्ताें पर जमी बर्फ पर चलना पडे तो हमारे पास ऐसे हालात से निपटने के कई तरीके हैं, लेकिन यदि रिश्तों में बर्फ जम जाए तो? तब हमें आसानी से कोई हल इसलिए नहीं सूझता क्यों कि हमारा अहंकार, मान-अपमान की अकडं आडें आ जाती है. रिश्ते कच्चे धागे की तरह होते हैं, लेकिन इन्हे मजबूत कैसे बनाया जाए, यह बर्फबारी का सामना करने वाले लोग ही जानते है। शायद यही सबसे बड़ा कारण है कि आम हिमाचली दिल का साफ और बिना किसी स्वार्थ के मदद को हमेशा तत्पर रहता है। <span style="font-weight:bold;"><span style="font-style:italic;"></span></span></span><br /><br />सुख हमेशा क्षणिक तो होता ही और यदि सुख आया है तो मान कर चलना चाहिए दुख बाहर दरवाजे की ओट मे ंखड़ा अन्दर आने का इंतजार कर रहा है. इस सत्य को इस बार हुई बर्फबारी ने फिर सही साबित कर दिया। आस-पास के क्षेत्राें में हो रही बर्फबारी की जानकारी अन्य शहरों में रहने वाले परिचितों को मिली तो सब के फोन आने लगे, यह जानने के लिए कि शिमला में गिरी या नहीं, कब तक गिरेगी। और जब बर्फ गिर गई तो यह हमें बहुत कुछ सिखा भी गई।<br />रूई के फाहों की तरह गिरने वाली बर्फ कितनी नाजुक और मुलायम थी। इस बर्फबारी ने मन खुश कर दिया लेकिन जब यह धूप खाने के बाद जम कर सीढियों-रास्ताें-छतों पर पत्थर समान हो गई तो परेशानी भी बढ़ा दी। जिन रास्तों पर हम अंधेरे में भी बिना रुके एक सांस मे चढ़ जाते थे उन्ही रास्तों पर दिन मे साफ-साफ दिखाई देने के बाद भी रिस्क लेना नहीं चाहते, पहले एक पैर आगे बड़ा कर अन्दाज लगाते कि दूसरा पैर भी यहा रखना ठीक होगा या नहीं। सख्त हुई बर्फ वाले इन रास्ताें की हमारे मन में ऐसी दहशत बैठ गई जैसे इन रास्तों के नीचे कही हमारे दुश्मनों ने बारूद तो नहीं बिछा दी हो। <br /> एक बार अपने किसी बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार से धोखा खाने के बाद हम जैसे फिर किसी पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते वही हालत इन चिर-परिचित रास्ताें को लेकर हो गई थी। सीढ़ियों और रास्ताें को पैर धरने लायक बनाने के लिए वही मिट्टी-कचरा काम आया जिसे देख कर हम नाक-भौ चढ़ाते थे। जैसे मुसीबत मे ंहमारे अपने हमारा साथ छोड़ देते हैं, वही धोखाधड़ी इन रास्तों ने भी हमारे साथ की, हम उस गरीब मजदूर जैसे हो गए जिसके साथ धोखाधड़ी होने पर ना तो आसपास के लोग विश्वास करते है और ना ही थाने में आसानी से उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाती है.<br />जहा रैलिंग का सहारा मिला वह पल डूबते को तिनके के सहारे से कम नहीं था। जहां कोई सहारा ना मिला वहा ंगिरते-पड़ते-संभलते यह तो समझ में आया कि मुसीबत मे कोई किसी के काम नहीं आता और गलत डिसीजन होने पर यह अनुभव तो मिलता ही है कि दूसरी बार फिर से वही गलती नहीं होती। <br />इस बर्फबारी ने और भी जो सिखाया वह यह कि रास्ताें पर जमी बर्फ तो फिर भी दो-चार दिन मे पिघल जाती हैं, लेकिन रिश्तो के बीच यदि बर्फ जमने लगे और उसे समय रहते साफ ना किया जाए तो वह भी सड़क पर जमते-जमते ढेर के रूप में अलग से ही नजर आने लगती है. जैसे रास्ताें पर यहां-वहां जमी बर्फ गाड़ियाें का संतुलन बिगाड़ती है वैसे ही रिश्तों के बीच जमी बर्फ सम्बंधों की गति अवरुध्द कर देती है। यह बर्फ जमती है तो इसका सबसे बड़ा कारण हमारी अपेक्षा होती है और यही अपेक्षा दुखों-अवसाद-असंतोष का कारण भी बनती है. मकानों की छते ढलावदार रखते ही इसलिए हैं कि या तो बर्फ जमे ही नहीं और जम जाए तो पानी बन कर बह जाए। हमारे मन भी मकानाें की ढलवा छतों की तरह हो जाए तो मान-अपमान की बर्फ जम ही ना पाए।<br />रिश्तों के बीच जब यह हालात बन जाते है तो हमारे आसान से काम भी बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं। अच्छे-भले रात में सोते हैं, सुबह देखते है तो चारो तरफ सफेदी छाई हुई है, मन थोड़ा खुश हो पाता है कि बिजली गुल से आंखो के सामने परेशानियाें का अन्धेरा छा जाता है, किचन से लेकर बाथरूम तक नल हड़ताल पर. पाइप लाइन में पानी भी जम चुका होता है. सब कुछ होते हुए भी हम असहाय से हो जाते है. पानी की टंकी से लेकर नलों के नीचे तक कागज-पुराने कपडे ज़लाकर कुछ गरमाहट बनाने की कोशिश करते है। नल की टोटी बडे उत्साह से खोलते है तो फुस्स की तेज आवाज के बाद पहले बूंद-बूंद पानी टपकता है और फिर जब तेजी से नल चलने लगते है तो हमें अपने किए गए प्रयास पर कितना गर्व होता है। <br />इस सारी कवायद में ही रिश्तों में जमी बर्फ गलाने का नुस्खा भी तो छुपा है. हम अपने अहंकार-अपेक्षाओं को जला कर भी तो बर्फ के नीचे जम चुके सम्बन्धों में फिर से गरमाहट पैदा कर सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा मन में जो गुस्से का गुबार दबाए बैठे है वह बाहर ही तो निकलेगा, नल से भी तो पहले आवाज करते हवा और फिर पानी आता है। बिना अपेक्षा वाले रिश्तें रहेंगे तो कभी ऐसी सख्त बर्फ जमेगी ही नहीं। यह तभी संभव है जब हम बिना स्वार्थ के अपना काम करे यानी नेकी करे और भूल जाएं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-12198969269726048582010-12-29T08:03:00.000-08:002010-12-29T08:05:06.473-08:00कुछ तो संकल्प लिया होगा आपनेसाल की शुरुआत कैसी हो, जब यह हमे ही तय करना है तो क्याें ना कुछ अच्छे से ही आरंभ करें. रोज ना सही महीने या साल मे तो कुछ अच्छा कर ही सकते हैं। इस अच्छा करने की सीधी सी परिभाषा है जिस काम को करके आप के मन के अंदर खुशी का झरना फूट पड़े। इसके लिये हजारों-लाखाें भी खर्च नहीं करने पड़ते, कई बार तो तन और मन को भी अच्छे काम में लगाया जा सकता है। इस नए साल मे किसी एक उदास चेहरे पर मुस्कान लाने का ही संकल्प लिया जा सकता है, यह भी खर्चीला लगता हो तो घर में पानी, बिजली, टेलीफोन, पेट्रोल की फिजूलखर्ची रोकने का संकल्प तो इस बढती महंगाई मे हमें ही राहत देने वाला साबित हो सकता है।<br /><br />कपड़े तैयार कर लिए क्या? मेरे इस प्रश्न के जवाब में दूसरी तरफ से फोन पर दोस्त ने कहा इस बार कपड़ों के साथ कुछ दोस्तों से भी मदद ली है, ठंड इस बार कुछ ज्यादा है ना. इन दोस्तों ने गर्म कपडे ज़ुटाए हैं, अब तक तीन-चार बडे पैकेट तैयार हो गए हैं. हम लोग अगले सप्ताह निकलेंगे।<br />नए साल को सब अपने-अपने अंदाज में मनाते हैं उद्देश्य यही रहता है कि साल की शुरुआत यादगार बन जाए, अन्य शहर में रहने वाले मेरे एक दोस्त साल के अंतिम सप्ताह से ही नए साल के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं। परिवार के बडे-छोटे सदस्यों के साफ-सुथरे कपडे प्रेस करा लेते हैं, बच्चाें के लिए चाकलेट-खिलौने जुटाते हैं, इस सब के लिये जो खर्च होता है उसका इंतजाम भी इस तरह करते हैं कि एकदम आर्थिक बोझ ना पड़े परिवार के सभी बडे सदस्य प्रति सप्ताह पांच रु. जमा करते हैं. बच्चों को भी कुछ राशि हर माह बचाने के लिये प्रेरित किया जाता है, साल के अंत मे इस सारी जमा राशि से सामान खरीद लेते हैं। <br />क्या हम भी इस तरह से नये साल की शुरुआत नहीं कर सकते? हम भी हर माह कुछ ना कुछ फिजूलखर्ची तो करते ही हैं, उसमें कटौती करके पैसा बचा सकते हैं, हम नए कपडे, ग़र्म कपड़े लगभग हर साल खरीदते तो रहते हैं लेकिन छोटे और पुराने होते कपड़ाें के ढेर का क्या करें तय नहीं कर पाते, जबकि हमारे आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनके लिये ये कपड़े नए के समान होते हैं। हमारी ठंड दो-तीन गर्म कपड़ों के बाद भी कम नहीं हो पाती लेकिन कोई है कि जगह-जगह छेद वाले स्वेटर मे ही तीखी हवाओं का सामना करने को मजबूर हैं, हमारे पास धन की कमी हो सकती है लेकिन मन मे दया भाव किसी कोठी वाले से कम नही. हम सारे समाज के पीडिताें के चेहरे पर मुस्कान नही ला सकते लेकिन किसी एक के चेहरे पर तो चमक ला ही सकते हैं।<br />समीप के सरकारी अस्पताल मे दाखिल ऐसे मरीज भी मिल जाएंगे जिनके परिजनो के पास महंगी दवाई, ऑपरेशन का सामान खरीदने के लिये पर्याप्त पैसा नही होता. एक बोतल खून जुटाना भी इनके लिये सबसे चुनौतीपूर्ण रहता है। किसी एक मरीज के मन मे हमारी भगवान जैसी छवि तो बनाने का प्रयास करके तो देखें पर हमारी मानसिकता तो ऐसी हो गई है कि हम अस्पताल से स्वस्थ होकर घर लौटते वक्त प्रार्थना तो यह करते हैं कि फिर कभी अस्पताल का मुंह ना देखना पड़े लेकिन बची हुई दवाइया खजाने की तरह अपने साथ घर लेकर आ जाते हैं और कुछ दिनो बाद खुद ही इसे कचरे के ढेर पर फेक भी देते हैं, हम यह याद रखना ही नहीं चाहते कि जिन दवाइयों ने हमें जीवनदान दिया वही बची दवाइया किसी गरीब मरीज के भी काम आ सकती हैं। हम सोचते ही नहीं कि अस्पताल मे एक काउंटर ऐसा भी है जहा बची हुई दवाइया इसी उद्देश्य से एकत्र की जाती हैं कि असहाय मरीजों की मदद हो जाए जिस दवाई का हम पैसा दे चुके होते है, उन सारी दवाइयों को थोडे मोलभाव के बाद फिर से उसी दुकानदार को बेच देते हैं। पुराने कपड़ाें से हमें बर्तन खरीदना, इन कपड़ों को कार की सफाई के लिये उपयोग मे लाना ज्यादा आसान लगता है। आसपास के मित्रों को प्रेरित कर के हम पुराने कपड़ों को जरूरतमंदों तक पहुचाने के बारे में क्यों नहीं सोच सकते।<br />नए साल पर हम कोई ना कोई संकल्प लेते ही हैं, एक संकल्प किसी अच्छे काम को शुरू करने का भी तो ले सकते हैं और किसी के भले के लिये नही तो अपनी किसी बुरी आदत को छोड़ने की हिम्मत भी नहीं दिखा सकते? हमें याद ही नहीं रहता खुद अपने बच्चो, पत्नी से कई बार इस तरह पेश आते हैं कि अकेले में खुद हमें इस पर अफसोस होता है क्योंकि इस तरह का व्यवहार हम अपने लिये भी पसंद नहीं करते, इतना भी नहीं कर सकते तो पानी-बिजली, मोबाइल, पेट्रोल की फिजूलखर्ची ना करने का प्रण भी कर सकते हैं, ये सारी चीजे भी फिजूल लगती हो तो हम सोने से पहले आज का दिन बेहतर तरीके से गुजरने पर ईश्वर के प्रति धन्यवाद तो व्यक्त कर ही सकते हैं, इस काम मे ना तो एक धेला खर्च होना है और न ही इस दो-चार मिनट की मौन प्रार्थना का लाभ हमारे दुश्मन को मिलना है, हम जो भी करते हैं पहले उसमे अपना स्वार्थ देखते हैं कभी बिना स्वार्थ के कुछ कर के देखे तो सही, उस वक्त सुख की जो अनुभूति होगी वह यादगार तो होगी ही, तब ही पता चलेगा कि मन के अंदर खुशी का झरना किस तरह बहता है।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-72346589565855174622010-12-23T05:16:00.000-08:002010-12-23T05:20:27.072-08:00हर दिन हो जाए साल के पहले दिन जैसाहम जिस व्यवहार की अपेक्षा नही करते किसी दिन वैसा हमारे साथ हो जाए तो? कई दिनो तक ना तो हम ठीक से सो पाते है और ना ही उस व्यक्ति को भूल पाते हैं. हम भी तो पूरे साल जाने-अंजाने में कितने लोगों से अप्रत्याशित तरीके से पेश आते हैं. क्या वो सारे लोग हमें भी भूल पाते हाेंगे? साल के पहले दिन हम सब के साथ अच्छे से पेश आते भी हैं तो अपने स्वार्थ के कारण कि हमारा पूरा साल सुख-शांति से बीत जाए. हमारा हर दिन अच्छा बीत सकता है बशर्ते हम हर दिन को साल के पहले दिन की तरह जीना सीख लें और इतना याद रख लेकिन ईश्वर ने दिल और जुबान बनाते वक्त ह्ड्डी का इस्तेमाल इसीलिए नहीं किया क्योंकि उसे इनके इस्तेमाल में कठोरता पसन्द नहीं है।