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Thursday 14 May 2009

एक बेटी आंखों का तारा, दूसरी हुई बेसहारा

अंकल मैं पहली बार वोट डालूंगी, मेरे विचार और फोटो देना है आप प्रिंट करेंगे।मैंने कहा क्यों नहीं हमने तो अभियान ही चला रखा है।अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूल से 12वीं की परीक्षा दे चुकी उस छात्रा ने टूटी-फूटी हिंदी में अपने विचार लिख कर दिए।अंग्रेजी माध्यम वाले स्टूडेंट की हिंदी हैंड राइटिंग अच्छी हो यह जरूरी भी नहीं लेकिन हिंदी में विचारों को भी ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सके तो यह चिंतनीय है। हिंदी, उर्दू , गुरुमुखी और अंग्रेजी के जानकार दादाजी जरूर उसे हिंदी ठीक से लिखने में मदद कर रहे थे। एक पैराग्राफ लिखने में उसे कम से कम दस मिनट लगे और सकुचाते हुए उसने अपना लिखा कागज मुझे थमाया। मात्र 8-10 लाइनों में इतनी गलतियां थी कि मेरी नजर शरमा गई। मैंने पढ़कर उसकी तरफ देखा, आंखों के भाव से वह भी समझ गई थी अंकल जो कहना चाहते हैं वह कह नहीं रहे हैं। लिहाजा उसने ही सकुचाते हुए कहा अंकल वो क्या है कि मेरी हिंदी ठीक नहीं है, सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है, प्लीज आप ठीक कर लीजिएगा। दादा चार भाष्ााओं के जानकार, मां खुद टीचर, कारोबारी पिता को भी व्यावहारिक दुनिया की जानकारी और स्कूल में टॉप रहने वाली बेटी का हिंदी के मामले में ये हाल। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले सारे स्टूडेंट्स ऐसे नहीं होगे- मैं उसी दिन से अपने मन को समझा जरूर रहा हूं लेकिन दिल है कि मानता नहीं। वैसे हिंदी माध्यम वाले स्कूल के छात्रों के हाल भी बहुत अच्छे नहीं हैं। अंग्रेजी लिखना और बोलना आना कांपिटिशन के इस जमाने में बेहद जरूरी है, लेकिन विश्व को दशमलव देने वाले भारत के ही कांवेंट कल्चर वाले बच्चे हिंदी में लिखे 17 या 56 को अंग्रेजी में बताने के लिए कहते हैं और तब उनके चेहरे पर विजयी भाव नजर आता है- अरे यह तो सेवंटीन, फिफ्टी सिक्स है। इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों में अंग्रेजी सिखाने में टीचर खूब मेहनत करते हैं। जहां तक राजकीय स्कूलों में हिंदी में होने वाली पढ़ाई का सवाल है तो हिंदी की दुर्गति यहां भी कम नहीं है। हिंदी के शिक्षक हिंदी के नाम पर तनख्वाह लेते-लेते समारोहपूर्वक सेवानिवृत हो जाते हैं लेकिन यह फिर भी नहीं जानते कि हिंदी में बिंदी कहां लगेगी।अपने बच्चों की हिंदी सुधारने के लिए पेरेंट्स इतना तो कर ही सकते हैं कि उनसे उनकी रुचि के विषयों वाली हिंदी की किताब से एक पेज की रोज नकल करवाएं। कितना अजीब है कि ये बच्चे हिंदी लिखना तो नहीं जानते लेकिन हिंदी फिल्में, टीवी सीरियल में दिलचस्पी रखते हैं। नेट पर चेटिंग के लिए हिंदी की दिक्कतों को रोमन अंग्रेजी ने आसान जरूर कर दिया है फिर भी हिंदी में लिखने, सोचने, व्यक्त करने की बात ही अलग है। रोमन अंग्रेजी वाली हिंदी तो बिना जड़ वाले पेड़ के समान ही है। दो बहनों में एक खूब श्वेतवर्ण और दूसरी श्यामवर्ण हो तो जाहिर है गोरी सब को आकर्षित करेगी लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि श्यामवर्णी को स्लो पायजन दे दिया जाए। भारत माता के मस्तक की बिंदी का गौरव पाने वाली हिंदी की हालत श्यामवर्णी बहन जैसी ही होती जा रही है।

