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Wednesday 20 May 2009

एक कतरा छांव भी तो दान करके देखिए

टीवी पर विज्ञापनों की भीड़ में कूलर के एक विज्ञापन ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है। इसमें कहा जाता है पहले गार्डन में गमले होते थे अब गमलों में ही गार्डन होते हैं। बात सही भी है। 48 के आंकडे़ की ओर दौड़ते पारे में हरियाली विहीन शहर के वो सारे दृश्य घूम गए जब एक कतरा छांव के लिए लोग यहां-वहां तरसते नजर आते हैं। बालकनी और घरों की छतों पर हम गमलों में पौधे लगाते हैं, आंखों को बड़ा सुकून भी मिलता है। हम में पेड़-पौधों की उपयोगिता की समझ भी है, लेकिन यह समझ घरों की चार दिवारी में कैद होती जा रही है। अच्छा हो कि घर के बाहर, सड़क के किनारे भी हम हरियाली की सोचें। इस गर्मी में कूलर और एसी के बाद भी हमें सुकून नहीं मिलता। ऐसे में धधकते मई-जून में राहगीरों और बेजुबान पशुओं के लिए कहां है हरियाली। गर्दन लटकाए छांव की तलाश में यहां-वहां भटकती गाएं पेड़ की आधी-अधूरी छांव में कभी गर्दन तो कभी आड़ी-तिरछी होकर कमर को धूप से बचाने की जुगत में धधकती सड़क के किनारे बैठी नजर आती हैं। जीभ निकाले हांफते कुत्ते छांव के अभाव में नालियों के बीच जैसे-तैसे दोपहर का वक्त काटते हैं। ये बेजुबान तो बता भी नहीं सकते कितनी गर्मी है। परिंदों के लिए दाने-पानी का इंतजाम कर पुण्य कमाने की होड़ तो दोनों जिलों में चल रही है। अच्छे काम की होड़ चलती रहना चाहिए, लेकिन एक ही काम में क्यों, ऐसा ही कुछ पेड़-पौधों को लेकर भी सोचना चाहिए। छायादार पेड़ लगाकर अंजान लोगों के लिए एक कतरा छांव का दान करना हमारे बुजुर्ग तो जानते थे, जाने क्यों हम ऐसे संस्कारों को याद रखना भूलते जा रहे हैं। दोनों जिलों में पर्यावरण प्रेमियों की कमी नहीं है, लेकिन वह स्थिति अब तक तो नजर नहीं आती कि यात्री चूरू से हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर की ओर आने वाली सड़कों के दोनों तरफ सघन हरियाली देखें और मुंह से बरबस निकल पडे़ लगता है हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर शुरू हो गया। अन्य शहरों से आने वालों को हमारी नहरें तो आकर्षित करती हैं, लेकिन हरियाली बिना तो ये नहरें भी अश्रुधारा जैसी ही हैं। दोनों जिलों से हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सालासर, चानणाधाम, खाटूश्याम सहित अन्य धार्मिक क्षेत्रों की पदयात्रा करते हैं। इनके लिए भोजन-पानी का नि:शुल्क इंतजाम करने वालों की होड़ सी लग जाती है। यह भी हो सकता है कि पदयात्रा पर निकलने वाले ये जत्थे सड़क के किनारों पर पौधे लगाते जाएं। ऐसा भी हो सकता है कि लंगर लगाने वाले भी पौधे वितरित करें। दोनों जिलों के वन अधिकारी भी इन पदयात्रियों को मुफ्त पौधे उपलब्ध करा के हरियाली के काम से जोड़ सकते हैं। हम अपने लिए तो सब कुछ कर ही रहे हैं एक पौधा औरों के लिए लगाएं तो सहीं देखिए कितना सुकून मिलेगा। अपने गमले में अपने लिए तो खूब हरियाली कर ली बाकी लोगों को एक कतरा छांव मिल जाए ऐसा भी कुछ करिए। अभी आप जब रोज सुबह छत पर रखे परिंडों में पानी बदलने जाते हैं, तब कैसे खिल उठते हैं चिडिया, तोते और कबूतर को उस परिंड़े में चोंच डुबाए देखकर, मन को कितना अच्छा लगता है। बात हरियाली को लेकर चल रही है तो पिछले दिनों भारतीय खाद्य निगम (हनुमानगढ़ जंक्शन) में पदस्थ नरेश मेहन ने मुझे अपनी कविताओं का संकलन 'पेड़ का दुख' भेजी है। रोजमर्रा की जिंदगी से जुडे़ लगभग सभी विषयों पर इसमें छोटी-छोटी कविताएं हैं। 'पेड़ की चाह' कविता संभवत: आपको भी अच्छी लगेगी-

मैं पेड़ हूँ, सब कुछ देता हूं,

मीठे फल

शुद्ध हवा

ठंडी छांव

और अंत में

सौंप देता हूं

अपना सारा बदन।

बदले में चाहता हूं

मेरे लिए

थोड़ा सा समय

जिसमें रह सको

अमन चैन से

अपने बच्चों और

अपने पड़ोसियों के संग

मेरे साथ।

पुलिस नशे वालों की!
अब तो एनडीपीएस न्यायालय ने भी ठप्पा लगा दिया है कि पुलिस की पुख्ता कार्रवाई के अभाव में नशे के कारोबारी आसानी से छूट जाते हैं। तो मान लेना चाहिए कि हनुमानगढ़ में पुलिस का अमला नशे के कारोबारियों से हाथ मिलाने, वाहन चोरों की पीठ थपथपाने में लगा हुआ है। ये अमला यदि अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाए तो कलेक्टर को अभियान चलाने की कमान अपने हाथों में न लेनी पडे़। विश्वास नहीं होता कि पुलिस के बडे़-छोटे अधिकारियों को आराम से नींद आती भी होगी। ईमानदारी की कमाई बरकत लाती है तो बेईमानी की कमाई पूजा घर में रखने से भी पवित्र नहीं होगी। ये आसान सी बात बिगडे़ पुलिसकर्मियों की गृह लक्ष्मियाँ ही उन्हें समझा सकती हैं। यदि वे नहीं समझा रही हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों की फिक्र नहीं है। नशे के कारण जिन लोगों के घर-उजड़ रहे हैं, उनके बीवी-बच्चों की बद्दुआ की पोटली भी तो इस कमाई के साथ घर तक पहुंचती होगी। ये हनुमानगढ़ में ही क्यों होता है कि विशेष न्यायालय में प्रस्तुत ज्यादातर मामलों के आरोपी कमजोर चार्जशीट के अभाव में आजाद हो जाते हैं। पिकअप वाहन चोरी, घरों में चोरी के आरोपी भी नहीं पकड़े जाते और फरियादियों को ही पुलिस आरोपी ढूंढने के काम में लगा देती है।

...पानी का पानी

उन दूधियों की नाक में नकेल डालने का चुनौतीपूर्ण काम हनुमानगढ़ प्रशासन ने अपने हाथ में लिया है, जो जन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दूध में फेट के खेल में यूरिया का मेल इस अभियान का कारण है। आम लोग खुश हैं तो इसलिए कि यूरिया मिले न मिले कम से कम पानी वाले दूध की शिकायतों में तो कमी आ ही रही है। जब लोग बिल चुकाने में देरी नहीं करते, तो दूध की कमजोर क्वालिटी में सुधार क्यों नहीं होना चाहिए।

बोए पेड़ बबूल के...
'शोले' के यादगार डॉयलाग में एक डॉयलाग यह भी था- सरदार मैंने आपका नमक खाया है। कुछ वैसे ही स्थिति अवैध बसेमेंट तोड़ने जा रहे अमले की हो रही है। दो साल के दौरान अनुमति तो दी नहीं फिर भी बेसमेंट बनते गए, उन इलाकों के दारोगा से लेकर बडे़ अधिकारियों को भी इसकी कुछ तो जानकारी थी ही। अब जब मजबूरी में इन्हें तोड़ने जाना पड़ रहा है तो अपमानित भी होना पड़ रहा है-यानी माल खाया है तो मार भी खानी पडे़गी।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

2 comments:

  1. सही लिखा है ..आपने..!आजकल हरियाली का मतलब गमले में रखे पौधे ही हो गया है...बच्चे भी इसे ही मानते है..!इसी प्रकार वृक्षा रोपण के नाम पर भी एक दो पौधे लगा कर ओपचारिकता निभा दी जाती है बस...हरियाली की बातें तो दिखावा मात्र हो गयी है.___..अंजनी कुमार परिहार..

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  2. अपने आसपास होने वाली छोटी- छोटी लेकिन महत्वपूर्ण घटनाओं के प्रति आपकी तीक्ष्ण दृष्टि प्रशंसनीय है। '
    एक बेटी आंखों का तारा, दूसरी हुई बेसहारा'
    ने तो बहुत ही प्रभावित किया। आपकी लेखनी की निरंतरता के लिए शुभकामनायें.

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