पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday 28 May 2009

अच्छे की चिंता में हम बन न जाएं खलनायक

फोन पर मेरी भांजी रोए जा रही थी और उससे ज्यादा उसकी मां की रुलाई फूट रही थी। 12वीं सीबीएसई के रिजल्ट में मिले कम अंकों के कारण भांजी के सारे सपने इन आंसुओं में बदरंग जो हो गए थे। मां के आंसू इसलिए नहीं थम रहे थे कि 12वीं की मार्कलिस्ट का महत्व बच्चों को हम सत्र शुरू होने वाले दिन से ही समझाते हैं। मुझे तो अब लगने लगा है कि निरंतर पढ़ाई के लिए कहते रहने वाले अभिभावकों की मंशा तो यही रहती है कि उनके बच्चे अपने क्षेत्र में नायक बनें लेकिन खुद बच्चों की नजर में वे कब खलनायक बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। परीक्षा और परिणाम का सीधा सा मतलब है किसी एक का नंबर वन पर पहुंचना और बाकी का उस नंबर तक न पहुंच पाने के लिए अफसोस करते रहना। कई बच्चों का तो यह अफसोस भी श्मशान वैराग्य की तरह होता है, जितनी देर श्मशान में रहे उतने वक्त जीवन की निरर्थकता पर सार्थक चिंतन और वहां से बाहर निकलते ही फिर दुनियादारी में व्यस्त। कुछ बच्चे इस अफसोस को अप्रत्याशित सफलता में बदलने के लिए चुनौती के रूप में भी स्वीकार कर लेते हैं। अभी संपन्न हुए आईपीएल मैच फाइनल की विजेता टीम डेक्कन चार्जर्स हो या गत वर्ष विजेता रही राजस्थान रायल्स। शुरू से फिसड्डी रही ये टीम फाइनल मैच में बेहतर प्रदर्शन कर ट्राफी पर कब्जा जमा सकी तो इसलिए कि हर बार के प्रदर्शन, असफलता और खामियों से इन क्रिकेटरों ने सीखा और उसमें सुधार करते हुए अप्रत्याशित सफलता हासिल की। सारे बच्चे मेरिट में नहीं आ सकते यह जवाब देकर अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने वाले बच्चे यह भी तो याद रखें जो मेरिट में आए हैं वो उनके ही बीच से हैं। दसवीं का परिणाम बच्चों के लिए ठीक वैसा ही है जैसे किसी को पहला हार्ट अटैक। दसवीं में कुछ नहीं कर पाए तो अगले दो साल और हैं आपके लिए, 12वीं में बेहतर कर दिखाने के लिए। पहले हार्ट अटैक के बाद भी मरीज अपनी दिनचर्या में सुधार, परहेज, डाक्टरी परामर्श की अनदेखी करता रहे तो दूसरा अटैक जानलेवा और बाकी लोगों के लिए चर्चा का मुद्दा भी हो सकता है- कल तो अच्छे भले थे। क्या अच्छे नंबरों से पास होने के लिए अच्छा स्कूल बैग, महंगा दुपहिया वाहन, हर सब्जेक्ट की ट्यूशन जरूरी है। यदि इसके बाद भी रिजल्ट फिसड्डी रहे तो घर से हजारों मील दूर सेना में पदस्थ उस सैनिक के बच्चे, नरेगा में गड्ढे खोदने वाले मजदूर, चाय की रेहड़ी लगाने वाले के वो बच्चे सम्मान के हकदार हैं जो टूटी साइकिल, रिश्तेदारों के हमउम्र बच्चों की उतरन पहनकर और सेकंडहेंड किताबों के सहारे सफलता के कीर्तिमान