<br />अरे, अब नए साल में बस एक सप्ताह बचा है! जैसे-जैसे दिसम्बर अंतिम सांसे गिन रहा है, नए साल के आगमन की आहट भी तेज होती जा रही है. समाप्त होता यह साल हमे यह कहने को तो मजबूर करता ही है कि पता ही नहीं चला कितनी जल्दी बीत गया यह साल. हम में से ज्यादातर लोगो को साल के पहले दिन या दीवाली वाले दिन अपने बचपन के साथ ही परिवार के बुजुर्गों की वह सीख भी याद आ जाती है जब भाई-बहन या पड़ौस के दोस्त से झगडे की शुरुआत ही होती थी कि दादी-नानी प्यार से समझाने आ जाती थीं. आज के दिन तो मत झगड़ो नहीं तो पूरे साल लड़ते-झगड़ते रहोगे। बचपन मे मिले इन संस्कारों की छाप हमारे मन पर इतनी गहरी पड़ी हुई है कि अब हम तो साल के पहले दिन इस बात का ध्यान रखते ही है, साथ ही बच्चों को भी उसी अन्दाज में समझाते हैं। <br /><br />साल के उस पहले दिन के 24 घंटाें ंका हिसाब तो हम सब के दिलो-दिमाग मे दर्ज रहता है लेकिन बाकी 364 दिनाें का हिसाब उन लोगों के पास सुरक्षित रहता है जो काम और बिना काम के हम से मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। जरूरी नहीं कि कोई बार-बार ही मिले, किसी से बार-बार मिलने के बाद भी वह शख्स हमें पसन्द नही आता इसी तरह हमे भी कहा याद रहता है कि जो हमसे मात्र एक बार कुछ पल के लिए ही मिला था हम उसे खुश कर पाए या नहीं। <br />दुकानदार के लिए ग्राहकों की कमी नहीं है और हर ग्राहक खरीदारी कर के ही जाए यह भी जरूरी नहीं, लेकिन सफल दुकानदार वही है जो हर ग्राहक का मुस्कुराते हुए स्वागत करता है और जो ग्राहक के आगमन पर अपनी कुर्सी से उठना, पेट का पानी हिलाना भी पसन्द नहीं करता वह यह भी नहीं समझ पाता कि पड़ौसी दुकानदार को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही और वह मक्खी मारने वाली मुद्रा में सुबह से शाम तक क्यों बैठा रहता है जबकि दोनों दुकाना पर एक ही कम्पनी का माल समान भाव में ही मिलता है।<br />जब हम साल के पहले दिन सबसे बेहतर तरीके से पेश आ सकते है तो पूरे साल क्यों नहीं? यह असम्भव भी नहीं है क्योकि पहले दिन तो हम बेहतर एक्टर साबित हो ही गए है। उस एक दिन भी हमारा स्वार्थ यही रहता है कि यह पहला दिन अच्छा बीत जाए। हमें अपने भले की तो चिंता रहती है लेकिन हमारे कारण किसी का मन ना दुखे, किसी का दिन, किसी का मूड खराब ना हो इसकी चिंता क्यों नहीं रहती। हम एक दिन में कितने लोगों की हंसी-खुशी का कारण बने यह हम बार-बार गिनाते हैं, लेकिन बाकी पूरे साल क्या हम वैसा व्यवहार कर पाते हैं? तो क्या माना जाए साल के पहले दिन की शुरुआत हम मुखौटा लगा कर करते हैं या बाकी दिनों में अपने असली चेहरे के साथ जीते हैं। <br />यह भी तो हो सकता है कि किसी और की सलाह मान कर अच्छे की शुरुआत करने की अपेक्षा साल के पहले दिन ही यह संकल्प लें कि बनते कोशिश हर दिन यह प्रयास करेंगे कि अपने कार्य-व्यवहार से किसी का दिल नहीं दुखाएंगे, यह संकल्प लेना हमारे इसलिए भी आसान है कि हम भी किसी से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करते, कोई और रखे ना रखे हम तो हर दिन का हिसाब हाथोहाथ आसानी से पता कर सकते हैं - या तो हम किसी की खुशी का कारण बन जाएं या किसी को अपनी खुशी में बिना किसी स्वार्थ के शामिल कर लें। कहते है भगवान कभी भी हमारे दिल और जुबान में कठोरता पसन्द नहीं करता इसलिए ही इन दोनों को बिना हड्डी के बनाया है। दिल और जुबान के कारण ही तो संसार में प्यार और नफरत का कारोबार फलफूल रहा है. तो नए साल में अच्छा करने के लिए पहला दिन ही क्यों? हर दिन साल के पहले दिन जैसा भी तो हो सकता हैं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-42805346663702337042010-12-15T07:46:00.000-08:002010-12-15T07:47:40.300-08:00एक बार मिल तो लीजिए<em><strong>हमारे पास सोशल नेटवर्किंग के लिए तो वक्त खूब है, जिन्हें हम जानते तक नहीं उन अंजान लोगों को फेसबुक पर एक क्लिक करते ही मित्र बना कर हम कितने उत्साहित होते हैं लेकिन हमारे आसपास जो लोग रोज हमसे नजरें मिलाते गुजरते हैं उनसे हेलो-हाय में हमारा दम्भ आड़े आ जाता है। हम लोगों से मिलने, उन्हें जानने-समझने से पहले ही धारणा बना लेते हैं कौन अच्छा और कौन नकचड़ा है। विज्ञापनों की भाषा में भी बदलाव आया है कि पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वाश करें, हमारे दिलो-दिमाग को तो ये आसान सी बात भी समझ नहीं आ रही है।</strong></em>बहुत ही नजदीकी दोस्त के परिवार में शादी समारोह था। जाना तो मुझे भी परिवार सहित था लेकिन यह सम्भव नहीं हो पाया। मैंने उसी शहर में पढ़ रही और होस्टल में रह रही बिटिया से अनुरोध किया कि वह पूरे परिवार की तरफ से शामिल हो जाए। मुझे जिस उत्तर की अपेक्षा थी बिल्कुल उसी अंदाज में उसने झुंझलाहट भरे लहजे में कहा मैं जिन्हें जानती तक नहीं, जो लोग मुझे भी नहीं जानते वहां जाकर मैं क्या करूंगी? मैंने अपने तरीके से उसे समझाने की कोशिश की जब तक हम किसी से मिलेंगे नहीं एक-दूसरे को कैसे जाने-पहचानेंगे?<br />खैर, मेरे अनुरोध पर उसने मन मारकर वहां जाने की सहमति दे दी। मैं तो मान कर ही चल रहा था कि अगली सुबह वह फोन करके अपनी भड़ास निकालेगी। मेरा यह अनुमान तब गलत साबित हो गया जब उसी रात उसने शादी समारोह से बाहर निकलते ही मुझे फोन लगाया और उत्साह से बताती रही कि वहां जाकर उसे बहुत अच्छा लगा। परिवार के जितने लोगों से भी मिली यह लगा ही नहीं कि वह उन सबसे पहली बार मिल रही है। सभी लोगों ने उसका उत्साह और पारिवारिक आत्मीयता के साथ स्वागत किया और परिवार का कोई न कोई सदस्य पूरे वक्त न सिर्फ उसके साथ रहा वरन बाकी रिश्तेदारों से भी मिलवाया। <br />मैंने उसकी सारी बात सुनने के बाद पूछा अच्छा बता तेरी पहले से बनाई धारणा गलत साबित हुई या नहीं? उसने बिना किसी किंतु-परंतु के मान लिया कि आप सही कह रहे थे। हमेशा कि तरह मैंने पूछा इस सारे प्रसंग से हमें क्या सीखने को मिला? उसका जवाब था कभी भी किसी इंसान के बारे में पहले से कोई धारणा नहीं बनाना चाहिए।<br />पर हम सब ऐसा कहां कर पाते हैं। कुछ हमारा अपना अहम और कुछ चेहरा देख कर लोगों के बारे में अनुमान लगा लेने के अपने झूठे दम्भ के कारण कई बार हम लोगों को पहचानने में भूल भी कर बैठते हैं लेकिन अपनी गलती को मानने का साहस फिर भी नहीं दिखा पाते। हम जिसके बारे में अनुमान लगाते हैं कि वह शख्स बहुत अच्छा होगा, वह एक-दो मुलाकात के बाद ही मतलबी नजर आने लगता है। और जिसका चेहरा देखकर हम सोच लेते हैं कि वह तो बहुत घमंडी होगा, वह नेकदिल और आधी रात में भी मदद के लिए तत्पर रहने वाला निकलता है।<br />इसमें ऐसे सारे लोगों का कम हमारा खुद का दोष ही ज्यादा होता है। क्योंकि हम खुद तय करते हैं किससे मिलें, किस का चेहरा पसंद करें और किस को अस्वीकार करें। जिससे हम मिलना चाहते हैं वह तो हमें अच्छा लगने लगता है और जिससे हम मिलना नहीं चाहते उसे हम बिना बातचीत किए ही नकार देते हैं।<br />मुझे उन तीन दोस्तों में से एक द्वारा सुनाए किस्से की याद आ रही है। इन तीनों को याद आई कि उसी शहर में उनके पूर्व शहर का एक अन्य दोस्त भी वर्षों से रह रहा है। तीनों ने तय किया कि चलो आज उससे भी मिल लेते हैं, फिर कहने लगे पहले जिस काम के लिए चल रहे हैं वह कर लें बाद में देखेंगे। बातचीत में अहम, दम्भ और पूर्व धारणा भी आड़े आने लगी। अंतत: यह तय हुआ कि आज उससे मिल लेते हैं, व्यवहार-विचार नहीं मिले तो भविष्य में कभी नहीं मिलेंगे। उस दोस्त को फोन करके सूचित किया डेढ़ घंटे बाद आपके घर आएंगे। उसकी उत्साहजनक प्रतिक्रिया से इन तीनों ने अपना काम निपटाने के बाद फिर फोन लगाया। घर गए, चाय-नाश्ते जितने वक्त में ही इतनी प्रगाढ़ता हो गई कि एक घंटे पहले तक वह जो दोस्त इन सबसे अपरिचित था, उसे परिवार सहित उसी रात खाने पर भी आमंत्रित कर लिया और अब ये चारों अच्छे मित्र हो गए हैं। यही नहीं अब अपने पूर्व शहर के अन्य लोगों को भी तलाश रहे हैं।<br />एक तरफ जमाना सोशल नेटवर्किंग की साइट्स पर तेजी से दौड़ रहा है, दूसरी तरफ हम हैं कि अपने आस-पास के लोगों, एक ही रास्ते पर रोज आते-जाते टकराने वालों से बात करना तो दूर हल्के से मुस्कुराने में भी इसलिए होंठ कसकर भीचे रहते हैं कि सामने वाला रोज टकराता है तो क्या हुआ पहले वह मुस्कुराए फिर हम तय करेंगे कितने हाेंठ फैलाना है। दरअसल यह हालात भी बने हैं तो इसलिए कि हमें भय बना रहता है कि हमने मैत्रीपूर्ण संबंधों का दायरा बढ़ाया तो कही कोई चुइंगम की तरह हमसे चिपक ही न जाए।<br />कितनी अफसोसजनक स्थिति होती जा रही है, अब हमारा ज्यादातर वक्त सोशल नेटवर्किंग साइट पर फे्रंडशिप बढ़ाने में बीत रहा है। बडे फ़ख्र से हम फेसबुक सहित अन्य साइट पर अपने दोस्तों की बढ़ती संख्या का आंकड़ा बताते हैं लेकिन अपने आसपास हमारे संबंधों का पौधा कब सूख गया यह पता ही नहीं चल पाता। जिन्हें हम जानते-पहचानते नहीं उनकी फे्रंड रिक्वेस्ट को तो एक क्लिक पर स्वीकृत कर देते हैं लेकिन हम जिस मल्टी स्टोरी, जिस कॉलोनी, जिस मोहल्ले में रहते हैं वहा पड़ोस के फ्लैट में कौन रहता है यह तक पता नहीं होता। जब नेट और टीवी नहीं हुआ करते थे तब किसी की भी लोकप्रियता का मापदंड इस बात से लगाया जाता था कि उसकी अंतिम यात्रा में कितनी भीड़ उमड़ी। अब तो हालत यह है कि हम शादी का रिसेप्शन तो महंगे से महंगे होटल में रखना चाहते हैं लेकिन प्रति प्लेट खर्च अधिक लगने पर थोड़ा सस्ता होटल पसंद करने की अपेक्षा बनाई गई आमंत्रितों की सूची में से अपने कई नजदीकी मित्रों का नाम काटना ज्यादा आसान लगता है।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-35754812269620898222010-12-02T04:42:00.001-08:002010-12-02T04:42:51.155-08:00...और चाबी खो जाए?<span style="font-weight:bold;">बिना चाबी का कोई ताला कंपनियां बनाती नहीं और बनाए तो कोई ग्राहक खरीदे भी नहीं। ताले और चाबी के बीच जो अटूट रिश्ता है वह यह भी सिखाता है कि यदि मुसीबत आई है तो उसका हल भी होगा ही। दिक्कत तो यही है कि जब मुसीबत आती है तो हमारे हाथ-पैर फूल जाते हैं। भाग्य और भगवान को दोष को देते हैं। तब हमारी जेब में रखी छोटी सी चाबी का भी ख्याल नहीं आता। तेज बहाव में डूबी नाव के ऐसे कई यात्री अपनी जान बचाने में सफल हो जाते हैं, जिन्हें तैरना तक नहीं आता और हिम्मत हार जाने या गलत फैसला लेने के कारण अच्छे तैराक की पानी में डूब जाने से मौत हो जाती है।<br />सामान खरीदने के दौरान याद आया कि सफर पर आना-जाना पड़ता है तो बैग के लिए एक ताला भी खरीद लिया जाए।<span style="font-style:italic;"></span></span> दुकानदार ने पांच-सात ताले सामने रख दिए और भाव भी गिना दिए। उसे लगा था कि मुझे घर के लिए बड़ा ताला खरीदना है, उसने लिहाजा बड़े ताले निकाले। हर ताले के साथ तीन चाबी बंधी हुई थीं। मैंने जब बताया कि सफरी ताला चाहिए तो उसने छोटे ताले बताना शुरू कर दिए। किसी के साथ दो तो किसी ताले के साथ तीन चाबियां थीं। तालों के भाव बताने के साथ ही वह इनकी चाबियों के फायदे भी बताता जा रहा था कि एक चाबी बैग के साथ बांधकर रख दीजिए, दूसरी चाबी घर में और तीसरी ऑफिस में सुरक्षित रख दीजिए। कभी एक चाबी गुम गई तो दूसरी मिल जाएगी। ताला तो खरीदना ही था, लेकिन उससे कहीं अधिक मुझे उसकी चाबियों संबंधी सलाह पसंद आई। हम सब के साथ ऐसा होता ही है कि चाहे अटैची की चाबी हो या गोदरेज अलमारी की या अन्य तालों की, हम सारी चाबियां एक जगह इकट्ठी रख देते हैं। कभी-कभी तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाती है जब कोई एक चाबी गुम हो जाने पर एक जैसी चाबियों के ढेर में से दूसरी चाबी खोजने के लिए हमें एकएक कर सारी चाबियां लगाकर देखनी पड़ती हैं तब कहीं गुमी हुई चाबी वाली दूसरी चाबी मिल जाती है। <br />हमारे फ्रेंड सर्कल में भी हर दोस्त में कुछ न कुछ खासियत तो होती है, लेकिन कुछेक दोस्त ऐसे भी होते हैं, जिनके पास हर परेशानी का हल और हर समस्या के लिए गले उतर जाने वाला सुझाव भी होता है। ऐसे दोस्तों को हम मजाक में हर ताले में लगने वाली चाबी भी कह देते हैं।