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Wednesday 29 July 2009

आप का भी इंतजार कर रहा है वक्त

वक्त किसी का इंतजार नहीं करता यह कहना आसान लगता है लेकिन क्या हम खुद इसका पालन गंभीरता से कर पाते हैं? यदि कर पाते तो इस वक्त की कीमत भी पहचान लेते। हमारे बुजुर्ग सूर्य के तेवर और परछाई से समय का अंदाज लगा लेते थे और आज कलाई से लेकर जेब में रखे मोबाइल तक में पल-पल भागते समय की याद दिलाती घडिया मौजूद हैं लेकिन हम वक्त के प्रति कम लापरवाह नहीं हैं। हम यह भूल जाते हैं कि वक्त को हमारी जरूरत नहीं है बल्कि हमें वक्त की जरूरत है। वक्त को नजरअंदाज करते वक्त हम यह भी भूल जाते हैं कि एक वक्त वह भी आ सकता है जब खुद वक्त हमें नजर अंदाज कर देगा।

अपने बच्चों में हम वक्त के प्रति गंभीरता तब तक तो पैदा कर नहीं सकते जब तक हम खुद गंभीर न हों। दरअसल आज की जीवनशैली में हम कुछ इस तरह ढल गए हैं कि किसी काम के अंतिम दिन या अंतिम क्षणों में ही हमें वक्त की पाबंदी का खयाल आता है।
ऐसे कई उदाहरण हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं- बिजली का बिल हो या टेलीफोन का। ज्यादातर लोगों की नींद ठीक पेनल्टी वाली तारीख के दिन ही खुलती है। नतीजा यह कि उसी दिन बाकी लोगों को भी बिल जमा कराने की याद आती है। लंबी कतार, काउंटर पर पदस्थ कर्मचारी की धीमी गति और हमारे पास समय की कमी, धूप, गर्मी से परेशानी और जेब में पड़ी बाकी कामों की फेहरिस्त। जाहिर है हम मन ही मन या मौका मिलते ही सार्वजनिक तौर पर काउंटर पर बैठे कर्मचारी को टारगेट कर सारे कर्मचारियों को कामचोर का प्रमाण-पत्र जारी करने में देर नहीं लगाते। ऐसा व्यवहार आप को कुछ पल के लिए बाकी लोगों की नजर में हीरो बना सकता है लेकिन एक पल के लिए कल्पना तो करिए यदि आप ही उस कर्मचारी की जगह बैठे हों तो? तो आप भी तो पाई-पाई का हिसाब जोड़ने के बाद ही अगले ग्राहक को पुकारेंगे। इन्हीं कारणों से बैंकों में कैश काउंटर पर बैठने वाले कर्मचारी से शायद ही कोई ग्राहक खुश रहता हो।

दरअसल जब से हमने बस दो मिनट में खाना तैयार वाली बात विज्ञापनों से सीखी है तभी से हम जिंदगी के हर मोड़ पर, हर रिश्ते में भी इंस्टेंट फूड जैसा परिणाम चाहने लगे हैं। बस हम जाएं और काउंटर पर बैठा बाबू पलक झपकते ही हमारा काम निपटा दे। हां ज्यादातर लोग फिल्म देखने तो समय से पहुंच जाते हैं। जहां तक शवयात्रा या दहाके में शामिल होने की बात है तो यहां भी शार्टकट निकाल लिया है। मृतक के घर से श्मशान घाट तक का समय खराब करने से ज्यादा बेहतर लगता है सीधे कल्याण भूमि पहुंचकर शवयात्रा में शामिल होना। यही हाल दहाका में भी होता है। कौन बैठे एक घंटे अमृतवाणी में। आखिर के वक्त दो मिनट पहले पहुंचेंगे, चेहरा लटकाए शोक मुद्रा में हाथ जोड़ते फटाफट बाहर आ जाएंगे। वक्त का इंस्टेंट फूड की तरह उपयोग देखा जाए तो ठीक भी है बशर्ते आप का हर पल बिल गेट्स या मनमोहन सिंह की तरह कीमती हो।