ध्वस्त करने के साथ ही अन्य अभिभावकों की ईष्र्या का कारण बनते जाते हैं कि काश हमारे बच्चे भी कुछ ऐसा कर दिखाते। कई बच्चों का बहाना होता है पढ़ाई में न सही अन्य किसी विधा में तो आगे हैं, बात सही भी लेकिन आप तलवार चलाना जानते हों किंतु पैर में चुभा कांटा तो सुई से ही निकलेगा वहां तलवार का क्या काम। रिजल्ट यानी परिणाम अर्थात इंसान उम्र भर सीखता, करता और परिणाम प्राप्त करता रहता है। पांचवीं और आठवीं की परीक्षा में अच्छे नंबरों के अब उतने मायने नहीं रह गए लेकिन इन कक्षाओं के परिणाम से भी दसवीं और बारहवीं का रिजल्ट बेहतर बनाने की सीख तो ली ही जा सकती है। बच्चों का रिजल्ट बिगड़ ही गया हो तो फिर अभिभावकों को भी अपना नजरिया बदलना चाहिए ऐसा तो बिल्कुल न करें कि परिणाम से हताश बच्चे आपके तानों और दूसरे से तुलना का बोझ न सह पाएं।
तूड़ी में घालमेल
परिणाम तो श्रीगंगानगर कलेक्टर राजीव सिंह ठाकुर ने भी अच्छा ही दिया है। मवेशियों के लिए चारे (तूड़ी) के परिवहन में गंगानगर (राजस्थान) से अबोहर (पंजाब) के बीच चलने वाले घोटाले को उजागर करना इसलिए भी महत्वपूर्ण रहा कि फर्जी बिल, बिल्टी के आधार पर यहां से वहां तक तूड़ी के ट्रक धड़ल्ले से जा रहे थे। वर्षों से चल रहे इस घोटाले को कलेक्टर ने न सिर्फ उजागर किया, अब इसकी तह तक भी जा रहा है जिला प्रशासन। तूड़ी के कारोबार से जुड़े लोग तो नाराज होंगे ही लेकिन बेजुबान मवेशियों के तो हित में ही काम हुआ है।
कागजी जनसेवा
वैसे तो जनसेवा का मतलब ही है काजल की कोठरी से बेदाग निकलना अर्थात सेवा कार्यों में ऐसी पारदर्शिता कि कोई आरोप नहीं लगे, विरोधियों को भी कीचड़ उछालने का मौका नहीं मिले। 1980 में गठित जनसेवा समिति इन 28 वर्षों में भी हनुमानगढ़ में जनाना अस्पताल का निर्माण नहीं करवा सकी तो लोगों को अंगुली उठाने का हक तो मिलेगा ही। जनाना अस्पताल के नाम पर वर्षों से चल रहा घालमेल भी कलेक्टर नवीन जैन की सख्त कार्रवाई से ही उजागर हुआ है। बताते हैं कि इस जनसेवा समिति के पदेन संरक्षक हनुमानगढ़ के कलेक्टर ही होते रहे हैं लेकिन इन 28 वर्षों में कई कलेक्टर आए और चले गए, कार्रवाई का साहस दिखाया तो वर्तमान कलेक्टर ने ही। 28 साल में जनाना अस्पताल बन नहीं पाया और कार्रवाई के 24 घंटों में ही एक करोड़ रुपए जुटा लिए जाएं तो समझा जा सकता है कि समिति से जुड़े सेठ लोग कितने प्रभावी हैं। जाहिर है प्रशासन की इस कार्रवाई का उद्देश्य यही है कि समिति से जुड़े पदाधिकारियों को जनाना अस्पताल निर्माण की सद्बुद्धि मिले। जिले के लोग तो इस कार्रवाई से खुश हैं और मान रहे हैं कि बाकी पड़ी फाइलों की धूल भी झटक जाएगी।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 20 May 2009

