पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 17 March 2010

पल अच्छे तो कल अच्छा

यह तो पता होता नहीं कि अगला पल हमारा होगा या नहीं, कल हम होंगे कि नहीं लेकिन हम हैं कि इस हकीकत से आंख चुराते रहते हैं। अभी जो पल है उस पल में भी कल के लिए सोचते हैं। कल के चक्कर में हम अभी का पल भी ठीक से नहीं जी पाते। कल हों ना हों यह सोचने का वक्त है ही नहीं क्योंकि हम तो इसी भ्रम में जीते हैं कल हमारा है। अच्छी सोच की दृष्टि से तो यह भाव बहुत ठीक है लेकिन इस पल को भी यदि हम अच्छी तरह न जी सकें तो फिर कल कैसे अच्छा होगा। अभी मेडिकल साइंस ने इतनी तरक्की नहीं की है कि सर्टिफिकेट दे सके कि कितने लोग कल का सूरज देख सकेंगे। ऐसी स्थिति में कल सुधारने का अच्छा तरीका यही है कि अभी जो पल हमारे पास है उस पल को ही हम बेहतर तरीके से जी लें।
सरकारी कार्यालयों की हर शाखा में दो-चार बाबू तो ऐसे मिल ही जाएंगे जिन्होंने नौकरी ज्वाइन करने के बाद पत्नी सहित किसी पर्यटन क्षेत्र की या धार्मिक क्षेत्र की लंबी यात्रा की ही नहीं। हमारे आसपास भी ऐसे परिवार मिल जाएंगे, जिन्होंने बच्चों के कल की चिंता में पूरी जिंदगी का पल-पल सजा की तरह काटा। घर से ऑफिस, ऑफिस से अन्य कहीं पार्टटाइम वर्क और देर रात घर पहुंचकर फिर अगले दिन वहीं दिनचर्या। पति-पत्नी बच्चों के बेहतर कल की उम्मीद में पूरा जीवन एडजस्ट करते हुए पल-पल अपनी भावनाओं, अपने सपनों की बलि चढ़ाते रहे और बच्चे बड़े हुए तो, बड़े करने वालों का त्याग भूल गए।
जिनके पल अच्छे नहीं बीत पाते उनका बचा हुआ कल कैसे अच्छा गुजरता होगा। बगीचों में दोपहर से देर शाम तक कई बुजुर्ग हसरत भरी निगाहों के साथ रात ढलने तक बैठे रहते हैं। दिल समझाने के लिए बड़ी उदारता से खुली हवा को स्वास्थ्य के लिए अच्छा जरूर बताते हैं लेकिन मन ही मन समझते हैं कि घर का पर्यावरण शुद्ध होता, बेटे-बहू को सिर्फ अपने पल अच्छे बिताने की हवा नहीं लगी होती तो देर तक बगीचों में बैठे वक्त नहीं गुजारते।
बुजुर्गों के पास वक्त ही वक्त है लेकिन बच्चों के पास उनके लिए वक्त है भी तो पेंशन वाली तारीख पर डाकघर या बैंक लाने ले जाने जितना। कितना त्रासदीपूर्ण होता होगा- मौत है कि आती नहीं और मर-मर के जीने की मजबूरी सही जाती नहीं। पहले जिन परिवारों में बच्चों की तरक्की के लिए दुआएं मांगी जाती थी, बच्चों के बड़े हो जाने पर इनमें से कई परिवारों में बच्चों के उपेक्षाभाव से त्रस्त होकर क्यों उसी ऊपर वाले से जल्दी उठा लेने की कामना की जाती है। अपनों के लिए हम कुछ पल नहीं निकाल सकते तो मान लेना चाहिए कि उस कमरे में लगे आईने में कल हमारी सूरत भी नजर आएगी।

Saturday 13 March 2010

परिंदों को आपकी याद आने लगी

एसएमएस वाली संवेदना घर-आंगन में दिखलाने का वक्त आ गया
कीर्ति राणा.
मित्रों के एसएमएस आना शुरू हो गए हैं। मोबाइल की संवेदना हमारे मन, घर-आंगन में दिखाने का वक्त आ गया है। आपको भी याद है न घर की छत और मुंडेर पर पिछले साल अपने बच्चों के हाथों से आपने परिंडे रखवाए थे। कई बार तो घर के बड़े भूल जाते थे तब ये बच्चे ही याद दिलाते थे आपने आज पानी नहीं डाला परिंडों में।
मार्च अभी आधा बीता है लेकिन पारा तेवर दिखाने लगा है। घरों मेें पंखें, कार्यालयों में एसी चल पड़े हैं, गर्मी जब हमें सताने लगी है तो परिंदों के लिए पानी की तलाश भी गंभीर होगी ही। पेयजल-सिंचाई पानी का संकट तो रहता ही है, लेकिन हालात इतने बद्तर भी नहीं हैं कि परिंदों के लिए एक लोटा पानी नहीं जुटा सकें।
कई परिवारों ने परिंडों के साथ ही एक बर्तन में परिंदों के लिए दाने की भी व्यवस्था की थी बीते साल। बचा हुआ भोजन भी परिंदों के लिए पकवान से कम नहीं होता। इस बार भी दाने और पानी के लिए दो बर्तन रखें। ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी है, सुबह अपनी दिनचर्या की शुरुआत ही इन बर्तनों में दाना-पानी डालने से करें। पहले दिन डरते-सहमते गिलहरी आएगी, कुछ कौवे मंडराएंगे, चींटियां तो कतारबद्ध होकर आएंगी ही। थोड़ा सा शक्कर मिला आटा, मटर के दाने, ज्वार-बाजरा, रोटी-बिस्कुट के टुकड़े डाल दें।
कुछ देर बाद ही कौवों का झुंड आ जाएगा, दावत उड़ाने वाले कुछ परिंदों को मीठा पसंद है तो ज्यादातर रोटी के टुकड़ों को पानी वाले बर्तन में डालकर नर्म करते हैं। जितनी देर रोटी नर्म होती है, उतनी देर कांव-कांव, चींची, गुटर-गूं करते हुए आपस में सुख-दुख की बातें करते रहते हैं। पेट भर जाने के बाद परिंदों का एक झुंड उड़ता है तो दूसरा आ जाता है। जो मिल जाए उसी में संतुष्ट हो जाना कोई इनसे सीखे।
परिंदों की भाषा हमें तो समझ आती नहीं, लेकिन कभी जब कौवों-कबूतरों-तोतों का झुंड परिंडों के पास गु्रप डिस्कशन के लिए जुटा हो तो कुछ देर दूर खड़े होकर इनकी हरकतें तो देखिए, कोई चोंच में पानी भरकर उसे गटकने के लिए गर्दन इस तरह ऊंची करेगा, जैसे आपके पुण्य कार्य के बदले ऊपर वाले से आपके लिए दुआ मांग रहा हो। हम परिंदों की भाषा भले ही न समझें, लेकिन पशु-पक्षी हमारे भाव समझते हैं। आपकी छत और मुंडेर पर जब पक्षियों के झुंड मंडराएंगे, तब आप भी इनकी भाषा समझ जाएंगे।
अपने बच्चों में अच्छे संस्कारों का विकास उनके हाथों परिंदों को दाना-पानी डालकर भी किया जा सकता है। परिवार के सभी सदस्य एक-एक दिन आपस में बांट लें कि कल कौन डालेगा परिंडों में दाना-पानी। आपकी यह छोटी सी पहल न जाने कितने परिंदों की आत्मा तृप्त करेगी, तब घर के बुजुर्ग याद दिलाएंगे अपने पित्तर आए हैं परिंदों के रूप में!