<br />ताले की उस दुकान पर जितनी भी देर रहा यह भी समझने को मिला कि बिना चाबी के कोई ताला खुल नहीं सकता और हर ताले के साथ चाबियां होती ही हैं। ना तो कंपनियां बिना चाबी के ताले बनाती हैं और न ही कोई ग्राहक बिना चाबी का ताला खरीदता है। चाबी नहीं होगी तो ऑटोमेटिक लॉक सिस्टम वाले बैग हों या अटैची सब के लिए कोड तो तय करना ही पड़ता है, जब आप कोड नंबर घुमाएंगे तभी ताला खुलेगा या बंद होगा। ताला चाहे पच्चीस रुपए का हो या हजार-पांच सौ का उसके साथ दो या तीन चाबियां तो रहती ही हैं, जो इसलिए होती हैं कि एक गुम हो जाए तो दूसरी या तीसरी का उपयोग कर लें। सारी ही चाबियां गुम जाएं तो फिर ताला तोड़ने या अटैची चाबी बनाने वाले सिकलीगर तक ले जाने का विकल्प भी है ही। ताले और चाबी के इस अटूट रिश्ते से यह सीख भी मिलती है कि यदि मुसीबत है तो उसके हल भी हैं। हम प्रयास जारी रखें, हिम्मत न हारे तो एक बार में नहीं तो दूसरे या तीसरे प्रयास में सफलता मिलेगी ही। जरूरत है तो समझदारी और धैर्य की या तो तीनों चाबियां इस तरह संभालकर रखें कि जरूरत पड़ने पर पता हो कौन सी चाबी कहां रखी है पर ऐसा होता नहीं है। <br />हम ताला खरीदने, उसका उपयोग करने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी सजगता बाकी चाबियां संभाल कर रखने में नहीं दिखाते। जीवन में जब हमें मुसीबतों का सामना करना पड़ता है तो हममें से यादातर लोग जो सारा दोष भाग्य को देकर हताश हो जाते हैं। भूल जाते हैं कि समस्या आई है तो हल भी साथ लाई होगी, तब हम याद रख लें कि ताला है तो चाबी भी होगी ही। हम ठंडे दिमाग से सोचें तो समस्या का हल भी मिल सकता है, लेकिन या तो हम हताश हो जाते हैं या जल्दबाजी में ताला तोड़ने जैसा कदम उठा लेते हैं जिससे या तो हमारी अटैची का या घर के दरवाजे का ही नुकसान होता है। मुसीबतों के ताले खोलने की चाबियां हम सब की जेब में ही होती है, लेकिन हम इन चाबियों का उपयोग करना ही भूल जाएं तो ताले का क्या दोष। ताले-चाबी की तरह ही मुसीबत और हल का भी अटूट रिश्ता है। यह ध्यान रख लें तो बड़ी से बड़ी समस्या हल की जा सकती है। यात्रियों को ले जा रही नाव जब अचानक डूब जाती है तो कई ऐसे यात्री लहरों से जूझते हुए सकुशल बच जाते हैं जिन्हें तैरना तक नहीं आता कोई इसे चमत्कार कहता है तो बाकी यह भी कहते हैं कि उसने हिम्मत नहीं हारी।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-7323430288470836752010-12-02T04:41:00.001-08:002010-12-02T04:41:59.501-08:00पंखे और दरवाजे भी कुछ कहते हैं सुनिए तो सही<span style="font-weight:bold;">यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती है। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरियता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें। <span style="font-style:italic;"></span></span><br />रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे आसपास अच्छा करने वालों की कमी नहीं है, लेकिन उनसे सीखने, उनके अच्छे काम की तारीफ करने में हमारा ही अहं आडे अा जाता है। घर में ऐसी कई निर्जीव चीजें भी हैं जो बिना तारीफ के भी अपने काम से हमें बहुत कुछ सिखाती हैं, हम इनसे ही कुछ समझ लें। इनके काम की तो हमें प्रशंसा भी नहीं करनी पडेग़ी और न ही इनसे यह उलाहना सुनने को मिलेगा कि हम कितने मतलबी हैं। काफी लंबी कतार लगी थी टेलीफोन बिल जमा कराने वालों की। काउंटर के उस तरफ बैठे कर्मचारी पर इधर वाले लोग झुंझला भी रहे हो कि तेजी से काम करो। जवाब में उस कर्मचारी का कथन सौ सुनार की एक लुहार की जैसा ही था। रौब गालिब करने वाले सान को उसने बडे ही प्यार से समझाया भाई साहब बिल में बिना जुर्माने की अंतिम तारीख भी लिखी रहती है। आप दंड सहित बिल राशि जमा कर रहे हैं तो इस पर एहसान नहीं कर रहे ये आपकी लापरवाही का नतीजा है और फिर बाकी लोग भी अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बात सौ प्रतिशत सही लगी मुझे। आप यदि लापरवाह हैं तो उसमें कैलेंडर की तारीखें महीने और तेजी से भागते वक्त का क्या दोष! <br />हम सब को पता है कल तो आएगा, लेकिन उस कल में आज वाला दिन नहीं होगा। यह जानते हुए भी हम कई चीजें कल पर छोड़ते जाते हैं, जबकि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें हमें जिंदगी के हर लम्हे के प्रति गंभीरता रखने का संदेश देती हैं। हम हैं कि बस ऐन वक्त पर जागते हैं और उस वक्त भी सात घोड़ों के रथ पर सवार होते हैं कि बस सबसे पहले मेरा ही काम होना चाहिए। खुद को वरीयता और सम्मान न मिलने पर हम गुस्से में रेत की तरह बिखर जाते हैं। हम घर की जिन निर्जीव चीजों को रोज उपयोग में लाते हैं उनसे भी सीखना नहीं चाहते कि हमारी रूटीन लाइफ को कैसे बेहतर बना सकें। <br />कभी रोज पावर कट लग रहा है, जैसे ही अचानक लाइट गुल होती है तो सबसे पहले हम मोमबत्ती तलाशते हैं और लाइट आते ही सबसे पहले जलती मोमबत्ती पर फूंक मार कर बुझा देते हैं। अब कई लोगों की टीस होती है कि जब जरूरत पड़ती है तभी उनके रिश्तेदार याद करते हैं, ऐसे लोग मोमबत्ती से भी नहीं सीखते हैं कि वह कभी अपनी पीड़ा नहीं सुनाती। दूर क्यों जाएं गर्मी में ठंडक देने वाले और बाकी महीनों में छत पर लटकते धूल में सने रहने वाले पंखे को ही देख लें, वह सिखाता तो है अपने हों या पराए सबके साथ ठंडे-ठंडे कूल-कूल रहो। हम तो फिर भी नहीं सीख पाते, हमारे अहं को जरा सी चोट तो लगी, वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं। फिर यह भी नहीं देखते कि किस पर नाराज हो रहे हैं उसने पहले कई बार हमारी मदद की है। सुबह पूजा के लिए अगरबत्ती जलाते हैं उसकी खुशबू सिर्फ पूजा घर को नहीं नहीं महकाती बाकी कमरों सहित आसपास के घरों तक भी खुशबू का झोंका बिना इजाजत के पहुंच जाता है। फिर भले ही हमारे पड़ोसी से हमारी अनबन ही क्यों न हो। पता नहीं हम बाकी लोगों के लिए खुशबू के एहसास जैसे क्यों नहीं बन पाते।<br />हमारे दिन की शुरुआत कैसे व्यवस्थित हो यह सूरज से लेकर चांद तक सभी सिखाते हैं इनके लिए न संडे का मतलब है न सेकेंड सटरडे का। बिना नागा उगते और अस्त होते हैं साथ ही अप टू डेट रहने का संदेश भी देते हैं। घर की खिड़कियां खोलते ही सामने नजर आने वाले मनोरम दृश्यों से हमारी तबियत प्रसन्न हो जाती है। हम इतनी आत्मीयता से मन की खिड़कियां तभी खोलते हैं अगले से हमारा कोई काम अटका हो। बाहर आते- जाते दरवाजा खोलना बंद करना तो हमें याद रहता है लेकिन किसी काम में असफलता मिलने पर हम हताश होकर ऐसे बैठ जाते हैं कि जैसे सफलता के सारे दरवाजे बंद हो गए। घर के ये दरवाजे हमे बिना बोले मैसेज देते हैं कि जब एक दरवाजा बंद होता है तो दूसरा खुलता है। हम हारे नहीं, हताश नहीं हों तो हमारी किस्मत के दरवाजे भी हम खोल सकते हैं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-70782431718820807512010-11-17T07:37:00.000-08:002010-11-17T07:38:35.093-08:00खुद की गलतियों को भी तलाशें<span style="font-weight:bold;">कभी खुद हमें अपना मूल्यांकन भी कर लेना चाहिए। ऐसा करना इसलिए भी काम का साबित हो सकता है क्योंकि समाज का नियम है मुंह पर प्रशंसा और पीठ फेरते ही आलोचना। हमें यदि यह पता नहीं है कि हम कितने पानी में हैं तो मान कर चलिए पानी सिर के ऊपर से कब निकल जाएगा यह भी पता नहीं चल पाएगा। बाकी लोग चाहकर भी किसी की गलती या कमजोरी इसलिए नहीं बताते कि बेवजह कोई बुरा नहीं बनना चाहता। लोगों को करने दीजिए आपकी अच्छाइयों का गुणगान आप तो अपनी गलतियों को तलाशने के काम में लगे रहिए। इस सुधार से ही तो आप में अच्छाई का प्रतिशत भी बढ़ेगा।<span style="font-style:italic;"></span></span><br />एक कार्यक्रम में वक्ता के रूप में शामिल होने पर मुझे अपनी कमजोरी का अहसास भी हो गया। जिस विषय पर बोलना था उसके नोट्स भी थे। लेकिन जब पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारा जा रहा था तो बस उसी वक्त पता चला कि विषय संबंधी नोट्स वाले कागज की जगह दूसरा कागज था जेब में। जो बोला, जैसा बोला उसमें विषय आधारित तो था पर वैसा नहीं जैसे नोट्स तैयार किए थे। वक्ता के भाषण पश्चात तालियां बजना, कार्यक्रम समाप्ति पश्चात कुछ लोगों द्वारा भाषण की सराहना करना यह तो रिवाज है ही। अच्छे वक्ता न भी साबित हो तो लोगों की बॉडी लैंग्वेज से अंदाज लग जाता है कि आप की बात का कितना प्रभाव पड़ा है। <br />इस प्रसंग से फिर यह साबित हुआ कि अवसर अपनी सुविधा से मिलते नहीं और पहले वक्ता के रूप में नाम पुकारे या दूसरे क्रम पर अपनी बात कहने का तो आपको वक्त मिलता ही है। यह पहला क्रम जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। अवसर के साथ वक्त भी मिल जाता है लेकिन हममें से कई लोग उस मौके को झपट नहीं पाते फिर अफसोस करने के अलावा भी क्या बचता है। सामने से बेकाबू हुआ ट्रक तेज गति से आ रहा हो और आप देखकर भी न हटे तो ट्रक का तो कुछ बिगड़ना नहीं है। सीमा पर दुश्मन सामने हो और आप निशाना लगाने में चूक जाएं तो मान लेना चाहिए अवसर को दुश्मन सैनिकों ने झपट लिया।<br />कभी जब हम किसी टॉस्क में फैल हो जाएं तो खुद हमें अपना भी मूल्यांकन कर ही लेना चाहिए कि आखिर हमसे चूक कहां हुई। एक सेकंड के सौवें हिस्से के फर्क से गोल्डमेडल से वंचित रहने वाला खिलाडी अौर उसका कोच अगले गेम्स में भागीदारी से पहले अपनी उस चूक का हर एंगल से मंथन करता है। तभी वह अन्य गेम्स में अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़कर गोल्ड का हकदार बन पाता है।<br />स्कूल और जिंदगी की पाठशाला में हम बचपन से अब तक पढ़ते-सीखते-समझते ही तो रहते हैं। फर्क है भी तो जरा सा, स्कूल के वक्त हम पहले सबक याद करते थे। जितना जैसा याद कर पाते, उस आधार पर परीक्षा देते थे, परिणाम भी वैसा ही मिलता था। जिंदगी की इस पाठशाला में हम परीक्षा हर मोड़ पर देते हैं और सबक में मिलता है। <br />छात्र जीवन में परीक्षा के एक दिन पहले ही सारी तैयारी रात मेंं ही कर लेते थे। पैन, कंपास, रोलनंबर आदि रख लेते थे। स्कूल के लिए निकलने से पहले भी चैक कर लेते थे। परीक्षा हाल में भी समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते और तीन घंटे की अवधि में दिमाग पर जोर डालकर हर प्रश्न का जवाब खोज ही लेते थे। जिंदगी की पाठशाला में भी हमें हर मोड़ पर अवसर मिलते हैं। वक्त भी मिलता है और घर-समाज के लोग अपेक्षा भी करते हैं कि हम अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर के दिखाएं। एक ही नाम, एक ही समय, एक ही राशि में जन्मे कई लोगों में से कुछ ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। बचे बाकी में से कुछ कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करते, हर ठोकर से सीख लेकर मंजिल तक पहुंच जाते हैं। लेकिन कुछ भाग्य और परिस्थिति को दोष देते हुए अंत तक रेंगते ही रहते हैं। तेज बारिश में छाता हमें भीगने से बचा सकता है किंन्तु छाते को खोलने का काम भी तो हमें ही करना होगा ना। बारिश और तेज आंधी में कई बार छाता उलटने और हाथ से छूटने को हो जाता है। हम तत्काल हवा के विपरीत दिशा में घूम कर छाते और सिर को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं। <br />जीवन में संघर्ष करने वालों को पहले असफलता का ही सामना करना पड़ता है। लेकिन वे हताश नहीं होते। उन्हीं असफलताओं में छुपे सफलता दिलाने वाले सूत्रों को भी ढूंढ लेते हैं। अच्छा तो यही है कि हताश होकर बैठने की अपेक्षा हम खुद का मूल्यांकन करें कि क्या कारण रहे असफलता के। जब निष्पक्ष रूप से अपना मूल्यांकन करेंगे तो हमें हमारी कमजोरी कोयले के ढेर में पड़े कांच के टुकड़े सी चमकती नजर आ जाएगी। असफलताओं का हल भी है यह समझ आ जाएं तो घर-बाहर हमारी कद्र हीरे की माफिक होने लगेगी।