एक कतरा छांव भी तो दान करके देखिए

टीवी पर विज्ञापनों की भीड़ में कूलर के एक विज्ञापन ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है। इसमें कहा जाता है पहले गार्डन में गमले होते थे अब गमलों में ही गार्डन होते हैं। बात सही भी है। 48 के आंकडे़ की ओर दौड़ते पारे में हरियाली विहीन शहर के वो सारे दृश्य घूम गए जब एक कतरा छांव के लिए लोग यहां-वहां तरसते नजर आते हैं। बालकनी और घरों की छतों पर हम गमलों में पौधे लगाते हैं, आंखों को बड़ा सुकून भी मिलता है। हम में पेड़-पौधों की उपयोगिता की समझ भी है, लेकिन यह समझ घरों की चार दिवारी में कैद होती जा रही है। अच्छा हो कि घर के बाहर, सड़क के किनारे भी हम हरियाली की सोचें। इस गर्मी में कूलर और एसी के बाद भी हमें सुकून नहीं मिलता। ऐसे में धधकते मई-जून में राहगीरों और बेजुबान पशुओं के लिए कहां है हरियाली। गर्दन लटकाए छांव की तलाश में यहां-वहां भटकती गाएं पेड़ की आधी-अधूरी छांव में कभी गर्दन तो कभी आड़ी-तिरछी होकर कमर को धूप से बचाने की जुगत में धधकती सड़क के किनारे बैठी नजर आती हैं। जीभ निकाले हांफते कुत्ते छांव के अभाव में नालियों के बीच जैसे-तैसे दोपहर का वक्त काटते हैं। ये बेजुबान तो बता भी नहीं सकते कितनी गर्मी है। परिंदों के लिए दाने-पानी का इंतजाम कर पुण्य कमाने की होड़ तो दोनों जिलों में चल रही है। अच्छे काम की होड़ चलती रहना चाहिए, लेकिन एक ही काम में क्यों, ऐसा ही कुछ पेड़-पौधों को लेकर भी सोचना चाहिए। छायादार पेड़ लगाकर अंजान लोगों के लिए एक कतरा छांव का दान करना हमारे बुजुर्ग तो जानते थे, जाने क्यों हम ऐसे संस्कारों को याद रखना भूलते जा रहे हैं। दोनों जिलों में पर्यावरण प्रेमियों की कमी नहीं है, लेकिन वह स्थिति अब तक तो नजर नहीं आती कि यात्री चूरू से हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर की ओर आने वाली सड़कों के दोनों तरफ सघन हरियाली देखें और मुंह से बरबस निकल पडे़ लगता है हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर शुरू हो गया। अन्य शहरों से आने वालों को हमारी नहरें तो आकर्षित करती हैं, लेकिन हरियाली बिना तो ये नहरें भी अश्रुधारा जैसी ही हैं। दोनों जिलों से हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सालासर, चानणाधाम, खाटूश्याम सहित अन्य धार्मिक क्षेत्रों की पदयात्रा करते हैं। इनके लिए भोजन-पानी का नि:शुल्क इंतजाम करने वालों की होड़ सी लग जाती है। यह भी हो सकता है कि पदयात्रा पर निकलने वाले ये जत्थे सड़क के किनारों पर पौधे लगाते जाएं। ऐसा भी हो सकता है कि लंगर लगाने वाले भी पौधे वितरित करें। दोनों जिलों के वन अधिकारी भी इन पदयात्रियों को मुफ्त पौधे उपलब्ध करा के हरियाली के काम से जोड़ सकते हैं। हम अपने लिए तो सब कुछ कर ही रहे हैं एक पौधा औरों के लिए लगाएं तो सहीं देखिए कितना सुकून मिलेगा। अपने गमले में अपने लिए तो खूब हरियाली कर ली बाकी लोगों को एक कतरा छांव मिल जाए ऐसा भी कुछ करिए। अभी आप जब रोज सुबह छत पर रखे परिंडों में पानी बदलने जाते हैं, तब कैसे खिल उठते हैं चिडिया, तोते और कबूतर को उस परिंड़े में चोंच डुबाए देखकर, मन को कितना अच्छा लगता है। बात हरियाली को लेकर चल रही है तो पिछले दिनों भारतीय खाद्य निगम (हनुमानगढ़ जंक्शन) में पदस्थ नरेश मेहन ने मुझे अपनी कविताओं का संकलन 'पेड़ का दुख' भेजी है। रोजमर्रा की जिंदगी से जुडे़ लगभग सभी विषयों पर इसमें छोटी-छोटी कविताएं हैं। 'पेड़ की चाह' कविता संभवत: आपको भी अच्छी लगेगी-

