पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Friday, 15 January 2010

पिछली बार कब मुस्कुराए थे?

ऐसा क्यों है कि हममें से ज्यादातर को दिल दुखाने वाली यादों के रूप में ही बीता कल याद रहता है। ऐसा भी नहीं कि हमारे साथ कुछ अच्छा हुआ ही न हो। हम हैं कि दिल में लगी चोट वाले किस्से तो सीने से लगाकर रखते हैं, लेकिन होठों पर मुस्कान लाने वाली बातें या तो याद नहीं आती या चीनी के बढ़ते दाम के कारण संबंधों की चाशनी से भी मिठास वाला चिपचिपापन ख़त्म होता जा रहा है।कितना अजीब लगता है हमारे किसी नजदीकी रिश्तेदार, दोस्त की कड़वी बात तो हमें बरसों बाद भी याद रहती है लेकिन पारिवारिक प्रसंगों में उन्हीं सारे रिश्तेदारों की हंसी मजाक बहुत जल्द याद नहीं आती। और याद करते वक्त भी पहले यह देख लेते हैं कि उससे किस्से में महानायक हम ही हों।कहीं ऐसा तो नहीं कि हम खुद मुस्कुराना, ठहाका लगाना भूलते जा रहे हैं, इसीलिए या तो दूसरों को भी मुस्कान की बजाय तनाव देने में व्यस्त हैं या फिर हंसते-ठहाके लगाते लोग हमें कम पसंद आते हैं।एक दिन में हम दिल खोलकर एक बार भी नहीं हंस पाते और तो और बे-आवाज मुस्कुराना भी भूलते जा रहे हैं या यह भय सताने लगता है कि मुस्कुराने की जानकारी आसपास वालों को लग जाएगी तो समाज में हमारी इज्जत घट जाएगी।जरा याद तो कीजिए पिछली बार कब ठहाका लगाया था, एक सप्ताह में कितनी बार मुस्कुराए? नए साल में अच्छे-बुरे का हिसाब रखने में डायरी बहुत जल्द भर जाएगी। एक महीने यही प्रयोग कर लें कि एक दिन में कितनी बार मुस्कुराए, कितनी बार नाराज हुए। मुझे लगता है कि बहुत कम के खाते-बही में मुस्कुराहट के आंकड़े बढ़ेंगे।पहले तो अच्छे प्रसंग, पीड़ादायी प्रसंग पर अपनों से फोन पर बात भी कर लेते थे अब तो ये अपनापन भी मुफ्त की एसएमएस सर्विस में सिमट कर रह गया है। कई बार व्यस्तता, याद न रख पाने की कमजोरी, किसी पुरानी घटना की टीस, मैं ही क्यों फोन लगाऊं- जैसे थोथे अहं के कारण हम संबंधों की डोरी इतनी खींच देते हैं कि टूटने पर यह भी तय नहीं कर पाते कि किसने ज्यादा जोर से खींचा था इसे। संबंधों की डोरी में लचीलापन रहे तो ही मुस्कान और नाराजी का दैनिक हिसाब-किताब भी संतोषजनक रहेगा। हमारा परिवारं, 'मेरा परिवारं और अब हम 'मैं के दायरे में सिमट गए हैं। यानी अपनी खुशी के लिए मैं दूसरे का दर्द देखना ही नहीं चाहता, जबकि पचास रुपए के गुलदस्ते से ज्यादा खुशी तो हम किसी को एक हल्की सी मुस्कान से दे सकते हैं।मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों ने मुफ्त बातचीत जैसी सुविधा भी दे रखी है फिर भी हम इगो के इस कोहरे से बाहर नहीं आ पा रहे हैं कि 'मैं पहले फोन क्यों करूं? एसएमएस से जोक सेंड करने में तो हम उदार हो गए हैं, हमें भी खूब एसएमएस मिलते हैं। जब हमारे होठों पर मुस्कान नहीं आती तो कैसे मान लें कि बाकी लोग भी ठहाके लगाते होंगे। यह तो वैसा ही हुआ कि किसी भूखे को क्वरोटीं लिखा कागज थमा दिया जाए। बाकी लोगों को नाराज होते रहने दीजिए, हम तो मुस्कुराना सीख लें। दिखावा और होड़ करनी ही है तो मुस्कुराहट बिखेरने में कीजिए, क्योंकि गाड़ी-कोठी के मामले में तो हर आदमी दूसरे के सामने बौना हो ही जाता है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

2 comments:

  1. yaad nahi aa raha......kab muskuraayaa thaa.

    haan, ab jab kabhi bhi hasungaa yaa muskuraaungaa to uski date, time, or event apni diary main note kar lungaa. haha hahaha ha.

    bahut badhiyaa likhaa hain aapne. excellent.

    thanks.


    chander kumar soni
    www.chanderksoni.blogspot.com

    ReplyDelete
  2. अब तो अर्सा बीता...अगले हफ्ते फिर मिलियेगा..फैरुं

    ReplyDelete