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Friday, 5 March 2010

आंसू बहाना, पानी बचाना सीखिए

पानी के एक बुलबुले के माध्यम से कबीर ने जीवन और मौत की हकीकत समझाई है। क्या हम पानी का मोल, उसका महत्व मरते दम तक समझ पाते हैं! पानी के बिना जीवन सूना कहा गया है। जिसकी आंखों से आंसू न टपके उसका अमर होना भी बेकार ही है।
सीखना चाहेंं तो हम पानी से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, लेकिन उसके लिए भी यह जरूरी है कि हम अपने स्वभाव की समीक्षा पहले कर लें। पानी चाहे तरल हो या ठोस, अपना मूल स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। बर्फ के रूप में भी बूंद-बूंद होकर पानी हो जाता है। पानी होने पर वह सात तालों में कैद किए जाने वाले हालात में भी कहीं न कहीं से जगह बनाकर बाहर आ ही जाता है। नहीं आ पाए तो दीवार और जमीन पर नमी के रूप में अपने होने का अहसास कराता रहता है। भाप बन जाने पर भी फिर पानी होना ऐसी मिसाल पानी से ही संभव है।
जिद्दी होना हो तो पानी जैसा होना पड़ेगा, जो अपने स्वभाव को हर हाल में कायम रखता है। दूध में मिलाओ या चाशनी बनाने के लिए चीनी में, त्याग के मामले में पानी के आगे सब फेल ही साबित होंगे। पानी की अपनी कोई चाहत भी नहीं होती, लेकिन उसके अस्तित्व को नकार पाना भी संभव नहीं होता। दूध में घुलकर पानी दूध हो जाता है खुद तपता, जलता है पर दूध को दूध रहने देता है। रंग में डालो तो रंग का रूप निखर जाता है, रंग छुड़ाना हो तो पानी ही काम आता है।
हमारी इतनी उपयोगिता तो कम ही नजर आती है कि हर मोड़ पर अपनों के लिए हम पानी जैसे स्वभाव के साथ खड़े रहें। पानी का स्वभाव है, सबसे पहले त्याग के लिए तत्पर रहना, इसके विपरीत हमारा स्वभाव है पाने के लिए सबसे आगे रहना। जीवन में जल न हो तो जिंदगी हलाहल हो जाए। जल हमें संदेश भी देता है कि जो औरों के लिए जल जाता है, उसका जीवन सार्थक हो जाता है। प्रकृति ने खारे जल की दो कटोरियां यूं तो हम सभी को उपहार में दे रखी हैं। आंख से रिसकर गालों से होते हुए ओठों पर ठहरते हैं, तो हमें इन आंसुओं का स्वाद खारा लगता है, समुद्र का पानी भी खारा है, लेकिन आंसुओं के खारेपन की कुछ अलग ही बात है। ये आंसू जब किसी के दर्द में बहते हैं, तो उस आहत को अपनेपन का मीठा अहसास कराते हैं।
आज का जमाना पानी बचाने का है, कल के लिए जल तभी बच सकता है, जब इस होली पर तिलक-गुलाल का संकल्प लिया जाए। जल बचाना समझदारी है, लेकिन जल जैसा व्यवहार न सीख पाना नादानी है। हो यह रहा है कि पानी तो हम दोनों हाथों से उलीच रहे हैं, लेकिन आंसू खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं। अपनों के दर्द में शामिल होने के लिए चेहरा लटकाकर ही काम चला लेते हैं, तब भी आंखें चुराकर बार-बार घड़ी पर नजर डालते रहते हैं। आंखें सूखी ही रहती हैं, उन्हें भी शायद यह भय सताता रहता है कि पलकों के किनारे पर आंसू चमक गए तो कहीं इंकमटैक्स वाले पूछताछ न करने लगें।
हमें पता है कि अब जमाना 'टेक एन गिव' का है। किसी के लिए आंसू खर्च करने में कंजूसी बरतेंगे, तो बाकी लोग भी हमसे पत्थरदिल होकर ही मिलेंगे। जमाना पानी बचाने का है, आंसू बचाने का नहीं।

5 comments:

  1. paani or aansuo ki keemat bataane ke liye dhanyawaad.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  2. बेहद भावपूर्ण पोस्ट है यह।
    आंसू संवेदनशील आदमी की पहचान है।
    राजस्थानी भाषा के कवि कन्हैयालाल सेठिया का दोहा याद आ रहा है-
    तिल-तिल कर डोरो बळै,
    आंसू नाखै मैण।
    झरै पराई पीड़ में,
    बै ही साचा नैण॥
    मोमबत्ती का डोरा तिल-तिल कर जलता है तो उसके दर्द में किसी संवेदनशील इंसान-सा मोम पिघल पड़ता है। मतलब डोरे की पीड़ का साझीदार बन जाता है मोम और उसके दर्द में आंसू बहाने लगाता है तो कवि का कथन है कि जो पराई पीड़ में झरते हैं, वे ही सच्चे नयन हैं।
    ....ऐसे ही सच्चे नयनों वाले लेखक की यह भावपूर्ण पोस्ट हमें बहुत कुछ सिखाती है।

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  3. कीर्ति भाई आपकी यह पोस्‍ट आंसू और पानी शीर्षक से आज दिनांक 10 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में प्रकाशित हुई है, बधाई स्‍वीकारें।

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  4. मैं आपको जो जो बताने आया था वह अविनाश जी पहले ही बता गए हैं। शुभकामनाएं...
    इसका जिक्र यहां भी है

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  5. Prem srdhye.
    Sh Kirti rana ji
    Aap ka pachmel bhut hi kimti h.Aap n pani k bare m dil s likha h.Aane wale samye m pani k liye yudh ho or pani k upper y arop legye.isliye hame pani ko shel ker rekhna h.Mari pani k uper kuch pengtiyah.
    Mai Jal hu
    jal ker bhi
    jal hi rhuga
    lakin tum
    jiv ho
    jivet nahi
    rehogye.
    Kirpya mera
    Andhadhund
    upyog band kero
    mujhe is
    arop se
    muket kero
    NARESH MEHAN

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