मैं पेड़ हूँ, सब कुछ देता हूं,

मीठे फल

शुद्ध हवा

ठंडी छांव

और अंत में

सौंप देता हूं

अपना सारा बदन।

बदले में चाहता हूं

मेरे लिए

थोड़ा सा समय

जिसमें रह सको

अमन चैन से

अपने बच्चों और

अपने पड़ोसियों के संग

मेरे साथ।

पुलिस नशे वालों की!
अब तो एनडीपीएस न्यायालय ने भी ठप्पा लगा दिया है कि पुलिस की पुख्ता कार्रवाई के अभाव में नशे के कारोबारी आसानी से छूट जाते हैं। तो मान लेना चाहिए कि हनुमानगढ़ में पुलिस का अमला नशे के कारोबारियों से हाथ मिलाने, वाहन चोरों की पीठ थपथपाने में लगा हुआ है। ये अमला यदि अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए तो कलेक्टर को अभियान चलाने की कमान अपने हाथों में न लेनी पडे़। विश्वास नहीं होता कि पुलिस के बडे़-छोटे अधिकारियों को आराम से नींद आती भी होगी। ईमानदारी की कमाई बरकत लाती है तो बेईमानी की कमाई पूजा घर में रखने से भी पवित्र नहीं होगी। ये आसान सी बात बिगडे़ पुलिसकर्मियों की गृह लक्ष्मियाँ ही उन्हें समझा सकती हैं। यदि वे नहीं समझा रही हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों की फिक्र नहीं है। नशे के कारण जिन लोगों के घर-उजड़ रहे हैं, उनके बीवी-बच्चों की बद्दुआ की पोटली भी तो इस कमाई के साथ घर तक पहुंचती होगी। ये हनुमानगढ़ में ही क्यों होता है कि विशेष न्यायालय में प्रस्तुत ज्यादातर मामलों के आरोपी कमजोर चार्जशीट के अभाव में आजाद हो जाते हैं। पिकअप वाहन चोरी, घरों में चोरी के आरोपी भी नहीं पकड़े जाते और फरियादियों को ही पुलिस आरोपी ढूंढने के काम में लगा देती है।

...पानी का पानी

उन दूधियों की नाक में नकेल डालने का चुनौतीपूर्ण काम हनुमानगढ़ प्रशासन ने अपने हाथ में लिया है, जो जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दूध में फेट के खेल में यूरिया का मेल इस अभियान का कारण है। आम लोग खुश हैं तो इसलिए कि यूरिया मिले न मिले कम से कम पानी वाले दूध की शिकायतों में तो कमी आ ही रही है। जब लोग बिल चुकाने में देरी नहीं करते, तो दूध की कमजोर क्वालिटी में सुधार क्यों नहीं होना चाहिए।

बोए पेड़ बबूल के...
'शोले' के यादगार डॉयलाग में एक डॉयलाग यह भी था- सरदार मैंने आपका नमक खाया है। कुछ वैसे ही स्थिति अवैध बसेमेंट तोड़ने जा रहे अमले की हो रही है। दो साल के दौरान अनुमति तो दी नहीं फिर भी बेसमेंट बनते गए, उन इलाकों के दारोगा से लेकर बडे़ अधिकारियों को भी इसकी कुछ तो जानकारी थी ही। अब जब मजबूरी में इन्हें तोड़ने जाना पड़ रहा है तो अपमानित भी होना पड़ रहा है-यानी माल खाया है तो मार भी खानी पडे़गी।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 14 May 2009

