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Thursday, 1 April 2010

बिन बोले बहुत कुछ कहते हैं ऊंचे पहाड़ और छोटे रास्ते

पहाड़ों के बीच जब हम पहुंचते हैं तो 'जो कुछ हैं हम ही हैं वाला अहं सर्पीले रास्तों वाली ढलान से फिसल कर कहां चला जाता है। हमें इसका अंदाज तक नहीं लग पाता। ऊंचे पहाड़ों के बीच सुरक्षित शिमला की खूबसूरती देखने के लिए देश-विदेश से आने वाले सैलानियों को ये पहाड़ और इन पहाड़ों के बीच से होकर गुजरने वाले रास्ते कद, पद और मद की शून्यता का अहसास भी करा देते हैं।
माल रोड पर दिन में कई चक्कर लगाने वालों को बहुत जल्द ही यह पता चल जाता है कि रास्तों का उतार-चढ़ाव सांस फुला देने वाला होता है कोई सैलानी कुली से ज्यादा मोल भाव नहीं करना चाहता। दुकानों से सामान खरीद कर जब मालदार लोग बाहर निकलते हैं तो खरीदे गए सामान पर लोगों की नजर पड़े ना पडं़े इन सैलानियों की नजर जरूर कुली को तलाश रही होती है कि सब कुछ उसके हवाले कर के खाली हाथ सफर करें। ये पहाड़ सैलानियों को जीवन दर्शन कराते हैं कि जितना ऊंचा उठने की सोचोगे उतना ज्यादा खाली हाथ होना पड़ेगा। बात जीवन की अंतिम यात्रा की करेंं तो गौरीशंकर से मिलन के लिए भी तो निर्भर होकर ही पहुंचा जा सकता है।
जैसे अंतिम यात्रा पर जाते वक्त हम अपने साथ लाव-लश्कर नहीं ले जा पाते, उसी सत्य को ये पहाड़ भी बड़ी सहजता से समझाते हैं कि ज्यादा बोझ साथ रखोगे तो सांस फूल जाएगी, आसानी से सफर तय नहीं कर सकोगे। पहाड़ों की भाषा किसी को समझ न आए तो जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ाव की याद दिलाते, छोटी-छोटी सीढिय़ों को साथ लेकर चलने वाले संकरे रास्ते भी बताते चलते हैं कि इन पहाडों के सामने अपने पद और कद की अकड़ दिखाने की कोशिश भी मत करना, क्यों कि पहाड़ों केे आगे सिर्फ पहाड़ों की ही अकड़ चलती है। मुझे तो लगता है कि इन पहाड़ों को भी पता है कि उनकी यह अकड़ भी दर्शन काबिल तभी है जब अकड़बाज सैलानी यहां तक आ-जा सकें। इसीलिए इन पहाड़ों ने अपने से छोटे, तुच्छ समझे जाने वाले रास्तों को भी गले लगा रखा है। आसमान छूने को आतुर सी लगतीे चोंटियां और इनके बीच तंगहाल जिंदगी की तरह गुजर-बसर करते इन रास्तों की पहाड़ों से जुगलबंदी कृष्ण-सुदामा की मित्रता सी लगती है।
सैलानी यह संदेश लेकर भी जाते ही होंगे कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊंचा उठने वालों को सदैव याद रखना चाहिए कि जाने कितने छोटे-छोटे लोगों का सहयोग रहता है किसी एक को पहाड़ जैसी ऊंचाई तक पहुंचाने में। ये पहाड़ तो कुछ कहते नहीं लेकिन जो इन से मिलकर जाते हैं उन्हें तो ताउम्र याद रहता ही होगा कि झुककर चलने वाले ही ऊंचाई तक पहुंच पाते हैं और लंबे वक्त तक चोटी पर बने रहने के लिए अनुशासन, संयम और त्याग जरूरी होता है वरना तो एक जरा सी गलती पल भर में गहरी घाटियों के हवाले कर देती है। ऊपर आने का मौका तलाश रहे लोग तो वैसे भी घात लगाए बैठे रहते हैं कि शिखर पर शान से खड़े व्यक्ति से कोई चूक हो और उन्हें टांग खींचने का मौका मिल जाए।

8 comments:

  1. "सैलानी यह संदेश लेकर भी जाते ही होंगे कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊंचा उठने वालों को सदैव याद रखना चाहिए कि जाने कितने छोटे-छोटे लोगों का सहयोग रहता है किसी एक को पहाड़ जैसी ऊंचाई तक पहुंचाने में।"

    Ati uttam baat kah dee Rana ji

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  2. bilkul sahi kaha hai aadarniya godiyaal ji ne...


    kunwar ji,

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  3. सर,
    शिमला की खूबसूरती हमेशा से मुझे आकर्षित करती रही है। पर इसके बहाने जो आज आपने जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया है, उसने मुझे कहीं अधिक मुग्ध किया। बहुत प्रेरणास्पद लेख।
    चेतना

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  4. ये पहाड़ तो कुछ कहते नहीं लेकिन जो इन से मिलकर जाते हैं उन्हें तो ताउम्र याद रहता ही होगा कि झुककर चलने वाले ही ऊंचाई तक पहुंच पाते हैं और लंबे वक्त तक चोटी पर बने रहने के लिए अनुशासन, संयम और त्याग जरूरी होता है वरना तो एक जरा सी गलती पल भर में गहरी घाटियों के हवाले कर देती है। ऊपर आने का मौका तलाश रहे लोग तो वैसे भी घात लगाए बैठे रहते हैं कि शिखर पर शान से खड़े व्यक्ति से कोई चूक हो और उन्हें टांग खींचने का मौका मिल जाए
    बढिया संदेश दे रहा है आपका लेख !!

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  5. आदरणीय राणा जी,
    सादर वन्दे!
    आप वैदिक सरस्वती नदी के पाट से यक-ब-यक उद्गम[शिवालिक] की ओर चले गए।यह यात्रा तो वैदिक काल मेँ[नोहर से] ऋषि विश्वामित्र ने की थी।खैर!आपका श्रीगंगानगर प्रवास हमें प्रेरणा देता रहा।आगे भी दूरस्थ पहाड़ियोँ से प्रेरण देते रहेँगे।ईश्वर
    आपकी मेधा व शब्द की मारक क्षमता अक्षुण रखे!आमीन!

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  6. पिछला वीरवार भी निकल गया और कल वीरवार भी निकल जाएगा...और फिर आगे ...निकलता ही चला जाएगा..लेकिन अब यह एक स्मृति ही बन गया शायद...कि कल वीरवार को दैनिक भास्कर में पचमेल पढ़ना और प्रतिक्रिया देना...बुरा आदमी मिलने पर दुखी करता है. और सज्जन बिछुड़ने पर .....आपकी बहुत याद आती है..राणा जी...इतना प्रेम क्यों दिया अपने कि हम याद करके दुखी हो रहे हैं...आज पढ़ा...बिन बोले बहुत कुछ कहते है..पहाड़....गजब...बहुत ही अच्छा लिखा है कि झुक कर चलने वाले ही ऊँचाई तक पहुँच पाते हैं. मजा आ गया पढ़ कर ...ऐसा लगा मानो हमने भी आपके साथ पहाड़ की यात्रा की है...बधाई.

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  7. कीर्ति जी इस बात में कोई शक नहीं है कि पहाड़ बहुत कुछ कहते हैं , पहाड़ों को जिसने समझा उसी ने जिन्दगी का राज जान लिया .नारायण ठाकुर

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