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Thursday 9 April 2009

कुछ तो रहम कीजिए, गाय ने क्या बिगाड़ा है आपका!

साथियों के साथ कार्यालय में हम लोग नाश्ता कर रहे थे। मैंने कचोरी खाना शुरू ही की थी कि कंकर आ गया। मैंने पानी का घूंट लिया दांतों के बीच फंसे कंकर को निकालने के लिए सिर हिलाया जैसे-तैसे दांतों में पिस चुका कंकर तो निकल गया लेकिन इस सारी प्रक्रिया के दौरान मुझे सुखाçड़या सर्किल वाली सड़क के किनारे कचरे के ढेर के पास खड़ी वह गाय याद आ गई जिसके दांतों में पोलीथिन की थैली उलझी हुई थी और वह सिर को हिला-हिलाकर थैली में भरे फलों के छिलके-जूठन खाने के प्रयास में असफल होने के बाद पूरी थैली ही जबड़ों में चबाने के बाद निगल रही थी। कचोरी के मसाले में आए एक जरा से कंकर ने मुझे जितना विचलित किया उससे ज्यादा मुझे अब उस गाय सहित तमाम पशुओं पर दया आ रही थी जो अंजाने में हमारी गलतियों के कारण मौत का शिकार हो रहे हैं। कचरे के ढेर में पोलीथिन की थैलियों में भरकर फेंकी गई जूठन के लिए झपटते जानवरों को आपने भी देखा ही होगा। लगभग सभी परिवारों की आदत सी हो गई है सुबह जिस थैली में किरयाने का सामान या सŽजी लाते हैं उन्हीं थैलियों में रात की बची सŽजी, जूठन, कचरा आदि भरकर महिलाएं सड़क पर या समीप वाले खाली प्लाट पर एकत्र कचरे के ढेर की तरफ उछाल देती हैं। यही पोलीथिन न जाने कितनी गौमाता की हत्या के पाप का भागीदार बना रही है हमें। मोटे इनाम के लालच के साथ आपको कोई पोलीथिन में पैक पकवान खाने को दे तब भी आप साहस नहीं दिखाएंगे, क्योंकि हमे अपनी जान प्यारी है। जब हमें अपनी इतनी चिंता है तो मूक जानवरों की जान के ग्राहक बनते वक्त क्यों नहीं हिचकिचाते! परिवार के मंगल कायोZ में तो हम सवा पांच रुपए का संकल्प छोड़कर गौ दान का पुण्य कमा लेना चाहते हैं लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब हम गौ हत्या के ऐसे प्रयासों में भागीदार न बनते हों। रसोईघर में खाना बनाते वक्त गृहणियां पहली रोटी गाय की निकालती हैं और अंत में बचे आटे की रोटी कुžो के नाम होती है। यानी पीढ़ियों से संस्कार तो हमें जीव रक्षा के ही मिले हैं किंतु पोलीथिन वाले कुसंस्कार हमें मूक पशुओं की नजर में पापी बना रहे हैं। वैसे तो नगर परिषद का दायित्व है शहर को पोलीथिन प्रदूषण मुक्त बनाना, याद आती है तो अभियान चलाया भी जाता है लेकिन असर इसलिए नहीं दिखता कि परिषद का अमला ड्यूटी समझकर काम करता है। शहर में बारिश के महीनों में बाढ़ की जो स्थिति बनती है उसमें और सफाईकर्मियों के चाय-पानी के इंतजाम में भी पोलीथिन का बड़ा योगदान है। पोलीथिन का विकल्प कागज नहीं तो कपड़े की थैलियां भी तो हो सकती हैं। गौ माता की चिंता करने वाले संगठनों को ही कुछ करना चाहिए ताकि ये शहर पोलीथिन के इस पाप से मुक्त हो सके। प्रशासन भी समझाए दुकानदारों को कि हल्की क्वालिटी वाली पोलीथिन का उपयोग न करें, फल-बिस्किट बांटने वाले क्लब सस्ते मूल्य पर कपड़े या जूट की थैलियां उपलŽध कराएं तो पोलीथिन का उपयोग स्वतज् कम होने लगेगा। याद रहेंगे `हमारे हनुमानं