एक बेटी आंखों का तारा, दूसरी हुई बेसहारा

अंकल मैं पहली बार वोट डालूंगी, मेरे विचार और फोटो देना है आप प्रिंट करेंगे।मैंने कहा क्यों नहीं हमने तो अभियान ही चला रखा है।अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूल से 12वीं की परीक्षा दे चुकी उस छात्रा ने टूटी-फूटी हिंदी में अपने विचार लिख कर दिए।अंग्रेजी माध्यम वाले स्टूडेंट की हिंदी हैंड राइटिंग अच्छी हो यह जरूरी भी नहीं लेकिन हिंदी में विचारों को भी ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सके तो यह चिंतनीय है। हिंदी, उर्दू , गुरुमुखी और अंग्रेजी के जानकार दादाजी जरूर उसे हिंदी ठीक से लिखने में मदद कर रहे थे। एक पैराग्राफ लिखने में उसे कम से कम दस मिनट लगे और सकुचाते हुए उसने अपना लिखा कागज मुझे थमाया। मात्र 8-10 लाइनों में इतनी गलतियां थी कि मेरी नजर शरमा गई। मैंने पढ़कर उसकी तरफ देखा, आंखों के भाव से वह भी समझ गई थी अंकल जो कहना चाहते हैं वह कह नहीं रहे हैं। लिहाजा उसने ही सकुचाते हुए कहा अंकल वो क्या है कि मेरी हिंदी ठीक नहीं है, सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है, प्लीज आप ठीक कर लीजिएगा। दादा चार भाष्ााओं के जानकार, मां खुद टीचर, कारोबारी पिता को भी व्यावहारिक दुनिया की जानकारी और स्कूल में टॉप रहने वाली बेटी का हिंदी के मामले में ये हाल। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले सारे स्टूडेंट्स ऐसे नहीं होगे- मैं उसी दिन से अपने मन को समझा जरूर रहा हूं लेकिन दिल है कि मानता नहीं। वैसे हिंदी माध्यम वाले स्कूल के छात्रों के हाल भी बहुत अच्छे नहीं हैं। अंग्रेजी लिखना और बोलना आना कांपिटिशन के इस जमाने में बेहद जरूरी है, लेकिन विश्व को दशमलव देने वाले भारत के ही कांवेंट कल्चर वाले बच्चे हिंदी में लिखे 17 या 56 को अंग्रेजी में बताने के लिए कहते हैं और तब उनके चेहरे पर विजयी भाव नजर आता है- अरे यह तो सेवंटीन, फिफ्टी सिक्स है। इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों में अंग्रेजी सिखाने में टीचर खूब मेहनत करते हैं। जहां तक राजकीय स्कूलों में हिंदी में होने वाली पढ़ाई का सवाल है तो हिंदी की दुर्गति यहां भी कम नहीं है। हिंदी के शिक्षक हिंदी के नाम पर तनख्वाह लेते-लेते समारोहपूर्वक सेवानिवृत हो जाते हैं लेकिन यह फिर भी नहीं जानते कि हिंदी में बिंदी कहां लगेगी।अपने बच्चों की हिंदी सुधारने के लिए पेरेंट्स इतना तो कर ही सकते हैं कि उनसे उनकी रुचि के विषयों वाली हिंदी की किताब से एक पेज की रोज नकल करवाएं। कितना अजीब है कि ये बच्चे हिंदी लिखना तो नहीं जानते लेकिन हिंदी फिल्में, टीवी सीरियल में दिलचस्पी रखते हैं। नेट पर चेटिंग के लिए हिंदी की दिक्कतों को रोमन अंग्रेजी ने आसान जरूर कर दिया है फिर भी हिंदी में लिखने, सोचने, व्यक्त करने की बात ही अलग है। रोमन अंग्रेजी वाली हिंदी तो बिना जड़ वाले पेड़ के समान ही है। दो बहनों में एक खूब श्वेतवर्ण और दूसरी श्यामवर्ण हो तो जाहिर है गोरी सब को आकर्षित करेगी लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि श्यामवर्णी को स्लो पायजन दे दिया जाए। भारत माता के मस्तक की बिंदी का गौरव पाने वाली हिंदी की हालत श्यामवर्णी बहन जैसी ही होती जा रही है।

