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Thursday 16 July 2009

बोली हो या गोली जरा सोच-समझकर

बिना सोचे बोलने का कितना घातक परिणाम होता है इसे दोनों जिले के लोगों से ज्यादा कौन समझ सकता है फिर भी मुझे आश्चर्य होता है कि हम ऐसा तीखा और अनर्गल बोलने का कोई अवसर छोड़ना ही नहीं चाहते फिर भले ही हमें संगत के बीच माफी ही क्यों न मांगनी पड़े। अभी जो हालात दोनों जिलों में बने हुए हैं उसने आपकी तरह मुझे भी विचलित कर रखा है। न तो आप-हम धर्म के ठेकेदार हैं और न ही ऐसे हकीम-लुकमान जिनके पास हर मर्ज की दवा होती है। हम ठहरे प्रभुजी तुम चंदन हम पानी की भावना रखना वाले साधारण लोग, इसी आस्था के साथ हम अपने खुदा से यह प्रार्थना तो कर ही सकते हैं कि इन सात दिनों में इतना पानी बरसा कि आग उगलने को आतुर नजर आने वाले बंदों का गुस्सा भी पानी-पानी हो जाए। जिन बातों से हमारा सीधा ताल्लुक नहीं होता कई बार वो बातें ही बेवजह हमारे टेंशन का कारण बन जाती है। डेरामुखी का गुरुसर मोडिया आना और सिख समुदाय द्वारा मरने-मारने को उतारू होना हर साल दो-चार बार सभी के लिए टेंशन का कारण बनता ही है। कौन सही है, कौन गलत, किसने माफी मांगी, किसने नहीं मांगी, शहर की फिजां बिगाड़ने वालों के साथ प्रशासन को सख्ती करनी चाहिए या नहीं, किसी को अपने गांव-घर आने की आजादी मिलनी चाहिए या नहीं ये सारे प्रश्न बर्र के छत्तों के समान ही हैं और मैं तो इस छत्तों को फिलहाल छूना नहीं चाहता। हमारे प्रधानमंत्री जिस कौम का प्रतिनिधित्व करते हैं वह कौम अपनी आन-बान-शान के लिए मर मिटने का जज्बा रखती है, खूब समझदार भी है लेकिन नामसमझी मुझसे भी हो तो हो सकती है। डेरा मुखी कितने सही-कितने गलत हैं यह तय करने का हमारा अधिकार है भी नहीं। रह-रहकर मन में जो प्रश्न उठ रहा है वह यह कि कौनसा धर्म सही है- दिलों को जोड़ने वाला या दरार बढ़ाने वाला? ऐसी स्थिति क्यों बनी कि 32 दांतों के बीच दुबककर बैठी रहने वाली बिना हड्डी की जुबान तलवार जैसी हो गई। मेरा तो मानना है कि विवाद चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी जननी तो यह जुबान ही होती है। संत-फकीर तो सदियों पहले कह गए हैं ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय...। ऐसी सारी अमृतवाणी, उक्तियाँ हम याद तो रखते हैं लेकिन उनका पालन नहीं करते इसलिए ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनती है।बात चाहे समाज में स्वस्थ वातावरण की हो या व्यक्ति के स्वस्थ होने की, यह तभी संभव है जब जुबान पर लगाम हो वरना तो अक्सर यही होता है कि जुबान तो अपना काम करके दांतों के बीच छिप जाती है मार सहनी पड़ती है बेकसूर सिर को। यदि जुबान काबू में न हो तो डाक्टर की दवाइयां, वैद्यजी का बताया परहेज भी बेअसर हो जाता है, नतीजा समय से पहले राम-नाम सत्य।शब्दों की कमी नहीं है, बस बोलने से पहले एक पल सोच लें कि क्या बोल रहे हैं तो, मजाल है जुबान अपनी मनमानी कर ले। बोली और गोली तो छूटते ही असर दिखाती है फिर या तो खूनखराबा होता है या बात बंद। मुझे दिगंबर जैन मुनि तरुण सागर जी के प्रवचनों की एक बात बहुत अच्छी लगती है- सब कुछ कर लो लेकिन बात बंद मत करो। बात बंद तो सुलह-सफाई के सारे रास्ते बंद, दोनों अपना खून जला रहे हैं पर यह नहीं सोचते कि ऐसे शब्द बोले ही क्यों कि बात बंद करने की नौबत बनी। बेवजह बोलना उतना ही खतरनाक है जितना कि बोलने के हालात बने हों और आप चुप रह जाएं। एक किस्सा तो मेरे अपने ही परिवार का है। मैंने अपने कुछ मित्रों को भोजन पर आमंत्रित किया हमारी महारानी ने प्रेम से मालवी भोजन बनाया, मित्रों को पसंद भी आया। मनुहार के साथ वे परोसती रहीं लेकिन कान थे कि भोजन की तारीफ सुनने को तरस गए, मित्र लोग तो विदा हो गए उलाहने मुझे सुनने पड़े। यानी यहां जब कुछ बोलना जरूरी था तब नहीं बोलने से बात बिगड़ गई। इस प्रसंग से मैंने जरूर सबक लिया और वह तब काम भी आया जब परलीका यात्रा के दौरान राजस्थानी भाषा को मान्यता के लिए वर्षों से संघर्षरत सत्यनारायण सोनी के निवास पर रामस्वरूप किसान, विनोद स्वामी आदि मायड़ भाषा सपूतों के साथ भोजन का सौभाग्य मिला। पेट-पूजा के बाद बातचीत करते हुए हम घर से बाहर निकल आए अचानक मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ, सोनी जी को साथ लिया और रसोईघर में व्यस्त भाभीजी से चाव से खाना खिलाने के प्रति आभार व्यक्त किया। मेरा मानना है कि चमड़े की यह जुबान बेमौसम जूतों की बारिश भी करा सकती है और यही जुबान अगली बार सुस्वादु भोजन का निमंत्रण भी दिलवा सकती है। मेरी भी कोशिश रहती है कि बोला ऐसा ही जैसा हम सुनने की ताकत भी रखते हों। वैसे कब, कैसा, कितना बोलें यह सीखना हो तो अदालत की कार्रवाई कम से कम एक बार तो देखना ही चाहिए।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

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