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Thursday 29 January 2009

पुचकार से सुधार, नहीं तो `छापामार´

फैसले चाहे पुरानी सरकार के हों या पुराने अधिकारी के नए सिरे से काम संभालने वालों के लिए शायद प्राथमिकता में होता है, उन फैसलों को पलटना। बात वहां तो समझ आती है जहां व्यापक हित का मामला है, लेकिन बात तब नहीं पचती जब व्यवस्था में सुधार वाले फैसलों को भी बदल दिया जाए।अब राजकीय अस्पताल में तत्कालीन कलेक्टर भवानीसिंह देथा के वक्त की गई छापामार कारüवाई का प्रकरण ही देख लीजिए। अनुपस्थित पाए गए स्टाफ को सुधारने की कवायद चल ही रही थी कि जिला प्रशासन ने आदेश जारी कर दिए हैं फाइल बंद कर दो। बिगड़ों को सुधारने की दृष्टि से यह पहल स्वागत योग्य हो सकती है, लेकिन राजकीय अस्पताल का स्टाफ इस एक पहल से सुधर गया होता तो इन्हें भी फिर पुराने कलेक्टर की तरह छापामार कारüवाई का सहारा नहीं लेना पड़ता। इन अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार हो जाए तो निजी अस्पतालों की जरूरत ही नहीं पड़े। दुभाüग्य तो यह है कि इन्हीं अस्पतालों के चिकित्सक यहां तो मरीजों की देखभाल ठीक से करते नहीं और निजी अस्पतालों में सेवा देते वक्त मरीजों के लिए पलक पावड़े बिछा देते हैं। उस पर भी आलम यह कि जब निजी अस्पतालों में केस बिगड़ने लगते हैं तो तुरत-फुरत राजकीय अस्पताल में रैफर कर देते हैं। ऐसी नौबत आए ही क्यों कि कर्मचारियों को सुधारने के लिए छापामार कारüवाई, नोटिस आदि का रास्ता अपनाना पड़े। बात जब सेहत को लेकर चली है तो दोनों जिलों में परिवार कल्याण के लक्ष्य की हालत भी खराब चल रही है। लक्ष्यपूर्ति न हो पाने से विभागीय अमला भी थरथर कांप रहा है। ये ऐसा नाजुक मामला है, जहां टारगेट पूरा करने के चक्कर में जरा भी सख्ती दिखाई तो लोगों को आपातकाल के दिनों की याद ताजा हो सकती है। सख्ती से ज्यादा जरूरत समझाइश की है। समीक्षा यह भी होनी चाहिए कि समझाइश और जागरूकता की दिशा में भी लोगों के बीच काम हो रहा है कि नहीं। ऐसा तो नहीं कि श्रीगंगानगर के स्वास्थ्य प्रमुखों की तरह एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में ही वक्त गुजर रहा है।
पहले मार अब पुचकार
मार के बाद पुचकारने की प्रक्रिया तो हनुमानगढ़ में भी शुरू हो गई है। कलेक्ट्रेट कर्मचारियों के स्वास्थ्य की चिंता दशाü कर यह मैसेज तो दे ही दिया है कि हम इतने भी बुरे नहीं। रियायती दर पर कर्मचारियों का स्वास्थ्य परीक्षण कराए जाने की पहल स्वागत योग्य है, लेकिन ऐसी पहल सिर्फ कलेक्ट्रेट स्टाफ के लिए ही क्यो? बाकी विभागों के प्रमुखों को भी अपने स्टाफ की चिंता पालनी चाहिए। विशेषकर सिंचित क्षेत्र विकास विभाग को तो अपने स्टाफ को आलस भगाने के लिए तगड़ा डोज देना ही चाहिए। खाला निर्माण से जुड़े कर्मचारी अब ऐसा काम करके दिखाएं कि विभाग पर लगे निकम्मेपन के दाग छूट जाएं।
आंख खुली भी तो एक दिन पहले
जेल महानिदेशक ने जेलों की दशा सुधारने के लिए दौरा किया और ठीक एक दिन पहले जेल में नशे की गोलियां सप्लाई करने वाले पूर्व सैन्यकर्मी को जेल प्रशासन ने पकड़ लिया। देखा जाए तो इस सजगता पर पीठ थपथपाई जानी चाहिए, लेकिन ऐसा करने से पहले यह भी तो पूछा जाए कि भई आंख खुली भी तो एक दिन पहले और पकड़ा भी तो ठेका कर्मी को। जेलों की दुर्दशा का जो आलम है उसे तो सुधारने में सदियां लग जाएंगी, लेकिन कैदियों के प्रति जेल प्रशासन का रवैया भी तो अच्छा नहीं रहता। हत्या-लूट की वारदात के आरोपी जेल में जाने के बाद तब ठगे से रह जाते हैं कि उन्हें लूटने वाले तो यहां हैं। मुलाकात हो, सुख-दु:ख की सूचना से लेकर विलासिता की सामग्री पहुंचाने तक के रेट तय हैं, ये बातें भी तब उजागर होती हैं, जब अति होने लगती है और कोई कैदी मिठाई के डिब्बे पर चिट्ठी लिखकर कलेक्टर तक पहुंचाता है। वैसे अंधेरगदीü तो डीजीपी जेल के सामने भी आई थी। कैदी ने दूध के नाम पर पानी दिए जाने की शिकायत भी की थी, लेकिन गाय पानी में बैठ गई होगी जैसे मजाक से उन्होंने गई भैंस पानी में कहावत की याद भी दिला दी। दूध में मिलावट पर चीन में मृत्युदंड जैसा प्रावधान है और हमारे यहां मजाक। मिलावट सिर्फ जेल में बांटे जाने वाले दूध में ही हो रही है। ऐसा नहीं है। दोनों जिलों में मिलावट खोरों ने मसाले से लेकर देशी घी तक को नहीं छोड़ा है। नोहर में घी के नकली कारोबार को उजागर तो किया गया, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। यही हाल गंगानगर का है, घी में तो मिलावट है ही खान-पान की बाकी चीजों में भी शुद्धता का पैमाना घटता जा रहा है। बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि सरकारी अमला क्या कर रहा है, विभाग का तो हर वक्त यही रोना है, पर्याप्त स्टाफ ही नहीं है, शहर बहुत बड़ा है, क्या करें, कैसे करें? ऐसी सोच रखने वाले अधिकारी यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी पोçस्टंग ऐसे जिलों में है, जहां के बेटे सीमाओं पर दुश्मन के छक्के छुड़ाते वक्त यह नहीं कहते कि मैं अकेला कैसे मोर्चा संभालू?
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
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Wednesday 21 January 2009

