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Saturday 11 July 2009

कुछ तो रहम करें नन्हीं परियों के लिए

मेरे पंसदीदा गीतों में साहिर का लिखा और लता मंगेशकर का गाया 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी...´ गीत मुझे बेहद पसंद है। शायद इसकी एक वजह यह भी हो कि मेरी पहली संतान बिटिया है। अभी रह-रहकर यह गीत याद आता रहा जब मीडिया में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई कि एक दुधमुही बालिका को बाबा दीपसिंह गुरुद्वारे की चौखट पर कोई मां लावारिस हालत में छोड़ गई।यह खबर पढ़-सुन कर बाकी पाठकों की तरह मेरा मन भी दुखी हुआ। उस मां पर गुस्सा भी आया लेकिन मन यह भी कहता रहा कि कोई ऐसी मजबूरी होगी कि उसे अपने कलेजे के टुकड़े को इस हाल में छोड़ने पर विवश होना पड़ा। दूसरे दिन राहत महसूस हुई, जिस गुरु के द्वारे वह बिटिया को छोड़ गई थी उसी वाहे गुरु ने उसे सद्बुद्धि भी दी।एक मां को कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा निर्णय इसलिए लेना पड़ा की उसकी दूसरी संतान भी पुत्री हुई थी और परिजनों की जलीकटी सुनते-सुनते वह तंग आ गई थी। हकीकत जो भी हो लेकिन इस पूरे मामले में उसके पति की भूमिका सराहनीय है जिसने न सिर्फ पत्नी को समझाया बल्कि अपने परिजनों का विरोध भी सहा होगा। गुरुद्वारे की चौखट पर एक अंधेरी रात के बाद उस अबोध के जीवन में दोनों की समझ से फिर उजाला लौट आया।बेटियों के प्रति यह घटिया मानसिकता उसी समाज में है जिसका प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि विधानसभा से लेकर संसद तक में महिलाओं को 33 और 50 प्रतिशत तक आरक्षण देने की वकालत करते हैं। यह दिल दुखाने वाली घटना सोचने पर मजबूर करती है कि नारी समाज की मानसिकता में बदलाव क्यों नहीं आ रहा है।बच्चों को संस्कार या तो पाठशाला से मिलते हैं या मां के आंचल तले। विभिन्न समाजों में आज भी बेटियों के प्रति नजरिए में बदलाव तेजी से नहीं हो पा रहा है तो उसका एक मुख्य कारण कहीं न कहीं घर में मिलने वाले संस्कार और वातावरण भी है। जो सास, दादी, नानी अपनी बहू, पोतियों-नातिनों को बेटी जन्मने पर कोसती-कचोटती और लांछित करती रहेंगी तो वे बहुएं-बेटियां अपने बच्चों को विरासत में मिले संस्कार भी देंगी। टीवी चैनल पर जितने धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं फिर चाहे वह उतरन, बालिका वधू, ना आना इस देश मेरी लाड़ो हो, मेरे घर आई एक नन्हीं परी या अगले जन्म मुझे बिटिया ही कीजो... इन सब में बेटियों का क्रांतिकारी किरदार हमें पसंद तो आता है लेकिन हम अपने परिवार में आज भी बेटियों को बेटों की अपेक्षा प्यार-दुलार-सम्मान कम ही दे पाते हैं। कल्पना चावला की मौत पर हम आंसू बहा सकते हैं, सपना देखते हैं कि हमारी बेटी भी किरण बेदी जैसी बने किंतु जब पहली के बाद दूसरी संतान भी पुत्री हो जाती है तो बहू करमजली और कुलटा क्यों नजर आने लगती है। बेटियों के प्रति हमारी संकीर्ण सोच का ही नतीजा है कि असहाय मां या तो नवजात पुत्री को कंटीली झाçड़यों में फेंक देती है या गुरुद्वारे की चौखट पर छोड़ आती है।बेटियों का विरोध करने और उनके जन्म पर विलाप करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हें जन्म देने वाली मां भी तो किसी की बेटी है। अपने बेटे के लिए जिस चांद सी बहू के सपने संजो रहे हैं वह भी तो किसी मां-बाप के कलेजे का टुकड़ा है। सरकारी घोषणाओं, जिला प्रशासन की सजगता के बाद भी अस्पतालों में लिंग परीक्षण, भ्रूण हत्या के मामले नहीं थम रहे हैं तो इसलिए कि हमारी मानसिकता में बदलाव नहीं आया है। तरस तो उन अस्पताल संचालकों पर भी आता है जिनके मेटरनिटी होम के मुख्यद्वार पर तो लिंग परीक्षण कानूनी अपराध है सूचना लिखी होती है और पिछले दरवाजे से कचरापेटी में भ्रूण फेकें जाते हैं। अंधी कमाई की होड़ में कसाई को भी पीछे छोड़ रहे ये लोग शाम को उन्हीं हाथों से कैसे खाना खाते होंगे? अपनी बेटियों के सिर पर हाथ फेरते वक्त इन्हें कैसा लगता होगा?

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

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