पचमेल...यानि विविध... जान-पहचान का अड्डा...पर आपका बहुत-बहुत स्वागत है.

Wednesday 30 December 2009

कल क्या करेंगे, आज ही लिख लें

पलक झपकते वक्त कैसे गुजर जाता है, यह हम रोज देखते तो हैं लेकिन ज्यादातर लोग पंख लगाकर उड़ते वक्त को 31 दिसंबर की रात मनाए जाने वाले जश्न के दौरान ही समझ पाते हैं। एक पल पहले 09 और पल भर बाद ही 2010 का जन्म हो जाता है। वक्त को तो अपनी अहमियत पता है लेकिन हम में से ज्यादातर लोगों को वक्त का महत्व पता नहीं है या पता है, तब भी कल पर टालते जाते हैं। नदी की कलकल तो फिर भी हमें सुकून देती है, लेकिन वक्त के प्रति यह कल कल का खेल हमें जिंदगी की रेस में हार का मुंह दिखा सकता है, यह हम समझना ही नहीं चाहते।
नए साल के आगमन के साथ ही आकर्षक कैलेंडर, खूबसूरत डायरियों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है। उपहार में मिली डायरियों में कुछ तो इतनी सुंदर होती हैं कि लिखने की इच्छा नहीं होती, वैसे भी डायरी में हम नाम, पता, ब्लड ग्रुप आदि लिखने में तो तत्परता दिखाते हैं लेकिन वैसा उत्साह फिर हर रोज नजर नहीं आता। जनवरी बीतते-बीतते तो याद भी नहीं रहता कि हमने नए साल में क्या-क्या संकल्प लिए थे। 09 की डायरी को विदा करने से पहले उस पर आखिरी नजर डालेंगे तो पाएंगे लगभग पूरी डायरी खाली पड़ी है। आपने कुछ नहीं लिखा तो क्या फरवरी, मार्च आपके लिए रुके रहे? हम न जागे, तब भी सूरज समय पर जाग कर अपनी ड्यूटी पूरी करता है। हम खड़े रहें तब भी वक्त तो चलता ही रहता है। कल के लिए हमने जो सोचा है, उसे अपनी डायरी में आज ही लिख लें और उस लिखे हुए पर रोज नजर डालने की आदत भी डाल लें तो हमें साल बीत जाने का ज्यादा अफसोस नहीं होगा।
अब जब नए साल में जरूरी काम निपटाने की प्लानिंग बनाएंगे तो बीते साल में लिए संकल्प के बाद भी जो काम नहीं कर पाए, वे सब विक्रम-बेताल की कहानी की तरह हम से जवाब मांग रहे होंगे। ऐसे वक्त ही हमें अहसास होता है कि कल पर टाले जाने वाले काम हमें कितने भारी पड़ जाते हैं। गैस पर रखा दूध उफने, उससे पहले ही हम गैस बंद कर देते हैं, उस वक्त कल कर देंगे सोचना काम नहीं आता। टेलीफोन व बिजली आदि के बिल, बैंक से लिए लोन की किश्त, सिनेमा के टिकट आदि मामलों में हम कल का इंतजार नहीं करते। हमें पता होता है कि विलंब शुल्क, ब्याज पर पेनल्टी लगेगी और सेकंड शो वाला टिकट अगले शो में काम नहीं आएगा।
साबित यह हुआ कि हमें अभी, आज, कल और फिर कभी का फर्क तो पता है लेकिन हम आलस्य के ऐसे बीज बोते रहते हैं जिससे कल की बंजर भूमि पर परिणाम की फसल उग ही नहीं पाती। कहावत तो याद है 'काल करे सो आज कर....', लेकिन कार्यरूप में 'आज करे सो काल कर...' की शैली अपनाते हैं।
नए साल के पहले दिन ही तय कर लंे कि हमें आज क्या करना है, कल क्या करेंगे और इस साल कौनसे काम हर हालत में पूरे करने हैं। जो भी संकल्प लें यह याद रखें कि इन संकल्पों की याद दिलाने कोई नहीं आएगा। पेन आपका, डायरी आपकी, मर्जी आपकी और मन भी आपका! जो लाभ होगा, आपका ही होगा। रही नुकसान की बात तो बीते साल को याद कर लें, क्या-क्या सोचा था और क्या नहीं कर पाए। नए साल में बधाई के बदले बधाई देना तो प्रचलन है ही, अच्छा यह भी हो सकता है कि बीते साल जिन लोगों की किसी बात से हमारा मन दुखा या हमारे व्यवहार से खिन्न होकर किसी अजीज ने हमसे मुंह मोड़ लिया, उसे मनाएं। एक साल तो आपने कल-कल करते खो दिया, एक अच्छा मित्र तो न खोएं। कहा भी तो है आपका व्यवहार कैसा है, यह तब आसानी से पता चल सकता है, जब या तो आपका अजीज दोस्त आपा खो बैठे या आपके व्यवहार से प्रभावित होकर दुश्मन भी आपका दोस्त बन जाए। व्यावहारिक जीवन जीने का बड़ा आसान सा फंडा है, जैसा बोलेंगे, वैसा सुनेंगे। किसान तो जानता है कि कनक बोएगा तो सरसों की फसल नहीं ले सकता, फिर हम भी जान लें कि क्वआपं सुनने के लिए कम से कम 'तुम' तो कहना ही पड़ेगा। नए साल की डायरी में हर रोज नया संकल्प लिखने से बेहतर यह भी हो सकता है कि कोई एक संकल्प हर रोज लिखें। इससे कम से कम हमारी याददाश्त मजबूत होगी और लिखे हुए का पालन करने की कोशिश भी करेंगे।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 24 December 2009