मर्म न जाने तो कैसा धर्म

दोनों जिलों के लोगों को प्रशासन की सख्ती और सूझबूझ के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए, वरना जनवरी का दूसरा सप्ताह आराम से नहीं गुजर पाता। यूं तो राजतंत्र के निरंकुश होने पर धर्म का अंकुश काम करता रहा है, लेकिन जब धर्म ही अधर्म जैसा नजर आने लगे तो...! राजतंत्र के अंकुश ने धर्म के नाम पर एक-दूसरे के अपमान को आतुर लोगों को तो नियंत्रित किया ही, धर्म की राह पर चलने वाले जब वादों से भटकने और गलत इरादों की ओर बढ़ने लगे तो उन्हें भी बताया कि आपके धर्म से अभी हमारा कर्म बड़ा है।

आप खुद ही समçझए अपना धर्म

धर्म का काम तो नेत्र ऑपरेशन करने वाली मोबाइल यूनिट भी कर रही है, किंतु नोहर में जिस तरह एक पार्षद सहित चार मरीजों की जिंदगी में अंधेरा हुआ और उससे पहले नेत्र शिविरों में जिस तरह अंधेरगदीü सामने आई तो अब लगने लगा है कि ऐसे लोग बातें तो धर्म की करते हैं, लेकिन उसका मर्म नहीं समझ पाते। परिवार के खाने के लिए दस रु. किलो के केले लाएं और कथा के लिए पिलपिले-काले 5 रु. किलो वाले केले चढ़ाएं! ऐसी होती जा रही धामिüक आस्थाओं के कारण ही धर्मादा कायोZ को शक की नजर से देखा जाने लगा है। मरीजों को इन नेत्र शिविरों में आना पड़ रहा है तो यह भी देखा जाना चाहिए कि राजकीय अस्पतालों में आंखों के आपरेशन क्यों नहीं हो रहे? इन व्यवस्थाओं को सुधारने के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तो आने से रहे।

नियमों की बेड़ी, खराबे की व्यथा

रेगुलेशन के लिए आंदोलन की तैयारी में जुटे किसानों पर पड़ी ओले की मार अब प्रशासन के लिए भी नया संकट पैदा कर सकती है। दोनों जिलों में खेत के खेत तबाह हुए हैं। नियम कहते हैं कि मुआवजे के हकदार 50 प्रतिशत से अधिक तबाही वाले किसान ही होंगे और धर्म की बात करें तो 15-25 प्रतिशत तबाही वाले किसान को भी सरकार से भरपूर राहत की आशा है। विधायक चाहेंगे कि सभी पीडि़तों को एक समान राहत मिले। प्रशासन की मजबूरी नियमों की बेडि़यां हैं। जाहिर है रेगुलेशन की लड़ाई से पहले ओले से उपजे असंतोष की लपटें प्रशासन की ठंड भगाएगी।
ये हाल है मुस्तैदी का
ओले से किसान परेशान हुए तो बारिश ने गंगानगर के लोगों को मुसीबत में डाल दिया। इस बेमौसम बारिश से ब्लाक एरिए सहित बाकी शहर में विभागों की उदासीनता भी गंदे पानी की तरह फैल गई। लग ही नहीं रहा कि शहर में परिषद नाम की कोई संस्था और उसके पास सफाई का भारी-भरकम अमला भी है। जो रहवासी परिषद को सारे टैक्स चुका रहे हैं, आंदोलन-ज्ञापन, पुतला दहन की जिन्हें फुरसत नहीं है, शांति से जिंदगी गुजारना चाहते हैं। उनकी परेशानी को दूर करने का भी विभाग के पास वक्त नहीं है तो फिर ऐसे भारी-भरकम अधिकारियों और समीक्षा बैठकों का नाटक किसके लिए। कुछ ऐसे ही हाल हनुमानगढ़ में भी हैं। कलेक्ट्रेट कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए 20 लाख रुपए खर्च किए जा रहे हैं। कुछ अधिकारियों को ऐसे कामों में बड़ा आनंद आता है और मातहत ऐसा उत्साह दिखा रहे हैं कि बस सीसीटीवी लगे और रामराज्य कायम हो जाएगा, भूलना नहीं चाहिए कि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात जैसी कहावतें बच्चों तक को याद हैं।
सुनाई नहीं दी आत्मा की आवाज
पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान निश्चय ही आत्मा की आवाज पर ही किया होगा, लेकिन दोनों जिलों में उनकी आवाज में हुंकारा देने वाले जुटे ही नहीं। पार्टी की मर्यादा ने इन्हें सçर्कट हाउस तक नहीं जाने दिया, लेकिन बातें तो यह भी सुनाई दे रही हैं कि चुनाव के वक्त ही भैरो बाबा को भ्रष्टाचार की याद आ रही है। भ्रष्टाचार मिटे न मिटे लेकिन भैरोंसिंह शेखावत ने जो मुद्दा उठाया है, उसमें दम तो है ही।
फसल के लिए अच्छे बीज की कमी नहीं
हनुमानगढ़ के लिए कई बार आते-जाते जगदंबा मूक-बधिर अंध विद्यालय के भव्य प्रवेशद्वार ने आकर्षित तो किया। अभी जब आश्रम के अवलोकन और स्वामी ब्रrादेवजी से चर्चा में यहां की गतिविधियां समझीं तो लगा कि धर्म के मर्म को तो यहीं कर्म रूप में समझा गया है। धर्म की राह पर आपके इरादे नेक होंगे तो मदद करने वालों की भी कमी नहीं है। ब्रेल प्रेस, प्रिंटिंग यूनिट, मूक-बधिर बच्चों को शिक्षा और इससे पहले अरोड़वंशीय समाज में फैले अंधविश्वास को दूर कर दहाका पर भजन-प्रवचन की शुरुआत। ऐसे सारे काम देख-समझकर तो यही कहा जा सकता है कि धर्म के लिए मर-मिटने वालों को कट्टरता दिखानी ही है तो इस आश्रम जैसे कायोZ में दिखाएं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 14 January 2009