Thursday 11 March 2010

कुछ पल सहज हो जाएं

हम सबके जीवन में अकसर कुछ कुछ ऐसा घटित होता ही है जो हमें कुछ देर के लिए ही सही असहज कर देता है। असहजता हमें विचलित करती है। विचलित हुए कि मन-मस्तिष्क में वैचारिक द्वंद्व शुरू। मन पर पडऩे वाला प्रभाव तन पर भी नजर आने लगता है। जब मन और तन स्वस्थ हों तो पारिवारिक पर्यावरण तो दूषित होना ही है।
हम सभी सुनते आए हैं कि जहां भी राम नाम संकीर्तन होता है प्रिय भक्त हनुमान किसी किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते ही हैं। इसकी सत्यता को लेकर तर्क-वितर्क हो सकते हैं लेकिन इस पूरे प्रसंग में बालाजी का सहज भाव यह है कि वे कभी भी अग्रिम पंक्ति में स्थान को लेकर लालायित नहीं रहते। अपितु सबसे पीछे ऐसे दीनहीन भाव से बैठते हैं कि सामान्यत: लोगों की नजर नहीं पड़े। संभवत यह सहज भाव ही उन्हें सम्मान भी दिलाता है।
आज तो दिक्कत यह है कि चाहे शोक सभा हो या निंदा प्रस्ताव को लेकर बैठक, हर आदमी चाहता है कि पहली पंक्ति की कुर्सियां उसी के लिए हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि जो अगली पंक्ति की कुर्सियों पर अकड़ कर बैठे नजर आते हैं समारोह शुरू होने से पहले, अतिथियों के आगमन पर इन्हीं लोगों को हाथ जोड़कर या हाथ पकड़कर उठा दिया जाता है। बस ऐसे ही पल हमें असहज कर देते हैं। ऐसी स्थिति क्यों बनी इसका चिंतन हम चूंकि अपने मन मुताबिक करते हैं इसलिए जरा सा अप्रिय घटने पर असहज हो जाते हैं। यदि पहले से ही हम समझ लें कि पहली पंक्ति की खाली कुर्सियां अतिथियों, उनसे जुड़े लोगों के लिए हैं तो हम असहज होने से बच सकते हैं। इसी तरह जीवन में घटित होने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं, जन्म-मौत, जुडऩा- बिछडऩा को सहज भाव से स्वीकार करना सीख लें तो असहजता की स्थिति ही नहीं बने।
वैसे तो ध्यान की विभिन्न पद्धतियों में एक सहज योग साधना भी है लेकिन इस साधना के मार्ग में भी हमें विषम बाधाएं नजर आती हैं। इसलिए ध्यान में भी हम सहज नहीं रह पाते और सारा दोष देते हैं पद्धति को। हमें सहज होने का तो अभ्यास करना पड़ता है लेकिन असहज कब हो जाएंगे हमें पता हीं नहीं होता। एक बुजुर्ग साथी हैं। उन्हें डॉक्टरों ने सलाह दे रखी है कम बोलें, धीमें बोले लेकिन उन्हें खुद के हार्ट की चिंता है, डॉक्टर की सलाह की और ही परिजनों की जो उनके निरंतर और तेज आवाज में बोलते रहने की आदत को लेकर चिंतित रहते हैं। सहज रहकर हम बाकी लोगों के लिए अपने व्यक्तित्व को आदर्श बना तो सकते हैं लेकिन हम पर तो हर वक्त असहजता का भाव हावी रहता है। दुधमुंहे बच्चे जब गहरी नींद में होते हैं तब भी मुस्कुराते रहते हैं और हम हैं कि जागते हुए भी असंतोष की आग में उबलते रहते हैं। सहज भाव को समझ पाने में पूरी उम्र्र गुजार देते हैं। हम याद रख लें कि ये जो ङ्क्षजदगी की गाड़ी है, उसे ऐसे वन वे पर चला रहे हैं जिसे हम घुमा कर पीछे नहीं जा सकते लेकिन गर्दन घुमा कर पीछे देख तो सकते ही हैं। जरा देखें तो सही हम जब सहज हुए थे उन कुछ पलों में कितना सुख मिला था। सहज होने का मतलब है पद-पैसे-प्रतिष्ठा की कैंचुली से मुक्त होना।
सांप जब कैंचुली छोड़ता है तब और ज्यादा आकर्षक हो जाता है, हनुमान जी जब सिंदूर का चोला उतारते हैं तो दर्शन को श्रद्धालु टूट पड़ते हैं और कभी जब हम कुछ पल के लिए सहज हो जाते हैं तो सभी के लिए सम्मानीय हो जाते हैं। हमारे आसपास भी सहज जीवन जीने वाले लोग हैं उन्हें देखने-पहचानने के लिए हम दृष्टि में सहज भाव तो ला ही सकते हैं।
अगले हपते फैरूं,खम्मा घणी-सा...