जैसे रामायण बिना हनुमान के जिक्र के अधूरी मानी जाएगी वैसे ही श्रीगंगानगर के ऐतिहासिक कार्यक्रमों की चर्चा `हमारे हनुमानं के उल्लेख बिना पूरी नहीं होगी। धार्मिक कार्यक्रम तो इस शहर में होते ही रहेंगे लेकिन सफलता वहीं नजर आएगी जहां मारवाड़ी युवा मंच जैसी टीम और रवींद्र लीला जैसे टीम लीडर होंगे। कार्यक्रम चाहे छोटा हो या बड़ा, ऐसी सफलता तभी मिल सकती है जब कार्यकर्ताओं में टीम भावना हो। दूर क्यों जाएं क्रिकेट कप्तान महेंद्रसिंह धोनी और टीम इंडिया को ही देख लें ऐतिहासिक सफलता का कारण टीम भावना ही तो है।
वक्त की कीमत कब पहचानेंगे
बात संस्कारों की चली है तो हमें बचपन से वक्त के साथ चलने की सीख दी जाती है लेकिन हम हैं कि वक्त को अपने मुताबिक चलाने में शान समझते हैं। नतीजा यह होता है कि समय का समान करने वालों की स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। बिहाणी शिक्षण न्यास के कवि समेलन में नामचीन कवि गोपालदास नीरज को सुनने समय से क्भ् मिनट पहले पहुंचे श्रोताओं ने तो आमंत्रण पत्र के निर्देशों का पालन किया लेकिन आयोजकों ने ही करीब डेढ़ घंटे विलंब से कार्यक्रम शुरू किया। कवि, आयोजक और श्रोता तीनों ही वर्ग पढ़े-लिखे हैं, बचपन से कई परीक्षा दी और एक-एक मिनट का महत्व भी पता है। सभा-समेलनों में विलंब से पहुंचने वाले लोग सिनेमा, शोक बैठक, रेल-प्लेन की यात्रा में ठीक समय से पहुंचना भी जानते हैं लेकिन अवसर मिलते ही वक्त को अपने मुताबिक चलाने में नहीं चूकते। कवि नीरज के कारण समेलन में थोड़े बहुत लोग नजर भी आए बाकी कवि तो बस ठीक ही थे।
पहले çढलाई और अब सफाई
हनुमानगढ़ में कलेक्टर ने सेंट्रल जेल का जब से आकçस्मक निरीक्षण किया है जेल अधिकारी सफाई के पैबंद लगाने में पसीना बहाए जा रहे हैं। यह तो ऐसा ही हुआ कि अंधे को अंधा क्यों कहा। जेल में चलने वाले खेल किसी से छुपे नहीं हैं लेकिन स्टाफ की हालत उस बिल्ली के समान है जो दूध पीते वक्त आंखें यह सोचकर मूंदे रहती है कि बाकी लोगों ने भी आंखें बंद कर रखी होंगी। अच्छा होता कि जेल प्रशासन अपनी खमियां दूर करने में सजगता दिखाता। खैर, इस अवलोकन का असर यह हुआ कि श्रीगंगानगर में भी प्रशासन थोड़ा अलर्ट हुआ। प्रशासन की अलर्टनेस के भी क्या कहने? तपोवन Žलड बैंक स्टाफ ने जिले के गांव में शिविर लगाया तो अनुमति नहीं होने का हवाला देकर Žलड बैंक वालों को चमका दिया। दो साल में शासन ने अनुमति नहीं दी तो Žलड बैंक वालों का क्या दोष? कहीं न कहीं बात आती तो जिला प्रशासन पर ही है।
अगले हपते फैरूं, खमा घणी-सा.

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