अंतर कथा एक स्तंभ के हिट होने की

अखबार में कोई एक कॉलम कैसे शुरू होता है और कैसे हिट होता है इसे दैनिक भास्कर के श्रीगंगानगर एडिशन में नियमित प्रकाशित हो रहे `आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ की अंतरकथा जानकर ही अंदाज लगाया जा सकता है। यह स्तंभ मेरी अब तक की पत्रकारिता का यादगार प्रसंग तो है ही और इससे यह भी समझा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े दैनिक भास्कर पत्र समूह ने अपने संपादकों, स्टाफ को काम करने, नए प्रयोग की भरपूर आजादी भी दे रखी है। अपनी भाषा के प्रति क्या दर्द और क्या सम्मान होता है यह उज्जैन (मध्यप्रदेश) से उदयपुर (राजस्थान) स्थानांतरण के बाद ही समझ आया। जैसे गांधीजी ने आजादी के लिए अकेले संघर्ष शुरू किया और लोग जुड़ते गए। कुछ वैसा ही राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के आंदोलन को राजेंद्र बारहठ, शिवदान सिंह जोलावास, घनश्यामसिंह भिंडर आदि से थोड़ा बहुत समझ पाया। इसे एक दिल से जुड़े मुद्दे के रूप में उदयपुर में `मायड़ भाषा´ स्तंभ से शुरू किया और राजस्थान की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को आतुर लोगों ने मान लिया कि संवैधानिक दर्जा दिलाना अब भास्कर का मुद्दा हो गया है। अप्रैल 08 में उदयपुर से श्रीगंगानगर स्थानांतरण पर इस मुद्दे को उठाने की छटपटाहट तो थी, लेकिन पहली प्राथमिकता थी दोनों शहरों का मिजाज समझना। एक शाम मोबाइल पर हरिमोहन सारस्वतजी ने संपर्क किया। वो मेरे लिए नए थे, लेकिन उन्होंने जिस तरह बारहठ जी और बाकी परिचितों के नाम के साथ बातचीत शुरू की तो मुझे लग गया कि मैं यहां नया हो सकता हूं लेकिन मेरी पहचान कई लोगों को करा दी गई है। सारस्वतजी से संपर्क बना रहा, आग्रह करते रहे कि सूरतगढ़ आएं। ब्यूरो कार्यालय की बैठक आदि के संदर्भ में जाना हुआ भी, लेकिन उनसे मुलाकात का वक्त नहीं निकाल पाया। एक शाम तो राजस्थानी मनुहार में हरिमोहन जी ने आदेश सुना ही दिया- सुगनचंद सारस्वत स्मृति में दिए जाने वाले वार्षिक साहित्यिक पुरस्कार समारोह में राजस्थानी भाषा के युवा कवि-परलीका के विनोद स्वामी को सम्मानित करने आना ही है। इंकार कर नहीं सकता था। फिर भी कह दिया अच्छा आप गाड़ी भिजवा देना फिर देखेंगे। कार्यक्रम से एक दिन पहले फिर मैसेज आ गया श्रीगंगानगर से ही राजकीय महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. अन्नाराम शर्मा और युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार आशु (राजस्थान पत्रिका) आपको साथ लेकर आएंगे। अब तो न जाने के सारे बहानों के रास्ते बंद हो चुके थे। कार्यक्रम राजस्थानी भाषा के सम्मान से जुड़ा था। सोचा मालवी में बोलूंगा लेकिन ठीक से बोलना आता नहीं और गलत तरीके से राजस्थानी बोलना मतलब बाकी लोगों का दिल दुखाना और खुद की हंसी उड़ाना। राजस्थानी भाषा मान्यता आंदोलन के प्रदेश महामंत्री राजेंद्र बारहठ ही अंधेरे में आशा की किरण बने। फोन पर उन्हें मैंने अपने प्रस्तावित वक्तव्य की भावना बताई। उन्होंने राजस्थानी में अनुवाद किया और फोन पर ही मैंने भाषण नोट किया। राजस्थानी भाषा के इस भाषण को पढ़ने के अयास के वक्त लगा कि सोनिया गांधी के हिंदी भाषण की खिल्ली उड़ाकर हम लोग कितनी मूखüता करते हैं। सूरतगढ़ तक के रास्ते में अन्नाराम जी और आशु चिंतन चर्चा करते रहे। यह भी मुद्दा उठा कि समारोह में राजस्थानी में ही बोलना चाहिए। मेरी जेब में राजस्थानी में लिखा भाषण रखा था, लेकिन इन दोनों भाषाई धुरंधरों के सामने यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि मैं भी राजस्थानी भाषा में बोलूंगा। कार्यक्रम शुरू हुआ तो जिला प्रमुख पृथ्वीराज मील भी राजस्थानी में जितना मीठा बोले उतना ही मनमोहक उनका पारंपरिक पहनावा भी था। मेरी बारी आई, भाषण लिखा हुआ था, लेकिन हाथ-पैर कांप रहे थे। शुरुआत से पहले विनोद स्वामी से पूछ लिया था। उन्होंने बताया मासी को यहां भी मासी ही बोलते हैं। मैंने मंच से जब कहा कि मालवी और राजस्थानी दोनों बहनें हैं। इस तरह मैं अपनी मासी के घर आया हूं, राजस्थानी में भाषण पढूंगा तो उपस्थितजनों ने तालियों के साथ स्वागत किया और मेरी हिम्मत खुल गई। इस मंच से अच्छा और कोई मौका कब मिलता। मैंने राजस्थानी भाषा में स्तंभ शुरू करने की घोषणा कर दी। समारोह समापन के बाद हम सब चाय-नाश्ते के लिए बढ़ रहे थे। उसी वक्त सूरतगढ़ भास्कर के तत्कालीन ब्यूरो चीफ सुशांत पारीक को सलाह दी कि इस पूरे कार्यक्रम की राजस्थानी भाषा में ही रिपोर्ट तैयार करें। वहीं विनोद स्वामी, रामस्वरूप किसान, सत्यनारायण सोनी से स्तंभ के स्वरूप को लेकर चर्चा हुई। सोनी जी के पुत्र अजय कुमार सोनी को श्रेय जाता है राजस्थानी भाषा को नेट पर जन-जन से जोड़ने का। इस समारोह की रिपोर्ट राजस्थानी भाषा में प्रकाशित होने का फीडबेक अच्छा ही मिलेगा, यह विश्वास मुझे इसलिए भी था कि अखबारों में क्षेत्रीय भाषा में हेडिंग देने के प्रयोग तो होते ही रहते हैं। किसी कार्यक्रम की पूरी रिपोर्ट क्षेत्रीय भाषा में प्रकाशित करने का संभवत: यह पहला अनूठा प्रयोग जो था। खूब फोन आए। बस स्तंभ के लिए सिलसिला शुरू हो गया। किसी भी काम की सफलता तय ही है बशतेü उस काम से सत्यनारायण सोनी, विनोद स्वामी जैसे निस्वार्थ सेवाभावी जुड़े हों। इन दोनों को अपने नाम से ज्यादा चिंता यह रहती है कि मायड़ भाषा का मान कैसे बढ़े। हमने रोज फोन पर ही चर्चा कर योजना बनाई। मेरा सुझाव था कि इस कॉलम में हम भाषा की जानकारी इतने सहज तरीके से दें कि आज की पçब्लक स्कूल वाली पीढ़ी भी आसानी से जुड़ सके और भविष्य में प्राथमिक-माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के लिए राजस्थानी भाषा की पुस्तक भी तैयार हो जाए। कॉलम को भारी-भरकम साहित्यिक भाषा वाला बनाने पर खतरा था कि सामान्यजन रुचि नहीं दिखाएंगे। इस स्तंभ का उद्देश्य यही है कि जिन्हें राजस्थानी नहीं आती वो इस मनुहार वाली भाषा की मिठास को समझें और जिन्हें आते हुए भी बोलने में çझझक महसूस होती है उनकी çझझक टूटे। `भास्कर´ ने इस स्तंभ के लिए स्थान जरूर मुहैया कराया है, लेकिन सामग्री जुटाना, राजस्थानी भाषा में तैयार करना, कॉलम के लिए विशेष अवसर पर प्रमुख कवियों-साहित्यकारों से लिखवाना यह सारा दायित्व इन दोनों ने ले रखा है। जैसे शोले सलीम-जावेद के कारण सफाई हुई तो `भास्कर´ में `आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ परलीका निवासी सोनी-स्वामी की जोड़ी से ही हिट हो रहा है।
`आपणी भाषा आपणी बात´ स्तंभ को आप अजय कुमार सोनी द्वारा तैयार किए ब्लाग http://www.aapnibhasha.blogspot.com/ पर विस्तार से देख सकते हैं।

