पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Thursday 25 June 2009

पड़ोसी से पहले आप तो कुछ करें

हमारा पड़ोसी क्या कर रहा है यह देखना छोड़कर यदि हम यह तय कर लें कि हमें क्या करना है तो इसका असर काफी ज्यादा प्रभावी हो सकता है। कुछ ऐसी ही मानसिकता हमें किसी अच्छे काम की शुरुआत करते वक्त रखनी चाहिए तभी काम के दौरान आने वाली चुनौतियों और उससे बनने वाली हताशा की स्थिति का सामना करने की ताकत मिल सकती है। लेकिन उसकी शुरुआत पड़ोस के घर से पहले हो, फिर हम शुरू करेंगे यह स्थिति ठीक वैसी ही है कि देश में क्रांति तो होनी चाहिए लेकिन भगत सिंह पड़ोसी के यहां पैदा हो और आजादी में सांस लेने का सुकून हमें मिलता रहे। आप यह क्यों भूल जाते हैं कि आपके जैसी सोच आपके पड़ोसी की भी तो होगी। पहले आप, पहले आप लखनवी अंदाज में गाड़ी ही स्टेशन से चल दी और दोनों में से कोई चढ़ ही नहीं पाया। यदि आप समाज में रहते हुए समाज के लिए कुछ अच्छा करने की सोच रहे हैं तो यह तो भूल ही जाइए कि पड़ोस के लोग आपका उतने ही उत्साह से साथ देंगे। आप अपना काम करते रहिए आपके काम में दम होगा तो देरी से ही सही उसका असर बाकी लोगों पर होगा ही। बुजुर्ग कहते भी तो हैं पुण्य का पेड़ नजर नहीं आता लेकिन उसकी जड़ पाताल तक होती है। दूर क्यों जाएं दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से जब गोरी चमड़ी वालों ने मोहनदास कर्मचंद गांधी को बोगी से सामान सहित बाहर फेंका था तब किसे पता था कि इसी अकेले आदमी द्वारा शुरू किया गया संघर्ष पूरे देश को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट कर देगा और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता जैसी कहावत बेमानी हो जाएगी।
24 एफ ब्लाक निवासी और डाककर्मी एसपी भाटिया ने एक लंबा खत मुझे तब लिखा, जब नेट और एसएमएस के इस जमाने में पत्र लेखन को शहरी क्षेत्र में लगभग भुला सा दिया है। जागरूक पाठक भाटिया जी (9887319143) को इस पत्र लेखन की प्रेरणा गत सप्ताह क्वप्रायश्चित तो कर सकते हैं´ के विषय से मिली है। उनके इस पत्र की मूल भावना यह है कि उन्हें क्या करना है यह उन्होंने तय कर लिया है। आसपास के लोग तारीफ करें, आलोचना करें, साथ दें ना दें लेकिन उनका कार्य, उनका लक्ष्य स्पष्ट है जबकि आज हो रहा है इसके विपरीत । लक्ष्य पता नहीं है, कार्य की योजना तय नहीं है। कई लोग बस बे मतलब दौड़े जा रहे हैं। खेल हो, प्रतियोगी परीक्षा हो या जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने की तमन्ना हो, इच्छित कार्य में सफलता तभी मिल सकती है जब पहले से कार्य योजना बना रखी हो और लक्ष्य भी पता हो। गुरु द्रोण की परीक्षा में अर्जुन इसीलिए सफल हुए थे कि उन्हें अपना लक्ष्य स्पष्ट था। भाटिया जी जैसे व्यक्तियों की सोच होती है कि समाज में बदलाव से पहले खुद को बदलें। उन्होंने शपथ ली है कि रोजमर्रा के कार्यों में पोलीथीन की थैली का उपयोग नहीं करेंगे। प्रतिमाह कपड़े के पांच थैले बनाकर लोगों में बांटेंगे। साथ ही ऐसे ही थैलों के उपयोग का लोगों से निवेदन भी करेंगे। हर माह एक पेड़ किसी ऐसी जगह लगाएंगे जहां उसकी नियमित देखभाल भी कर सकें। मुझे लगता है कि समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए ऐसी ही सोच जरूरी है। समाज ने आपको नाम दिया, हैसियत दी और कुछ करने लायक बनाया है तो आपका ये दायित्व होना चाहिए कि समाज के इस कर्ज को चुकाने के लिए आप भी कुछ समाज को लौटाएं। फिर यह तो देखना और सोचना ही नहीं चाहिए कि हमारे पड़ोसी ऐसा कुछ कर रहे हैं या नहीं। जागरूक पाठक भाटिया जी के संकल्प से भले ही प्रेरित न हों लेकिन ऐसा कुछ संकल्प तो ले ही सकते हैं जो बाकी लोगों के लिए प्रेरणा का काम करे।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

1 comment: