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Friday, 5 March 2010

एडजस्ट करने का मतलब हर हाल में खुश रहना

हमें अपने शहर की अहमियत यूं तो पता नहीं चलती, लेकिन जब कहीं घूमने-फिरने जाते हैं शहर से कुछ दिनों के लिए दूर रहते हैं, तो उस पराए शहर के चौराहों, गलियों में अपना शहर तलाशते हैं। जिन लोगों को जानते-पहचानते नहीं उन अपरिचित चेहरों में अपने शहर के परिचितों की झलक महसूस करते हैं। सरकारी-गैरसरकारी सेवाओं में कार्यरत जिन लोगों के ट्रांसफर होते रहते हैं, उन्हें फौरी-तौर पर तो ये अंजान शहर प्रभावित नहीं कर पाते, लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में पराया शहर सांसों में कब रच-बस जाता है, इसका अहसास भी तब होता है, जब किसी अगले शहर में ट्रांसफर का आदेश मिल जाता है।
ससुराल जाने वाली बेटियों को शुरूआती दिनों में नया घर, ससुराल वाला शहर कुछ भय पैदा करता है, लोगों का मिजाज भी समझने मे महीनों गुजर जाते हैं, लेकिन फिर ऐसी स्थिति भी बन जाती है कि मायके आई बेटी के मुंह से ससुराल की बातों, परिजनों के अलावा कोई चर्चा सुनाई नहीं देती। जब वह विदा होने को होती है, तो आंसुओं में मायके की यादें झरने लगती हैं। इन आंसुयोयं के साथ फिर से ससुराल पहुंचने का रोमांच तो होता ही है।
हर हालात में एडजस्ट करने का सच या तो घर से विदा की गई बेटी या हर दो-चार साल में एक से दूसरे शहर स्थानांतरित किए जाने वाले कर्मचारी जानते हैं। एक शहर के गली-मोहल्लों, लोगों के मिजाज को जानने की क्षमता बन पाती है, डायरी में पते और मोबाइल में नंबर फीड हो पाते हैं, अंजान आवाज को सुनकर नाम से पहचानने की समझ पैदा हो पाती है कि अगले शहर के लिए तैयारी का आदेश मिल जाता है। जिस शहर का आप क, ख, ग नहीं जानते, कुछ समय में उसके चप्पे-चप्पे से परिचित हो जाते हैं। बेटी जिन लोगों को पहले कभी नहीं मिली उन ससुराल वालों में अपने मम्मी-पापा तलाशने लगती है, देवर में भाई जैसी शरारतें और देवरानी-जेठानी में बहनों-भाभी जैसा प्यार महसूस करती हैं। सब कुछ नया, अंजान, अपरिचित होते हुए भी वह कुछ समय में ही तालमेल बैठा लेती हैं, तो इसी एडजस्टमेंट के कारण।
रेल में सफर करते वक्त जिस बर्थ में तीन लोगों के बैठने जितनी जगह होती है, उस पर छह लेाग भी ताश पत्ते खेलते वक्त एडजस्ट हो जाते हैं। तो यहां भी यही भाव होता है कि बस थोड़ी ही देर की बात है। मुंबई की लोकल ट्रेन में तीन-चार घंटे का सफर तय करके नौकरी के लिए आने-जाने वाले भी इसी तरह एडजस्ट करके काम चलाते हैं।
एक $गजल के शेर की लाइन है, कभी किसी को मुकम्मिल जहां नहीं मिलता...! ऐसे हालातों के बाद भी जिंदगी चलती रहती है, तो इसी एडजस्टमेंट के कारण। जो एडजस्ट करना सीख लेते हैं, वे जिंदगी की हर परेशानी का मुस्कुराते हुए सामना करते हैं। हममें से हर कोई सपने देखते हुए जिंदगी का सफर शुरू करता है, लेकिन सबके सपने पूरे नहीं हो पाते। इसका मतलब यह भी नहीं कि जिनके सपने पूरे नहीं हो पाते उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है, ऐसा भी होता है कि सपना पूरा न होने की स्थिति में कई बार नई राह भी मिल जाती है। ये तभी संभव है, जब हम एडजस्ट करना सीख लें। इसकी न तो कोई कोचिंग क्लासेज हैं और न ही किसी यूनिवर्सिटी में कोई सिलेबस। हमारे परिवारों में तो एडजस्ट करके सबसे पहले मां ही दिखाती है और यही पाठशाला हमें हिम्मत न हारने, हर हाल में एडजस्ट करने के संस्कार भी सिखाती है।
ससुराल में बहू जब बेटी जैसे प्यार-दुलार की हकदार हो जाती है, तब भी इसी एडजस्टमेंट का जादू काम करता है, लेकिन ससुराल में रहते हुए भी बेटी जब बात-बात में मायके का गुणगान करती है, तो संस्कार ग्रहण नहीं कर पाने की कमजोरी से अपना मान घटा लेती है। आप जैसा चाहें, हर वक्त वैसा ही हो यह कतई संभव नहीं है क्योंकि ऐसा हो जाए तो हालात से समझौता करना ही भूल जाएंगे। एडजस्ट करने का मतलब है ऐसा मध्य मार्ग जहां हमें कुछ अतिरिक्त नहीं भी मिले तो हमें कुछ खोने का अफसोस भी नहीं होता। एजडस्ट करना हमें एक कदम पीछे होने का संयम सिखाता है, तो दो कदम आगे होने की ताकत भी देता है। जो एडजस्ट करना सीख लेते हैं, वो बगीचे की उस दूब के समान हो जाते हैं, जिसका भीषण बारिश भी कुछ नहीं बिगाड़ पाती और जो खजूर की तरह अकड़ कर खड़े रहते हैं वे तेज आंधी के झटके नहीं सह पाते।

2 comments:

  1. zindagi bahut lambi hain. isliye sukhad or urzaabhari, or tanaav-mukt zindagi jeene ke liye adjust karnaa aanaa chaahiye.
    excellent and thansk.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  2. बहोत ही समज़दारी देनेवाला लेख। आभार।

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