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-70692653039343146372010-11-11T03:35:00.000-08:002010-11-11T03:36:01.466-08:00अच्छा ही है बैलेंस बनाकर चलना<span style="font-weight:bold;">चाय के साथ बिस्कुट का नाश्ता करते वक्त हम सबकी पूरी कोशिश रहती है कि चाय में बिस्कुट उतनी ही देर डुबोएं कि उसे आसानी से मुंह तक ले जा सकें, वरना कपड़ों पर चाय-बिस्कुट गिर जाने का खतरा रहता है। इतनी ही सजगता क्या हम रिश्तों में ताजगी बनाए रखने में दिखलाते हैं। जो हमारे प्रति अधिक विनम्र होता है, उसे हम या तो मूर्ख मान बैठते हैं या फिर यह सोच लेते हैं कि हम इसके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। अकसर ऐसी ही गलती हाथी भी चींटी के संबंध में करता रहता है। चींटी जब अपने वाली पर आती है तो हाथी की सारी हेकड़ी धरी रह जाती है। और तो और वह चींटी को पैरों तले रौंद भी नहीं सकता।<span style="font-style:italic;"></span></span><br />बधाइयों को आदान-प्रदान करने वाले इस सप्ताह में पहुंची मित्रों की टोली ने नाश्ता खत्म किया ही था कि चाय के साथ प्लेट में बिस्कुट भी हाजिर थे। ना-नुकर पर मनुहार भारी पड़ी। दोस्तों ने एक हाथ में चाय का कप थामा और दूसरे में बिस्कुट। बातचीत तो जारी थी ही, कप में बिस्कुट डुबोए, चाय तेज गर्म होने के कारण कुछ मित्रों के बिस्कुट का आधा गला हिस्सा कप में ही रह गया। कुछ ने बिस्कुट खाने के लिए मुंह थोड़ा नीचे झुकाया ही था कि गला हिस्सा तेजी से नीचे झुका और डप्प से कप में जा गिरा। कप से उड़े चाय के छींटे दोस्त के मुंह एवं कपड़ों पर फैल गए। बाकी दोस्तों का ठहाका तो गूंजा ही, अब बात दीवाली से हटकर चाय से जुड़े किस्सों पर शुरू हो गई कि कब किसके साथ क्या हुआ। <br />चाय और बिस्कुट से जुड़ा यह दृश्य न तो नया है और न अनूठा, हम में से कई के साथ ऐसा हो भी चुका है। इस दृश्य में भी सीखने वाली बात जो है वह यह कि जिंदगी में आप किस तरह से संतुलन बनाकर चलें। चाय अधिक गर्म हो तो बिस्कुट खाते वक्त सावधानी बरतनी जरूरी है और बिस्कुट-चाय में यादा देर तक गलता छोड़ दें तो उसे खाते वक्त और अधिक सावधानी बरतना पड़ेगी। मुझे यह जीवन दर्शन भी नजर आया कि हम कब, कहां, कितनी सावधानी बरतें, कितनी सजगता रखें। जिंदगी की डोर भले ही बेहद मजबूत हो, लेकिन रिश्तों की डोर तो बेहद पतली एवं कच्चे सूत की होती है। जहां पल-पल हमें अपने व्यवहार और दूसरे की खुशी का ख्याल रखना होता है। अपेक्षा हर पक्ष की अधिक होती है। सबकी अपेक्षा पर हम खरे इसलिए नहीं उतर पाते क्योंकि बाकी सब भी हमारी अपेक्षा पर भी कहां खरे उतरते हैं। चाय-बिस्कुट वाला दर्शन यह तो सीख देता है कि जब जैसे हालात हों उसके मुताबिक अपना मान-सम्मान बचाकर रखते हुए व्यवहार करें। इसके लिए दूसरे पक्ष से सजगता और सहयोग की अपेक्षा भी न करें। हमें यदि पता है कि चाय बेहद गर्म है तो यह हमें ही तय करना होगा कि बिस्कुट इतनी देर ही गलाएं कि उसे हम आराम से खा भी सकें। रिश्तों को हम कितना मजबूत बनाएं कि उन्हें निभा भी सकें। कोई एक पक्ष बिस्कुट की तरह झुकता-गलता ही जाए और दूसरा पक्ष गर्म मिजाज, अपनी अकड़ बरकरार ही रखे तो बात नहीं बन सकती। रिश्ते यादा लंबे नहीं खिंच सकते। लंबे वक्त तक रिश्तों में ताजगी तभी बनी रह सकती है जब दोनों पक्ष अपनी अकड़ छोड़े और सहयोग की भावना भी बरकरार रखें। एक पक्ष चाय सा गर्म बना रहे और दूसरा विनम्रता में झुकता चला जाए तो इस विनम्रता को उसकी मूर्खता मान लेना भी ठीक नहीं क्योंकि तूफान के हालात बनने पर अकड़ा खडा खजूर का दरख्त ही धूल चाटता है। जमीन पर मखमली गलीचे की तरह फैली दूब का तो तूफान भी बाल बांका नहीं कर सकता। एक छोटी सी चींटी हाथी को बदहवास कर सकती है, लेकिन हाथी इस चींटी को अपने पैराें तले रौंदने में भी असहाय रहता है।<br />हमारा कोई मित्र, कोई रिश्तेदार हमारे प्रति अत्याधिक स्नेही है तो सामाजिकता का तकाजा है कि हमें भी उसके प्रति अपना नजरिया सकारात्मक रखना ही होगा। सिर्फ इसलिए उसे उपेक्षा या हिकारत की नजर से देखें कि वह पद में, संपन्नता में हमसे छोटा है। दृष्टि दोष हमारी ही हंसी उड़ने का कारण भी बन सकता है। हमारे ही मित्रों, संबंधियों में कई चेहरे ऐसे याद आते हैं कि जिनकी तारीफ हम इसलिए करते हैं कि वे हर हाल में सेक्रिफाइज, समझौता सिर्फ इसलिए करते रहते हैं कि बाकी लोगों को खुशी मिले। ऐसे लोग कम ही होते हैं, और ये कम लोग ही हमे सिखाते हैं कि बाकी लोगों को खुश रखने वालों को जिदंगी में हर मोड़ पर कितने समझौते करने पड़ते हैं। हम हैं कि समझौते में भी अपनी जीत के कारण गिनाना नहीं भूलते। अच्छा होगा कि रिश्तों को लंबे वक्त तक निभाने के चाय-बिस्कुट जैसा तालमेल बनाकर चलें। इससे यह फायदा तो होगा ही कि हम दूसरे की खुशी का कारण भले ही न बने पाएं अपने मैं तो खुश रहना सीख ही लेंगे।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-28595392104716723712010-10-27T08:47:00.000-07:002010-10-27T08:49:11.225-07:00हौसला बढ़ाकर तो देखिए<strong>हमारे ही समाज, आफिस, संस्थान में ऐसे भी लोग हैं जो अपनी कार्यनिष्ठा, सूझबूझ, सजगता के कारण अलग से पहचान बना लेते हैं। समान पद, समान वेतन वाले सैकड़ों कर्मचारियों में भी दस-बीस कर्मचारी ऐसे होते ही हैं जो बिना किसी अपेक्षा के बेहतर प्रदर्शन करते हैं। घर में हमारे ही बच्चे स्कूल, कॉलेज में अपने प्रयासों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। हम हैं कि अच्छा काम करके दिखाने वालों की पीठ थपथपाने में भी कंजूसी दिखाते हैं। कवि सम्मेलन और मुशायरे में शिरकत करने वाले कवि-शायर मनमाफिक मानेदय मिलता है लेकिन उनकी भी अपेक्षा रहती है कि उनकी रचनाओं को तालियों की गड़गड़ाहट वाली सराहना तो मिले।</strong><br />घर के बाकी सदस्यों की नजरें घुटनों-घुटनों चल रहे उस नन्हे की गतिविधियों का पीछा कर रही थीं। दीवार का सहारा लेकर उसने जैसे ही खड़े होने की कोशिश की, खुशी के मारे सब चिल्ला उठे। इस शोर से घबराकर वह धम्म से जमीन पर बैठकर रोने लगा। उसे चुप कराने के लिए कोई खिलौना लेकर दौड़ा तो कोई पुचकारने के साथ ही फिर से उसे प्रोत्साहित करने लगा। कुछ पल के इस प्यार-पुचकार से वह नन्हा खिलखिलाकर हंस पड़ा और फिर से दीवार का सहारा लेकर खड़े होने की कोशिश में जुट गया।<br />घर के बाकी सदस्य सांस रोके उसका दीवार के सहारे उठना-बैठना देखने के साथ ही इशारों-इशारों में उसकी हरकतों पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते जा रहे थे। उस नन्हे ने जैसे ही दीवार का सहारा छोड़कर डगमगाते कदम आगे बढ़ाए तो कोई मोबाइल से उसके फोटो खींचने लगा तो कोई उसी की नकल करते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगा।<br />मां ने नन्हे को दौड़कर अपनी बाहों में भर लिया और उसका सिर चूम लिया। पूरा घर उत्साहित था। नन्हा पहली बार ठुमक-ठुमक कर जो चला था। खुशियों वाले इस शोर-शराबे में अब नन्हा भी खिलखिला रहा था। अपने छोटे-छोटे हाथों से मम्मी के बाल खींचकर शायद वह यह दिखाना चाह रहा था कि वह भी कितना खुश है।<br />यह सारे दृश्य देखते वक्त मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स में ढेर सारे पदक जीतने वाले अपने खिलाड़ियों और स्टेडियम में उनका उत्साह बढ़ाने वाले हजारों दर्शकों की याद आ गई। न तो कॉमनवेल्थ गेम्स पहली बार हुए और न ही पहली बार हमारे खिलाड़ियों को इस गेम्स में सफलता मिली। पहले भी भारत के खिलाड़ियों ने इस गेम्स में भाग लिया और पदक भी जीते। इस बार खास बात थी तो यह कि हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहद उम्दा रहा और पदक भी खूब बटोरे। यह संभव हुआ तो इसलिए कि उनका हौसला बढ़ाने के लिए स्टेडियम में हजारों दर्शक मौजूद थे। खिलाड़ी चाहे हमारे यहां का हो या अन्य किसी देश का, स्वर्ण नहीं तो रजत, कांस्य पदक जिसका भी हकदार बना तो उसकी इस उपलब्धि में दर्शकों की तालियों का भी योगदान रहा। कवि-साहित्यकार की रचना चाहे जितनी उम्दा हो लेकिन सही वक्त पर कवि-शायर को दाद न मिले, तालियों की गड़गड़ाहट उसे सुनने को न मिले तो मानदेय का भारी लिफाफा भी उसे खुश नहीं कर पाता।<br />स्टेडियम में मौजूद दर्शक न तो किसी खिलाड़ी के साथ दौड़े, न वजन उठाया और निशाना भी नहीं लगाया लेकिन जब खिलाड़ियों को सराहना, उत्साहवर्ध्दन की अपेक्षा थी तब ये सारे दर्शक उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे, बदले में खिलाड़ियों ने भी अपने देश का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। <br />कॉमनवेल्थ गेम्स का टीवी पर प्रसारण करोडाें लोगों की तरह मैंने भी देखा। हम सबको इस अवधि में कम से कम यह तो सीखने को मिला ही है कि उपलब्धि चाहे छोटी हो या बड़ी वह तभी संभव है जब उसकी समय रहते सराहना हो और खिलाड़ी को भी यह महसूस हो कि उसके प्रयास की गंभीरता को मैदान के बाहर बैठे हजारों लाखों लोग देख समझ रहे हैं।<br />अन्य देशों में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहा लेकिन पदक इस बार जैसे नहीं बटोर पाए तो उसका एक मुख्य कारण वहां के स्टेडियम में बैठे दर्शकों ने हमारे खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए दिल्ली जैसा उत्साह नहीं दिखाया। अपने देश और अपने लोगों के बीच खेलना, जीतना, सम्मान पाना इसका कुछ अलग ही सुरूर होता है।<br />चाहे घर हो, ऑफिस हो या हजारों कर्मचारियों वाला संस्थान। हर जगह कुछ लोग तो ऐसे होते ही हैं जो समान उपलब्ध संसाधनों में भी बाकी लोगों से बेहतर काम करके दिखाते हैं। इनमें से यादातर ऐसे होते हैं जो अपेक्षा भी नहीं करते कि उनके बेहतर कार्य की सराहना की जाए क्योंकि किसी भी कर्मचारी को वेतन देने का मतलब ही है बदले में बेहतर काम की अपेक्षा। वेतन और काम के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है सराहना का। सौ कर्मचारियों के बीच यदि पांच बेहतर काम कर रहे हैं या पांच ऑफिस बॉय में कोई एक अधिक सजगता से काम कर रहा है तो क्यों नहीं उसकी सराहना की जानी चाहिए, क्यों नहीं उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए? तनख्वाह तो सब एक समान ले रहे हैं। फिर भी उसने अपेक्षा से अधिक बेहतर काम किया है तो उसके काम का ईनाम सराहना क्यों नहीं होना चाहिए?<br />बड़े घरों में जहां हर दिन सैकड़ों लोगों की आवाजाही रहती है जब मोबाइल फोन, घड़ी, पर्स, गहने आदि निर्धारित स्थान पर नहीं मिलते तो पहली नजर में घर के वर्षों पुराने नौकर को भी शक की नजर से देखा जाने लगता है क्योंकि समाज की यह प्रवृत्ति बन गई है कि छोटा आदमी यानी ईमानदारी- विश्वसनीयता-समर्पण-सेवा से उसका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसी किसी घटना के वक्त हम यह भी भुला देते हैं कि घर की सफाई के दौरान पलंग के नीचे पड़ी अंगूठी लाकर उसने ही हमारी हथेली पर रखी थी और यह भी कि जब हमें आधी रात में सपरिवार अन्य शहर में रहने वाले दूर के किसी रिश्तेदार के यहां जाना पड़ा था तब पूरा घर तिजोरी ऐसे ही वर्षों पुराने रामू काका के भरोसे छोड़ कर गए थे।<br />ऐसा नहीं है कि अच्छा काम करने वाले समाज में नहीं हैं, दरअसल हमारी नजर कमजोर होती जा रही है। हम तो अपने बच्चों की छोटी-छोटी उपलब्धियों पर उनका ही उत्साह नहीं बढ़ाते तो फिर ऑफिस, संस्थान, दुकान पर बेहतर प्रदर्शन करने वालों की सराहना तो दूर की बात है।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-64835837678088600792010-10-14T04:42:00.000-07:002010-10-14T04:46:29.465-07:00आप हो गए क्या परीक्षा में पास?<strong>ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग निराशा के गर्त में घिरे इससे पहले ही वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप उनकी पीड़ा से आंखें चुरा रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है।