कायदे और फायदे में उलझी कुर्सी

कुर्सी का खेल भी अजीब है। कहीं कुर्सी अपने नीचे वालों को कायदे सिखा रही है और कहीं कुर्सी के फायदे समझने वाले इससे हर हाल में जुड़े ही रहना चाहते हैं। ताज्जुब तो तब होता है पॉवरफुल अधिकारी यह भूल जाते हैं कि उन्हें इस पॉवर वाली कुर्सी से शहर का भला भी करना है। अब ट्रैफिक पुलिस को ही देखिए साल के 365 दिन में सात दिन मिलते हैं चुस्ती-फुतीü दिखाने के लेकिन गोल बाजार से लेकर सब्जी मंडी, लक्कड़ मंडी तक कहीं लगा ही नहीं भाई लोगों के पेट का पानी हिला भी हो। पता ही नहीं चल पाया कि अस्त-व्यस्त ट्रैफिक में सप्ताह कहां गुम हो गया। हनुमानगढ़ में तो फिर भी टै्रफिक अमले ने अंगड़ाई भी ली, गांधीगिरी भी दिखाई और सप्ताह को गुड बाय कहने के साथ सख्ती के लिए कमर भी कस ली, परंतु यहां तो विभाग ठंड का शिकार हो गया है।

पानी में आग लगाने वाले अधिकारी

बीते सप्ताह बात गन्ना उत्पादकों के आंदोलन से शुरू हुई थी और इस सप्ताह सरकार ने अपनी कुर्सी जमाए रखने के लिए रेवड़ी-मूंगफली के प्रसाद से किसानों का मुंह मीठा कर दिया। कुर्सी को हिलाने के लिए विधानसभा में धरना-नारेबाजी के बाद दोनों जिलों के विधायकों ने अपने क्षेत्रों में आंदोलन के बीज बो दिए हैं। फसलों के लिए पुराने रेगुलेशन से पानी नहीं मिला तो बिना पानी के ही आंदोलन के बीज तेजी से कंटीले झाड़ बन जाएंगे। यदि इतने गतिरोध के बाद भी सरकार को विधायकों की बात माननी पड़े तो सिंचाई विभाग के सीएडी और मुख्य अभियंता से पूछा जाना चाहिए कि आप लोग पानी वाले विभाग के मुखिया होकर आग लगाने की मानसिकता से क्यों काम कर रहे हैं।

आंकड़े बदलते हैं मानसिकता नहीं

कौन कितना और कैसा काम कर रहा है यह तो दोनों कलेक्टरों को विभागीय शाखाओं पर छापामार कारüवाई में पता चल ही गया है। कलेक्टर चाहे पुराने रहें या नए आएं, कर्मचारियों की मानसिकता तो नहीं बदली जा सकती। और ऐसा भी नहीं कि यह छापामारी पहली बार हुई है, बस आंकड़ा कम-ज्यादा होता रहता है। इसमें उन कर्मचारियों को तो मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है जो फील्ड में काम को अंजाम दे रहे होते हैं और धब्बा लगा दिया जाता है गैरहाजिरी का। उन कर्मचारियों को भी अधिक पीड़ा होती है जो समय पर आते और देर से जाते हैं, लेकिन इनमें से भी किसी एक की ही 26 जनवरी पर पीठ थपथपाई जाती है। कम से कम जिले के मुखिया हर माह विभिन्न शाखाओं के श्रेष्ठ कर्मचारियों को सम्मानित कर नई कार्य संस्कृति से आरामपसंद कर्मचारियों को मानसिकता बदलने के अवसर तो दे ही सकते हैं।

