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Thursday 3 June 2010

काम तो अपने ही आएंगे,पैसा नहीं

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है।
माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही है। अकेलेपन की पीड़ा, बच्चों की याद और कुछ नशे के खुमार से उनकी आंखें छलछला आई। बार बार कह रहे थे पत्नी बच्चों के प्यार से प्यारा दुनिया में और कुछ नहीं, अभी वे लोग आ जाएं तो शिमला के ये गर्मी भरे दिन भी ठंडे हो जाएंगे मेरे लिए। अपना गम सुनाने के साथ ही वे ङ्क्षड्रक करने का सच स्वीकारने के साथ यह भी पूछते जा रहे थे स्मैल तो नहीं आ रही है, ज्यादा नहीं बस दो तीन पैग लिए हैं। मैंने जैसे-तैसे उनसे गुडबॉय कह कर पीछा छुड़ाया।
मैंने कई लोगों को देखा है, यूं तो फर्राटेदार हिंदी में बात करते रहते हैं लेकिन पता नहीं इस अंगूर की बेटी का क्या जादू है, इसका सुरूर चढ़ते ही अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोग अंग्रेजी शराब के कारण अंग्रजी बोलने लगते होंगे। दरअसल मुझे तो कुछ लोगों के साथ यह ठीक से अंगे्रजी नहीं बोल पाने की कुंठा लगती है जो थोड़ा सा नशा होने पर कुलांचे मारने लगती है। इस बहाने ही सही आदमी के मन में दबा सच और उसकी कुंठा बाहर तो आ जाती है। हल्के से नशे ने उस अधेड़ व्यक्ति के लिए तो आत्म साक्षात्कार का ही काम किया होगा वरना इतनी तीव्रता से बीवी, बच्चों से दूरी का अहसास नहीं होता।
इसके विपरीत हम अपने आसपास ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो दौलत के नशे में चूर होने के कारण हर चीज को पैसे से ही तोलते हैं उन्हें किसी की भलाई, अपनेपन की भी परवाह नहीं होती क्योंकि ऐसे लोग उस मानसिकता के होते हैं जो यह मानकर चलते हैं हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती है। ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसा भी वक्त आ सकता है जब पैसा होने के बाद भी कई बार हाथ मलते रह जाने जैसे हाल हो जाते हैं। जोर की भूख लगी हो लेकिन कुछ खाने को ही नहीं मिल पाए, किसी सुनसान रास्ते में हमारे किसी परिचित की तबीयत बिगड़ जाए और उपचार न मिल पाने के कारण जान ही चली जाए। इस तरह के हालात में तो जेब में रखे बैंकों के एटीएम, पर्स में रखे नोट भी कुछ देर तो बेकार ही रहेंगे।
सदियों से कहते और सुनते आए हैं पैसा तो हाथ का मैल है लेकिन हम है कि इस सच को समझना ही नहीं चाहते कि जब पैसा नहीं था तब हम लोगों के कितने करीब थे और जब से पैसा बरसने लगा तब से कौन लोग हमारे करीब हैं। क्यों हमें अपने लोगों की जरूरत अकेलेपन या मुसीबत में ही महसूस होती है। शायद इसीलिए की जो हमारे अपने होते हैं उन्हें हमारे पैसे कि नहीं हमारी परवाह होती है। जो अपना है वह सुख में हमसे दूरी बनाना जानता है लेकिन हम कभी मुसीबत में घिर जाए तो पल पल साथ रहने के बाद भी यह दर्शाने कि कोशिश नहीं करता कि वह हमारे साथ है। ये खुशियों की बारिश और सुख दु:ख के ये बादल शायद इसीलिए उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि हम अपने परायों कि पहचान करना तो सीख ही जाएं। ऐसे में भी यदि हम समझ ना पाएं तो फिर अपनों से दूर रहने पर उनकी कमी महसूस करना ही विकल्प बचता है। ऐसा बुरा वक्त जीवन मेें न आए इसका तरीका तो यही है कि हम पैसों से ज्यादा अपनों को महत्व दें। वरना तो चिडिय़ा खेत चुग जाएगी और हम हाथ ही मलते रह जाएंगे।

4 comments:

  1. काम तो अपने ही आएंगे, पैसा नहीं। श्रद्धेय कीर्ति राणा जी सर, आज बहुत दिनों बाद यंू लगा कि वीरवार के दिन दैनितक भास्कर में आपका पचमेल पढ़ रहे हैं। आलेख क्या है...पूरा चित्र उभर कर आ गया...पढ़ा नहीं है जैसे देखा है फिल्म की तरह। आपकी कलम का मैं कायल हंू। आप बहुत सरल, सहज और मन के भीतर की बात लिखते हैं। पहले वो पहाड़ की चढ़ाई वाली बात याद आ रही है कि ऊंचाई तक पहुंचने के लिए झुक कर चलना पड़ता है। तभी हम अपनी मंजिल तक पहुंच पाते हैं। और आज छाते वाली बात कि खुद भीगकर दूसरे को बचाता है। आपको बहुत बहुत बधाई राणा जी सा। आपकी बहुत याद आती है। इन दिनों तो फोन भी नहीं कर पाया। खैर। और आप सुनाओ....आपके एस.एम.एस. भी नहीं आते आजकल। आपके भेजे एस.एम.एस. मेरे लिए प्रेरणास्रोत हैं। मैँने कई बार बच्चे को पढ़ाए...उसे भी बहुत अच्छे लगे। फिर से बधाई। अच्छे लोग बिछुड़ते हैं तब दुख होता है और बुरे लोग मिलते हैं तब दुखी करते हैं। कुछ लोग कोयले की तरह होते हैं....जलते हैं तो सामने वाले को जला देते हैं और बुझे होते हैं तो सामने वाले को काला कर देेते हैं। लेकिन फिर भी कोयला भले ही काला है.बाहर से भी और अंदर से भी। ..ऐसा है तो भी यह दूसरों के लिए जलता है...लेकिन आदमी का आजकल पता ही नहीं चलता है।
    मेरा नया ब्लॉग देखना। मैंने मेरे ब्लॉग में आपके ब्लॉग को लिंक कर रखा है। एक नया और बनाया है सांप सीढ़ी डॉट ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम....एक है गट्टारोळी डॉट ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम...

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  2. बहुत बढ़िया सीख दी हैं आपने.
    लेकिन ये भी एक कटु और बड़ा सत्य हैं कि--"पैसा सब कुछ भले ही ना हो, लेकिन बहुत कुछ जरूर हैं."
    बाकी अपना-अपना नज़रिया हैं.
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  3. please ye bataaiye ki--agar main sirf dainik bhaskar, main mall road, shimla, H.P. likhkar daak bhej dungaa to kya wo aapko mil jaayegi???
    thanks.
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