पहले अपने लिए तो जीना सीख लीजिए

पुरानी फिल्म का गीत है- अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी दिल जमाने के लिए। एक हद तक तो मुझे गीत सही लगता है, लेकिन फिर इस प्रश्न का जवाब नहीं मिल पाता कि जो अपने लिए ही जीने का वक्त नहीं निकाल पाते, वे जमाने के लिए क्या जिएंगे? निश्चित ही अपने लिए जीने का मतलब घंटों टीवी के सामने बैठे रहना, दोस्तों के साथ पार्टी करना, बच्चों को होमवर्क कराना, सुबह से रात तक रसोइघर में व्यस्त रहना तो नहीं है।
दरअसल अपने लिए जीने की शुरुआत तो अब डॉक्टर के परामर्श से ही होती है। अचानक बेचैनी महसूस हो, चक्कर खाकर गिर पड़ें। परीक्षण और महंगी जांच के बाद जब डॉक्टर संतुलित आहार, मद्यपान निषेध, सलाद सेवन और नियमित मोर्निंग वॉक-योग आदि की सलाह देते हैं, तब अपने लिए जीने का क्रम शुरू होता है। ठीक भी है हमें खुद ज्ञान प्राप्त हो जाए तो हम सब महात्मा बुद्ध हो जाएं। रामायण लिखने से पहले तक वाल्मीकि क्या थे? उन्हें जब ज्ञान मिला कि ये सारे पाप आपके खाते में जमा हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने लिए जीना सीखा। अपने लिए जीना सीखकर वे देवत्व को प्राप्त कर सके तो कुछ वक्त अपने पर खर्च करके हम भी अपना बाकी जीवन तो बिना तनाव के जी ही सकते हैं।
चौबीस घंटों में हम अपने लिए कितना जी पाते हैं। हमारी कॉलोनी के आसपास गार्डन है। अपनी कोठी की छत पर भी खूब जगह है, हमें तो मोर्निंग वॉक तक का समय नहीं मिल पाता। और तो और इन गार्डन के आसपास रहने वाले अधिकांश लोग भी अपने लिए कुछ वक्त नहीं निकाल पाते। शायद हम सब ने ठान रखा है कि जब तक डाक्टर हिदायत दें, क्यों घूमें, क्यों संतुलित खानपान रखें। अपने दरवाजे पर मरीजों की कतार किस डॉक्टर को अच्छी नहीं लगती, लेकिन साफ दिल से दी गई उनकी सलाह को मानने की अपेक्षा हम डॉक्टर बदलना ज्यादा आसान समझते हैं, क्योंकि भगवान का दिया सब कुछ है हमारे पास। पैसे का गुरूर रखें लेकिन यह भूलें कि टेंशन फ्री लाइफ और निरोगी काया के लिए माया जरूरी नहीं है।
जरा संकल्प लेकर तो देखिए कि कम से कम सात दिन तो जल्दी उठकर घूमने जाना ही है। पहले दिन तो बड़ा मुश्किल लगेगा, इच्छा होगी बस पांच मिनट और सो लें, फिर उठ जाएंगे। भले ही मन मारकर उठें, लेकिन मोर्निंग वॉक से लौटकर जो ताजगी महसूस करेंगे तो मन ही मन खुद को कोसेंगे भी कि इतनी देर बाद क्यों समझ आई। प्रकृति हमारा इंतजार करती रहती है और हम हैं कि कुछ पल उसकी गोद में गुजारने की अपेक्षा महंगे अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में रहना ज्यादा पसंद करते हैं।
जमाने के लिए कुछ करें, अपने परिजनों के लिए तो जीना चाहते ही हैं। उन सब के सपने भी आप तभी पूरे कर सकते हैं जब अपने लिए जीना सीख लें। अब तक तो सोचने का भी वक्त नहीं मिला कि अपने लिए कितना जिए। हिसाब लगाने बैठेंगे तो सबके लिए वक्त लुटाते रहने में आपके एकाउंट में वक्त का बैलेंस जीरो ही नजर आएगा। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, जो वक्त बचा है, उसमें से हर रोज एक घंटा तो अपने पर खर्च कर सकते हैं। महंगाई के इस जमाने में अपने पर खर्च किए 60 मिनट के बदले डाक्टर के बिल में जितनी भी कमी आएगी, वह सारी राशि दोनों हाथों से लुटाइए अपनों पर।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Thursday 17 December 2009

