घर से सटे गार्डन में अनार-आम-अमरूद के बोझ से टहनियां जमीन पर झुकती नजर आने लगती हैं, तो मुझे ऐसा लगता है मानो घर मालिक का आभार व्यक्त कर रही हों- धन्यवाद आपका, जो आपकी देखभाल, संरक्षण ने हमें इस लायक बना दिया।
याद करिए आज से पांच-दस साल पहले जब ये सारे पौधे गार्डन में लगाए थे तब तो यह भरोसा भी नहीं था कि पौधे पनपेंगे या नहीं, फल भी आएंगे या नहीं। फिर भी हमने धूप, बारिश, तेज आंधी से नन्हें पौधों की प्राण रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब जब इन वृक्षों पर फलों की बहार है, तो आभार के बोझ से टहनियां झुकी-झुकी जाती हैं।
दूसरी तरफ आप हम हैं। हमें अपने दोस्तों-परिजनों से मिले अनपेक्षित व्यवहार, कटु प्रसंग तो बरसों बाद भी याद रहते हैं, लेकिन बुरे वक्त में जब ये ही सारे लोग हमारे पीछे चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे थे। हमारे दुख में अपना खाना-पीना भूलकर हर कदम पर साथ चले थे, तब हम थैंक्स तक नहीं कह पाते थे, वो वक्त हमें याद नहीं रहता। हम हैं कि थोड़ी सी उपलब्धि हांसिल होने पर, थोड़ा-सा भी अपने मनमाफिक न होने पर अपने ही लोगों की बाकी अच्छाईयों, हर मोड़ पर मिले सहयोग को पल भर में भुला देते हैं। बात जब अहसान याद दिलाने तक पहुंच जाए, तो हमें अपना किया तो याद आ जाता है, पर बाकी लोगों ने हमारे लिए जो करा वह याद नहीं आता।
उज्जैन में आर्ट ऑफ लिविंग के बेसिक कोर्स को अटैंड करने के दौरान शिविर समापन के अंतिम दिन प्रशिक्षक ने सभी शिविरार्थियों को अंगूर के गुच्छे से एक-एक अंगूर इस हिदायत के साथ मुंह में रखने को दिया कि जब तक निर्देश न मिले, इसे चबाएं नहीं।
निर्देश मिला जरा सोचिए इस अंगूर में कितने बीज हैं, उन्हीं में से एक बीज अंकुरित हुआ। उसके अंगूर बनने तक प्रकृति ने हवा, पानी, धूप, छांव का निस्वार्थ सहयोग किया। किसान ने देखभाल की। जाने कितने हाथों के सहयोग, सेवा, उपकार लेता यह अंगूर अब आपके मुंह में है। क्या कभी ऐसे सारे गुमनाम सहयोगियों के प्रति आपका मन धन्यवाद भाव से प्रफुल्लित हुआ है?
जाहिर है बाकी शिविरार्थियों की तरह मेरा जवाब भी नहीं में था। बात छोटी सी, लेकिन कितनी गहरी है। हम प्रकृति को धन्यवाद दे ना दें पेड़ तो पत्थर खाकर भी फल ही देता है।
हर दिन तरक्की को लालायित हमारी जिंदगी के हर मोड़ पर, निरंतर ऊंचाइयों के शिखर तक पहुंचने में न जाने, किन-किन लोगों का सहयोग रहा है, वे सभी जड़ नहीं चैतन्य हैं। आप ही की तरह उनमें भी अपेक्षा का भाव है कि उनके सहयोग का आप भले ही ढिंढोरा न पीटे, लेकिन अपनों के बीच स्वीकार करने का साहस तो दिखाएं। हालत तो ऐसी है कि जब हम अपनी गलती ही आसानी से नहीं स्वीकार पाते तो साथियों के सहयोग को कैसे दस जनों के बीच कहें। हम भूल जाते हैं कि जिन लोगों के छोटे-छोटे सहयोग से हम बडे़ बने हैं, हम समाज की नजर में भले ही ऊंचे उठ जाएं, लेकिन उन सारे सहयोगियों की नजर में तो नीचे ही गिर जाते हैं।
घर के किसी कोने में रखे गमले में बड़ा होता मनी प्लांट का पौधा भी एक पतली सी लकड़ी और रस्सी के सहयोग से ही छत तक ऊंचा उठ पाता है पर क्या करें हमारा तो स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि मनी प्लांट की तारीफ तक ही सीमित रहते हैं। सच भी तो है मंदिर के दूर से नजर आने वाले स्वर्ण शिखर के लिए आस्था से सिर झुकाते वक्त हमें नींव के पत्थरों का त्याग नजर नहीं आता।
स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा पद, प्रतिष्ठा की हमारी इस फलती-फूलती बेल को न जाने कितनी पतली लकडियों का सहारा मिला, यह हमें याद तक नहीं है। कभी जब हम कुछ फुरसत में आंखें बंद कर के फ्लैश बेक में जाएं, तो ऐसे कई चेहरे, कई प्रसंग याद आ जाएंगे और लगेगा यदि उस दिन उनकी सलाह, सहयोग, आर्थिक मदद नहीं मिली होती, तो वह काम हो ही नहीं पाता। अस्पताल में जब आप लंबे वक्त बिस्तर पर थे, किसी परिजन के ऑपरेशन के वक्त कौन सबसे पहले खून देने को तैयार हुआ था, आधी रात में किसने आपको अपने वाहन से स्टेशन, अस्पताल तक छोड़ा था। आपके अचानक बाहर जाने की स्थिति में बच्चों को स्कूल छोड़ने की ड्यूटी किसने पूरी की। परीक्षा हाल में पड़ोस की टेबल वाले किस परीक्षार्थी ने पेन मुहैया कराया था, ऐसे कई अनाम सहयोगियों को तो हम याद रख ही नहीं पाते। ऐसे लोगों ने जब हमारी मदद की थी, तब उनकी यह अपेक्षा तो कतई नहीं थी कि आप धन्यवाद कह कर उनके सहयोग का कर्ज उतारें, लेकिन यदि आप यह अपेक्षा रखते हैं कि सहयोग के बदले आप पर धन्यवाद के फूल बरसें तो आप को भी अपने सहयोगियों के प्रति धन्यवाद वाला दायित्व तो निभाना ही चाहिए। नेकी करो भूल जाओ-यह कहना तभी ठीक लगता है, जब अपेक्षा दुख का कारण न बने। जिन अनाम-अंजान लोगों ने आपकी तरक्की में बिना किसी अपेक्षा के सहयोग किया, उनके अहसान को उतारने का एक आसान तरीका यह भी हो सकता है कि हम भी किसी मोड़ पर किसी के काम आ जाएं, फिर जब खाली वक्त में अच्छे कामों का हिसाब-किताब करेंगे, तो ऐसे ही काम याद आएंगे। दुयोüधन और धर्मराज कहीं स्वर्ग या महाभारत में नहीं हमारे मन में ही आसन जमाए बैठे हैं। अच्छे बुरे का हिसाब मन की किताब में ही दर्ज होता है। जीते जी इस किताब के पन्ने पलटने की आदल डाल लें तो हमें खुद ही पता चल जाएगा कि हमारी सीट स्वर्ग में रिजर्व हो सकती है या नहीं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...
excellent.
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