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Thursday 8 January 2009

बूट मार्च निकालना पड़ा तो...आपके जूते कहां हैं?

कीर्ति राणा
जूतों का एक जमाना वह था और आज के जमाने में जूते विश्व में छाए हुए हैं। कोई एक जोड़ पुराने जूते के 50 करोड़ भी दे सकता है, सुनकर विश्वास से ज्यादा यह जलन होती है कि काश! मेरे देश में मेरे नहीं सही, किसी और के जूतों की ऐसी किस्मत हो जाए। सेंसेक्स, विश्वव्यापी मंदी और गहराते आतंकवाद पर हावी इस जूता पुराण से मुझे इंदौर के वो दिन याद आ गए जब बक्षी गली के दोनों किनारों पर जूते-चप्पल की दुकानें शाम ढलते ही नंगे पैर लोगों को ललचाती थी।शाम के अंधेरे में यहां से खरीदे जूतों से कई साल मैंने भी दशहरे, दीवाली पर नए जूते वाला शौक पूरा किया है। अंधेरी बूट हाउस नाम रखा हुआ था इन दुकानों का। ढलती शाम में इन दुकानों पर ताजा-ताजा पॉलिश से जूते ऐसे चमकते थे कि नए जूतों वाली दुकान की तरफ देखने की इच्छा दबा लेनी पड़ती थी। काली पॉलिश के थक्के के बाद भी जूते के मुंह के आस-पास लगी बेतरतीब सिलाई बता देती थी कि सस्ते नए कपड़ों के साथ पहने जूते नए नहीं हैं। जूते की लाज ढकने के लिए मैं पैंट और पाजामा कमर से कुछ ज्यादा ही नीचे बांध लेता था ताकि देखने वाले दोस्तों को जूते पहने होने का अहसास तो हो, लेकिन मेरे इन जूतों को तीखी नजरों का सामना न करना पड़े। बचपन के वो दिन और पुराने जूतों से मनाए त्योहार की वो यादें बीते माह तक मुझे कचोटती रही थी, लेकिन अब मुझे उन जूतों पर फº होता है और यह विश्वास भी पक्का हो चला है घूड़े की तरह जूते के भी दिन फिरते हैं। अभी जब इराक में विश्व राजनीति के महानायक बुशजी की ओर एक के बाद एक पुराने दो जूतों को लपकते देखा तो मुझे वैसा ही सुकून मिला, जैसा व्हाइट हाउस में हुए ब्लैक क्रांति से विकास की दौड़ में हांफते-हांफते नंगे पैर दौड़ रहे कई देशों को मिला है।नंबर वन की हिमालयीन ऊंचाइयों पर बैठे बुशजी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ये एक जोड़ मुड़े-तुड़े जूते अहंकार के पहाड़ को ऐसा खोखला कर देंगे। एक तो लादेन ने पहले ही पेंटागन को शूर्पणखा बना रखा है और अब विदा लेते बुशजी का बुढ़ापा इन पुराने एक जोड़ जूतों ने बिगाड़ दिया। बुशजी कैच पकड़ने में माहिर होते तो बूटजी का असली नंबर भी देख लेते कि एक नंबरी पर भारी पड़े बूटजी दस नंबरी भी हैं या नहीं।बचपन में जब मैं उन नए जैसे पुराने जूतों से खेलते हुए कभी सिगरेट की खाली पैकेट जीतने की कोशिश करता था तो मेरी नानी पिटाई करते हुए कहती थी जूते न हुए खेल हो गए! और आज तो वाकई वो इराकी जूते इंटरनेट पर खेल ही हो गए हैं। हर रोज हजारों-लाखों लोग नेट पर इराकी मीडियाकर्मी की अधूरी इच्छा को पूरा करने में लगे हुए हैं। çक्लंटन और मोनिका के कारण व्हाइट हाउस बदनाम हुआ, इस ग्लानि से पीडि़त अमरीकनों के मन में बुशजी के प्रति फिर भी श्रद्धा भाव रहेगा तो इसलिए कि कम से कम अपने देश या व्हाइट हाउस में तो नहीं खाए। वैसे भी अन्य देशों में जाने वाले राष्ट्राध्यक्षों को उपहार में कुछ न कुछ मिलता ही है। मीडियाकर्मी के मन में राष्ट्र प्रेम फिर भी इतना अनुशासित रहा कि बम-बुलेट के बदले उसने अपने जूते ही इस्तेमाल किए। हमारे यहां भी तो ज्योतिष अशुभ ग्रह के प्रभाव (पनौती) से छुटकारे के लिए शनि मंदिर के बाहर पुराने जूते छोड़कर आने के टोटके बताते हैं। इराकी पत्रकार मुंतजर अल-जैदी की सोच शायद यही रही होगी कि मंदिर-मस्जिद के लिए लड़ाने-मारने वालों की पीठ थपथपाने वाले महानायक जब खुद चलकर अपने देश आ गए हैं तो हाथोंहाथ टोटका कर ही दिया जाए।हमारे प्रधानमंत्री रहे लालबहादुर शास्त्री की आत्मा भी इस इराकी जूता पुराण से खुश हो रही होगी। 1965 के युद्ध के वक्त अन्न संकट से जूझ रहे भारत को गेंहू-मक्का देने से भी इंकार करने वाले अमरीका को तब शास्त्री के आuान पर ही पूरे देश ने सोमवार का उपवास कर करारा जवाब दिया था। तब, जूतों का ऐसा उपयोग कहां होता था? उस देश के राष्ट्राध्यक्ष को सरेआम जूते पडे़ और मेरे जैसे लोगों को जरा भी खुशी न हो तो विकासशील देश में रहने का कोई धर्म नहीं। बड़ा आदमी जूते भी खाता है तो शान से मुस्कुराता है। दस नंबरी कहकर बड़प्पन भी दिखाता है। जूतों का सम्मान करने का भी यह निराला अंदाज है। वैसे जूते की कदर तो हमारे गांव-मोहल्लों में पीçढ़यों से होती आ रही हैं। वह भी ऐन शादी जैसे मांगलिक अवसर पर। उधर, घोड़े को जीजू से राहत मिली और इधर मंडप में मनमोहिनी सालियों की जूता çछपाई और नेग की शरारत शुरू। 151 ले लो, नई मौसी कम है...501 ले लो, जाओ जूते लेकर आओ..., नहीं-नहीं, हम 6-7 सहेलियां हैं, ये तो कम है। सहेलियों की बढ़ती डिमांड पर जीजू के दिलफेंक दोस्त आज भी कहने से नहीं चूकते कि इतने में तो जीजू के नए जूतों के साथ आपको भी नई चप्पलें दिला देंगे। अब तो मेरे सपने में रह-रह कर दीपावली के अटाले में बेचे वो फटे-पुराने जूते याद आ रहे हैं, जिनके बदले मिले पैसों से एक किलो शक्कर ही आ पाई थी। आज वे जूते होते तो बुश के न सही, अपने देश के ढेरों निकम्मे नेताओं में से किसी के काम तो आते। आतंकियों से लड़ते हुए शहीद सैनिकों और निदोüष लोगों के लिए जब केंडल मार्च निकाल सकते हैं तो सिरफिरे नेताओं के लिए उन पुराने जूतों को हाथ में तान कर बूट मार्च तो निकाल ही सकते हैं। मैंने तो अपने जूतों की निगरानी शुरू कर दी है। आप भी घर के अटाले में से पुराने जूते-चप्पल सहेज कर रख लीजिए, किसी भी दिन जरूरत पड़ सकती है।

kirti_r@raj.bhaskarnet.com

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