अब कुछ करके भी दिखाइए

बात फायदे वाली कुर्सी की करें तो खाली पड़ी परिषद आयुक्त की कुर्सी में राजेंद्र मीणा फिट बैठ गए हैं। वो इतने लंबे समय से इस जिले में हैं कि राजस्थान प्रशासनिक सेवा के बदले बाकी अधिकारी उन्हें श्रीगंगानगर प्रशासनिक सेवा का मानते हैं। अब मीणा को शहर को सुंदर और व्यवस्थित बनाने का फ्री हैंड मिला है। उम्मीद तो है कि कुछ करके दिखाएंगे, वरना तो इसी शहर के लोग कहने से नहीं चूकेंगे- कुर्सी से फायदे में ही उलझे रहे।

प्रधानजी की कुर्सी, विरोधियों का प्रेम

कुर्सी और फायदे का ऐसा ही किस्सा अरोड़वंश समाज ट्रस्ट में भी चल रहा है। प्रधानजी हैं कि अधूरे काम पूरे करने तक कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते हैं, दूसरी तरफ कुर्सी पर नजर गढ़ाए लोग आरोपों की आरी लिए कटाई-çछलाई में जुट गए हैं। आरोप-प्रत्यारोप की स्पर्धा में प्रदेश की प्रमुख संस्थाओं में से एक इस ट्रस्ट की छवि जरूर खराब हो रही है। बुजुगोZ की चिंता है कि बेवजह समाज की बदनामी हो रही है।

मिठास का फिर क्या मतलब

लोहड़ी और मकर संक्रांति पर्व वैसे तो शांति और उल्लास से निपट गए, लेकिन गुरुसर मोडिया से लेकर श्रीगंगानगर तक अहम और अपमान के शोले भड़कने का खतरा टला नहीं है। इसे तभी रोका जा सकता है जब हमें यह समझ हो कि मेरे लिए मेरा धर्म तो महान है ही, लेकिन दूसरे के धर्म को भी मैं उसी महान नजरों से देखूं। मैं जब अपनी बुराई नहीं सुन सकता तो ऐसा कुछ क्यों बोलूं, जिससे बाकी लोगों के दिल दुखें। अदालतों के पेट तो सबूतों के दस्तावेज से भरते रहेंगे, लेकिन धामिüक दरारों को तो माफी के फूलों से पाटा जा सकता है। गुरुओं की बाणी भी तो प्रेम और माफी का ही संदेश देती है, गुरु से बढ़कर तो बंदे हो नही सकते। यदि हमारे समाजों में यह समझ भी पैदा न हो तो गुड़-तिल की मिठास वाले एसएमएस भी कड़वाहट दूर नहीं कर पाएंगे।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

kirti_r@raj.bhaskarnet.com

Monday 12 January 2009

ऊर्जावान टीम में ऐसे फैली `ऊर्जा´

दीपावली-नववर्ष पर शुभकामनाओं के साथ ही मिठाइयों के आदान-प्रदान की परंपरा भी है। श्रीगंगानगर एडिशन में दीपावली-नववर्ष की शुभकामनाओं को संपादक कीर्ति राणा ने अपनी संपादकीय टीम के साथ अनूठे तरीके से सेलीब्रेट किया। `अहा! जिंदगी´ के संपादक श्री यशवंत व्यास से अनुरोध किया कि हमारी संपादकीय टीम के लिए किताबों के सेट उपलब्ध कराएं। उन्होंने इस उपहार शैली को प्रोत्साहित करने में तत्परता दिखाई और लागत मूल्य पर 30 सेट का इंतजाम करा किया। इस तरह श्रीगंगानगर संपादकीय टीम को `अहा! जिंदगी´ द्वारा पांचवे वर्ष में प्रवेश पर निकाले गए किताबों के सेट `ऊर्जा´ उपहार में दिए जा सके। इस गिफ्ट को अपने लिए बेशकीमती उपहार बताते हुए टीम के साथियों की प्रतिक्रिया थी-यह सेट हम खरीदना तो चाहते थे लेकिन मूल्य अधिक होने से हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।

Sunday 11 January 2009

गंगा स्नान के बाद भी मैल न धुले तो गंगा का क्या दोष?

