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Thursday 10 September 2009

सुख को परखने के लिए दुख उम्दा कसौटी

नए शहर में मेरे मित्र अधिकारी ने ज्वाइन तो कर लिया लेकिन कई दिनों से कोई खबर नहीं मिलने पर मैंने ही फोन लगा लिया। घर-परिवार की बातों के बाद जब नई जगह और नौकरी को लेकर जानकारी चाही तो उनकी बातचीत से लगा कि संसार में उनसे ज्यादा दुखी कोई और नहीं होगा। तनख्वाह में कमी नहीं सुविधाएं यथावत, रुतबा पहले जैसा ही। दिक्कत थी तो यह कि उन्हें शहर रास नहीं आ रहा था। इससे पहले वाले शहर की खासियत इस उत्साह से गिना रहे थे, जैसे वहां तीन साल नहीं पीढ़ियों से रहे हों।
मैं उनकी बातें सुनते-सुनते लगभग ऊबने लगा था लेकिन हां-हूं करता रहा तो इसलिए कि कुरेदा भी तो मैंने ही था। अचानक वो बोले-मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां पोस्टिंग होगी। बातचीत का सूत्र मैंने झपटते हुए पूछा यदि आपकी पहली पोस्टिंग वहां के बजाय इस शहर में हो जाती तो? इस तो का कुछ पल जवाब नहीं आया, मैंने फिर प्रश्न दोहराया। ठंडे स्वर में उनका जवाब था-नौकरी तो छोड़ नहीं सकते, ज्वाइन करते और क्या! अब उनकी भाषा किंतु, परंतु, फिर भी, लेकिन वाली हो गई। भाव यही था कि ये शहर वैसे इतना बुरा भी नहीं है।देश काल, परिस्थितियां बदल जाती हैं, लेकिन हम सबके साथ भी अक्सर ऐसा होता रहता है। कुल मिलाकर सारे मामलों में सुख-दुख जुड़ा होता है। वैसे देखा जाए तो सुख को परखने के लिए दुख से उम्दा कोई कसौटी है भी नहीं। हमें आंख के साथ आंसू याद रहते हैं, दिन के साथ रात, बहार के साथ पतझड़ की याद रहती है फिर सुख के दिनों में बेफिक्री की जिंदगी गुजारते वक्त यह याद क्यों नहीं रहता कि दरवाजे के पीछे दुबका हुआ दुख भी तो अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रहा है।
अच्छा तो यही है कि पहले दुख हमारा आतिथ्य स्वीकारे क्योंकि वही तो हमें सुख की प्रतीक्षा करना सिखाता है। दुख में अकेला दिन ही 24 घंटे का हो जाता है लेकिन सुख में दिन-रात 12 घंटे के हो जाते हैं। दुख है कि काटे नहीं कटता और सुख पलक झपकते ही फुर्र हो जाता है। पता है कि कहने से दुख कम होगा नहीं, सहना हमें ही पड़ेगा फिर हंसते हुए भी तो ये दिन काट सकते हैं, दुख के दंश बिना सुख की अनुभूति भी कहां होती है। केदारनाथ और वैष्णोदेवी की यात्रा करने वाले थकते-हांफते-पसीना बहाते, दवाइयां खाते जैसे-तैसे दरबार में पहुंचते हैं। बस चौखट पर कदम रखते ही सारा दुख पलक झपकते हवा हो जाता है। जितने घंटे की यात्रा करके मंदिर तक पहुंचते हैं। चाहकर भी उतने वक्त मंदिर में नहीं रुक पाते। लौटते वक्त परेशानियों वाली वही ऊबड़-खाबड़ राह हमें दुखों से जूझने में अभ्यस्त कर चुकी होती है। ज्यादातर प्राचीन मंदिर और शक्तिपीठ पहाड़ों वाले रास्तों पर संभवतज् इसीलिए स्थापित हैं कि हम दुख के बाद मिलने वाले सुख को जान सकें।जो जिंदगी मिली है जब वही स्थायी नहीं है तो यह मानकर हताश होना भी ठीक नहीं कि दुख तो पीछा नहीं छोड़ेगा। अपने उत्पाद बेचने के लिए बड़ी कंपनियों ने एक के साथ एक फ्री की स्कीम अब चलाई है, हमें तो जन्म लेते ही सुख-दुख के उपहार साथ मिल जाते हैं। जो दुखी है वह सुख की लालसा में सूखे जा रहा है और जो सुखी है उसे इस चिंता में नींद नहीं आती कि कोई उसे सफलता के उस शिखर से नीचे न धकेल दे। कांटों से घिरा रहने के बाद भी गुलाब अपनी खूबसूरती और खुशबू बिखेरता रहता है। हम हैं कि अपना दुख सुनाने के लिए तो आतुर रहते हैं और जब सुख मिलता है तो चुटकी भर भी बांटना नहीं चाहते।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

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