कम से कम प्रकृति से ही सीखिए
समुद्र से एक बाल्टी पानी लेने पर तो समुद्र खाली नहीं होता और न ही उसकी पहचान खत्म होती है, इस सहज सत्य को शहर के ज्यादातर कला गुरु समझना ही नहीं चाहते। प्रकृति को कैनवास पर उतारने की सीख देने वाले आर्ट टीचर यह भी नहीं समझना चाहते कि सूरज रोशनी देने में, वृक्ष फल और हवा देने में, बादल धरती की प्यास बुझाने में यह नहीं सोचते कि सारी रोशनी, सारी हवा-पानी क्यों दूं? फिर गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान देने में कोताही क्यों बरतते हैं? 'चरक' के बैनर तले समूह चित्र प्रदर्शनी लगाने वाले युवा कलाकारों की यह पीड़ा है कि अधिकांश टीचर सारा कुछ बताना-सिखाना नहीं चाहते। इन कलाकारों के चेहरे उत्साह से चमकते और अपने उन टीचर्स की तारीफ करते नहीं थकते यदि वे ज्ञान बांटने की परंपरा का निर्वाह करते। फिर भी ये सारे युवा चित्रकार अपने गुरुओं के प्रति आभारी हैं कि हमें कुछ तो सिखाया। इन सबने और जो सीख ली है वह यह कि हम ज्ञान को सात तालों में बंद रखने के संस्कार नहीं अपनाएंगे, जैसा जितना आता है चित्रकला सीखने की इच्छा रखने वालों में बांटते रहेंगे।
इन ट्रैक्टर, ट्रकों का कुछ तो करिए
एक सप्ताह हो गया है दिन शुरू होता है और खयाल आता है सड़क दुर्घटना में उस दिन हमारी भी ख़बर बन जाती तो संसार से विदाई के आज इतने दिन हो जाते। खड़े ट्रैक्टर, ट्राली और जुगाड़ से टकराने में दूसरे वाहन के तीन यात्रियों की जान गई ऐसी खबरों की सच्चाई को हम लोगों ने भी बहुत निकट से जाना। बस उसी दिन को याद कर रूह कांप उठती है। हाइवे सहित व्यस्त मार्गो पर पर्याप्त रोशनी, कम से कम ट्रैक्टर-ट्रालियों, जुगाड़ और डिग्गियों पर रेडियम रिफ्लेक्टर तो होना ही चाहिए। बीच सड़क में बिगड़े खड़े ऐसे ही वाहनों के कारण न जाने कितने परिवार उजड़ जाते हैं। इसी के साथ बड़े वाहनों की बीम लाइट की चकाचौंध नियंत्रित करने के लिए हेडलाइट का आधा हिस्सा काला भी किया जाना चाहिए। ये ऐसे अभियान हैं जिसे जन संगठनों के सहयोग से जिला प्रशासन चला सकता है।
राहत देने वाला होगा अभियान?
मैरिज पैलेस संचालकों के खिलाफ अभियान तो पहले भी चले हैं अब देखना है इस बार कुछ राहत तक बात पहुंचेगी या नहीं। ऐसे अभियान जब भी चलते हैं पैलेस के आसपास रहने वाले जाने कितनी उम्मीदें बांध लेते हैं प्रशासन से, क्योंकि शादियों के सीजन में सर्वाधिक परेशान ये लोग होते हैं। देर रात तक शोर-शराबा और दूसरे दिन जूठन और नालियों में डिस्पोजल के ढेर से रुकता बहाव और उठती दुर्गन्ध से सांस लेना दूभर हो जाता है। बारिश के दिनों में इंदिरा वाटिका क्षेत्र की कॉलोनियों में घुटने-घुटने पानी के हालात में थोड़ा बहुत सहयोग तो पैलेस संचालकों की अनदेखी का भी है ही। पैलेस तो बंद हो नहीं सकते, शादियां भी होती ही रहेंगी लेकिन प्रशासन ने जब सुधार के लिए कमर कस ही ली है तो इतना तो हो ही जाए कि आसपास रहने वालों को स्थायी रूप से राहत मिले। पैलेस संचालक अपनी खामियां दूर करने को तत्पर भी हैं बशर्ते संबंधित विभाग सहयोग करें। जिन थाना क्षेत्रों में मैरिज पैलेस हैं वहां के एसएचओ, स्टाफ की क्षेत्र के रहवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। अभी तो पैलेस संचालकों के साथ इनकी मिले सुर मेरा तुम्हारा जैसी स्थिति है।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

3 comments:

