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Friday 28 August 2009

एक दिन बच्चा बनकर तो देखें

हम बड़ी आसानी से कह तो देते हैं बच्चे भगवान का रूप हैं। इसका मतलब थोड़ा बहुत समझते भी हैं, लेकिन बड़े होने का गरूर हमें उस बचपन की ओर जाने से रोकता है। बड़ा होना जितना आसान है उससे अधिक कांटों भरा है बड़े होकर भी बच्चा बनना। किसी एक दिन बच्चा बनकर देखें तो सही आसपास सब अच्छा ही अच्छा लगेगा। बच्चा तो खिलौने की जिद करते रोते-रोते सो जाता है और हम बड़ों के पास सारे सुख-साधन होने के बाद भी कुछ घंटों की नींद के लिए ध्यान शिविर, योग-आसन और डॉक्टरों का परामर्श लेना पड़ता है।

ये छोटी सी कविता लिखी तो थी दस-बारह साल पहले लेकिन अब लगता है काश हम फिर बच्चे हो जाएं तो कितना अच्छा हो। कई लोगों की तरह मेरी भी आदत रही है कि चाहे दीपावली का संदेश हो या सुख-दुख, उल्लास के एसएमएस कुछ अलग हट कर भेजूं वरना तो इसकी टोपी उसके सिर यानी फारवर्ड करना तो बेहद आसान तरीका है ही। तब दीपावली बधाई संदेश के लिए जो पंçक्तयां लिखी वो चार लाइनें कुछ इस तरह थीं-

समझदार होने से तो, बचपन ही भला है

ना यहां बाबरी मस्जिद, ना रामलला है।

अब जब हम जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं बचपन को तरसते हैं और जब उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी जब बच्चों की तरह हो जाते हैं तब हमारे बच्चे कभी दया दिखाते हैं तो कभी हंसते हैं।

बचपन के दिन भी कितने प्यारे होते हैं यह हम तब समझ पाते हैं, जब हम उस उम्र को काफी पीछे छोड़ आते हैं। अब तो समझदारी का आलम यह है कि पूजा करते वक्त अगरबत्ती और दीपक भी जलाते हैं तो पर्याप्त सतर्कता रखते हैं और बचपन में जलते दीपक और चिमनी पर भी झपट्टा मार देते थे। तब मन में न आग का भय होता था न हाथ जलने का। अब दस बार सोचते, हजार बार मन ही मन लाभ-हानि का गुना भाग करते हैं, तब कहीं एक डेढ़ इंच ओठ फैला पाते हैं, चाहकर भी ठहाका इसलिए नहीं लगा पाते कि लोग क्या कहेंगे। एक वक्त वह था जब कोई तुतलाती जुबान में बोलता, ताली बजा कर गर्दन हिलाकर थोड़ा सा अपनापन दिखाता हम अपना है या पराया जाने-समझे बिना हम दिल दे चुके सनम जैसे हो जाते थे।

अब जब हम ही किसी से बिना मतलब के नहीं मिलते, चिट्ठी लिखना तो दूर जब तक मजबूरी न हो फोन तक नहीं करते, जब तक कंफर्म नहीं हो जाए कि अगला अब दुनिया से जाने को ही है। तब तक तबीयत पूछने का वक्त नहीं निकाल पाते तो किसी और से भी यह अपेक्षा करना ठीक नहीं कि वो हमारी चिंता पाले।