अपने बारे में फीडबैक पता कीजिए

चाहे संबंध हो या व्यापार न चाहते हुए भी स्थिति ऐसी हो ही जाती है कि प्रोफेशनल होना ही पड़ता है। जो उत्पादक हैं वे अपने प्रॉडक्ट की बिक्री में बढ़ोतरी के लिए फीड बैक लेते हैं। संबंधों को तरोताजा बनाए रखने के लिए, ज्यादा से ज्यादा अपने प्रशंसकों तक पहुंचने के लिए सितारे और नेता भी फेसबुक, ब्लॉग, आरकुट आदि का सहारा ले रहे हैं। इस सब का उद्देश्य भी यही है कि वे जो कर रहे हैं उस पर प्रशंसकों की प्रतिक्रिया सकारात्मक भी है या नहीं। आशा के विपरीत परिणाम आने पर कंपनियां अपने प्रॉडक्ट की कमियां दूर कर लेती हैं। सितारे अपने फैसलों की, अपने काम की समीक्षा करते हैं, जनप्रतिनिधि जनभावना के खिलाफ कोई निर्णय लेने का साहस नहीं कर पाते। सारा खेल अब फीड बैक पर निर्धारित हो गया है। हमें अपने कार्य-व्यवहार के बारे में भी फीड बैक लेते रहना चाहिए। इससे खुद को और बेहतर इंसान तो बना ही सकते हैं। हालांकि मैंने अपने साथियों से कई बार अपने कार्य-व्यवहार पर फीड बेक देने को कहां, बिना नाम के अपना मत लिख कर देने को कहा लेकिन मुझे अब तक सफलता नहीं मिली।
ऐसा नहीं कि यह कोई नया तरीका है। सदियों से फीड बेक लिया जाता रहा है। राजतंत्र में कई राजा रात में वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल जानने निकला करते थे। पुलिस अधिकारी भी सामान्य वेशभूषा में कानून व्यवस्था देखने निकल जाते थे। जिले में ज्वाइन करने से पहले कई अधिकारी सामान्य नागरिक के रूप में घूम फिरकर शहर को अपने तरीके से समझ लेते थे। इस तरीके से उन्हें अपना काम करने, फैसला लेने में आसानी हो जाती थी।
ग्राहक और दुकानदार में सीधा संबंध होता है। वह प्रॉडक्ट पैसा देकर खरीदता है। प्रॉडक्ट में किसी तरह की खोट होने पर वह सबसे पहले दुकानदार को ही शिकायत करता है। कंपनी तक ग्राहकों की बात इन्हीं दुकानदारों या फीड बैक सिस्टम से पहुंचती है। प्राप्त फीड बैक के आधार पर महंगा शैंपू, दो रुपए के पाउच में गांव-ढाणी तक उपलब्ध कराने या निरंतर शिकायतों के कारण प्रॉडक्ट को माकेüट से हटाने का निर्णय लिया जाता है।