आप यदि किसी के दुःख में सहभागी न बन पाएं, उसके आंसू न पोंछ पाएं तो कैसे संबंध और कैसा अपनापन। जब आप के लिए किसी के सुख-दुःख में शामिल होने का वक्त नहीं है तो कल आपके सुख-दुज्ख में कौन खड़ा रहेगा आपके साथ। मेरे एक परिचित हैं जिनकी अच्छी आदत का मैं भी कायल हूं उनके कार्यक्षेत्र या फे्रंड सर्कल में किसी के यहां चाहे खुशी का प्रसंग हो या दुज्ख का। वे बगैर एक पल की देरी किए बाकी साथियों को फोन करके या एसएमएस से सूचना पहुंचा देते हैं। शादी की सालगिरह हो या जन्मदिन बस उन्हें पता भर चलना चाहिए, तुरंत बधाई वाला एसएमएस पहुंच जाएगा। निजी संस्थान, कॉलेज, चिकित्सा क्षेत्र हो, बैंक, बीमा का क्षेत्र हो या आपका फ्रेंड सर्कल ही क्यों न हो हर जगह एक न एक व्यक्ति तो ऐसे मिल जाएंगे जो आप ही की तरह घर, संस्थान दुकान की जिम्मेदारी के साथ ही ऐसे सारे सामाजिक दायित्वों के लिए भी वक्त निकाल ही लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए हमारी पहली प्रतिक्रिया तो 'फालतू आदमी´ जैसे शब्दों से ही शुरू होती है। उनके द्वारा जो सूचनाएं हमें एसएमएस या फोन से चर्चा में मिलती है उनका उपयोग हम बॉस की नजरों में, रिश्तेदारों या मित्रों की नजरों में ऊंचा उठने के लिए तो तुरंत कर लेते हैं लेकिन जो फालतू आदमी हमारे लिए काम का साबित होता है उसके लिए हम धन्यवाद जैसा छोटा सा शब्द भी खर्च करना नहीं चाहते। मित्र तो दूर की बात है हमारे घर परिवार में ही हमारे बेटे-बेटियां-बहन ऐसी कई जिम्मेदारियां निभाते हैं, रिश्तेदारों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह की याद दिलाकर रिश्तों में मिठास बनाए रखने में मदद करते हैं लेकिन हमारे पास इन अपनों को भी धन्यवाद देने का वक्त नहीं है।

उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंचे और एक कमरे में कैद होकर रह जाने वाले परिवार के बुजुर्गों के लिए भी हमारे पास वक्त नहीं है जिन्होंने अपना पेट काटकर या रात-रात भर जागकर हमें व्यस्त रहने लायक बनाया। बुजुर्गों को दिन भर बोलने वाले टीवी की नहीं आपसे कुछ पल बतियाने की लालसा रहती है लेकिन हमारे पास वक्त नहीं है।

उन बुजुर्गों के पास अब बच्चे भी नहीं जाते क्योंकि वो आप से ही सीख रहे हैं। आज आपके पास अपने दादा-दादी, माता-पिता के लिए वक्त नहीं है, कल वही कमरा आपका इंतजार भी करेगा, पलंग टीवी-पंखा वैसे ही रहेगा, कमरे का कैदी बदल जाएगा। आप के बच्चे आपको 'बुड्ढा पगला गया है´ वाली हिकारत भरी नजरों से नहीं देखें इसके लिए सबसे आसान तरीका यही है कि अपनों के लिए कुछ वक्त तो निकालिए, जरा हिसाब तो लगाइए कितने साल पहले पूरे परिवार ने एक साथ बैठकर खाना खाया था। पत्नी, बच्चों के साथ संडे एंजाय करने जाते ही होंगे एकाध बार आजाद जेल में रह रहे अपने बुजुर्गों को ज्यादा लंबा नहीं तो कम से कम मंदिर दर्शन कराने ही ले जाइए। तरक्की के लिए आशीर्वाद पाना है तो पैरों तक सिर झुकाने का वक्त तो निकालना ही पड़ेगा। कहीं ऐसा न हो कि बाद में जीवन भर पछताते रहें। कहावत तो सही है कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता लेकिन मेरा मानना है यही वक्त हम सब का इंतजार कर रहा है- कुछ अच्छी शुरुआत के लिए।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

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