किसी से घुलते-मिलते भी हैं तो इस सतर्कता के साथ कि हमारा हमपना बरकरार रहे इसलिए 'मैं से मुक्त नहीं हो पाते, जैसे दूध में चाय की पत्ती जो घुलते ही अपना ऐसा असर दिखाती है कि दूध को चाय हो जाना पड़ता है। लेकिन दूसरों से हमारी अपेक्षा रहती है कि वो हम से मिले भी तो दूध में पानी की तरह यानी हम बनें रहें। पानी का तो गुण ही है जिसमें मिला दो वैसा हो जाए। त्याग की बात करें तो दूध में मिला हो या दाल में पहले पानी ही जलता है। बचपन भी तो पानी जैसा ही लगता है जो जैसा हंस-बोले उसके साथ उसी भाव से मिल गए ट्रेन-बस में सहयात्री की गोद में खेलता बच्चा भी तब आपकी बाहों में आने को मचल पड़ता है जब वह आपकी आंखों में निश्छल प्रेम की भाषा पढ़ लेता है। उस बच्चे के मन में मैल नहीं होता क्योंकि वह नासमझ है और हम समझदार! ऊपर से जितने उजले अंदर से उतने ही काले-कलूटे। मन पर ये भेद का रंग उसी दिन से चढ़ना शुरू हो जाता है, जब हम अक्षर ज्ञान सीखना शुरू कर देते हैं। बोलते तो ग गणेश का हैं लेकिन दिमाग की हालत गोबर से भी बदतर होती जाती है। गोबर तो फिर भी घर-आंगन शुद्ध रखता है, लेकिन दिमाग में भरा गोबर अपना अच्छा भी चाहेगा तो दूसरों के बुरे की कामना के साथ। हालत ये हो जाती है कि मंदिर में भी हम आंखें मूंदकर अपने लिए सब कुछ मांगने की प्रार्थना के साथ दुश्मनों के नाश की कामना करना नहीं भूलते। भला हो भगवान का जो सबके आवेदन तत्काल स्वीकृत नहीं करता। वरना तो पड़ोस के मंदिर में हमारे लिए प्रार्थना कर रहे हमारे प्रतिस्पर्धी की अर्जी का भी तुरंत निराकरण हो जाता।

क्या यही अच्छा हो कि सप्ताह में नहीं तो महीने या साल के किसी एक दिन हम फिर से बच्चा बनकर देखें। वैसे बच्चा बनने की कोशिश तो हम अक्सर करते रहते हैं, लेकिन वह भी फरेब ही होता है। रोते हुए बच्चे को चुप कराने या अपनी गोद में लेने के लिए हम बच्चों जैसा अभिनय करके उस नासमझ को भी छल-फरेब का गंडा ताबीज बांध देते हैं। फिर कभी जब वही बच्चा हमारे हाथ फैलाने, गोली-चाकलेट दिखाने पर गोद में आने की आतुरता दिखाकर तत्काल बाद खिलखिलाता हुआ वापस मां के कंधे से चिपट जाता है, तो हमारे मुंह से बरबस निकल जाता है-पहले से कितना चंट, कितना शैतान हो गया है।

उस मासूम का चंट होना तो हमारी समझ में आ जाता है, लेकिन उसकी निर्भय, निर्विकार, निर्विचार, निष्पक्ष बाल सुलभ हरकतों से कुछ सीखना नहीं चाहते। बच्चे को भगवान का रूप शायद इसीलिए कहा जाता है कि उसके मन में न तो किसी के प्रति द्वेष होता है ना पाप, जो उसे जोर से चिल्लाकर अचानक डरा और रुला देता है, उसी की गोद में हिचकियां लेता बच्चा गहरी नींद में सो भी जाता है। नींद से जागने पर उसे तो यह याद भी नहीं रहता कि किस ने फटकारा किस ने दुलारा था। हम है कि सोने से पहले अगले का प्लान बनाकर सोते हैं किस को कैसे निपटाना है। उठते हैं तो मान-अपमान की गठरियां सिर पर लादे रहते हैं। पता है कि परेशानियां किसी न किसी बीमारी का रूप लेकर हमारे साथ कदम ताल करती रहेंगी, मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ेंगी। फिर भी हम अपने ही घर के दुधमुंहे बच्चों के निष्कपट भाव को न तो समझ पाते हैं न ही बच्चों की तरह अपने में मस्त रहना। हम जिस दिन सीख लेंगे तब सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी, पता नहीं हम कब बच्चे बनेंगे।

अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

2 comments:

  1. ठीक है आज कोशिश कर देखते है अ हा

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  2. namaskaar,
    aapka yeh post bahut achchha hain. sahi bhi hain ki-"zeevan kaa asli aanand bachpan main hi aata hain." or puri zindagi aanand mayi bitaanae ke liye bachchaa to bannaa hi padegaa.
    thanks.
    CHANDER KUMAR SONI,
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