गंगानगर और हनुमानगढ़ क्षेत्र में वर्षों से अभिकर्ता के रूप में क्वभास्करं को निरंतर ऊंचाइयों पर ले जा रहे वरिष्ठ अभिकर्ताओं से अभी जब सीधे चर्चा का अवसर मिला तो मैंने क्वपचमेलं के संदर्भ में भी उनका एवं उनके क्षेत्र के पाठकों (ग्राहकों) का फीड बेक बताने का अनुरोध किया। एक अभिकर्ता साथी ने निभीüकता से प्रति प्रश्न किया आप सच सुनना पसंद करते हों तो बताता हूं कोई पाठक इसे पसंद नहीं करता। ज्ञान-ध्यान की बातों वाली किताबों की बाजार में कमी नहीं है। आपको इसकी जगह समाचार छापने चाहिए।
उनका कहना था मेरे अकेले का नहीं बाकी सभी अभिकर्ताओं का भी यही मत है। हमने आपको असल बात कह दी, आगे आपकी मर्जी। अब उन सब की नजरें मेरे चेहरे पर प्रतिक्रिया जवाब के रूप में तलाश रही थी।
मेरा यह जवाब सुनकर अभिकर्ताओं के चेहरे पर खुशी और विजयी भाव था कि आपके इस सुझाव को अगले सप्ताह से अमल में ले आएंगे। जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों के अंजान पाठकों के मुझे प्रति सप्ताह एसएमएस और सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती थी। उससे यह मान लेना घातक ही कहा जा सकता है कि पसंद करने वालों का प्रतिशत अधिक है। आलोचक भी आपका सच्चा हितैषी हो सकता है। हां में हां मिलाने वालों की भीड़ में कोई एक-दो ही ऐसे मिलते हैं जो हकीकत बताने का साहस रखते हों। उजली धूप को चांदनी जैसा बताने वालों की भीड़ में ऐसे निंदक ही आंख खोल सकते हैं कि जिसे आपके सामने चांदनी बताकर प्रचारित किया जा रहा है, वह तेज धूप है।
सुख-दुख की बातें तो अभी भी जारी रहेंगी लेकिन माध्यम बदला हुआ होगा। अब जब अपनी बात कहने, प्रतिक्रिया व्यक्त करने का ब्लॉग सबसे सरल, अच्छा माध्यम बनता जा रहा है तो इस स्तंभ को पसंद करने वाले पाठकों को भी कंप्यूटर, इंटरनेट फ्रेंडली होना पड़ेगा। यानी बुराई में भी एक अच्छाई है कि ब्लॉग दुनिया से अनभिज्ञ पाठक जब ब्लॉगिंग से जुड़ेंगे तो उनमें से कई खुद अपने ब्लॉग पर लिखना भी शुरू करेंगे। यह मुश्किल भी नहीं है। इस स्तंभ के एक नियमित पाठक चंद्र कुमार सोनी (एल मॉडल टाउन श्रीगंगानगर) अपने नाम से ब्लॉग लिखने लगे हैं। कॉलम और ब्लॉग को लेकर मित्रमंडली से होने वाली नियमित चर्चा का ही यह परिणाम रहा कि बीकानेर के पत्रकार मधु आचार्य (जनरंजन) जोधपुर से पानीपत पहुंचे पत्रकार ओम गौड़ (हमारी जाजम) आदि भी ब्लॉग लेखन के लिए प्रोत्साहित हुए और अब नियमित लिख भी रहे हैं। किसी मुद्दे को लेकर मन में कुछ लिखने की छटपटाहट हो लेकिन यह शंका भी घेरे रहे कि कोई समाचार पत्र छापेगा या नहीं तो ऐसे में खुद के ब्लॉग पर लिखना बड़ा आसान और मन को सुकून देने वाला तरीका है।