</strong><br />सारे बच्चे कतार से खाना खाने बैठे थे। एक बच्चे के आगे रखी थाली कुछ गीली थी। मैंने रूमाल से वह थाली साफ कर के वापस उसकी टेबल पर रख दी। उसने थाली उठाई और कुछ देर सूंघता रहा। पड़ोस में बैठे उसके साथी ने हंसते हुए इसका कारण पूछा तो वह थाली दोस्त की नाक तक ले जाते हुए बोला देख इसमें से सुगंध आ रही है। सभी की थालियों में खाना परोसा जा चुका था, उन सब बच्चों ने आंखें बंद की, हाथ जोड़े और भोजन शुरू करने से पूर्व की जाने वाली प्रार्थना ऊं सह नाव वतु, सहनौ भुनक्तु, सहवीर्यम करवाव है, तेजस्विनी नावधीतमस्तु, मां विद्विषावहे के सामूहिक स्वर से आश्रम गूंज उठा।<br />कुछ पल तो मुझे उन बच्चों की थाली सूंघने वाली बात समझ नहीं आई, फिर याद आया आदत के मुताबिक परप्यूम लगाते वक्त रूमाल पर भी स्प्रे किया था। जाहिर है थाली पोंछने के कारण शायद उसमें भी खुशबू फैल गई थी। कितना अजीब है जो चीजें हमें आसानी से मिल जाती हैं हमें यह अहसास ही नहीं होता कि बाकी लोगों के लिए ऐसी साधारण सी चीजें भी एक बड़ी हसरत पूरी होने जैसी भी हो सकती है। करीब पचास बच्चे वो हैं जो शिमला के रॉकवुड में महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित किए गए सर्वोदय बाल आश्रम में रहते हैं। किसी के माता पिता नहीं हैं, किसी के परिजनों की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, किसी की मां नहीं है। इस आश्रम के हर बच्चे के साथ एक कहानी जरूर जुड़ी है। इनमें से कुछ के रिश्तेदार संपन्न भी हैं, चाहें तो खून के रिश्ते से जुड़े इन बच्चों की अपने बच्चों के साथ परवरिश भी कर सकते हैं, इन लोगों में इतनी यादा तो नहीं पर थोड़ी सी मानवीयता है तो सही जो पूरे हिमाचल में पड़ने वाली कड़ाके की सर्दी के मौसम में इन्हें एक डेढ़ महीने के लिए अपने साथ घर ले जाते हैं। बाकी ग्यारह महीने सभी यहीं रहते हैं, जिस दिन समाज के किसी व्यक्ति के मन में कुछ दान धर्म करने की भावना हिलोरे मारने लगती है और मंदिर, लंगर, शोभायात्रा के लिए दिए जाने वाले दान से कुछ नया करने का मन करता है, उस दिन इन बच्चों को खाने में कुछ अच्छा मिल जाता है। किसी पेरेंट्स को अपने बच्चे के जन्म दिन पर ऐसे अनाथ बच्चे का चेहरा याद आ जाता है तो इन बच्चों को भी पेस्टी, चॉकलेट, पेटीस का टेस्ट पता चलता है। स्वेटर, नए जूते, नए कपड़े और दीपावली पर फु लझड़ी, पटाखे जलाने की हसरत भी किसी दयावान के कारण ही पूरी हो पाती है। सभी धर्म ग्रंथों में खरी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंदों पर खर्च करने की बात कही गई है पर हम कहां याद रख पाते हैं। दो नंबर की कमाई वाले अधिक धार्मिक शायद इसीलिए होते हैं कि उनके कामकाज में बरकत बनी रहे और बुरी नजर भी ना लगे।<br />आश्रमों में रहने के कारण इन बच्चों की जिंदगी हम सब के दया भाव पर निर्भर है लेकिन हम है कि महीनों, साल दो साल में ही दया भाव दर्शा पाते हैं। हम दान भी करना चाहते हैं तो उसमें भी नाम, लाभ का गुणा भाग पहले कर लेते हैं। जिस ईश्वर ने हमें संपन्नता प्रदान की उसके प्रति तो सुबह शाम आभार व्यक्त करते हैं पर यह याद नहीं रखते कि उसी मालिक ने हमारी परीक्षा लेने के ऐसे सारे इंतजाम भी कर रखे हैं। ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग के लिए वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप आंख फेर रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है। कहा भी है भगवान भूखा उठाता जरूर है लेकिन भूखा सुलाता नहीं है। चींटी के लिए कण और हाथी के लिए मन भर भोजन की चिंता हमने तो कभी नहीं की। ऐसे में यह भ्रम पालना भी सही नहीं कि असहाय बच्चों की, जिंदगी का सूरज ढलने के इंतजार में वृध्दाश्रम में बाकी वक्त गुजार रहे लोगों की हम चिंता नहीं पालेंगे तो इनका बाकी बचा वक्त नहीं कटेगा। हम नहीं तो कोई और उनकी मदद को आगे आ जाएगा। हो सकता है कि हमारे जीवन का सूर्य ही अस्ताचल की ओर चल पड़े, फिर किसी मोड़ पर हमें ही जब विपरीत हालातों का सामना करना पड़े तो अफसोस करने का भी कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि अवसर बार-बार नहीं आते। अच्छा समय मुट्ठी में पकड़ी रेत की तरह कब फिसल जाता है हमें पता ही नहीं चलता और बुरा समय मकड़ी के जाले की तरह लाख कोशिशों के बाद भी कहीं ना कहीं चिपका ही रहता है।<br />रॉकवुड स्थित बाल आश्रम, या अपने शहर के ऐसे ही किसी आश्रम में जिस दिन भी जाने का मन करें या किसी असहाय की दशा देखकर मन दुखी हो और मदद करना चाहें तो ऐसे किसी भी शुभ कार्य को अपने बच्चों के हाथों से ही कराएं ताकि जब आप इस दुनिया में ना रहें तब भी आप के बच्चे जरूरतमंदों की मदद करते वक्त आप को याद करते हुए फक्र से आप का नाम ले सकें। <br />पाठकों की सुविधा के लिए सर्वोदय बाल आश्रम का फोन नंबर भी दे रहे हैं (0177-2623937, 2624489, 09816597345) उदास चेहरों पर मुस्कान के लिए आप की तिल बराबर मदद भी ताड़ जितनी हो सकती है। आप अपने परिचितों को भी तो प्रेरित कर सकते हैं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-52120424902172359222010-10-09T08:25:00.000-07:002010-10-09T08:31:53.742-07:00राई जितनी भूल और पहाड़ जैसी शर्मिंदगी<strong><em>भूल तो इंसान से ही होती है। यह बात सही भी है लेकिन अपनी छोटी छोटी गलतियों को भी जब हम नजरअंदाज करने की आदत बना लेते हैं तो हमें पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। तब मन ही मन हमें ग्लानी भी होती है कि काश समय रहते ध्यान दे देते तो बार बार सॉरी कहने की स्थिति नहीं बनती। हम संता-बंता के जोक्स तो उत्साह से फारवर्ड करते हैं लेकिन अपनी भूल सुधारने का ना तो हमें वक्त मिलता है और ना हम अपनी भूल पर हंसना जानते हैं। अपने पर हंसना भी सीख लें तो खुद में सुधार की प्रक्रिया स्वत: शुरू हो सकती है।</em></strong><br />फोन पर किसी मातहत साथी को वे उसकी गलतियों के लिए बिना रुके फटकार वाले लहजे में समझा रहे थे। चूंकि दूसरी तरफ से सफाई देने जैसा स्वर भी सुनाई नहीं आ रहा था इससे मुझे भी लगने लगा कि वाकई गलती हुई है इसीलिए कोई सफाई नहीं दी जा रही है।<br />काफी देर बाद जब वे वरिष्ठ अधिकारी फोन फटकार से फ्री हुए तो मैंने सहज ही कारण पूछ लिया। जो बात सामने आई वह यह कि उस मातहत ने जो रिपोर्ट बनाकर भेजी थी वह बहुत ही कामचलाऊ तरीके से तो बनाई, उस पर भी लापरवाही का आलम यह कि उन अधिकारी का पद नाम भी गलत लिख दिया था।<br />मैंने मजाक में कहा नाराजगी का असली कारण तो फिर यही हुआ कि आपका पदनाम गलत लिख दिया गया। उनका जवाब था रिपोर्ट पद या नाम के बिना भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो स्टेट्स है वह तो यथावत रहना ही है। मूल बात तो यह है कि रिपोर्ट में जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि जब इसे ही गंभीरता से नहीं पढ़ा गया तो अपने अन्य साथियों के काम को भी गंभीरता से नहीं देखते होंगे। सहकमयों को उनकी गलतियां भी ना बताई जाए तो फिर ना तो उनके काम में सुधार होगा और न ही उनमें लीडरशिप के गुण विकसित होंगे। उल्टे स्टाफ के बाकी साथियों की भी काम में लापरवाही की आदत पड़ जाएगी। मुझे भेड़ों का झुंड नहीं, रेस में नंबर वन पर रहने वाले घोड़े तैयार करना है।<br />अकसर हम सब से छोटी-छोटी लापरवाही होती रहती है, हम नजर अंदाज करते रहते हैं। बात तब बिगड़ जाती है कि वही छोटी सी गलती हमारे लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन जाती है। हम सब के साथ यह होता ही है, फोन पर बात करते करते अचानक नंबर नोट करने के हालात बनते हैं तो फोन के पास हमेशा रखा रहने वाला पेन बस उसी वक्त ही नहीं मिलता। पेन ना मिल पाने की झल्लाहट हम बच्चों पर उतार रहे हैं यह फोन पर भी साफ सुनाई देता है। ऐसा भी होता है कि हम अपने किसी प्रिय का नंबर तो तत्काल नोट कर लेते हैं लेकिन साथ में नाम लिखने की सजगता नहीं दिखाते। कुछ दिनों बाद जब फिर उस व्यक्ति से बात करने की स्थिति बनती है तो हमें डायरी में लिखे नंबरों में समझ ही नहीं आता कि जिनसे बात करना है उनका नंबर कौन सा है। दिमाग पर खूब जोर डालते हैं, यह तो याद आता है कि हमने नोट तो किया था। बस वही नंबर इसलिए नहीं मिलता क्योंकि हमने तब साथ में नाम लिखा ही नहीं था। गृहणियां इस मामले में हमसे अधिक चतुर, समझदार होती हैं। दूध वाले का हिसाब हो, करियाने वाले का बिल चुकाया हो, बच्चों को पॉकेटमनी दी हो, लोन की किश्त चुकाई हो या टीवी, सोफा कब खरीदा ये सारा लेन-देन किसी डायरी या कैलेंडर के पीछे लिखा मिल जाएगा।<br />मुझे कुछ दिनों पूर्व दूर के एक परिचित का एसएमएस आया कि आप का एडे्रस क्या है, शादी का कार्ड भेजना है। हम सब जानते हैं कि विजिटिंग कार्ड संभाल कर नहीं रखे जाते, जवाब में मैंने भी एसएमएस कर दिया कि आपको जो कार्ड दिया था उसमें पता भी लिखा है। फिर एसएमएस आया कि वह कार्ड इतना संभाल कर रखा है कि मिल ही नहीं रहा है। खैर मैंने पता एसएमएस कर दिया।<br />घूम फिर कर बात वहीं आ गई कि हम लापरवाही तो बहुत छोटी-छोटी करते हैं लेकिन सामना करना पड़ता है पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का। हम सब वज्र मूर्ख ही हैं ऐसा भी नहीं है क्योंकि गाड़ी में पेट्रोल है भी या नहीं पता करने के लिए माचिस की तीली जलाकर नहीं देखते। गीले हाथों से बिजली का स्विच ऑन करने की गलती भी नहीं करते और न ही मच्छर मारने की दवा कितनी तीखी है यह पता लगाने के लिए उसे चख कर देखते हैं। एसएमएस में हम संता-बंता के मजाक वाले जोक्स तो रोज फारवर्ड करते हैं लेकिन हम रोज जितनी भूल करते हैं उन्हें सुधार ना सकें तो कम से कम उन पर हंसना ही सीख लें। जिस दिन हम अपने पर हंसना सीख जाएंगे उस दिन से हम में स्वत: सुधार की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-28228239831452332872010-09-17T08:19:00.000-07:002010-09-17T08:22:35.299-07:00हमारा व्यवहार कैसा हो सिखाती है हिंदी<div align="center"><strong>ऐसा क्यों होता है कि एक घर में जन्मी बेटियों में कोई एक तो संस्कारों के शिखर पर होती है, लेकिन बाकी छोटी बहनें उसके इन संस्कारों को अपना नहीं पाती। हम सबकी भाषा हिंदी मुझे ऐसी ही बड़ी बहन लगती है जो अन्य भाषाओं के शब्दों को गोद में उठाए, दुलारते हुए आगे बढ़ती जा रही है। मान-सम्मान की अपेक्षा से दूर रहकर अपने काम से काम रखना ङ्क्षहदी से सीखा जा सकता है। हम यह भी सीख सकते हैं कि अपना ध्यान काम करने में लगाएंगे तो सम्मान खुद हमें तलाशता पीछे-पीछे चला आएगा।</strong></div>एक परिचित की तीन बेटियां हैं। तीनों ही संस्कारित, लेकिन उनमें बड़ी बेटी सभी की प्रिय। इसका कारण यह सामने आया कि वह बेहद संतोषी है। सभी को साथ लेकर चलती है। झिड़कियों और अपमान की स्थिति के बाद भी सदा मुस्कुराते रहना, त्याग की स्थिति बने तो अन्य बहनों की अपेक्षा उदारता और त्याग में आगे रहना जैसी खासियत के साथ ही उसका सबसे बड़ा गुण यह कि उसके इन संस्कारों की कोई तारीफ करे न करे अपने काम से काम रखना और जितना बन पड़े लोगों के लिए अच्छा ही करते रहना। अन्य बहनों में न तो ये सारे गुण हैं न ही उन्होंने अपनी बड़ी बहन की अच्छाइयों से कुछ सीखने का उत्साह दिखाया।<br />एक ही परिवार की इन बहनों में बड़ी बहन में ये सारे संस्कार कैसे आए यह परिजन भी नहीं समझ पाए हैं। बड़ी बहन की इन अच्छाइयों ने मुझे हम सबकी भाषा हिंदी की याद दिला दी। अभी बड़े जोर-शोर से हिंदी दिवस मनाया गया। वक्ताओं ने अपने अंदाज में हिंदी की महानता के जिक्र के साथ ही उसे पर्याप्त मान सम्मान नहीं मिल पाने पर भी अपनी पीड़ा जाहिर की। यह दृश्य लगभग हर साल देखने को मिलते हैं।