Friday 5 March 2010

एडजस्ट करने का मतलब हर हाल में खुश रहना

हमें अपने शहर की अहमियत यूं तो पता नहीं चलती, लेकिन जब कहीं घूमने-फिरने जाते हैं शहर से कुछ दिनों के लिए दूर रहते हैं, तो उस पराए शहर के चौराहों, गलियों में अपना शहर तलाशते हैं। जिन लोगों को जानते-पहचानते नहीं उन अपरिचित चेहरों में अपने शहर के परिचितों की झलक महसूस करते हैं। सरकारी-गैरसरकारी सेवाओं में कार्यरत जिन लोगों के ट्रांसफर होते रहते हैं, उन्हें फौरी-तौर पर तो ये अंजान शहर प्रभावित नहीं कर पाते, लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में पराया शहर सांसों में कब रच-बस जाता है, इसका अहसास भी तब होता है, जब किसी अगले शहर में ट्रांसफर का आदेश मिल जाता है।
ससुराल जाने वाली बेटियों को शुरूआती दिनों में नया घर, ससुराल वाला शहर कुछ भय पैदा करता है, लोगों का मिजाज भी समझने मे महीनों गुजर जाते हैं, लेकिन फिर ऐसी स्थिति भी बन जाती है कि मायके आई बेटी के मुंह से ससुराल की बातों, परिजनों के अलावा कोई चर्चा सुनाई नहीं देती। जब वह विदा होने को होती है, तो आंसुओं में मायके की यादें झरने लगती हैं। इन आंसुयोयं के साथ फिर से ससुराल पहुंचने का रोमांच तो होता ही है।
हर हालात में एडजस्ट करने का सच या तो घर से विदा की गई बेटी या हर दो-चार साल में एक से दूसरे शहर स्थानांतरित किए जाने वाले कर्मचारी जानते हैं। एक शहर के गली-मोहल्लों, लोगों के मिजाज को जानने की क्षमता बन पाती है, डायरी में पते और मोबाइल में नंबर फीड हो पाते हैं, अंजान आवाज को सुनकर नाम से पहचानने की समझ पैदा हो पाती है कि अगले शहर के लिए तैयारी का आदेश मिल जाता है। जिस शहर का आप क, ख, ग नहीं जानते, कुछ समय में उसके चप्पे-चप्पे से परिचित हो जाते हैं। बेटी जिन लोगों को पहले कभी नहीं मिली उन ससुराल वालों में अपने मम्मी-पापा तलाशने लगती है, देवर में भाई जैसी शरारतें और देवरानी-जेठानी में बहनों-भाभी जैसा प्यार महसूस करती हैं। सब कुछ नया, अंजान, अपरिचित होते हुए भी वह कुछ समय में ही तालमेल बैठा लेती हैं, तो इसी एडजस्टमेंट के कारण।
रेल में सफर करते वक्त जिस बर्थ में तीन लोगों के बैठने जितनी जगह होती है, उस पर छह लेाग भी ताश पत्ते खेलते वक्त एडजस्ट हो जाते हैं। तो यहां भी यही भाव होता है कि बस थोड़ी ही देर की बात है। मुंबई की लोकल ट्रेन में तीन-चार घंटे का सफर तय करके नौकरी के लिए आने-जाने वाले भी इसी तरह एडजस्ट करके काम चलाते हैं।
एक $गजल के शेर की लाइन है, कभी किसी को मुकम्मिल जहां नहीं मिलता...! ऐसे हालातों के बाद भी जिंदगी चलती रहती है, तो इसी एडजस्टमेंट के कारण। जो एडजस्ट करना सीख लेते हैं, वे जिंदगी की हर परेशानी का मुस्कुराते हुए सामना करते हैं। हममें से हर कोई सपने देखते हुए जिंदगी का सफर शुरू करता है, लेकिन सबके सपने पूरे नहीं हो पाते। इसका मतलब यह भी नहीं कि जिनके सपने पूरे नहीं हो पाते उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है, ऐसा भी होता है कि सपना पूरा न होने की स्थिति में कई बार नई राह भी मिल जाती है। ये तभी संभव है, जब हम एडजस्ट करना सीख लें। इसकी न तो कोई कोचिंग क्लासेज हैं और न ही किसी यूनिवर्सिटी में कोई सिलेबस। हमारे परिवारों में तो एडजस्ट करके सबसे पहले मां ही दिखाती है और यही पाठशाला हमें हिम्मत न हारने, हर हाल में एडजस्ट करने के संस्कार भी सिखाती है।
ससुराल में बहू जब बेटी जैसे प्यार-दुलार की हकदार हो जाती है, तब भी इसी एडजस्टमेंट का जादू काम करता है, लेकिन ससुराल में रहते हुए भी बेटी जब बात-बात में मायके का गुणगान करती है, तो संस्कार ग्रहण नहीं कर पाने की कमजोरी से अपना मान घटा लेती है। आप जैसा चाहें, हर वक्त वैसा ही हो यह कतई संभव नहीं है क्योंकि ऐसा हो जाए तो हालात से समझौता करना ही भूल जाएंगे। एडजस्ट करने का मतलब है ऐसा मध्य मार्ग जहां हमें कुछ अतिरिक्त नहीं भी मिले तो हमें कुछ खोने का अफसोस भी नहीं होता। एजडस्ट करना हमें एक कदम पीछे होने का संयम सिखाता है, तो दो कदम आगे होने की ताकत भी देता है। जो एडजस्ट करना सीख लेते हैं, वो बगीचे की उस दूब के समान हो जाते हैं, जिसका भीषण बारिश भी कुछ नहीं बिगाड़ पाती और जो खजूर की तरह अकड़ कर खड़े रहते हैं वे तेज आंधी के झटके नहीं सह पाते।