Friday 11 December 2009

समाज से लिया है तो कुछ चुकाएं भी

रिश्ते में हमारे एक भाई एक दोपहर स्कूल से जल्दी घर आ गए। कई दिनों से निजी स्कूल प्रबंधन जो मंशा स्कूल स्टाफ के सामने जाहिर करता रहा था आज उस पर अमल हो गया था। स्कूल भवन वाली जगह पर अब बड़ा कमर्शियल कांप्लेक्स बनेगा। चूंकि स्कूल सरकारी अनुदान से चल रहा था लिहाजा स्कूल स्टाफ का हिसाब-किताब भी प्रबंधन ने अपनी मर्जी से ही किया। ज्यादातर अध्यापक अन्य काम-धंधे से साइड बिजनेस के रूप में पहले से ही जुड़े थे इसलिए स्कूल बंद होने के निर्णय से उनके सामने आर्थिक संकट जैसी स्थिति नहीं बनी। इसके विपरीत स्कूल बंद होने की सूचना के साथ ही भाई ने बड़े उत्साह से एक निर्णय और सुना दिया कि बस इसी महीने से सब्जी का थोक व्यवसाय भी बंद करके अब पूरा समय बच्चों को ट्यूशन देने में लगाएंगे। जमा-जमाया बिजनेस बंद करने के उनके इस निर्णय का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी, समझा इसलिए नहीं सकते क्योंकि वे उम्र में सबसे बड़े थे। बच्चों को पढ़ाने के इस काम में भी यह निधाüरित कर दिया जो बच्चे फीस नहीं दे सकते उनसे नहीं लेंगे, बाकी बच्चे जो देंगे ले लेंगे।
गली-गली में जब कोचिंग सेंटर चल रहे हों तब इस तरह ट्यूशन से बेहतर आमदनी की उम्मीद करना कैसे सही हो सकता है। कामर्स के कुछ बच्चे आने लगे, पढ़ाने के तरीके के कारण उन बच्चों को कामर्स अब आसान लगने लगा। संध्या बढ़ने के साथ ही कुछ बच्चों ने परेशानी बताई- हमारे स्कूल में कई बातें कंप्यूटर से भी समझाते हैं। उन्होंने बच्चों की परेशानी में छुपे संकेत को समझ लिया। उम्र भ्8 की होने के बावजूद कंप्यूटर क्लास ज्वाइन की और अब बच्चों की जिज्ञासा का कंप्यूटर की भाषा में ही समाधान करते हैं। ट्यूशन के बाद बचा समय उन बच्चों के लिए रखते हैं जो सप्ताह में एक दिन पढ़ने का वक्त निकाल पाते हैं। अपने रिश्तेदारों से कपड़े व अन्य उपयोगी पुराना सामान एकत्र कर इन बच्चों को उपलब्ध करा देते हैं इस उतरन से ही इन बच्चों के सपने रंगीन हो जाते हैं।
इस तरह के प्रसंग कहीं न कहीं घटित होते ही रहते हैं जो हमें यह सोचने को भी बाध्य करते हैं कि क्या हम अपने रोज के काम या सेवानिवृति के बाद ऐसा कुछ नहीं कर सकते? क्या जीवन में पैसा ही सब कुछ होना चाहिए? अच्छा करने का जज्बा किसी भी उम्र में पैदा हो सकता है। जिनकी नजर अपनों से आगे देख ही नहीं पाती उन लोगों के लिए ही पैसा सब कुछ हो सकता है। इन पैसे वालों की भी तो पीड़ा जानिए जो बेफिक्री की नींद वाली एक रात के इंतजार में बिना गोलियांे के एक झपकी भी ठीक से नहीं ले पाते। एक इशारे में दुनिया खरीदने जितनी ताकत रखने के बाद भी दाल-रोटी के बदले लोकी और करेले के सूप पर गुजारा करते हैं। मुझे लगता है सब कुछ उपलब्ध होने के बाद भी जब इस सबसे मन उचट जाए तो मामला एश या केश का नहीं मन के फ्रेश होने का ही होता है।