<br />छह दशक बाद भी हिंदी की अच्छाइयों की सराहना करने का हमारे पास वक्त भले ही न हो, लेकिन परिवार की उस बड़ी बेटी की तरह हिंदी भी अपने संस्कारों का पालन करती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी के शब्दों के साथ ही उर्दू, पंजाबी, संस्कृत सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनी गोद में उठाए, प्यार-- दुलार के साथ वह आगे बढ़ती जा रही है। जो उससे एक बार मिल लेता है मोहित होकर साथ ही चल पड़ता है। अपने रंग में बाकी भाषाओं के शब्दों को भी रंगती-ढालती चली जा रही हिंदी को कभी इस बात का अफसोस करते नहीं देखा कि उसके प्रति अन्य भाषाएं रंगभेद का नजरिया क्यों रखती हैं।<br />अन्य भाषा भाषी हिंदी भले ही नहीं सीखना चाहें, लेकिन हिंदी से यह तो सीख ही सकते हैं कि समाज व्यवस्था में बाकी लोगों के प्रति हमारा नजरिया कैसा होना चाहिए। हिंदी के लिए न कोई भाषा छोटी है न उसकी जाति, रंग रूप के प्रति मन में, नजर में हिकारत का भाव रहता है। जो मिला, गले से लगाया, अपना बनाया और चलते रहे। जो सब को साथ लेकर चलते हैं उन्हें कोई सम्मान भले ही नहीं मिले, लेकिन समाज की स्वीकृति जरूर मिलती है। आज की स्थिति ऐसी है कि हर आदमी अपने में मस्त और व्यस्त है। समाज की चिंता उसे भले ही न हो, लेकिन समाज अच्छे लोगों की चिंता भी करता है और बुरा करने वालों की नकेल भी कसता है। बड़ी बहन की अच्छाइयों को अन्य बहनें करती रहें नजरअंदाज, लेकिन समाज उसकी अच्छाइयों को जान- पहचान रहा है और गुणगान भी कर रहा है। ङ्क्षहदी को अन्य भाषाओं में भी आज जो दर्जा और सम्मान मिला है तो उसका मुख्य कारण है खुद उसकी सहजता और सबके प्रति प्रेम भाव। अकड़ और अहं के रथ पर सवारी करने वालों को तो फकीर भी नहीं देखते। दक्षिण के राज्यों में आज से तीन चार दशक पहले तक हिंदी के प्रति जितना तीव्र विरोध था अब वैसी स्थिति नहीं है तो इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी रोजी और रोजगार की भाषा भी बन चुकी है। दुकानदार हिंदी न बोलना चाहे, लेकिन ग्राहक हिंदी के अलावा अन्य कोई भाषा न जानता हो तो दुकान मालिक की बाध्यता होगी कि वह अपनी बात ग्राहक को उसकी भाषा में समझाने का प्रयास करे। अन्य देशों के टूरिस्ट जब हमारे शहरों में आते हैं तो वो हमारी भाषा बोल नहीं पाते लेकिन हम उनकी भाषा टूटी फूटी बोल कर, या किसी अन्य की मदद से अपनी बात समझा कर ग्राहक को जाने नहीं देते।<br />क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को अपनाने में हिंदी जैसा बड़पन क्या हमारे रोजमर्रा के कार्य व्यवहार में नजर आता है? हम अपने में मस्त रहते हैं। हम यह भी समीक्षा नहीं करते कि लोगों के साथ हमारा व्यवहार कैसा था। हम तो इसी मीमांसा में लगे रहते हैं कि लोगों ने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया। नतीजा यह होता है कि हमारा भाव हमेशा 'जैसे को तैसाÓ वाला ही होता है। इससे नुकसान भी हमारा ही होता है। यदि हिंदी ने भी जैसे को तैसा वाली नीति अपनाई होती तो, नुकसान भी उसी का होता। अंग्रेजी के शब्दकोष में हिंदी के शब्दों को सम्मान नहीं मिल पाता। दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए पहली शर्त तो यही है कि दूसरों के प्रति हमें अपने नजरिए में बदलाव लाना होगा। वो बड़ी बहन सभी को प्रिय इसलिए बन गई कि उसने सभी के प्रति अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखा, उपेक्षा की अनदेखी करने के साथ ही कभी सम्मान की अपेक्षा नहीं की। हिंदी का यह निरपेक्ष भाव हमें कम से कम यह तो सीखाता ही है कि हम सम्मान की चाह के बिना काम करेंगे तो सम्मान खुद राह तलाशता हमारे पीछे पीछे चला आएगा।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-35051013310856062142010-08-26T06:45:00.000-07:002010-08-26T06:46:25.938-07:00हम सफर के अच्छे यात्री ही बन जाएं<div align="center"><strong>ट्रेन का सफर हम सभी ने किया है और करते रहते हैं। यह सफर हमारे लिए जिंदगी की पाठशाला से कम नहीं होता पर हम कहां सीख पाते हैं। ट्रेन के सफर में हमारा जो व्यवहार रहता है वैसे हम सामान्य जीवन में नहीं रहते। जबकि हम सब एक तरह से नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस में सफर कर रहे हैं। हम सबका टिकट पहले से कट चुका है, सीट भी रिजर्व है और मंजिल तो हम सब को पता है ही। इस सब के बाद भी हम एक अच्छे यात्री नहीं बन पाते कि बाद में लोग हमें याद रखें। हमें तो यह भी चिंता नहीं कि जब हम सफर पर निकलेंगे तब हमें विदा करने चार लोग भी जुटेंगे या नहीं।</strong></div>ठसाठस भरी ट्रेन में पैर रखने जैसी हालत भी नहीं थी। अगले स्टेशन पर जितने लोग उतरते उनसे अधिक संख्या चढऩे वालों की थी। फिर भी हर कोई इस विश्वास के साथ डिब्बे में चला आ रहा था कि भीड़ है तो क्या अपना सफर तो अच्छा रहेगा। मुझे भी ट्रेन का सफर अच्छा लगता है। मेरा तो मानना है जिंदगी की पाठशाला के कई पीरियड का ज्ञान एक टिकट का मूल्य चुका कर प्राप्त किया जा सकता है।<br />जाने वाला एक होता है लेकिन छोडऩे वाले एकाधिक। आंखों से टपकने को आतुर आंसुओं को पलकों में ही रोक कर मुस्कुराते हुए बातचीत करते रहने के दृश्य प्लेटफार्म के अलावा आसानी से और कहीं देखने को नहीं मिलते। इस सफर में ही यह सत्य भी छुपा होता है कि जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही है। जाने वाले को भी पता होता है कि जो छोडऩे आते हैं वो साथ नहीं जाते। ट्रेन रवानगी के बाद जो घर की ओर कदम बढ़ाते हैं तो वो सब भी मान कर चलते हैं कि जब हम जाएंगे तो लोग हमें भी इसी तरह छोडऩे आएंगे।<br />जिंदगी और मौत के बीच भी तो ट्रेन के सफर जैसे ही हालात रहते हैं। हम सब के अंतिम सफर के टिकट पहले से ही रिजर्व हैं। हमें भले ही पता न हो लेकिन ट्रेन को सब पता है कब, किसे लेने जाना है। जब बहुत तबीयत बिगडऩे और डॉक्टरों के जवाब देने के बाद भी किसी चमत्कार की तरह बोनस लाइफ मिल जाए तो मान लेना चाहिए कि आरएसी की वेटिंग लिस्ट में नंबर था और उस स्वीकृत सूची में हमारा नंबर ऐन वक्त पर आते आते रह गया।<br />सफर चाहे ट्रेन का हो या जिंदगी का, यह हंसते खेलते तभी कट सकता है जब हम सब के साथ एडजस्ट होकर चलें। हम ट्रेन में किए पिछले किसी लंबे सफर को याद करें तो आश्चर्य भी हो सकता है कि जवान होते बच्चों की शादी के लिए कोई ठीकठाक रिश्ता दिखाने का आग्रह, कारोबारी मित्रता या वर्षों बाद अपने किसी स्कूली दोस्त के समाचार तो हमें पड़ोस की सीट पर बैठे उस यात्री से ही मिले थे जिसे हम ट्रेन चलने के पहले तक पहचानते तक नहीं थे। किसी के टिफिन से सब्जी लेना और बदले में अपने शहर की फेमस नमकीन और मिठाई खिलाने जैसे आत्मीय पल लंबे और उबाऊ सफर में भी रंग भर देते हैं। तंबाकू और ताश के पत्तों से शुरू हुई बातचीत मंजिल आने तक इतनी गहरी मित्रता में बदल जाती है कि एड्रेस का आदान-प्रदान याद से घर आने के अनुरोध के साथ खत्म जरूर हो जाता है लेकिन अपनों के बीच पहुंच कर हम कुछ घंटों के उस सहयात्री के किस्से सुनाते रहते हैं।<br />अब जरा इस ट्रेन के सफर को हम अपनी रोज की जिंदगी के साथ देखें। सफर तो हम रोज कर रहे हैं। दिन, महीनों और सालों वाले स्टेशनों पर बिना रुके नॉन स्टाप लाइफ एक्सप्रेस दौड़ती जा रही है। ट्रेन में तो हम फिर भी बिना किसी स्वार्थ के अपनी लोअर बर्थ जरा से अनुरोध पर अन्य यात्री के लिए खाली कर के उसकी अपर बर्थ पर खुद को एडजस्ट कर लेते थे लेकिन जीवन के सफर में हमें न तो अपनों की परेशानी नजर आती है और न ही हम में एडजस्ट करने का भाव पैदा होता है। हम इस सफर में अपने में ही मस्त हैं। हम न तो किसी के यादगार सहयात्री साबित होना चाहते हैं और न ही अपने आसपास के सहयात्री से कुछ अच्छा सीखना चाहते।<br />किसी वक्त जब कभी हमें कुछ फुर्सत मिले तो अकेले में चिन्तन जरूर करना चाहिए कि हमारा अब तक का सफर कैसा रहा। क्या हमने ट्रेन के डिब्बे में कुछ ऐसा किया कि बाकी लोग हमें एक अच्छे यात्री के रूप में याद रखें। हमने कुछ ऐसा भी किया या नहीं कि लोग हमें किस्सों में याद करें। सामान्य जिंदगी तो सभी बिताते हैं लेकिन हमने इस समाज का ऋण उतारने की दिशा में कुछ किया भी या नहीं। हम सब को टिकट तो उसी गाड़ी का मिला है जो किसी को जल्दी तो किसी को कुछ देर से तय स्टेशन पर ही ले जाएगी। टिकट सही होने के बाद भी यदि हम गलत गाड़ी में बैठ कर इस जीवन को सार्थक की अपेक्षा निरर्थक बनाएंगे तो इसमें न स्टेशन मास्टर का दोष होगा न सहयात्रियों का और न पटरियों का। हमें कुछ लोग स्टेशन पर छोडऩे तभी आएंगे, जब हम किसी की परेशानियों में साथ खड़े होने का वक्त निकाल पाएंगे। वरना तो आज घर से श्मशानघाट तक शवयात्रा को कंधा देने वाले भी कम पड़ जाते हैं। हर कोई सीधे श्मशानस्थल के मेनगेट पर पांच मिनट पहले पहुंचने के शार्टकट अपनाने लगा है।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-63312757020033758202010-08-19T09:14:00.000-07:002010-08-19T09:15:32.900-07:00मोबाइल पर आप आवाज से पहचान लेते हैं बात करने वालों को<div align="center"><strong>हम में से ज्यादातर लोग अपनी सुविधा से फोन करना तो जानते हैं लेकिन जिसे फोन किया है उसकी परेशानी नहीं समझना चाहते। हम तो यही मानकर चलते हैं कि सारा जमाना हमारा नंबर जानता ही होगा, हम बात शुरू करने से पहले न तो अपना नाम बताने की जहमत उठाते हैं और न ही एसएमएस करते वक्त अपना नाम, पहचान आदि लिखना याद रखते हैं। जब कोई हमें भूल सुधार का सुझाव देता भी है तो इस तरह की गलतियों को स्वीकारना भी नहीं चाहते। आत्मीय संबंधों का पौधा एक तो पहले ही बोंसाई किस्म का होता है और हमारी छोटी छोटी भूल के कारण यह पौधा सूख कर कांटा हो जाता है। हम खुद ही कांटों वाली फसल तैयार करते हैँ और बाकी सारी जिंदगी इन कांटों की चुभन के साथ ही गुजारते रहते हैं।</strong></div>फोन की घंटी बजी, मैंने फोन उठाया। दूसरी तरफ से हैलो की आवाज के साथ ही चुनौती भरे स्वर में पूछा गया बताइये कौन बोल रहे हैं। दिमाग पर काफी जोर डाला, लेकिन आवाज नहीं पहचान पाया। मैंने हथियार डालने के साथ ही बात संभालते हुए कहा दरअसल आप हैं तो मेरे बहुत नजदीकी लेकिन शायद मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है इसीलिए आप का नाम याद नहीं आ रहा है, आवाज तो पहचानी सी ही है।<br />मैंने सोचा अब तो उधर से नाम बता ही दिया जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। अब दूसरा सवाल दागा गया, अभी आपको हैप्पी इंडिपेंडेंस-डे का मैसेज भी किया था। मैंने फिर बात संभालने की कोशिश की अरे हां, आपका मैसैज मिला तो था, मैं किसी को जवाब नहीं दे पाया इसलिए आप को भी जवाब देना रह गया।<br />अब उधर से उलाहने और नाराजी भरे स्वर में कहा गया हां, भई अब आप हमारे एसएमएस का जवाब क्यों देंगे। हम कोई वीआईपी तो हैं नहीं। मैंने कई तरह से उन्हें समझाने की कोशिश की, अंत में लगभग माफी मांगते हुए उनका नाम पूछ लिया। उन्होंने बड़े गुरूर के साथ अपना नाम बताया। अब मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने के साथ ही उनसे पूछा एसएमएस में आपने अपना नाम लिखा था क्या। उन्होंने उल्टे मुझसे ही प्रश्न किया आप को मेरा नंबर भी याद नहीं है क्या। मैंने समझाने की कोशिश की मोबाइलसेट चैंज करने, मोबाइल मैमोरी कार्ड हो जाने, नंबर चैंज होने जैसे कई कारण हो सकते हैं। सारे कारण, माफी की पहल भी बेअसर होती नजर आई तो मैंने अंत में उस दोस्त को कह ही दिया अच्छा होता तुमने एसएमएस में अपना नाम लिखा होता। रही बात फोन पर आवाज पहचानने की तो वह सुविधा मेरे फोन में नहीं है। जाहिर है मेरे इस रूखे जबाव के बाद बात एक झटके में खत्म हो गई।