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Thursday 11 March 2010

कुछ पल सहज हो जाएं

हम सबके जीवन में अकसर कुछ कुछ ऐसा घटित होता ही है जो हमें कुछ देर के लिए ही सही असहज कर देता है। असहजता हमें विचलित करती है। विचलित हुए कि मन-मस्तिष्क में वैचारिक द्वंद्व शुरू। मन पर पडऩे वाला प्रभाव तन पर भी नजर आने लगता है। जब मन और तन स्वस्थ हों तो पारिवारिक पर्यावरण तो दूषित होना ही है।
हम सभी सुनते आए हैं कि जहां भी राम नाम संकीर्तन होता है प्रिय भक्त हनुमान किसी किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते ही हैं। इसकी सत्यता को लेकर तर्क-वितर्क हो सकते हैं लेकिन इस पूरे प्रसंग में बालाजी का सहज भाव यह है कि वे कभी भी अग्रिम पंक्ति में स्थान को लेकर लालायित नहीं रहते। अपितु सबसे पीछे ऐसे दीनहीन भाव से बैठते हैं कि सामान्यत: लोगों की नजर नहीं पड़े। संभवत यह सहज भाव ही उन्हें सम्मान भी दिलाता है।
आज तो दिक्कत यह है कि चाहे शोक सभा हो या निंदा प्रस्ताव को लेकर बैठक, हर आदमी चाहता है कि पहली पंक्ति की कुर्सियां उसी के लिए हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि जो अगली पंक्ति की कुर्सियों पर अकड़ कर बैठे नजर आते हैं समारोह शुरू होने से पहले, अतिथियों के आगमन पर इन्हीं लोगों को हाथ जोड़कर या हाथ पकड़कर उठा दिया जाता है। बस ऐसे ही पल हमें असहज कर देते हैं। ऐसी स्थिति क्यों बनी इसका चिंतन हम चूंकि अपने मन मुताबिक करते हैं इसलिए जरा सा अप्रिय घटने पर असहज हो जाते हैं। यदि पहले से ही हम समझ लें कि पहली पंक्ति की खाली कुर्सियां अतिथियों, उनसे जुड़े लोगों के लिए हैं तो हम असहज होने से बच सकते हैं। इसी तरह जीवन में घटित होने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं, जन्म-मौत, जुडऩा- बिछडऩा को सहज भाव से स्वीकार करना सीख लें तो असहजता की स्थिति ही नहीं बने।
वैसे तो ध्यान की विभिन्न पद्धतियों में एक सहज योग साधना भी है लेकिन इस साधना के मार्ग में भी हमें विषम बाधाएं नजर आती हैं। इसलिए ध्यान में भी हम सहज नहीं रह पाते और सारा दोष देते हैं पद्धति को। हमें सहज होने का तो अभ्यास करना पड़ता है लेकिन असहज कब हो जाएंगे हमें पता हीं नहीं होता। एक बुजुर्ग साथी हैं। उन्हें डॉक्टरों ने सलाह दे रखी है कम बोलें, धीमें बोले लेकिन उन्हें खुद के हार्ट की चिंता है, डॉक्टर की सलाह की और ही परिजनों की जो उनके निरंतर और तेज आवाज में बोलते रहने की आदत को लेकर चिंतित रहते हैं। सहज रहकर हम बाकी लोगों के लिए अपने व्यक्तित्व को आदर्श बना तो सकते हैं लेकिन हम पर तो हर वक्त असहजता का भाव हावी रहता है। दुधमुंहे बच्चे जब गहरी नींद में होते हैं तब भी मुस्कुराते रहते हैं और हम हैं कि जागते हुए भी असंतोष की आग में उबलते रहते हैं। सहज भाव को समझ पाने में पूरी उम्र्र गुजार देते हैं। हम याद रख लें कि ये जो ङ्क्षजदगी की गाड़ी है, उसे ऐसे वन वे पर चला रहे हैं जिसे हम घुमा कर पीछे नहीं जा सकते लेकिन गर्दन घुमा कर पीछे देख तो सकते ही हैं। जरा देखें तो सही हम जब सहज हुए थे उन कुछ पलों में कितना सुख मिला था। सहज होने का मतलब है पद-पैसे-प्रतिष्ठा की कैंचुली से मुक्त होना।
सांप जब कैंचुली छोड़ता है तब और ज्यादा आकर्षक हो जाता है, हनुमान जी जब सिंदूर का चोला उतारते हैं तो दर्शन को श्रद्धालु टूट पड़ते हैं और कभी जब हम कुछ पल के लिए सहज हो जाते हैं तो सभी के लिए सम्मानीय हो जाते हैं। हमारे आसपास भी सहज जीवन जीने वाले लोग हैं उन्हें देखने-पहचानने के लिए हम दृष्टि में सहज भाव तो ला ही सकते हैं।
अगले हपते फैरूं,खम्मा घणी-सा...

2 comments:

  1. राणा जी, आज आपने कितनी अजीब बात कह दी हैं??? हम सबको आप खुद असहज करके जा रहे हैं, और ब्लॉग लिख रहे हैं सहज रहने के बारे में.
    ऐसा जुल्म तो ना कीजिये, जले पर नमक तो ना छिड़किये.
    कृपया चुभती बात तो ना कहिये और नाही चुभता-तीखा ब्लॉग लिखिए.
    भले ही आप ऑनलाइन (पचमेल द्वारा) संपर्क में रहेंगे, लेकिन आमने-सामने मिलना-व्यक्तिगत रूप से मिलना तो बन्द (दुर्लभ) हो जाएगा.
    000000
    (((((((((!!!!!!!!)))))))))
    00000
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  2. Sh Kirti Rana ji.
    Nameskar.
    Aap ka sehej trikye se likha .Sehej or saral gaynberdhek lekh pdha.Aadmi ki sehejta uskye lekh se gayet ho jati h.
    Aap ko sadhu-bad payre se lekh k liye.
    NARESH MEHAN

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