कीर्ति राणा

महाभारत-रामायण के पात्र किसी न किसी रूप में हर कालखंड में किसी न किसी में जीवित रहते ही हैं। अब राजस्थान में वयोवृद्ध भाजपा नेता भैरोंसिंह शेखावत को ही देखिए, ऐसा लग रहा है कल तक उनमें हस्तिनापुर के लिए प्रतिबद्ध रहने वाले भीष्म की आत्मा थी और आज अचानक उनमें विभीषण जैसा सद्चरित्र पात्र प्रवेश कर गया। झाड़ू हाथ में लिए अब वे अपने ही घर में दुराचरण का कचरा बुहारने को तत्पर हैं। उपराष्ट्रपति रहने से लेकर इस पद से मुक्त होने के बाद आप अपने गृह रा’य राजस्थान आते-जाते रहे। तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधराराजे का आतिथ्य स्वीकारते रहे, राजपाट चलाने का आशीर्वाद देते रहे और अब जब लोकसभा चुनाव नजदीक आने लगे तो रा’य में हुए भ्रष्टाचार को देखने की दिव्य दृष्टि मिल गई आत्मा ग्लानि से भर उठी।ठीक है उपराष्ट्रपति रहते मर्यादा से बंधे थे, लेकिन बाद में किसने रोक रखा था। विधानसभा चुनाव से पहले तक मौन रहकर ठीक भीष्म की तरह क्यों हस्तिनापुर के गलत फैसलों पर चुप्पी साध रहे। आपके गृह रा’य में पांच साल में `महारानी´ ने इतना कुछ गलत किया तब भी आप नहीं बोले। जिस पार्टी के अटल-आडवाणी की तरह आप भी नींव के पत्थर हैं उस दल की रीति-नीति के मार्गदर्शक पंडित दीनदयाल के नाम पर ट्रस्ट बना, घपले-घोटाले गूंजते रहे लेकिन आप जैसा नेता भी चुप रहे, जिन्हें श्रेय जाता है वसुंधरा को अंगुली पकड़कर राजनीति में लाने का। अब आपको उस वक्त के सही फैसले गलत नजर आ रहे हैं तो इसलिए कि अगले कुछ महीनों में लोकसभा चुनाव होने हैं। आपको ऐसी जमीन तैयार करनी है, जिस पर आप तन कर खडे़ हो सकें। रा’य में भ्रष्टाचार से आपकी आत्मा इतनी विचलित है कि बिना चुनाव लडे़ आप कुछ कर ही नहीं सकते। लोकसभा में जब नोट लहराए गए, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू से लेकर छत्तीसगढ़ के नेता जूदेव तक भ्रष्टाचार वाली सीडी में पार्टी को शर्मशार करते रहे तब भी आप विचलित नहीं हो पाए।गंगा में स्नान के बाद भी मन से लोभ, मोह का मैल न धुल पाए तो इसमें दोष गंगा का नहीं है, पानी चाहे कुएं का हो या गंगा का, नहाते वक्त ध्यान तो हमें ही रखना होगा कि हम मन को समझा रहे हैं या मांज-धोकर पवित्र कर रहे हैं। आखिर कब तक पदों को मोह रहेगा। बड़े नेताओं में? नए चेहरों को आशीर्वाद देने की भूमिका निभाने के लिए सिर्फ अटलजी ही बचे हैं।भ्रष्टाचार के खिलाफ खूब आवाज उठाइए, लेकिन चुनाव लड़ने का मोह जरूरी है क्या? जिन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इंदिरा गांधी की सरकार को आप सबने उखाड़ फेंका था। कम से कम उनसे प्रेरणा लीजिए। जेपी ने कभी नहीं चाहा कि देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए सरकार में पद प्राप्त करें। आप गांधी जी से प्रेरणा लेंगे नहीं क्योंकि तब चाल, चेहरा और चरित्र सब पर नए सिरे से चिंतन करना होगा। जब लोकसभा चुनाव सिर पर हों तो दूसरे के भ्रष्टाचार पर अंगुली उठाकर अपने लिए रास्ता बनाना ’यादा आसान है। वीपीसिंह ने भी तो बोफोर्स का मुद्दा उछाला था और प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद ओवरकोट की जेब से वह कागज ही नहीं निकाल पाए जिसे आम सभाओं में लहराते हुए कहते थे कि इसमें हैं बोफोर्स में दलाली खाने वालों के नाम।भैरोंसिंह जी ने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया, जसवंतसिंह जी ने उन्हें घर खाने पर बुलाया, राजनाथसिंह सफाई देने पहुंच गए यानि भ्रष्टाचार भी अब समाज आधार पर मुखर होने लगा है। राजनाथसिंह उन्हें मनाते वक्त यह भी तो पूछ लेते बाबा यह तो बताओ ये सब अभी ही बोलने की क्या जरूरत थी, अच्छा होता आत्मकथा में लिखते।


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Thursday 8 January 2009

बूट मार्च निकालना पड़ा तो...आपके जूते कहां हैं?

