अथाह संपत्ति होने के बाद भी हम अपने दिवंगत परिजन के लिए जीवन खरीदना तो दूर परिवार के दो सदस्यों के बीच समाप्त हुआ प्यार तक नहीं खरीद सकते। फिर ऐसे पैसे की अंधी दौड़ भी किस काम की जो भाइयों में दीवार खड़ी कर दे, एक दूसरे के खून का प्यासा बना दे। और हम अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले संस्कारों को भी भुला दे।
पिता जी की माली हालत ठीक नहीं थी। एक परिचित के पेट्रोल पंप पर सर्विस कर के परिवार पाल रहे थे। किस्मत को कोसने की अपेक्षा सपने देखने में विश्वास करने वाले बाकी पिताओं की तरह इनका भी सपना था कि ऐसा ही एक पंप अपना भी होना चाहिए। उन्हें पता था कि जो सपने देखते हैं उन्हें उस शिखर तक पहुंचने के लिए रात-दिन भी एक करना पड़ता है। संघर्ष किया तो परिणाम भी मनमाफिक आया। रोड से करोड़पति बने, तरक्की होती गई। पिता के कारोबार को दोनों बेटों ने और आगे बढ़ाया, चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, इसलिए जब वह प्रसन्न होती है तो उसका वाहन भी अपनी खुशी जाहिर करता है लिहाजा कई बार व्यक्ति की अच्छा बुरा सोचने की क्षमता भी क्षीण कर देता है। धन ने मन में मतभेद की दीवार उठा दी, दोनों भाई अलग हो गए। अथाह संपत्ति के बाद भी जो खोया वह था पारिवारिक सुख और आत्मिक शांति। अंतत मां की समझाइश, आध्यात्मिक गुरु की सीख ने देर से ही सही हृदय परिवर्तन कर दिया। किसी सुपर हिट हिंदी फिल्म के सुखद अंत की तरह अब दोनों भाइयों के परिवार एक हो गए हैं। चौका चूल्हा भले ही अलग है लेकिन मतभेद की वह दीवार ढह गई है।ये दोनों भाई हमें जानें यह जरूरी नहीं, लेकिन हम में से ज्यादातर लोग इन्हें जानते हैँ। लगभग हर महीने एकाध बार मुकेश और अनिल अंबानी की संपत्ति, इनके वेतन, बंगला निर्माण, मंदिर दर्शन के दौरान भारी भरकम दान, समाजसेवा के कार्य आदि को लेकर कुछ ना कुछ पढऩे-सुनने में आता ही रहता है। अंबानी बंधुओं की संपत्ति की खबरों से अधिक हममें से ज्यादातर लोगों को इस बात ने सुकून दिया है कि सुबह के भूले शाम को घर आ गए। ये अलग थे तब और अब एक हो गए तो भी हम में से तो किसी का भला होना नहीं लेकिन इस एक केस स्टडी से हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अकूत संपत्ति से भी बढ़कर कोई अनमोल चीज है तो वह है भाइयों, परिवार के बीच का प्यार।
झोपड़ी में रहने वाले दो निरक्षर भाइयों के बीच मतभेद की यही स्थिति रही होती तो संभवत: इनमें से कोई एक दूसरी दुनिया में और दूसरा भाई सींखचों के पीछे होता। सम्पन्न और संस्कारिक भाइयों को यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि सब कुछ होते हुए भी पे्रम का अभाव है। मुझे तो यह समझ आया कि पैसे से प्रेम प्रदर्शित करने वालों की फौज तो खड़ी की जा सकती है फिर भी पे्रम नहीं खरीदा जा सकता। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि पैसा कमाने की ऐसी होड़ भी क्या कि अंधी दौड़ में एक ही कोख से जन्में दो भाई एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाए।
कहा भी तो है एक लकड़ी को तो आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन जब लकडिय़ों का ढेर हो तो कुल्हाड़ी के वार भी बेकार साबित हो जाते हैं। अंगुलियां जब एक होकर मुट्ठी में बदल जाती हैं तो उस घूंसे की चोंट ज्यादा प्रभावी होती है। बिखरा हुआ परिवार सबकी अनदेखी, हंसी का पात्र भी बनता है। परिवार के बीच बहती प्रेम की नदी ही सूख जाए तो हिलोरे मारता अथाह संपत्ति का समुद्र भी किस काम का। पैसा होना चाहिए लेकिन पैसा ही सब क ुछ हो जाए तो भी महल से लेकर झोपड़ी तक भूख मिटाने के लिए तो रोटी ही चाहिए। फ र्क है भी तो इतना कि अमीर आदमी रोटी पचाने के लिए दौड़ता है और गरीब रोटी कमाने के लिए भागता रहता है। रोटी चाहे घी में तरबतर हो या रूखी-सूखी, वह तभी अच्छी लगती है जब परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्यार हो, परिवार में मतभेद हो तो भाई लोग अपने कमरे में बैठकर चाहे रसमलाई ही क्यों ना खाएं वह भी बेस्वाद लगती है।। एक कतरा प्यार पाने के लिए पैसों का पहाड़ खड़ा किया जाए यह जरूरी नहीं है। रोटी से पहले गोली खाना पड़े, नींद भी बगैर गोली खाए नहीं आए तो मान लेना चाहिए हमारे तन,मन और मानसिकता में विकार पैदा हो गए हैं और बुजुर्गों से जो संस्कार हमें मिले थे उनका हम हमारे स्वार्थों, सुविधा के मुताबिक पालन कर रहे हैं।
आभार इन विचारों का.
ReplyDeleteAABHAAR.
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