पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 16 September 2009

अपने ही होते हैं आंसू बहाने वाले

फोन पर जानकारी मिली कि हमारे एक परिचित के बेटे की बाइक स्कूल से लौटते वक्त किसी अन्य वाहन चालक से टकरा गई है। हालांकि उनके बेटे को चोट वगैरह नहीं लगी थी लेकिन हमारा मन नहीं माना। क्योंकि जब किसी भी बच्चे के साथ कोई अनहोनी, अकल्पनीय घटना होती है तो हमें अपने बच्चों की चिंता सताने लगती है और जब कोई अंजान बच्चा उपलब्धियों के झंडे गाड़ता है, तब भी हमें तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच पर मुस्कुराते उस चेहरे में अपने बच्चे नजर आते हैं।
जितनी भी देर हम वहां बैठे मुझे रह-रहकर दिमाग में ये पंक्तियाँ याद आती रहीं, 'हम उन्हें ही रुलाते हैं जो हमारी परवाह करते हैं।' बाइक-लूना की टक्कर में गाड़ी ही डेमेज हुई थी, बच्चा सुरक्षित था। मां-बाप बेटे को हिदायत दे रहे थे- भगवान का शुक्र है कि कुछ नहीं हुआ। एक तरह से यह तेरे लिए चेतावनी है, गाड़ी धीरे चलाया कर!
परिजनों की समझाइश को अनसुनी करते हुए पुत्र बार-बार एक ही वाक्य दोहराए जा रहा था- मुझे चोट तो नहीं लगी न, आप लोग बेवजह परेशान हो जाते हैं। आपको तो यही लगता है मैं गाड़ी तेज चलाता हूं।
आंसुओं को बरबस रोकने की कोशिश करते और वाहेगुरु का शुक्रिया अदा करते हुए मां कह रही थी- पुत्तर तैनूं चोट तां नईं लग्गी, जे कुझ घट-वद हो जांदा तां की करदे? पुत्तर था कि हाथ में बंधे डोरे दिखाने के साथ ही बात को घुमा रहा था- माता रानी का डोरा बंधा है कैसे होता कम ज्यादा। मेरे फ्रेंड सही कह रहे थे, ये सितंबर महीना सभी के लिए खराब है।
एक्सीडेंट छोटा सा सही लेकिन हुआ तो था। मुझ सहित उसके परिजनों को तो यह दिन शुभ लग रहा था कि एक्सीडेंट के बाद भी वह सही सलामत था। हमारी सोच भी अपने शुभ-लाभ के मुताबिक तय होती है। किसी दिन कुछ अच्छा हो जाए तो दिन को सेहरा बांध देते हैं और कुछ अशुभ हो जाए तो उसी दिन के मुंह पर कालिख पोत देते हैं। कैलेंडर गवाह है कि रविवार के बाद सोमवार का आना तय है लेकिन हर सवाल के जवाब की फीस लेने वाले प्रकांड ज्योतिष भी यह दावा नहीं कर पाते कि अगला पल उनके लिए कैसा रहने वाला है। ऐसे में यदि हम अपने स्तर पर सजगता, सावधानी और समझ से काम लें तो हमें दिन को दोषी ठहराने का बहाना शायद ही ढूंढना पड़े। रही बात गंडे-ताबीज और माता रानी के डोरे की तो आंसुओं में भी आशीर्वाद की इबारत लिखने वाले मां-बाप से बड़े कोई देवी-देवता हो नही सकते। फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तमाम देवी-देवताओं ने भी मां-बाप का प्यार पाने के लिए जन्म लिया है। कच्चे धागों के प्रति तो हम अटूट विश्वास रखते हैं लेकिन मां-बाप की समझाइश में छुपी हमारे भविष्य की खुशहाली का एहसास हमारे मन को नहीं छू पाता। अपनों के आंसू हमें इसलिए अनमोल नहीं लगते क्योंकि वह हमारी खुशहाली के लिए बहाए जाते हैं।
शायद ही कोई परिवार हो जहां ऐसे दृश्य दिखाई न देते हों। जिसने नौ माह पेट में रखा, जन्म दिया, मुसीबतें झेल कर बड़ा किया, उस मां और हर सुख उपलब्ध करवाने वाले पिता की सीख और समझाइश पर झुंझलाते बच्चों को पेरेंट्स की आंखों में कैद खारे पानी का समंदर नजर नहीं आता। अब तो लगता है मदर्स डे, फादर्स डे, टीचर्स डे के लिए फूल और उपहार पर खर्च भी अधिकांश बच्चे इसीलिए करते हैं कि बाकी 364 दिनों के लिए फिर से अपने मन की करने, अपनों का दिल दुखाने का नया खाता शुरू कर सकें। उपहार भेंट कर आप अपनी भावना प्रदर्शित करना तो जानते हैं लेकिन जरूरी यह भी है कि अपनों की भावना को समझना भी सीखें।
दिल रोए और चेहरा मुस्कुराता नजर आए इसके लिए मां से बढ़िया और कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। बच्चे को लगी हल्की सी चोट पर रात भर जागने वाली मां की चिंता को बच्चे भले ही मजाक में उड़ा दें लेकिन क्वचोट तो नहीं लगीं यह पूछते वक्त भी वह अंदर ही अंदर रोती रहती हैं। ज्यादातर माएं तो अब 'मन ही मन रोना फिर भी मुस्कुराते रहना' इसलिए भी सीख गई हैं क्योंकि जिन बच्चों के हल्के से दर्द पर वे खाना-पीना भूल जाती हैं, उन बच्चों को पता ही नहीं है कि दर्द और आंसू क्या होते हैं।
किसी को भी रुलाना ज्यादा आसान है लेकिन हंसाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। अब तो चाहे पेट में गुदगुदी करो या पंजे में। कई लोगों के चेहरे पर हंसी तो दूर हलचल तक नजर नहीं आती। सब कुछ पाने की आपाधापी में हम परवाह करने वालों के आंसुओं को भी नजरअंदाज करने लगेंगे तो मिलने वाली खुशियां भी बदकिस्मती में बदलती जाएंगी। हमारे परिवारों में तो बेमतलब हंसना भी पागलपन की नजर से देखा जाता है। ऐसे में अपनी नासमझी से परिजनों के लिए आंसुओं को आमंत्रित करना समझदारी तो नहीं कही जा सकती।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