आंसू बहाना, पानी बचाना सीखिए

पानी के एक बुलबुले के माध्यम से कबीर ने जीवन और मौत की हकीकत समझाई है। क्या हम पानी का मोल, उसका महत्व मरते दम तक समझ पाते हैं! पानी के बिना जीवन सूना कहा गया है। जिसकी आंखों से आंसू न टपके उसका अमर होना भी बेकार ही है।
सीखना चाहेंं तो हम पानी से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, लेकिन उसके लिए भी यह जरूरी है कि हम अपने स्वभाव की समीक्षा पहले कर लें। पानी चाहे तरल हो या ठोस, अपना मूल स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। बर्फ के रूप में भी बूंद-बूंद होकर पानी हो जाता है। पानी होने पर वह सात तालों में कैद किए जाने वाले हालात में भी कहीं न कहीं से जगह बनाकर बाहर आ ही जाता है। नहीं आ पाए तो दीवार और जमीन पर नमी के रूप में अपने होने का अहसास कराता रहता है। भाप बन जाने पर भी फिर पानी होना ऐसी मिसाल पानी से ही संभव है।
जिद्दी होना हो तो पानी जैसा होना पड़ेगा, जो अपने स्वभाव को हर हाल में कायम रखता है। दूध में मिलाओ या चाशनी बनाने के लिए चीनी में, त्याग के मामले में पानी के आगे सब फेल ही साबित होंगे। पानी की अपनी कोई चाहत भी नहीं होती, लेकिन उसके अस्तित्व को नकार पाना भी संभव नहीं होता। दूध में घुलकर पानी दूध हो जाता है खुद तपता, जलता है पर दूध को दूध रहने देता है। रंग में डालो तो रंग का रूप निखर जाता है, रंग छुड़ाना हो तो पानी ही काम आता है।
हमारी इतनी उपयोगिता तो कम ही नजर आती है कि हर मोड़ पर अपनों के लिए हम पानी जैसे स्वभाव के साथ खड़े रहें। पानी का स्वभाव है, सबसे पहले त्याग के लिए तत्पर रहना, इसके विपरीत हमारा स्वभाव है पाने के लिए सबसे आगे रहना। जीवन में जल न हो तो जिंदगी हलाहल हो जाए। जल हमें संदेश भी देता है कि जो औरों के लिए जल जाता है, उसका जीवन सार्थक हो जाता है। प्रकृति ने खारे जल की दो कटोरियां यूं तो हम सभी को उपहार में दे रखी हैं। आंख से रिसकर गालों से होते हुए ओठों पर ठहरते हैं, तो हमें इन आंसुओं का स्वाद खारा लगता है, समुद्र का पानी भी खारा है, लेकिन आंसुओं के खारेपन की कुछ अलग ही बात है। ये आंसू जब किसी के दर्द में बहते हैं, तो उस आहत को अपनेपन का मीठा अहसास कराते हैं।
आज का जमाना पानी बचाने का है, कल के लिए जल तभी बच सकता है, जब इस होली पर तिलक-गुलाल का संकल्प लिया जाए। जल बचाना समझदारी है, लेकिन जल जैसा व्यवहार न सीख पाना नादानी है। हो यह रहा है कि पानी तो हम दोनों हाथों से उलीच रहे हैं, लेकिन आंसू खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं। अपनों के दर्द में शामिल होने के लिए चेहरा लटकाकर ही काम चला लेते हैं, तब भी आंखें चुराकर बार-बार घड़ी पर नजर डालते रहते हैं। आंखें सूखी ही रहती हैं, उन्हें भी शायद यह भय सताता रहता है कि पलकों के किनारे पर आंसू चमक गए तो कहीं इंकमटैक्स वाले पूछताछ न करने लगें।
हमें पता है कि अब जमाना 'टेक एन गिव' का है। किसी के लिए आंसू खर्च करने में कंजूसी बरतेंगे, तो बाकी लोग भी हमसे पत्थरदिल होकर ही मिलेंगे। जमाना पानी बचाने का है, आंसू बचाने का नहीं।