<br />मोबाइल से हमें जितनी सुविधाएं मिली हैं, उतनी ही दुविधा भी बढ़ गई है। जब लैंड लाइन फोन पर निर्भरता थी या जब शुरूआती दौर में मोबाइल पर कॉल रेट आठ रुपए प्रति मिनट होता था तब फोन पर 'पैचान कौनÓ स्टाइल में कोई भी देर तक बात नहीं करता था और लंबी बात की स्थिति में घड़ी पर बार बार नजर जरूर जाती थी। जब से बात करना सस्ता या एक ही ग्रुप नंबरों पर फ्री कॉल जैसा होता जा रहा है, अचार के लिए मसाले से लेकर आज कौन सी ड्रेस पहनी जाए ये सारे गंभीर डिसीजन लेने में फोन पर हमने कितनी लंबी चर्चा की इसका तो पता ही नहीं चलता।<br />हम में से ज्यादातर को आए दिन अपने लोगों के इस तरह के उलाहनों का सामना करना ही पड़ता है। लोग फोन पर अपना गुस्सा निकालना तो जानते हैं लेकिन यह याद नहीं रखते कि फोन पर बात करने के भी कुछ मैनर्स होते हैं। जिसे हम फोन या एसएमएस करते हैं वह चाहे जितना हमारा प्रिय क्यों न हो हमें यह याद नहीं रहता कि एसएमएस करते वक्त साथ में अपना नाम, शहर या अपनी कोई पहचान है तो वह भी लिखते हैं या नहीं। अब सिर्फ नाम लिखना तो कतई पर्याप्त नहीं क्योंकि एक ही शहर में एक जैसे नाम वाले कई मित्र रहते ही हैं। इन सब नामों क ी पहचान में गड़बड़ी न हो इसीलिए हम सब को अलग-अलग तरीके से पहचानते हैं। फिर एसएमएस या फोन पर बात करते वक्त इन बातों का ध्यान क्यों नहीं रखते। जब हम यह अनिवार्य सजगता बरतना नहीं जानते तो फिर इस बात को भी प्रेस्टीज पॉइंट नहीं बनाना चाहिए कि सिर्फ आवाज से किसी ने आप को फोन पर क्यों नहीं पहचाना।<br />हम अपनी सुविधा से फोन लगाते हैं लेकिन यह ध्यान नहीं रखते कि जिसे फोन लगाया है वह भी उस वक्त बात करने की स्थिति में है भी या नहीं। हम फोन पर बात शुरू करने से पहले इतना पूछना भी जरूरी नहीं समझते कि मुझे आप से कुछ चर्चा करनी है, आप के पास अभी वक्त है या थोड़ी देर से फोन लगाऊं। हम तो अधिकार पूर्वक नंबर डायल करने के साथ ही यह मान कर चलते हैं कि सामने वाला जैसे हमारे फोन का इंतजार ही कर रहा है। बिना अपना नाम बताए सीधे अपने काम की बात शुरू करने में हमें संकोच नहीं होता। फिर न तो हम वक्त का ख्याल रखते हैं और न ही सामने वाले की परेशानी को जानने की कोशिश करते हैं।<br />जो लोग सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े होते हैं फिर चाहे वह क्षेत्र राजनीति, संचार, वकालत, चिकित्सा, प्रशासनिक आदि ही क्यों न हो हम तो यह मानकर चलते हैं कि इन्हें यदि हमने फोन लगाया है तो बस हमारी समस्या तो हाथों हाथ हल होना ही चाहिए।<br />हम तो अपने काम, अपनी समस्या के त्वरित निदान को लेकर इतने स्वार्थी हो गए हैं कि विवाह समारोह में भोजन कर रहे परिचित डॉक्टर को रात से हो रहे लूज मोशन की डिटेल बताने के साथ हाथों-हाथ दवा-गोली पूछ लेने में भी हमें हिचक महसूस नहीं होती। वकील से हम श्मशानघाट में भी अपने किसी विवाद को लेकर सलाह लेने में संकोच नहीं करते। ऐसे में यदि संबंधित पक्ष से मनोनुकूल जवाब न मिले तो दूसरे ही पल हम बुराइयों का इतिहास खोल कर बैठ जाते हैं फिर हमें इस एक काम के न हो पाने के गुस्से में इससे पहले कराए गए अन्य दस कामों की याद भी नहीं रहती। हमारी इन छोटी-छोटी गलतियों के कारण वर्षों में हरा हुआ आत्मीय संबंधों का पौधा पल भर में सूख जाता है। इसके सूखने का कारण भी हम पड़ोसी के घर के कारण धूप न मिलना बता देते हैं पर यह नहीं स्वीकार पाते कि हमने भी इस गमले को बालकनी में रखने के प्रयास नहीं किए।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-75286979296376135232010-08-11T09:11:00.000-07:002010-08-11T09:12:27.037-07:00मन को भार से मुक्त करने के लिए है तो सही आभार<div align="center"><strong>हम आभार व्यक्त करना सीख लें तो मन से कई तरह के भार उतर सकते हैं। घर और स्कूल से हमें ऐसे सारे संस्कार मिलते तो हैं लेकिन हम शत-प्रतिशत पालन तो कर नहीं पाते उल्टे बड़े होने पर खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकते। ईश्वरीय सत्ता को हम सहजता से स्वीकार नहीं पाते लेकिन यह आसानी से मान लेते हैं कि कोई शक्ति है तो सही। बड़ा खतरा टल जाए तो इसी अदृश्य शक्ति को याद करते हैं लेकिन चौबीस घंटे आराम से बीत जाने पर हम उस शक्ति का आभार व्यक्त करना भूल जाते हैं। पांच मिनट की इस प्रार्थना से हमारे अगले चौबीस घंटे आराम से गुजर सकते हैं।</strong></div>अभी कुछ दोस्तों के साथ एक समारोह में भाग लिया। रात अधिक हो जाने के कारण आयोजकों ने सबके रुकने की व्यवस्था भी फटाफट कर दी। देर तक गप्पे लगाने के बाद सभी दोस्तों ने सोने की तैयारी करते हुए लाइट ऑफ करने के साथ ही कंबल खींचा और एक दूसरे से गुडनाइट कर ली। बाकी दोस्त तो आंखें मूंद चुके थे। कुछ के खर्राटे भी शुरू हो गए थे।<br />गुडनाइट कर चुका एक दोस्त फिर भी जाग रहा था, पलंग पर आंखें बंद किए बैठा था और मन ही मन कु छ बुदबुदा रहा था। पहले मैंने सोचा उससे इस संबंध में पूछ लूं। फिर ध्यान आया कि हमारी बातचीत से बाकी लोगों की नींद में खलल पड़ सकता है, लिहाजा तय किया कि सुबह बात करूं गा। सुबह नाश्ते पर फिर सारे दोस्त एक साथ मिले। मैंने उस दोस्त से पूछा रात में किसे याद कर रहा था।<br />उसने बताया कि बचपन से यह आदत है कि सोने से पहले बीते 24 घंटों के लिए भगवान के प्रति आभार व्यक्त करता हंू कि आपकी कृपा से आज का दिन मेरे लिए आपका दिया अनमोल उपहार साबित हुआ। इसके साथ ही अपने परिजनों, रिश्तेदारों, और उनके रिश्तेदारों तथा इन सब के चिर परिचितों की बेहतरी के लिए प्रार्थना करने के साथ ही यदि हमारे कोई दुश्मन हैं तो उनके मन में कटुता के बदले करुणा के भाव पैदा करने की कामना करता हूं। चौबीस घंटों के दौरान अंजाने में मेरे किसी कार्य, किसी बात से किसी का दिल दुखा हो तो उसके लिए क्षमा भी मांगता हूं।<br />जाहिर है कि कुछ दोस्तों ने उसका मजाक उड़ाया तो कुछ ने सवाल किया कि जो हमारे दुश्मन हैं उनक ी बेहतरी की कामना करना तो पागलपन है। उसने कुछ प्रश्नों के जवाब दिए, कुछ मामलों में निरुत्तर हो गया। नाश्ता खत्म होने के साथ ही चर्चा भी खत्म हो गई। साथी लोग सामान समेटने के साथ ही रवानगी की तैयार में लग गए। जिनका ईश्वर नाम की सत्ता में विश्वास नहीं है उनके लिए इस तरह की प्रार्थना पागलपन हो सकती है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं वे भी इसे मेरा धर्म, तेरा धर्म की नजर से देखने के साथ ही अपने तरीके से समीक्षा भी कर सकते हैं।<br />मुझे अपने उस मित्र की इस आदत में जो अच्छी बात लगी वह है आभार का भाव। ईश्वर किसी ने देखा नहीं, प्रकृति के रूप में मिली सौगात को भी कई लोग ईश्वरीय उपहार मानने में संकोच करते हैं। पर यह भी तो सच है कि प्रकृति की ही तरह घर, परिवार, समाज के लोग बिना किसी स्वार्थ के हमारे काम आते हैं। आपस की चर्चा में हम ऐसे मददगारों को ईश्वर के समान मानने में संकोच नहीं करते। ऐसे मददगारों का ही हम आभार व्यक्त करना याद नहीं रखते तो हर रात सोने से पहले उस सर्वशक्तिमान क ा आस्था के साथ आभार व्यक्त करना तो दूर की बात है। दोस्त से हुई चर्चा के बाद से मैंने तो सोने से पहले का अपना यह नियमित क्रम बना लिया है। बाकी लाभ मिले न मिले दिन भर के तनाव से इस पांच मिनट की प्रार्थना का इतना फायदा तो है कि नींद बड़े सुकून से आती है। जो हमारे काम आएं, हम यदि उनका अहसान नहीं भी उतार पाएं तो आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं, ऐसा करने पर हम छोटे तो नहीं होंगे लेकिन सामने वाले की नजर में बड़े जरूर हो जाएंगे। हममें आभार व्यक्त करने के संस्कार हैं तो फिर प्रकृति और उस अंजान शक्ति के प्रति श्रद्धा और आभार भाव रखने में भी हर्ज नहीं होना चाहिए। कहा भी तो है जब हम किसी के लिए प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर उन लोगों पर अपनी कृपा करता है। जब हम सुखी और प्रसन्न हों तो यह कतई न मानें कि यह हमारी प्रार्थना का फल है। यह मानकर चलें कि किसी ने हमारे लिए भी प्रार्थना की है। अपशब्दों में यदि हमें आगबबूला करने की ताकत है तो आभार या प्रार्थना के भाव में मन को निर्मल, भारमुक्त करने का जादू क्यों नहीं हो सकता।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-36933591791414221502010-08-05T09:14:00.001-07:002010-08-05T09:16:13.637-07:00बुराई छोडऩे के लिए कल का इंतजार क्यों<div align="center"><strong>कोई बुराई कब हमारी आदत और फिर लत बन जाती है हमें पता नहीं चलता। अफसोस तब होता है जब परिवार और समाज में इसके कारण हमारी फजीहत होने लगती है। बुराई से दोस्ती में अंधेरा मददगार होता है और बुराइयों के अंधेरे से बाहर लाने के लिए दिन का उजाला फें्रडशिप निभाता है। बुराई से जब मुक्ति के लिए मन छटपटाने लगे तो कल नहीं तत्काल निर्णय का साहस दिखाएं। बुराई अपनाई जाती है चोरी-छुपे लेकिन जब उसे छोड़ें तो खूब प्रचार करें। ऐसा करने पर आसपास के लोग सख्त नजर रखेंगे, ये सारे पहरेदार ही आपके संकल्प की सफलता में सहायक बनेंगे।</strong></div>जब भी सारे मित्र होटल में लंच या डिनर का प्रोग्राम बनाते इन्हीं में से एक मित्र आदत के मुताबिक नॉनवेज का आर्डर देना नहीं भूलते थे। अभी जब हम सब लंच के लिए मिलें तो उन्होंने मीनू कार्ड हाथ में लेने के साथ ही अपने लिए शाकाहारी डिश का ऑर्डर नोट कराया। बाकी मित्र हैरत में थे, उनसे कारण पूछें, इससे पहले खुद उन्होंने ही घोषणा भरे लहजे में कहा मैंने नॉनवेज छोड़ दिया है। बात यही खत्म नहीं हुई, वे सभी मित्रों के पास गए और सभी को व्यक्तिगत रूप से अपनी यह आदत छोडऩे की उत्साह के साथ जानकारी दी।<br />मित्रों ने आश्चर्य व्यक्त करने के साथ बधाई तो दी, साथ ही शंका जाहिर की कि अपने इस संकल्प पर अमल सख्ती से कर सकोगे? उनका जवाब भी अनूठा था, एक सप्ताह से तो अपने संकल्प पर डटे रहने में कोई दिक्कत नहीं आई। कभी, किसी मोड़ पर डगमगाने लगूं तो आप सब मित्र हो तो सही रोकने के लिए। बाकी साथियों ने जब पूछा कि अचानक यह निर्णय क्यों लेना पड़ा, उन्होंने जो कु छ कहा उसका आशय यही था कि आखिर ये सब भी तो जीव हैं, इन्हें भी तो जीने का हक है।<br />नॉनवेज छोडऩा अच्छा है या वेज होना अच्छा यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि सार्वजनिक रूप से अपनी कोई बुरी आदत को न सिर्फ स्वीकारना, बल्कि अपने दोस्तों को यह दायित्व सांैपना कि राह से भटकने की स्थिति बने तो दोस्त अपना दायित्व पूरा करें, बड़ी बात है।<br />हमारी आदत तो यह है कि हम अपनी अच्छाइयों को तो बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और यह अपेक्षा भी रहती है कि लोग हमारी तारीफ भी करें। हर वक्त यह सतर्कता भी बरतते हैं कि हमारी बुरी आदतें या तो लोगों को पता नहीं चले या पता चल भी जाए तो हम दूसरों की बुराइयों से तुलना करके अपनी बुराई को छोटा बताने का रास्ता निकाल लें। समाज में अपनी हैसियत की खातिर हममें से ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीने लगे हैं। इसी कारण हम अच्छाइयों का बखान करना और बुराइयों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि लोगों को हमारी खामियां तलाशने में अधिक दिलचस्पी रहती है। यही कारण है कि हमारी छोटी सी गलती भी घूम फिरकर पहाड़ की तरह हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। बुरी आदत को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना तो बहुत हिम्मत का काम है, हालत तो यह है कि अपनी किसी बात से सामने वाले का दिल दुखने पर हम तो माफी मांगने का साहस भी नहीं दिखा पाते।