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Monday 10 May 2010

जरा संभलकर, बहुत नाजुक है रिश्तों की डोर

रिश्तों की डोर बहुत नाजुक होती है। अंह का हल्का सा झटका लगने पर टूट जाती है। जोडऩे के लिए इतनी गठानें न लगाएं कि यह डोर मजबूत रस्सी जैसी हो जाए। रिश्तों की रस्सी जब इन गठानों के कारण उलझ जाती है तो हमें पता ही नहीं चल पाता कि नाजुक डोर को आखिर किसने खींचा था जोर से। ये गठानें शक की नींव पर नफरत की दीवार को इतना मजबूत कर देती हैं कि जब हम रोना चाहते हैं तो किसी अपने का न तो कंधा मिलता है और न ही कोई हमारे सिर पर हाथ फेरने वाला रहता है। मनी वाले रिश्तों में धन रहने तक ही मन बना रहता है वरना तो ये रिश्ते नीम से कड़वे हो जाते हैं।
रिज मैदान पर सुबह के वक्त बच्चे क्रिकेट और फुटबाल खेलते देखे जा सकते हैं। क्रिकेट की बॉल हो या फुटबाल वह जितनी ताकत से फें की जाती है उतनी ही तेजी से लौट कर भी आती है। ये खेल कुछ देर देखने पर मुझे लगा कि हम सब का जीवन भी तो ऐसा ही है। आपसी रिश्तों को हम जिस तरह निभाते हैं, रिप्लाय भी हमें वैसा ही मिलता है।
हमारे एक परिचित हैं वो दान धर्म भी अपने अंदाज में करते हैं। जब मंदिर या किसी धार्मिक कार्यक्रम में जाते हैं तो दस रु के आठ वाले केले तलाशते हैं और जब अपने बच्चों के लिए फल ले जाना हो तो मोलभाव करने के साथ ही यह भी ध्यान रखते हैं कि केले, आम दागदार, पिलपिले न हों। उनका तर्क रहता है पैसा अच्छा दे रहे हैं तो माल क्यों घटिया लें।
क्या हम संबंधों को भी इसी तरह नहीं निभाते। जब रिश्तेदारी में खर्च वाले किसी प्रसंग शादी, बर्थ डे, राखी, वैवाहिक वर्षगांठ आदि में हमें शामिल होना हो तब हमारी कोशिश रहती है कि जितना सस्ते से सस्ता उपहार मिले ले जाएं। अपने ही मन से हम तर्क भी गढ़ लेते हैं, आजकल गिफ ्ट वगैरह देखता कौन है, ये तो औपचारिकता केे कारण ले जा रहे हैं। हमारे संबंध तो इतने आत्मीय हैं कि उसके सामने ये गिफ्ट तो बेमतलब है, पर क्या करें बाकी लोग लाएंगे और हम खाली हाथ जाएं यह अच्छा भी तो नहीं लगता।
जब हमारे यहां ऐसा कोई शुभ प्रसंग आता है तो हमारी सोच पल भर में बदल जाती है। अब हम तोहफे का रैपर खोलने से पहले ही उसे ठोंक बजा कर अंदाज लगा लेते हैं कि अंदर क्या है। तोहफ े या साड़ी को देखकर उसका मूल्य आंकने के साथ ही नफा नुकसान की समीक्षा भी हाथों-हाथों करते चलते हैं। बस इसी वक्त हम भूल जाते हैं कि हमने तब कैसी गेंद फेंकी थी।
रिश्तों की इस नाजुक डोर को हम जरा-जरा सी बात में इतनी जोर से खींचते रहते हैं कि यह पता ही नहीं चलता कि डोर कितनी बार टूट गई और उसमें कितनी गठानें लग गर्इं। जब धागे में गठानें लगती जाएं तो वह रस्सी की तरह मजबूत हो जाता है और यह मजबूत गठानें दिलों में दरार, रिश्तों के बीच दीवार खड़ी करने का काम करती हैं। ऐसे सारे कारणों से तो कोठीनुमा मकान मेरे-तेरे क मरों में तब्दील हो जाते हैं।
रिश्तों को जब लेन-देन के तराजू पर तौला जाने लगे तो उनमें रिसन पैदा हो जाती है। यह स्थिति तब बेहद त्रासदायी हो जाती है जब हमें अपनी खुशी सेलिब्रेट करते वक्त तो अपनों की कमी खलती ही है, दुख का पहाड़ टूटने पर सिर रख कर रोने के लिए कंधे तक नहीं मिलते। कहते तो यह भी हैं कि जेब में पैसा हो तो रिश्तेदारों की फौज खड़ी हो जाती है लेकिन यह फौज भी तभी तक अपना प्रेम प्रदर्शित करती है जब तक तिजोरी और जेब से नोट झलकते रहते हैं। आसपास ही नजर डाल लें कभी करोड़ों में खेलने वाले ऐसे एक दो रोडपति तो मिल ही जाएंगे जिनके लिए खून बहाने का दावा करते रहने वाले भाई भाभी अब किसी और करोड़पति के लिए अपनापन दिखाने में जुटे हुए हैं । पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है लेकिन रिश्तों में अपनेपन की गर्माहट के लिए पैसा तो जरूरी नहीं होता। खेल के मैदान में तो जीतने के लिए बॉल तेज फेंकना अनिवार्यता ही है लेकिन बात जब नाजुक रिश्तों की हो तो इतनी तेज बॉलिग जरूरी नहीं है कि सामने वाले के दिल को चकनाचूर कर दे। रिश्ते तो तलवार की धार पर नंगे पैर इस तरह चल कर दिखाने की कला है कि पैर घायल भी ना हों और लोग आपके कायल हो जाएं।

3 comments:

  1. bahut hee badhiya vicah hain aapke , uttam

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  2. बहुत बढ़िया लिखा हैं आपने.
    आपने इस लेख के माध्यम से आम-आदमी को, जन-मानस को झकझोरा हैं.
    आजकल के लोगो के विचारों की तुच्छता का भान कराया हैं आपने.
    हार्दिक आभार.
    धन्यवाद.
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