कम से कम प्रकृति से ही सीखिए
समुद्र से एक बाल्टी पानी लेने पर तो समुद्र खाली नहीं होता और न ही उसकी पहचान खत्म होती है, इस सहज सत्य को शहर के ज्यादातर कला गुरु समझना ही नहीं चाहते। प्रकृति को कैनवास पर उतारने की सीख देने वाले आर्ट टीचर यह भी नहीं समझना चाहते कि सूरज रोशनी देने में, वृक्ष फल और हवा देने में, बादल धरती की प्यास बुझाने में यह नहीं सोचते कि सारी रोशनी, सारी हवा-पानी क्यों दूं? फिर गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान देने में कोताही क्यों बरतते हैं? 'चरक' के बैनर तले समूह चित्र प्रदर्शनी लगाने वाले युवा कलाकारों की यह पीड़ा है कि अधिकांश टीचर सारा कुछ बताना-सिखाना नहीं चाहते। इन कलाकारों के चेहरे उत्साह से चमकते और अपने उन टीचर्स की तारीफ करते नहीं थकते यदि वे ज्ञान बांटने की परंपरा का निर्वाह करते। फिर भी ये सारे युवा चित्रकार अपने गुरुओं के प्रति आभारी हैं कि हमें कुछ तो सिखाया। इन सबने और जो सीख ली है वह यह कि हम ज्ञान को सात तालों में बंद रखने के संस्कार नहीं अपनाएंगे, जैसा जितना आता है चित्रकला सीखने की इच्छा रखने वालों में बांटते रहेंगे।
इन ट्रैक्टर, ट्रकों का कुछ तो करिए
एक सप्ताह हो गया है दिन शुरू होता है और खयाल आता है सड़क दुर्घटना में उस दिन हमारी भी ख़बर बन जाती तो संसार से विदाई के आज इतने दिन हो जाते। खड़े ट्रैक्टर, ट्राली और जुगाड़ से टकराने में दूसरे वाहन के तीन यात्रियों की जान गई ऐसी खबरों की सच्चाई को हम लोगों ने भी बहुत निकट से जाना। बस उसी दिन को याद कर रूह कांप उठती है। हाइवे सहित व्यस्त मार्गो पर पर्याप्त रोशनी, कम से कम ट्रैक्टर-ट्रालियों, जुगाड़ और डिग्गियों पर रेडियम रिफ्लेक्टर तो होना ही चाहिए। बीच सड़क में बिगड़े खड़े ऐसे ही वाहनों के कारण न जाने कितने परिवार उजड़ जाते हैं। इसी के साथ बड़े वाहनों की बीम लाइट की चकाचौंध नियंत्रित करने के लिए हेडलाइट का आधा हिस्सा काला भी किया जाना चाहिए। ये ऐसे अभियान हैं जिसे जन संगठनों के सहयोग से जिला प्रशासन चला सकता है।
राहत देने वाला होगा अभियान?
मैरिज पैलेस संचालकों के खिलाफ अभियान तो पहले भी चले हैं अब देखना है इस बार कुछ राहत तक बात पहुंचेगी या नहीं। ऐसे अभियान जब भी चलते हैं पैलेस के आसपास रहने वाले जाने कितनी उम्मीदें बांध लेते हैं प्रशासन से, क्योंकि शादियों के सीजन में सर्वाधिक परेशान ये लोग होते हैं। देर रात तक शोर-शराबा और दूसरे दिन जूठन और नालियों में डिस्पोजल के ढेर से रुकता बहाव और उठती दुर्गन्ध से सांस लेना दूभर हो जाता है। बारिश के दिनों में इंदिरा वाटिका क्षेत्र की कॉलोनियों में घुटने-घुटने पानी के हालात में थोड़ा बहुत सहयोग तो पैलेस संचालकों की अनदेखी का भी है ही। पैलेस तो बंद हो नहीं सकते, शादियां भी होती ही रहेंगी लेकिन प्रशासन ने जब सुधार के लिए कमर कस ही ली है तो इतना तो हो ही जाए कि आसपास रहने वालों को स्थायी रूप से राहत मिले। पैलेस संचालक अपनी खामियां दूर करने को तत्पर भी हैं बशर्ते संबंधित विभाग सहयोग करें। जिन थाना क्षेत्रों में मैरिज पैलेस हैं वहां के एसएचओ, स्टाफ की क्षेत्र के रहवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। अभी तो पैलेस संचालकों के साथ इनकी मिले सुर मेरा तुम्हारा जैसी स्थिति है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Friday 8 May 2009