कीर्ति राणा
जूतों का एक जमाना वह था और आज के जमाने में जूते विश्व में छाए हुए हैं। कोई एक जोड़ पुराने जूते के 50 करोड़ भी दे सकता है, सुनकर विश्वास से ज्यादा यह जलन होती है कि काश! मेरे देश में मेरे नहीं सही, किसी और के जूतों की ऐसी किस्मत हो जाए। सेंसेक्स, विश्वव्यापी मंदी और गहराते आतंकवाद पर हावी इस जूता पुराण से मुझे इंदौर के वो दिन याद आ गए जब बक्षी गली के दोनों किनारों पर जूते-चप्पल की दुकानें शाम ढलते ही नंगे पैर लोगों को ललचाती थी।शाम के अंधेरे में यहां से खरीदे जूतों से कई साल मैंने भी दशहरे, दीवाली पर नए जूते वाला शौक पूरा किया है। अंधेरी बूट हाउस नाम रखा हुआ था इन दुकानों का। ढलती शाम में इन दुकानों पर ताजा-ताजा पॉलिश से जूते ऐसे चमकते थे कि नए जूतों वाली दुकान की तरफ देखने की इच्छा दबा लेनी पड़ती थी। काली पॉलिश के थक्के के बाद भी जूते के मुंह के आस-पास लगी बेतरतीब सिलाई बता देती थी कि सस्ते नए कपड़ों के साथ पहने जूते नए नहीं हैं। जूते की लाज ढकने के लिए मैं पैंट और पाजामा कमर से कुछ ज्यादा ही नीचे बांध लेता था ताकि देखने वाले दोस्तों को जूते पहने होने का अहसास तो हो, लेकिन मेरे इन जूतों को तीखी नजरों का सामना न करना पड़े। बचपन के वो दिन और पुराने जूतों से मनाए त्योहार की वो यादें बीते माह तक मुझे कचोटती रही थी, लेकिन अब मुझे उन जूतों पर फº होता है और यह विश्वास भी पक्का हो चला है घूड़े की तरह जूते के भी दिन फिरते हैं। अभी जब इराक में विश्व राजनीति के महानायक बुशजी की ओर एक के बाद एक पुराने दो जूतों को लपकते देखा तो मुझे वैसा ही सुकून मिला, जैसा व्हाइट हाउस में हुए ब्लैक क्रांति से विकास की दौड़ में हांफते-हांफते नंगे पैर दौड़ रहे कई देशों को मिला है।नंबर वन की हिमालयीन ऊंचाइयों पर बैठे बुशजी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ये एक जोड़ मुड़े-तुड़े जूते अहंकार के पहाड़ को ऐसा खोखला कर देंगे। एक तो लादेन ने पहले ही पेंटागन को शूर्पणखा बना रखा है और अब विदा लेते बुशजी का बुढ़ापा इन पुराने एक जोड़ जूतों ने बिगाड़ दिया। बुशजी कैच पकड़ने में माहिर होते तो बूटजी का असली नंबर भी देख लेते कि एक नंबरी पर भारी पड़े बूटजी दस नंबरी भी हैं या नहीं।बचपन में जब मैं उन नए जैसे पुराने जूतों से खेलते हुए कभी सिगरेट की खाली पैकेट जीतने की कोशिश करता था तो मेरी नानी पिटाई करते हुए कहती थी जूते न हुए खेल हो गए! और आज तो वाकई वो इराकी जूते इंटरनेट पर खेल ही हो गए हैं। हर रोज हजारों-लाखों लोग नेट पर इराकी मीडियाकर्मी की अधूरी इच्छा को पूरा करने में लगे हुए हैं। çक्लंटन और मोनिका के कारण व्हाइट हाउस बदनाम हुआ, इस ग्लानि से पीडि़त अमरीकनों के मन में बुशजी के प्रति फिर भी श्रद्धा भाव रहेगा तो इसलिए कि कम से कम अपने देश या व्हाइट हाउस में तो नहीं खाए। वैसे भी अन्य देशों में जाने वाले राष्ट्राध्यक्षों को उपहार में कुछ न कुछ मिलता ही है। मीडियाकर्मी के मन में राष्ट्र प्रेम फिर भी इतना अनुशासित रहा कि बम-बुलेट के बदले उसने अपने जूते ही इस्तेमाल किए। हमारे यहां भी तो ज्योतिष अशुभ ग्रह के प्रभाव (पनौती) से छुटकारे के लिए शनि मंदिर के बाहर पुराने जूते छोड़कर आने के टोटके बताते हैं। इराकी पत्रकार मुंतजर अल-जैदी की सोच शायद यही रही होगी कि मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ाने-मारने वालों की पीठ थपथपाने वाले महानायक जब खुद चलकर अपने देश आ गए हैं तो हाथोंहाथ टोटका कर ही दिया जाए।हमारे प्रधानमंत्री रहे लालबहादुर शास्त्री की आत्मा भी इस इराकी जूता पुराण से खुश हो रही होगी। 1965 के युद्ध के वक्त अन्न संकट से जूझ रहे भारत को गेंहू-मक्का देने से भी इंकार करने वाले अमरीका को तब शास्त्री के आuान पर ही पूरे देश ने सोमवार का उपवास कर करारा जवाब दिया था। तब, जूतों का ऐसा उपयोग कहां होता था? उस देश के राष्ट्राध्यक्ष को सरेआम जूते पडे़ और मेरे जैसे लोगों को जरा भी खुशी न हो तो विकासशील देश में रहने का कोई धर्म नहीं। बड़ा आदमी जूते भी खाता है तो शान से मुस्कुराता है। दस नंबरी कहकर बड़प्पन भी दिखाता है। जूतों का सम्मान करने का भी यह निराला अंदाज है। वैसे जूते की कदर तो हमारे गांव-मोहल्लों में पीçढ़यों से होती आ रही हैं। वह भी ऐन शादी जैसे मांगलिक अवसर पर। उधर, घोड़े को जीजू से राहत मिली और इधर मंडप में मनमोहिनी सालियों की जूता çछपाई और नेग की शरारत शुरू। 151 ले लो, नई मौसी कम है...501 ले लो, जाओ जूते लेकर आओ..., नहीं-नहीं, हम 6-7 सहेलियां हैं, ये तो कम है। सहेलियों की बढ़ती डिमांड पर जीजू के दिलफेंक दोस्त आज भी कहने से नहीं चूकते कि इतने में तो जीजू के नए जूतों के साथ आपको भी नई चप्पलें दिला देंगे। अब तो मेरे सपने में रह-रह कर दीपावली के अटाले में बेचे वो फटे-पुराने जूते याद आ रहे हैं, जिनके बदले मिले पैसों से एक किलो शक्कर ही आ पाई थी। आज वे जूते होते तो बुश के न सही, अपने देश के ढेरों निकम्मे नेताओं में से किसी के काम तो आते। आतंकियों से लड़ते हुए शहीद सैनिकों और निदोüष लोगों के लिए जब केंडल मार्च निकाल सकते हैं तो सिरफिरे नेताओं के लिए उन पुराने जूतों को हाथ में तान कर बूट मार्च तो निकाल ही सकते हैं। मैंने तो अपने जूतों की निगरानी शुरू कर दी है। आप भी घर के अटाले में से पुराने जूते-चप्पल सहेज कर रख लीजिए, किसी भी दिन जरूरत पड़ सकती है।

kirti_r@raj.bhaskarnet.com

Wednesday 7 January 2009

नए साल का उजाला, परेशानियों का अंधेरा...