17 सितंबर के पचमेल पर पाठकों के विचार
अपनों का दर्द अपने लोगों को जब तक समझ आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है फिर वो अपने ही बहाते हैं आंसू

दीनदयाल शर्मा, साहित्यकार, हनुमानगढ़

भाईसाब, आप के पचमेल ने तो सचमुच भावुक कर दिया, मेरी संवेदनाओं को छूने वाला, बहुत अच्छा, अद्भुत है।

सीपी जोशी, उद्यमी

पचमेल भावपूर्ण है, सधी हुई भाषा में समाज को संस्कृत करने का अच्छा प्रयास है, अभिव्यक्ति भी लाजवाब, साधुवाद।

एसएन सोनी, राजस्थानी भाषा साहित्यकार, परलीका।

आपके कॉलम में निरंतर निखार आ रहा है। इसे सीधे रोजमर्रा के मुद्दे से जोडें, जैसे यह टॉपिक रखा है। इसमें धीरे-धीरे व्यंग्य का पुट आता जाएगा।

गंगासिंह, पूर्व कर्मचारी, 97832-२२१२२

आज का पचमेल तो बहुत बढ़िया है, दिल को छूने वाला है। बृहस्पतिवार का इंतजार रहता है।

ज्योतिष जगदीश सोनी, 93527-04003

ये लेख ऐसा है, बाकी कुछ पढूं ना पढूं इसे जरूर आंखों से गुजार लेता हूं। ये लेख बहुत भावुक करने वाला है, ऐसे ही लिखते रहिए।

जनार्दन स्वामी, को-ऑप। बैंक, हनुमानगढ़, 94623-94625

आप जमीन से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं, आज का लेख बहुत अच्छा है।

हरिराम बिश्नोई, एडवोकेट, 94149-53121

बहुत अच्छा लगा, मेरे बेटे को भी बहुत पसंद आया। आप रोज लिखें।

पत्रकार राजेंद्र उपाध्याय, सूरतगढ़

आपने अभिभावकों के दर्द के साथ ही बच्चों को भी समझाइश दी है।

टीकमचंद, व्यवसायी, श्रीगंगानगर।

3 comments:

  1. सही कहा..सार्थक आलेख. खम्मा घणी-सा.. :)

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  2. namaste k.r.ji,
    mujhe aapki is post se purntayaa sehmat hoon. aapki baat sachchaai bhari hain.sach hi hain-"hamaare apne hi hamaare aansu bahaate hain." lekin un logo ka kya kare, jo dikhaawaa karte huye ghadiyaali-aansu bahaate hain????
    thanks.

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  3. कीर्ति राणा साहब,
    राजसमन्द में मेरी पोस्टिंग के दौरान आपसे बात हो जाती थी.उसके बाद संपर्क नहीं कर पाया.वैसे आपनी भासा ब्लॉग पर तो वैसे है आपकी छाप है जिसे मैं लगातार पढता हूँ.अब आपके ब्लॉग पर रचनाओं का आनंद लेंगे.आपके पचमेल के रंगो का बेसब्री से इन्तजार करेंगे.
    बधाई और आभार.
    प्रकाश सिंह

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