अस्पताल मे दाखिल अपने किसी परिचित को हम जाते तो हैं यह अहसास कराने के लिए कि इस संकट में हम आपके साथ हैं। इसके विपरीत अंजाने में ही हम अपने अधकचरे मेडिकल नालेज को इस तरह बयां करते हैं कि इलाज करने वाले डाक्टरों की टीम से मरीज के परिजनों का विश्वास उठने लगता है। इसके विपरीत एक अन्य मित्र हैं, जितनी देर मरीज के पास बैठते हैं हल्के-फुल्के मजाक से कुछ देर के लिए ही सही मरीज की सारी उदासी ठहाकों में बदल देते हैं।
हमारे एक दोस्त की माताजी आईजीएमसी अस्पताल मे दाखिल थीं। सूचना मिली तो हम भी उनकी मिजाजपुर्सी के लिए चले गए। करीब आधा घंटा वहां रुकने के दौरान मेरे लिए सीखने की बात यह थी कि वे डाक्टरों द्वारा दिए जा रहे उपचार से पूर्ण संतुष्ट दिखे शायद यही कारण था कि मां के स्वास्थ्य को लेकर अनावश्यक रूप से चिंतित भी नहीं थे। उनका तर्क सही भी था चिंता करने से तो मां ठीक होने से रही। हमने भी माताजी की बीमारी को लेकर अपना अधकचरा ज्ञान नहीं बघारा। जितने वक्त वहां बैठे, हम उनके साथ इधर उधर की बातें करते रहे। सुबह से रात तक अकेले ही मां की सेवा में लगे रहने के साथ अस्पताल से ही आफिस के अपने साथियों को कार्य संबंधी निर्देश भी देते जा रहे थे।मैं जिस मित्र के साथ गया था, उन्होंने मदद के लिए जो प्रस्ताव रखा सुनकर मुझे अच्छा लगा। उन्होंने कहा माताजी की देखभाल के लिए या रात में अस्पताल रुकना हो तो तुम्हारी भाभी और मैं रुक जाऊंगा। तुम आराम कर लेना । चूंकि वे दिन रात अकेले ही अस्पताल में रुक रहे थे तो मैने उन्हें वक्त काटने के लिए किताब भिजवाने का प्रस्ताव रखा, उन्होंने जिस उत्साह से स्वीकृ ति दी उससे हमें लग गया कि अकेले आदमी के लिए, वह भी अस्पताल में समय काटना कितना मुश्किल होता है।
इस सोच के विपरीत हमारे सामने अकसर ऐसे दृश्य भी आते रहते हैं जब अस्पताल में मरीज की तबीयत देखने की खानापूर्ति करने वाले बजाय उसे और परिजनों को ढाढस बंधाने की अपेक्षा उसी तरह की बीमारी के शिकार रहे लोगों की ऐसी हारर स्टोरी सुनाते हैं कि ठीक होता मरीज भी दहशत का शिकार हो जाता है। यही नहीं बीमारी को लेकर अपना आधा अधूरा ज्ञान इस विश्वास के साथ दोहराते हैं कि कई बार मरीज और परिजन पसोपेश में पड़ जाते हैं कि ईलाज सही भी हो रहा है या नहीं।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने किसी प्रियजन के अस्पताप में दाखिल होने की सूचना मिले तो कल देख आएंगे कि अपेक्षा बाकी कामों से थोड़ा वक्त निकाल कर उसी दिन देख आएं क्योंकि कल किसने देखा, शायद इसीलिए कहा भी तो जाता है काल करे सो आज क र । कोई भरोसा नहीं कि कल हम और ज्यादा आवश्यक काम में उलझ जाएं, मरीज को अस्पताल से छुट्टी मिल जाए या हालत ज्यादा बिगड़ जाने पर अन्य किसी शहर ले जाना पड़े।
हममें से कई लोग अस्पताल में तबीयत देखने जाते भी हैं तो खाली हाथ। एक गुलदस्ता साथ लेकर तो जाएं, अस्पताल के उस पूरे रूम के साथ मरीज के चेहरे पर भी फूलों सी ताजगी झलकती नजर आएगी। एक परिचित हैं उन्हें बस पता चलना चाहिए कि कोई अपना परिचित दाखिल है। उसके परिजनों को अपना ब्लडग्रुप बताएंगे, फोन नंबर नोट कराएंगे कि आपरेशन की स्थिति में खून की जरूरत पड़े तो तत्काल सूचित कर दें। मरीज के पास जितनी देर भी बैठेंगे, उससे उसकी बीमारी पर तो चर्चा करेंगे ही नहीं। उसे जोक्स सुनाएंगे, हल्के फुल्केे मजाक करते रहेंगे। मैंने जब उनसे कारण पूछा तो उनका जवाब था, एक तो पहले ही वह सुबह से शाम तक अपनी बीमारी को लेकर लोगों के सुझाव सुनता रहता है। लोग आते तो हैं उसका दुख कम करने के लिए लेकिन अंजाने में ही उसका तनाव बढ़ाकर चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में हल्के फुल्के मजाक से वह थोड़ी देर खुलकर हँस लेता है तो इसमें गलत क्या है। बात तो एकदम सही है। मैने जब खुद का मूल्यांकन किया तो कई कमियां नजर आई हैं जिनमें सुधार के लिए मैने तो शुरुआत भी कर दी है। कहा भी तो है हम दूसरों की गलतियों से खुद में सुधार ला सकते हैं।
पचमेल में ...दर्द बढ़ाने के लिए न जाएँ....कई दिनों के बाद आपकी कलम ने मन को टॉनिक दिया है..हार्दिक बधाई.......वास्तव में हम जब भी किसी से मिलने जाते हैं तो...अनेक प्रकार के सुझाव भी दे आते हैं...कि अमुक चीज लें और अमुक चीज ना लें...हमारे देश में हर आदमी डॉक्टर है... ख़ुद अमल नहीं करता लेकिन दूसरे को तुरंत समझा देता है.. श्रद्देय राणा जी...आपको फिर से बधाई...
ReplyDeleteअब क्या किया जा सकता हैं???
ReplyDeleteनातों मरीज के पास किसी को आने से रोका जा सकता हैं और ना ही किसी को कुछ बोलने से रोका जा सकता हैं?? किसी का मुँह तो पकड़ा नहीं जा सकता.
इसका तो एक ही इलाज़ हैं और वो ये कि-"डॉक्टर मरीजों में अपने प्रति विश्वास पैदा करे और मरीज़ इधर-उधर की, बेफालतू की बातों की तरफ ध्यान ना दे."
बहुत बढ़िया,
धन्यवाद.
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राणाजी आपने बहुत अच्छा सही िलखा है.धन्यवाद
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