नया साल उम्मीदों का उजाला लेकर आया है, लेकिन टाटा करके गया दिसंबर सूरतगढ़ में लगे नेत्र शिविर के कई मरीजों की बाकी जिंदगी को अंधेरे की टीस दे गया। अंधेरे की इस अंधेरगदीü की शुरुआत गंगानगर जिले से हुई और आसपास के पाली एवं ब्यावर जिलों के नेत्र शिविरों में बने ऐसे ही हालात ने फिर बता दिया कि जब नौकारशाही को नकेल नहीं लगाई जाए तो फजीहत आमजन की ही होती है। अब नेत्र शिविरों से जुड़ा अमला अपनी गर्दन बचाने के लिए बाकी गर्दनों की खोज में लगा हुआ है।पहले प्रचारित था कि वसुंधरा सरकार ने प्रशासनिक अमले को छूट दे रखी हैै इसलिए गलतियों पर खिंचाई भी नहीं होती। अब सरकार और मुçख्ाया बदल गए लेकिन नेत्र शिविरों के जिन पीडि़तों को अंधेरा मिला है, उनके परिजन यदि यह मान रहे हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो चलती तो नौकरशाह की ही है, तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है।अंधेरा सिर्फ नेत्र शिविरों में ही बांटा गया ऐसा नहीं है। ठंड और पाले के इस मौसम में डिस्कॉम भी अंधेरगदीü मचाए हुए है। सुबह से लेकर रात तक कब घरों की बत्ती गुल हो जाए पता नहीं। लगने लगा है कि डिस्कॉम और रसद विभाग में अंधेरा-अंधेरा खेलने की होड़ सी मची हुई है। यही कारण है कि गंगानगर, सूरतगढ़ से लेकर हनुमानगढ़ टाउन, जंक्शन सहित गांवों तक में कुकिंग गैस की किल्लत से लोगों के ठंड में भी पसीने छूट रहे हैं।किचन में टंकी खत्म हुई और गृहिणी खौलते पानी की तरह उबलने लगती है। पतिदेव घरवाली की खरी-खोटी सुन भी लेते हैं लेकिन खाली टंकी लेकर भटकते हुए वे तो एजेंसी वालों या रसद विभाग को खरी-खरी भी नहीं सुना सकते। गैस कब मिलेगी कोई नहीं बताता। इन दोनों जिलों में पुराने कलेक्टर थे तब भी बुकिंग गैस सबसे बड़ी समस्या थी और अब जब हनुमानगढ़ में नवीन जैन तथा श्रीगंगानगर में राजीव ठाकुर ने कमान संभाल ली है, तब भी गैस संकट यथावत है। यह तो आम लोगों को भी पता है कि अपराधों की तरह गैस संकट को भी स्थायी रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता, लेकिन नियंत्रित करने का काम तो रसद विभाग का है। कलेक्टर, एसपी से लेकर तहसीलदार, एसएचओ को तो घर बैठे गैस सिलेंडर मिल रहा है तो उन्हें यह समस्या क्यों नजर आएगी। जिलों का कुकिंग गैस का जो कोटा है उसका ही प्रतिमाह सख्ती से वितरण होने लगे तो कुछ तो राहत मिलेगी। हालत तो इतनी बद्तर है कि इक्कीस दिन बाद भी सिलेंडर नहीं मिलते, दोनों जिलों में गैस बुकिंग के नियम अलग-अलग हैं। हनुमानगढ़ में तो जिस दिन टंकी ग्राहक को दी जाती है उसी दिन स्वत: बुकिंग भी दर्ज कर ली जाती है। श्रीगंगानगर में पहले टंकी मिलेगी फिर बुकिंग बाद में होगी और जब सिलेंडर एजेंसी पर उपलब्ध होगा, पहुंच जाएगा। तब भी आपको ही पीछा करना पड़ेगा कि ट्राली किस गली में गई है। कमीश्नर यूं तो हर महीने दोनों जिलों में कहीं न कहीं आ ही जाते हैं लेकिन जिस तरह इन जिलों के लोगों को प्रशासनिक उदासीनता से जूझना पड़ रहा है, उससे तो लगता है कि कमीश्नर का दौरा कम, तफरीह ज्यादा होती है।अंधेरे की ही बात चली है तो इसका दर्द सेतिया कॉलोनी, भांभू कॉलोनी, गणगौर नगर, नागपाल कॉलोनी, सुरजीतसिंह कॉलोनी व प्रेम नगर के हजारों रहवासियों से ज्यादा कौन समझेगा। कॉलोनियां कट गई, लोग बस गए, परिषद से लेकर पालिüयामेंट तक के लिए कई वर्षों से वोट डाल रहे हैं लेकिन हैं अवैध कॉलोनियों के रहवासी! परिषद की मजबूरी है इन्हें अंधेरे में रखना लेकिन इन्हें वैध करने के लिए ना तो अधिकारियों ने प्रयास किए और न ही जनप्रतिनिधियों से मदद का अनुरोध ही किया। ऐसे में तो अंधेरी सड़कों वाली इन कॉलोनी के रहवासी यही चाहेंगे कि जल्द से जल्द यूआइटी में अध्यक्ष के नाम की घोषणा हो जो उनके क्षेत्रों में उजाले की सौगात लेकर आए।लगे हाथ अभिभाषकों के बीच फैले वर्क सस्पेंड के अंधेर की भी बात हो ही जाए। बार एसोसिएशन के चुनाव परिणाम के बाद तो बाकी सदस्य निश्चित हो जाते हैं कि अब अगले चुनाव तक सब कुछ ठीकठाक चलेगा, लेकिन यहां तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने जैस्ाी स्थिति हो गई। काम संभाला ही था कि दो दिन वर्क सस्पेंड! श्रीगंगानगर के अधिवक्ता निश्चित रूप से अदालतों का कार्य बोझ कम करने को लेकर चिंतित रहते होंगे, लेकिन पिछले 4-5 सालों में बात-बात पर वर्क स्ास्पेंड के जो हालात बने हैं उससे अदालत का काम प्रभावित होने से ज्यादा दूरदराज से तारीख पर आने वालों की टेंशन ही बढ़ती है। होना तो यह चाहिए कि साल में एक बार भी वर्कसस्पेंड न कर यहां के अधिवक्ता पूरे राज्य में मिसाल कायम करें।जाते-जाते शुगर मिल में आंदोलन के अंधेरे को याद कर लें। आंदोलन तो गन्ना उत्पादक किसानोंे ने गन्ने के दाम बढ़ाने को लेकर शुरू किया था। किसानों की जायज मांग को गैरवाजिब बताने वाले अधिकारियों ने इस अंधेरे में भी रोशनी तलाश ली, खुद भी आंदोलन की राह पर चल पड़े यानी संघर्ष किसानों का और फायदा मिलेगा तो अधिकारी-कर्मचारियों को भी। अब जयपुर में फैसला होना है। और जब सारी उम्मीदें सरकार से लगी हों तो इस जिले के गन्ना उत्पादकों को मान लेना चाहिए कि घड़साना आंदोलन के मृतक चंदूराम सहारण को शहीद का दर्जा देने वाले गहलोत उनका भी ख्याल रखेंगे ही।समस्याओं की अमावस में नए कलेक्टर ने अपना मोबाइल नंबर (94140-22040) सार्वजनिक कर प्रशासनिक अमले की सुस्ती तोड़ने का काम किया है। क्या ही अच्छा हो कि कलेक्ट्रेट में सिंगल विंडो सिस्टम सख्ती मानिटरिंग शुरू हो जाए। एक निर्धारित समयावधि में लोगों की समस्याएं दूर होने लगेंगी तो, न तो लोग रोज-रोज कलेक्ट्रेट आएंगे और न ही मोबाइल पर परेशान करेंगे। वैसे खेल संगठनों के लिए तो अब सब अच्छा ही अच्छा है क्योंकि नए हाकिम खुद क्रिकेट के खिलाड़ी हैं और इस खेल के ऐसे एकलव्य भी जो अपना अंगूठा क्रेक करा चुके हैं।
अगले हप्ते फैरू, खम्मा घणी-सा...