अपने मोबाइल को चुप रहना कब सिखाएंगे

इस बार ऐसा कुछ संयोग बना कि एक ही दिन दो प्रमुख लोगों के यहां दहाके में शामिल होना पड़ा और उसके अगले दिन एक परिचित के साथ अस्पताल में भर्ती उनके एक रिश्तेदार की मिजाजपुर्सी के लिए जाना पड़ा। इन सभी जगहों पर यह देखकर ताज्जुब हुआ कि बच्चों से ज्यादा तो बड़ों में शिष्टाचार-संस्कार की कमी है। जब हम ही शिष्टाचार का ध्यान नहीं रख सकते तो अपने बच्चों में संस्कार को लेकर चिंतित होना भी छोड़ देना चाहिए। विधायक राधेश्याम गंगानगर के दामाद के दहाका कार्यक्रम में सैकड़ों लोग अपनी भावना व्यक्त करने जुटे थे। कई लोगों ने तो हनुमान मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मोबाइल साइलेंट मोड पर कर लिए थे। कई ऐसे भी थे जो आए तो थे प्रियजन की आत्मा की शांति के लिए किंतु प्रियजन से ज्यादा प्रिय मोबाइल था उनके लिए। ऐसे ही दृश्य गणेशगढ़ में डा. ब्रजमोहन सहारण की माताजी के बारहवें पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा में भी देखने को मिले। कल्पना कीजिए तब कितनी हास्यास्पद स्थिति बनी होगी जब दो मिनट के मौन की अवधि में इन लोगों के मोबाइल फिल्मी गीतों वाली कॉलर ट्यून के साथ बजते रहे। कुछ ऐसा ही दृश्य अस्पताल में भी था, मरीज का हालचाल पूछना तो धरा रह गया। मौसम के बदलाव से लेकर गेहूं का ट्रक न पहुंचने, बारदाना संकट और चुनावी हारजीत को लेकर मोबाइल पर अनुमान व्यक्त किए जा रहे थे। से जुड़े ये सारे प्रसंग ऐसे हैं जहां मौन रहना ही हमारी भावनाओं को सहजता से व्यक्त करने का सहज तरीका होता है। पर हमारी और हमारे समाज की यही तो खासियत है जहां चुप रहना चाहिए वहां बेमतलब बोलते रहते हैं और जहां बोलना जरूरी हो वहां जुबान लकवाग्रस्त हो जाती है। गोष्ठी, सभा, सम्मलेन, नाटक, सिनेमा हॉल में भी चाहे जब मोबाइल बज उठते हैं। ऐसे संस्कारविहीन मोबाइल प्रेमियों के लिए ही आयोजकों को निमंत्रण पत्र पर हिदायत लिखनी पड़ती है कि कार्यक्रम के दौरान मोबाइल बंद रखें, यह अलग बात है कि पढ़े लिखे लोगों के कार्यक्रमों में भी इस लिखित हिदायत का अक्षरशज् पालन नहीं हो पाता। अस्पताल में बेसुध पड़े मरीज या दिवंगत आत्माएं तो सिखाने नहीं आएंगी कि शवयात्रा, शोकसभा, स्कूल, अस्पताल, अदालत आदि में जाते वक्त मोबाइल साइलेंट मोड पर कर लें। कई तो भाई लोग ऐसे भी देखे जो साइलेंट मोड पर रखे मोबाइल की लाइट चमकते ही दबे स्वर में बात करने जुट जाते हैं। अब मोबाइल ऐसा स्टेटस सिंबल नहीं रहा जो आपको समाज में विशिष्ट दर्जा दिलाता हो क्योंकि चाय वाले, सब्जी वाले से लेकर आपके इलाके में नालियों की सफाई करने वाले तक के पास हल्का-पतला मोबाइल सेट मिल ही जाएगा। इससे भी आश्चर्यजनक तो यह है कि बेवक्त बज उठने वाले मोबाइल के कारण जब आसपास के बैठे बाकी लोग आपको लगातार घूरते रहते हैं तब भी आप समझना नहीं चाहते कि आपसे क्या गलत हुआ है। बच्चे तो हैं नहीं कि कोई आपको संस्कार सिखाएगा, आप बाकी लोगों की अच्छाई अपना तो सकते हैं। ऐसा भी नहीं कर पा रहे हैं तो इसलिए कि हमें तो दूसरों की गलतियां-कमजोरियां बताने-सुनाने में अति आनंद आता है। जिस दिन हम दूसरों की गलतियों से खुद में सुधार की पहल करने लगेंगे तो बात बन जाएगी। गायत्री परिवार का तो ध्येय वाक्य ही यही है- हम बदलेंगे, जग बदलेगा। तो आप का पड़ोसी बदले न बदले पहले आप तो अच्छे बदलाव का संकल्प ले लीजिए।