'पा' में बच्चे बने महानायक हों, विज्ञापन फिल्म में बूढ़े के रूप में अपनी भावी सूरत से खुश होने वाले किंग खान हों या फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान पाने के बाद 81 की उम्र में खुद को 18 का महसूस करने वाली लताजी हों या ऐसी सारी हस्तियों के लिए आज भी पैसा ही सब कुछ है। यदि इसका जवाब हां में ही सुनना चाहें तो यह भी सोचना पड़ेगा कि इतनी उम्र के बाद भी यह सारे लोग पैसे के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं तो उम्र के इस पड़ाव पर समाजसेवा भी तो कर रहे हैं। जिस समाज ने इन्हें इस ऊंचाई पर पहुंचाया उसका अपने अंदाज में कर्ज भी तो उतार रहे हैं। हमें भी पैसा कमाने से कौन रोक रहा है लेकिन कितने लोग हैं जो कमाएं पैसे से सेवा का मेवा बांटने का काम कर पाते हैं?
शासकीय सेवा में रहते समाज के एक बड़े वर्ग की फिक्स लाइफ स्टाइल होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि समाज के लिए कुछ अच्छा करने की दिली इच्छा है पर क्या करें आफिस की झंझटों और बाकी बचे समय में पारिवारिक दायित्वों के कारण समय ही नहीं मिल पाता। जब यह वर्ग पूरे सम्मान के साथ सेवानिवृत होता है तब इनमें से कितने लोग समाज को कुछ वक्त दे पाते हैं। दिनचर्या तो बदल जाती है लेकिन मन नहीं बदल पाता। उल्टे-सीधे तरीकों से पैसा कमाने वालों का तो तनाव बढ़ जाता है, नए-नए रोग घेर लेते हैं, चिंता सताने लगती है इंकम के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। कहा भी तो गया है पहले इंसान सारा ध्यान पैसा कमाने में लगाता है और बाद में बीमारियों से राहत पाने के लिए इसी पैसे को पानी की तरह बहाता है।
हमें अगले पल की तो खबर होती नहीं और हम कल की खुशी के लिए आज को बर्बाद करने में लगे रहते हैं। कई बार हमने किस्से सुने हैं कि सड़क किनारे वर्षों से भीख मांगकर गुजारा करने वाले की लाश को उठाने आए लोगों ने उसका कंबल झटकाया तो उसके नीचे नोटों की गड्डियां जमी पाई। जो पैसा जमा करते-करते बिना सुख भोगे चले जाते हैं उनसे भी हम सीख नहीं पाते। कम से कम यह तो याद रख ही लें कि किसी की आंखों से बहते आंसू सोने की गिन्नी से नहीं आपके प्यार भरे स्पर्श से ही थम सकते हैं। रोते बच्चे को चुप कराना इतना ही आसान होता तो सारी मां-बहनें बच्चों को कंधे पर लेकर प्यार भरी थपकियां देने के बदले गले में सिक्के और नोटों की माला बनाकर डाल देतीं।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