  1. राणाजी, हिन्दी के प्रति नई पीढ़ी की अरुचि पर आपकी चिंता बेहद जरूरी और वाजिब है। अंग्रेजी बुरी नहीं पर उसके प्रति अंध-मोह भी अच्छा नहीं। अंग्रेजी सिखाने के लिए अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा कहां जरूरी है? न जाने यह भ्रांति किस ने फैलाई! मगर आजकल हर कोई अपने मासूम को उसकी गिरफ्त में झोंकना चाहता है। उसे ज्ञान प्राप्त करना होता है विज्ञान, गणित, सामाजिक और पर्यावरण जैसे विषयों का, उसे जानना होता है अपने घर-परिवार की परम्परा और संस्कारों को, उसे रमना होता है अपने ईद-गिर्द के सुरम्य वातावरण में, उसे कुलांचे भरने होते हैं खूबसूरत कल्पनाओं के, मगर वह उन दिनों में अपनी ऊर्जा एक विदेशी भाषा सीखने में खर्च कर रहा होता है। परिणाम यह होता है कि बच्चा न तो ठीक से अपने विषयों का ज्ञानार्जन कर सकता है और न ही ठीक से भाषा सीख पाता है। दुनियाभर के विद्वान शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दिए जाने की वकालत करते रहे हैं। वसीली सुखोम्लीनस्की ने कहा कि स्कूल सच्चे अर्थों में संस्कृति का मंदिर केवल तभी बन पाता है, जबकि उसमें चार देवता प्रतिष्ठित हों- मातृभूमि, मनुष्य, पुस्तक और मातृभाषा। ('शिविरा`- जनवरी 2005)। मतलब जिस स्कूल में मातृभाषा का प्रवेश नहीं वह सच्चे मायने में संस्कृति का मंदिर नहीं। विदेशी भाषा को एक विषय के रूप में रखकर उसका गहन अध्ययन करवाया जा सकता है, मगर उसे माध्यम के रूप में थोपना बालक के प्रति सीधा-सीधा अत्याचार तो है ही, माता-पिता भी अपनी औलाद से संवादहीनता के संकट को न्योता दे रहे हैं। वे अपनी औलाद को अपनी भाषा और संस्कृति से काटते जा रहे हैं। उसे अपनी जड़ों से विहीन कर रहे हैं।
    अपने व्यक्तिगत अनुभव से गांधीजी को यह पक्का विश्वास हो गया था कि शिक्षा जब तक बालक को मातृभाषा के माध्यम द्वारा नहीं दी जाती, तब तक बालक की शक्तियों का पूरा विकास करने और उसे अपने समाज के जीवन में पूरी तरह सहयोग देने लायक बनाने का अपना हेतु भलीभांति सिद्ध नहीं कर सकती। गांधीजी ने कहा कि मातृभाषा मनुष्य के विकास के लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना छोटे बच्चे के शरीर के लिए मां का दूध। बच्चा अपना पहला पाठ अपनी मां से ही सीखता है। इसलिए मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़कर दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं। गांधीजी को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा गुजराती में नहीं मिली। उन्होंने लिखा- 'जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने में मुझे चार साल लगे, अगर अंग्रेजी के बजाय गुजराती में मैंने उन्हें पढ़ा होता तो उतना मैंने एक ही साल में आसानी से सीख लिया होता।' गांधीजी ने यह भी कहा कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा की बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं वे आत्महत्या ही करते हैं। यह उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित करती है। उनका विकास रुक जाता है और वे अपने परिवार से अलग पड़ जाते हैं। इसलिए मैं इस चीज को पहले दरजे का राष्ट्रीय संकट मानता हूं।
    यह किसने कह दिया कि अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाला बालक अंग्रेजी में कमजोर रह जाएगा? अंग्रेजी ज्ञान करवाने के लिए आजकल इतने दृश्य-श्रव्य माध्यम बाजार में उपलब्ध हैं कि उनसे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बजाय कहीं बेहतर अंग्रेजी ज्ञान करवाया जा सकता है। लगे हाथों आयरलैंड के राष्ट्रपति डी. वेलेरा के शब्दों पर भी गौर फरमा लिया जाय। उन्होंने कहा- 'यदि मेरे समक्ष दो विकल्प हों- मातृभाषा और देश की आजादी, तो प्राथमिकता मातृभाषा को दूंगा, यदि मातृभाषा कायम रही तो आजादी अपने आप मिल जाएगी।' इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाना चाहिए और दूसरे की थाली में लड्डू बड़ा देखने की मानसिकता से बचना चाहिए। मां की कद्र करने वाला ही तो मासी की कद्र करेगा। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और बहुत-सी हमारी अपनी-अपनी मातृभाषाएं हैं। उनकी कद्र हमें ही करनी है, कोई दूसरा भला यों करेगा? अपनी भाषा को ठीक से लिखना-पढ़ना सीखकर ही हम उसे सच्चा सम्मान दे सकते हैं।
    -सत्यनारायण सोनी, व्याख्याता (हिन्दी), राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, परलीका (हनुमानगढ़) 335504

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  2. खम्मा घणी सा,
    बहुत बढ़िया बात लिखी है सा. अंग्रेजी माध्यम के बच्चो का हिंदी की तरफ ही रुझान नहीं है तो उनका अपनी मातृभाषा की तरफ क्या रुझान होगा. मैं कहना चाहूँगा की घर वालों को अपने बच्चों को सर्वप्रथम मातृभाषा का ज्ञान करवाना चाहिए बाद में हिंदी-अंग्रेजी का.

    अजय कुमार सोनी
    संपादक- जनवाणी परलीका
    9460102521

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  3. हिंदी भाषा के प्रति आपकी चिंता जायज़ है लेकिन आज कितने लोग है जो इस और धयान दे रहे है....!हिंदी के विकास के लिए हम सब को मिल कर प्रयास करना होगा...!-अंजनी कुमार परिहार,संगरिया..

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