<br />संगत का असर हमारे आचरण में भी झलकता है। अच्छे दोस्तों का साथ होगा तो बुरी आदतें पास आने में घबराएंगी लेकिन साथ खराब होगा तो हमारी अच्छी बात में भी खराबी तलाशी जाएगी। इसलिए जब स्कूल से बेटा अपना खराब रिपोर्ट लेकर आता है तो ज्यादातर पेरेंट्स क्लास टीचर से यही रिक्वेस्ट करते नजर आते हैं कि इसे अगली बैंच पर बैठाएं। अगली बैंच में कोई जादू नहीं होता लेकिन इस बैंच के लिए टीचर जिन स्टूडेंट का चयन करते हैं उनके कारण इसका महत्व बढ़ जाता है। किसी बुराई से छुटकारे के लिए अपने दोस्तों पर जिम्मेदारी डालना यानी उन्हें कोई अन्य बुराई छोडऩे के लिए प्रेरित करना भी है। फंडा सीधा सा है कि जब दोस्त बुराई छोड़ सकता है तो हम क्यों नहीं।<br />किसी अच्छे काम को करने के लिए हम दिन तय नहीं करते तो कोई बुरी आदत भी एक झटके में ही छोड़ी जा सकती है। हम कल के चक्कर में रोज आज की सीढिय़ों पर बुराइयों का थैला कंधे पर लादे चढ़ते जाते हैं, यह बोझ भारी तब लगता है जब हम जिंदगी का आधे से ज्यादा सफर पूरा कर चुके होते हैं। तब हमें अपनी कमजोरी का अहसास होता भी है तो उससे मुक्ति पाने की छटपटाहट में बाकी बचा वक्त भी गुजार देते हैं। शाकाहारी बनना चाहते हैं, शराब, सिगरेट या ड्रग्स की आदत से छुटकारा पाना चाहते हैं तो इसके लिए दोस्त हौसला बढ़ा सकते हैं, परिजन चट्टान की तरह आपके साथ खड़े रह सकते हैं, मनोचिकित्सक आपको आसान तरीके बता सकते हैं लेकिन इस सबसे पहले आपको अपनी मजबूत इच्छा शक्ति दर्शाना होगी, शुरूआत खुद को ही करना होगी। बुराई कोई सी भी हो उसे अंधेरे कमरे में ही गले लगाया जाता है लेकिन उजाला होता ही इसलिए है कि काले धब्बे फीके पड़ जाएं। किसी भी बुराई से पीछा छुड़ाने की ठाने तो खूब प्रचार करें क्योंकि बाजारवाद का नियम भी है, जितना ज्यादा प्रचार सफलता भी उतनी अधिक। जब हम खुद लोगों को बुराई छोडऩे की जानकारी देंगे तो मन पर हावी बोझ भी कपास जैसा हल्का हो जाएगा।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-33729940184663486192010-07-29T06:34:00.000-07:002010-07-29T06:36:03.594-07:00नजर रखिए अवसर पर<div align="center"><strong>ईश्वर ने हमें नजर तो दी है लेकिन अवसर हमें नजर नहीं आते। अवसर हमारे दरवाजे तक आ भी जाएं तो हम उन्हेें लपकना भी नहीं जानते। काम नहीं मिलने पर हम घंटों बेसिरपैर की बातें कर सकते हैं लेकिन अपनी कमजोरियों को दूर करने या उन्हें अपनी ताकत में बदलने का वक्त हमारे पास नहीं है। बिना योज्यता वालों के लिए भी सम्मानजनक काम के अवसरों की कमी नहीं है लेकिन यहां भी हमारा आत्मसम्मान आड़े आ जाता है। दुकानों के बाहर लगी नौकर चाहिए की तख्तियां बताती हैं कि लोगों को छोटे काम करने की अपेक्षा बेकार घूमना ज्यादा अच्छा लगता है।</strong></div>सफर के दौरान जैसे ही कोई बड़ा स्टेशन आता ट्रेन में भीख मांगने वालों का सिलसिला शुरू हो जाता। इन्हीं लोगों के बीच एक दृष्टिबाधित युवक ने कई यात्रियों का ध्यान आकॢषत किया। वह पेपर सोप बेच रहा था। टायलेट जाने वाले यात्रियों ने उससे पेपर सोप खरीदने के साथ ही उसके इस कार्य की सराहना भी की। उसके लिए बहुत आसान था अपनी इस कमजोरी को भावनात्मक रूप से लोगों से सहायता का माध्यम बनाना। वह अन्य भिखारियों की तरह यात्रियों के सामने हाथ भी फैला सकता था लेकिन उसने रास्ता चुना आत्म सम्मान वाला। इस अवसर ने उसे बाकी भिखारियों से अलग कर दिया। उसने जो रास्ता चुना उसमें ना योग्यता जैसी चुनौती आड़े आई न ही किसी की सिफारिश की जरूरत पड़ी।<br />मुझे लगता है हममें से ज्यादातर लोग अपनी कमजोरी को इस तरह पेश करते हैं कि लोग हम पर दया करें और हमें लाभ मिल जाए। कहा भी तो है मुसीबत, मेहमान और मौत अचानक ही आते हैं। यह पता होने के बाद भी हम असफलता के ज्यादातर मामलों में लगभग ऐसे ही कारणों का सहारा लेते हैं। जिसे हम अपनी बात समझाने का प्रयास करते हैं न सिर्फ उसे वरन खुद हमें भी पता होता है कि इस तरह की बहानेबाजी मेें कोई दम नहीं है। फिर भी हम अपनी असफलता को छुपाने का प्रयास तो करते ही हैं।<br />एक बड़े ग्रुप के एमडी अपने साथियों से चर्चा में अकसर कहा करते हैं कि शांत समुद्र में तो अनाड़ी नाविक भी आराम से नाव चला सकता है। कुशल नाविक तो वह होता है जो आंधी-तूफान में लहरों के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए बिना घबराए किनारे तक नाव लेकर आता है। जयपुर या चंडीगढ़ की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाने वाले कई ड्राइवर बद्रीनाथ-केदारनाथ के मार्गों पर उतनी निर्भीकता से शायद ही गाड़ी चला पाएं क्योंकि उन सर्पीले और संकरे रास्तों पर उन्हें गाड़ी चलाने का पूर्व अनुभव नहीं होता, इसीलिए ज्यादातर श्रद्धालु हरिद्वार या ऋषिकेश इन्हीं उन क्षेत्रों के अनुभवी ड्राइवरों की सेवा लेना पसंद करते हैं।<br />हम अपनी कमजोरियों को समझते तो हैं लेकिन उन्हेेंं दूर करने के बारे में नहीं सोचते और न ही उस कमजोरी को अपनी ताकत बना पाते हैं। एक दृष्टिबाधित ट्रेन में पेपर सोप बेचकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना सकता है लेकिन हम अपने आसपास देखें तो ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो पढ़े लिखे तो हैं लेकिन बेरोजगार हैं। शिमला में माल रोड की दुकानें हों या लक्कड़ बाजार, लोअर बाजार शिमला की दुकानें यहां ड्राइवर चाहिए, सेल्समेन चाहिए, होटल में काम करने के लिए नौकर चाहिए की सूचना दुकानों के बाहर महीनों तक लगी देखी जा सकती है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि या तो बेरोजगारों में इन कार्यों जितनी योग्यता भी नहीं है या ऐसा कोई काम करने की अपेक्षा उन्हें बेकार रहना ज्यादा अच्छा लगता है। जिंदगी में अवसर हमेशा मिलते नहीं और जब अवसर नजर आएं तो झपटने में हर्ज भी नहीं। जो अवसर झपटना जानते हैं उनके लिए रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाते हैं लेकिन जो कोई निर्णय नहीं ले पाते वो फिर हमेशा पश्चाताप ही करते रहते हैं कि क ाश उस वक्त थोड़ा साहस दिखाया होता। तब हमें लगता है कि कमजोरी वाले बहाने ही हमारी प्रगति में कई बार बाधा भी बन गए।<br />हम प्रयास करें नहीं और यह भी चाहें कि सफलता मिल जाए तो यह ना सतयुग में आसान था न अब। तब मनोकामना पूर्ण हो जाए इसलिए संतों से लेकर सम्राट तक तपस्या या युद्ध का रास्ता अपनाते थे और अब स्पर्धा के युग में टेलेंट में टक्कर होती है। सिफारिश से पद तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस पद के योग्य भी हैं या नहीं यह किए जाने वाले काम से ही सिद्ध हो सकता है। भूख लगने पर थाली में पकवान सजा कर तो कोई भी रख देगा लेकिन खाने के लिए तो हाथ हमें ही बढ़ाना होगा। बहानों की चादर ओढ़ कर आलसी बने रहेंगे तो दरवाजे तक आए अवसर हमारे जागने तक इंतजार नहीं करेंगे।हमें जब यह पता हो कि योग्यता हमसे कोसौ दूर है तो फिर निठल्ले बैठे रहने से यह ज्यादा बेहतर है कि जो अवसर नजर आए बिना किसी झिझक के काम में जुट जाएं, कम से कम ईश्वर ने हमें दुनिया देखने के लिए नजर तो दी है इन्हीं नजरों से हम यह भी देख सकते हैं कि कमाऊ सदस्यों और समाज की नजरों में कितनी उपेक्षा का भाव होता है । तभी कहा भी जाता है काम के ना काज के, ढाई सेर अनाज के।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5780097175660780516.post-26782893106916087962010-07-26T06:55:00.000-07:002010-07-26T06:57:01.658-07:00काम जितनी राम राम!<div align="center"><strong>हमसे आगे हमारा स्वार्थ तेज कदमों से चलता है लिहाजा सामने जो भी आता है हम मन की तराजू पर उसे तौलने लग जाते हैं कि वह आदमी हमारे आज काम आएगा या कल। जितना वह आदमी हम हमारे काम का लगता है उसे उतना ही सम्मान देते हैं। यदि काम का नहीं है तो किक मार देते हैँ । फुटबाल के मैदान में तो किक सही लग जाए तो गोल हो जाता है लेकिन आम जिंदगी में किक मारने की यह आदत हमें लोगो की नजर से गिरा भी सकती है।</strong></div>अभी फीफा कप का जुनून चलता रहा। फुटबॉल देखते वक्त ऐसा लगता है कि हम सब की जिंदगी भी फुटबॉल की तरह ही है। कुछ लोग हमेें और हम किसी और को ताउम्र किक ही तो मारते रहते हैं। जब किक सही लग जाती है तो सफलता का गोल हमारे खाते में दर्ज हो जाता है।<br />खेल चाहे क्रिकेट, फुटबॉल या खो खो ही क्यों ना हो किसी भी खेल में सफलता टीम के सदस्यों के समान सहयोग से ही मिलती है असफलता के कारणों में चाहे कोई एक खिलाड़ी की चूक रहे लेकिन टीम के बाकी सदस्य उसे सूली पर चढ़ाने जैसे भाव नहीं दर्शाते। खेलों में जो टीम भावना नजर आती है क्या वह हम अपनी जिंदगी और कार्य क्षेत्र में तलाश पाते हैं, शायद नहीें। हम समाज का हिस्सा हैं लेकिन बिना समाज के हम कुछ भी नहीं यह बात हम आसानी से तभी समझ पाते हैं जब हम इस तरह के हालातों से गुजरते हैं। जिस तरह एक हेयर कटिंग सैलून का संचालक खुद की कटिंग नहीं कर सकता उसी तरह जटिलतम आपरेशन करने वाला डाक्टर भी अपनी पीठ पर उभरे फोड़े का अपने हाथों आपरेशन नहीं कर सकता।<br />इस असलियत को समझने के बावजूद हम लोग ना जाने किस भ्रम में जीते हैं। हम लोगों से किक मारने की स्टाइल में व्यवहार करते हैं। हमें लगता है जो कभी हमारे काम नहीं आ सकता उसे फुटबॉल की तरह किक मार भी दें तो अपना क्या बिगडऩा है। ऐसा करते वक्त यह भी याद नहीं रहता कि अब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि अगले मोड़ पर उसी व्यक्ति से काम पड़ सकता है जिसे कुछ समय पहले ही किक मारी थी। समझदार दुकानदार दुकान के सामने कटोरा लेकर खड़े भिखारी को छुट्टे पैसे डाल कर पुण्य तो कमाता ही है और चिल्लर का संकट पडऩे पर इन्हीं से कमीशन पर चिल्लर भी ले लेता हैं।<br />जिसे हम कुछ नहीं समझ कर तिरस्कृत करते हैं हमेंं पता नहीं उसे हम एक अनुभव मुप्त में देते हैं। हम जिस भी तरीके से उसे उपेक्षित करें उसे हमारा अंदाज तो पता चल ही जाता है। किसी को इतना भी उपेक्षित और तिरस्कृत ना किया जाए कि वह और आक्र ामक होकर सामने आए। पवित्र नर्मदा नदी के संबंध में प्रचलित है कि नर्मदा का कंकर भी शंकर है। दरअसल नर्मदा के तेज प्रवाह में पहाड़ी क्षेत्रों से पत्थर बह कर आते हैं और लगातार किनारों और चट्टानों से टकरा कर घिसते-घिसते गोलाकार हो जाते हैं। चूंकि घर के पूजा कक्ष में अंगूठे से कम आकार के शिवलिंग रखे जाते हैं इसलिए जो भी श्रद्धालु नर्मदा स्नान को जाते हैं लौटते में अपने साथ कंकर बने शंकर को पूजन के लिए साथ ले आते हैँ। उपेक्षा, हिकारत, से उपजी संघर्ष क्षमता ही कंकर को भी शंकर बना देती है।<br />हमारा स्वार्थ हम से आगे चलता है इसलिए हम मन की तराजू पर लोगों का वजन करते चलते हैं कौन अभी काम आ सकता है, कौन कल काम आएगा और कौन छह महीने बाद उपयोगी हो सकता है। हमारे काम मुताबिक ही हम मान सम्मान की मात्रा भी तय करते हैं। यदि चाय पिलाने मात्र से काम निकल सकता हो तो हम झूठे मुंह ही सही खाने का पूछने की जहमत नहीं उठाते। जो कल काम आ सकता है उसके लिए हमारे मन में आज मान सम्मान नहीं उमड़ता और आज जो हमारे काम आ गया उसे कल तक याद रखें यह जरूरी नहीं लगता।<br />मतलब नहीं हो तो हम किक मारने में देरी नहीं करते और काम अटका हुआ हो तो पैरों में लौटने में भी हमें अपमान महसूस नहीं होता। हम जब लोगों से काम निकालने जितने संबंध रखेंगे तो लोग भी अपना काम छोड़कर हमसे नहीं मिलेंगे। फुटबॉल सिखाता तो यही है कि गोल करने या टीम को जिताने के लिए साझा प्रयास जरूरी होते हैं। अकेला खिलाड़ी सोच ले कि वह टीम को जिता देगा तो यह संभव नहीं। टीम के बाकी सदस्य अच्छा खेलें और कोई एक सदस्य सहयोग न करे तो भी जीत संभव नहीं।कीर्ति राणाhttp://www.blogger.com/profile/06234677265930273726noreply@blogger.com4