Wednesday 2 December 2009

काम तो कर ही रहे हैं, कुछ अच्छा भी किया क्या?

बेटा स्कूल से घर आया तो शर्ट पर धूल-मिट्टी के निशान थे। अस्त-व्यस्त ड्रेस से आभास तो ऐसा ही हो रहा था कि दोस्तों के साथ गुत्थमगुत्था होकर आया है। स्कूल बैग पलंग पर फेंका और हम कुछ पूछें इससे पहले खुद ही उत्साह के साथ बोल पड़ा- पता है मम्मी, मैंने और मेरे दोस्तों ने आज एक अच्छा काम किया है? आगे बताने से पहले वह हमारा चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसके इस अच्छे काम को जानने की उससे दो गुनी उत्सुकता दिखाई, वह भी शायद ऐसी ही कुछ प्रतिक्रिया चाहता था। उसने उत्साह के साथ अपनी बात आगे बढ़ाई-हम तीन-चार दोस्त स्कूल से आ रहे थे। आगे चल रहे एक ऑटो वाले को एक अन्य वाहन ने टक्कर मार दी। आटो में फंसा ड्राइवर निकलने की कोशिश कर रहा था, आसपास के दुकानदार देख रहे थे, लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आया। हम दोस्तों ने सड़क पर ही बाइक तिरछी खड़ी की, बाकी वाहन घूमकर निकलते रहे। ऑटो से उस ड्राइवर को निकाला तो उसकी चोटों से खून बह रहा था। एक दोस्त को 108 पर एंबुलेंस के लिए कॉल करने को कहा। जैसे ही गाड़ी आई, उसमें उसे लिटाया, उसका ऑटो साइड में लगाया, इसी कारण घर आने में मुझे देरी हो गई।
कुछ देर पहले तक उसकी मम्मी के चेहरे पर चिंता की लकीरें थी कि बेटा अभी तक स्कूल से नहीं आया, लेकिन बेटे के मुंह से अच्छे काम का पूरा वृतांत सुनकर अब संतोष के भाव थे। जाहिर है कि उसके दोस्तों की भी उनके माता-पिता ने पीठ थपथपाई होगी।
मैंने भी उसके इस अच्छ काम की तारीफ की। फिर सोचा-पूछूं कि इससे पहले ऐसा कोई अच्छा काम कब किया था? शब्द बस मुंह से निकलने को ही थे कि होठों ने मेरी जुबान पर ताला लगा दिया? मेरा मन मुझसे ही सवाल कर रहा था कि यदि बेटे ने पूछ लिया-पापा आपने कब किया था ऐसा कोई अच्छा काम? क्या मैं उसे संतुष्ट कर पाऊंगा!
क्या मैं ही ऐसे किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे सकता या हममें से ज्यादातर मां-बाप के पास अपने बच्चों के ऐसे सवालों के जवाब नहीं हैं?
हम सब अपने बच्चों से तो यही अपेक्षा करते हैं कि वे संस्कारवान हों, हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरें। जो हम नहीं बन पाए, हम जो नहीं कर पाए वह सब हम अपने बच्चों से कराने की अपेक्षा उन पर थोपने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा करना अभिभावकों की अपेक्षा हो सकती है, लेकिन जब बच्चों की नजर में यह अपेक्षा ही तानाशाही बनती जाती है तब या तो बच्चे एकाकी हो जाते हैं या विद्रोही। ऐसे में या तो अभिभावक हताश हो जाते हैं या बच्चों के किसी अप्रत्याशित कदम से हाथों से तोते उड़ने जैसे हालात भी बन जाते हैं।
कहा तो यह भी जाता है कि बेटे के पैर में जब बाप का जूता आने लगे तो वह बेटा नहीं, दोस्त हो जाता है। ऐसे ही जब बेटी में स्त्रियोचित लक्षण नजर आने लगे तो मां को उसे अपनी सहेली मान लेना चाहिए। क्या ऐसा हम कर पाते हैं? घर-घर की कहानी का अंत इतना ही सुखद हो जाए तो सारे चैनलों को प्राइम टाइम में ढूंढे से दर्शक नहीं मिलें। कहीं हम ही लोग धारावाहिकों के पात्र बन जाते हैं तो ज्यादातर धारावाहिक के कथानक हमारे आसपास घटी घटनाओं से चुराए लगते हैं। अच्छा करें तो उसकी चर्चा कम होती है, यही नहीं उस कथा में बाकी लोगों का भी कम लगाव रहता है, लेकिन बुरा करने, बुरा सुनने में हमें बड़ा आनंद आता है।
हम लोग जिस भी पेशे में हैं, बेईमानी या ईमानदारी से अपना काम तो करते ही हैं। कोई दिन भर में 25-50 फाइलें निपटा देता है तो कोई एक फाइल लेकर बाकी कामों में खुद को इतना व्यस्त कर लेता है कि शाम को ऑफिस छोड़ने से पहले ही वह फाइल निपट पाती है। इस सारे काम का हमें मेहनताना मिलना भी तय ही रहता है। रूटीन के इस काम में क्या हम कोई अच्छा काम भी कर पाते हैं? सोचें या समीक्षा करने बैठें तो हैरत हो सकती है कि काम तो रोज किया लेकिन अच्छा काम कब किया याद ही नहीं आया। आसपास नजर दौड़ाएं, समीक्षा करें तो कई बार अपने उस पड़ोसी-सहकर्मी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि वह हर दो-चार दिन में कोई ऐसा काम कर दिखाता है जो उसे अगले कुछ दिनों तक ऊर्जा प्रदान करता है और हम उसके ऐसे काम को पागलपन मानकर खारिज करते रहते हैं। आप किसी के अच्छे काम से प्रेरित हों यह बाध्यता नहीं, आपने आज तक कोई अच्छा काम किया या नहीं इसका हिसाब किताब रखना भी जरूरी नहीं लेकिन आप के अपनों ने यदि कुछ अच्छा काम किया है तो उनकी पीठ थपथपाने में तत्परता तो दिखा ही सकते हैं। जो अच्छा करने के लिए उत्साहित हैं, वह तो अपना काम बताने के साथ उत्साहित करने वालों में आपका भी नाम लेगा ही। कम से कम इसी तरह हम सबका नाम अच्छा करने वालों की सूची में तो जुड़ ही जाएगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...