जाइए अंगुली पर तिलक लगवाकर आइए
पता है ना आज मतदान करने जाना है। दिमाग में यह ख्याल तो आने ही मत दीजिए एक मैंने वोट नहीं दिया तो क्या फर्क पड़ता है। ठीक है कि जो वोट मांग रहे हैं वो सब बुरे हैं आप इन बुरे लोगों में से कम बुरे को तो चुनिए। आपकी नजर में ये जो सब बुरे हैं तो इन्हें ढीठ बनाने के दोषी भी आप-हम ही हैं। मतदान किया और सो गए। पांच साल आपके सांसद ने, सरकार ने आपके लिए कुछ नहीं किया इसलिए आप वोट नहीं देंगे, ऐसा कोई विचार मन में है तो तराजू पर तौलिए तो सही इन पांच वर्षों में आपने सांसद-विधायक-सरकार को अपने क्षेत्र में काम करने के लिए कितनी बार बाध्य किया। भ्रष्टाचार अब जो शिष्टाचार बनता जा रहा है वह इसीलिए कि हम अपनी जिम्मेदारी की गाड़ी इसी आसान राह पर दौड़ाना चाहते हैं। आप को अपने जनप्रतिनिधि की निष्क्रियता पर अंगुली उठाने का अधिकार तभी मिलेगा जब आप अंगुली पर तिलक लगाकर मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे। किसी को हराने या जिताने के लिए मत तो देना ही पड़ेगा। दोस्तों के बीच गर्व से यह कहें कि क्वमैंने तो इस बार वोट ही नहीं दियां तो पहले सोचिएगा मुंबई के उन लाखों वोटरों की उदासीनता को जो 26/11 की त्रासदी पर निकम्मे जनप्रतिनिधियों को तो कोसते रहे लेकिन गर्मी के कारण वोट डालने ही नहीं गए। आप यदि गर्मी से घबराकर वोट डालने से बचना चाहते हैं तो फिर आप से हजार गुना अच्छे और जागरूक तो तंग बस्तियों के लोग, मजदूर-किसान हैं जो वोट डालने जा रहे हैं। जाइए अंगुली पर आप भी तिलक लगाकर आइए।
बालाजी के भक्तों का साथ तो सफलता हाथों हाथ
तेज होती गर्मी और प्यासे परिंदों के लिए परिंडे रखने के लिए शहर के लोगों को प्रेरित करने के लिए भास्कर ने जो अभियान शुरू किया, उसे लोगों ने हाथों हाथ लिया। स्कूलों-घरों में परिंदों के प्रति प्रेम उमड़ने भी लगा है। भास्कर का यह अभियान सिद्ध झांकी वाले बालाजी भजन मंडल के सदस्यों के प्रयासों से और आसान हो गया है। प्रति मंगल एवं शनिवार को मंडल के सदस्य जहां भी निज्शुल्क भजन करते हैं वहां आधी रात जागरण में एकाधिक बार लोगों सेअनुरोध करते हैं कि परिंदों की प्राणरक्षा का पुण्य परिंडों में दाना-पानी रखकर कमाएं। बालाजी के भक्तों की इस भावना का भास्कर की अपेक्षा अधिक कारगर असर भी हो रहा है लोगों पर। अच्छा हो कि ग्रीन गंगानगर के सपने को साकार करने के लिए भी बालाजी मंडल के सदस्य जागरण में न सिर्फ पौधारोपण का अनुरोध करें वरन् जहां भी जागरण को जाएं उस परिवार से नीम का पौधा भी लगवाएं। ठंडे नीम से पर्यावरण तो सुधरेगा ही यह गर्म शहर कुछ ठंडा भी होगा। मंडल की सूची में अगले तीन साल तक के लिए जागरण की तारीखें बुक हैं। एक महीने में चार, एक साल में 48 और तीन साल में 144 जागरण तो होने ही हैं यानी शहर में इतने पेड़ लगाने का पुण्य तो मंडल के खाते में दर्ज हो ही सकता है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...