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Wednesday, 5 August 2009

जरा नजरें नीचे तो झुकाइए

कई दुकानदारों से पूछा, नेट पर जानकारी ली, मित्रों से चर्चा कर ज्ञान बढ़ाया तब कहीं जाकर हमारे एक मित्र ने चार अंकों की राशि खर्च कर मोबाइल सेट खरीदा। जाहिर है उनके लिए अपना यह सेट सर्वश्रेष्ठ ही था, दिन-दिन बदलती टेक्नोलोजी के बाद भी उन्हें अपना सेट हर दृष्टि से उत्तम लग रहा था।

अभी जब फिर मुलाकात हुई तो उन्हें अपना मोबाइल घटिया लगने लगा था। एक के बाद एक कमियां गिना रहे थे, अफसोस भी कर रहे थे। ये मोबाइल लेकर बहुत बड़ी भूल कर दी। औने-पौने दाम में उसे बेचकर वह दूसरा सेट खरीदना चाहते थे। बातों-बातों में ही उनका दर्द सामने आ गया कि वैसे इस मोबाइल में बुराई तो नहीं है लेकिन उनके एक अन्य मित्र ने सात दिन पहले जो सेट खरीदा है वह सेट उन्हें अपने इस मोबाइल से ज्यादा बेहतर लग रहा है।

कुछ ऐसा ही हम सब के साथ अकसर होता ही रहता है। मनुष्य का मनोविज्ञान भी गजब है। गंदी बस्ती में नारकीय जीवन जीने वाला पक्के मकान का ख्वाब देखता है, पक्के मकान वाला इसलिए दुखी है कि सामने वाला आलीशान कोठी में रहता है। कोठी वाले को रात भर इसलिए नींद नहीं आती कि पड़ोसी के यहां तीन-चार महंगी गाडियां हैं और उनके पास एक माचिस की डिब्बीनुमा कार ही है।
अभी राखी के लिए आप-हम ने शॉपिंग की ही है । दस-बीस दुकानों में देखने के बाद बच्चों को शर्ट-जींस बड़ी मिन्नतों के बाद पसंद आया होगा। यही स्थिति साडियां खरीदते वक्त भी बनी होगी। दुकानदार साड़ी की खूबी गिनाएं उससे पहले 'होम मिनिस्टर' ने प्रिंट, कपड़े, डिजाइन को लेकर अपना सारा नॉलेज उड़ेलते हुए खामियां गिना दी होंगी। जो साड़ी पसंद आई, एक सप्ताह बाद उससे मन उचट जाएगा। कारण वही बच्चों को पड़ोसी के बच्चों के शर्ट-पेंट का लुक ज्यादा अच्छा लगेगा वही, हाल साड़ी के मामले में रहेगा। होटल में हम खाना खाने जाते हैं मेनू कार्ड देखते हैं, वेटर से भी हर डिश की जानकारी लेते हैं लेकिन ऑर्डर देते वक्त वह डिश जरूर शामिल करते हैं जो पड़ोस की टेबल पर सर्व की गई है।
मुझे तो लगता है तनाव जन्य जितनी भी बीमारियां-फिर चाहे वह डायबिटीज, बीपी, डिप्रेशन वगैरह-बढ़ रही हैं उसके अदृश्य कारणों में दूसरे का सुख देखकर दुखी रहना भी प्रमुख कारण है।
टीवी, नेट, मोबाइल, अखबारों के सूचना जंजाल ने ऐसा ताना-बाना खड़ा कर दिया है कि हमारे पास जो है वह हमें संतोष नहीं देता। जो नहीं है उसे पाने के लिए हम रेस के घोड़े की तरह दिन-रात दौड़ते रहते हैं। पड़ोस के घर में खनकती खुशी ने हमारा सुख-चैन छीन लिया है। होड़ की इस अंधी दौड़ ने पारिवारिक रिश्तों की मिठास को भी फीका कर दिया है।
कहावत तो यह है कि संतोषी सदा सुखी लेकिन अब तो 'दूसरा सुखी तो हम दुखी वाली' स्थिति हो गई है। टीवी पर जितने धारावाहिक चल रहे हैं, सामूहिक परिवारों वाले कथानक में जिस तरह भाई, भाई के खिलाफ षड्यंत्र रचता नजर आता है। किचन में जेठानी-देवरानी पकवान से ज्यादा एक-दूसरे के खिलाफ साजिश पकाती दिखती हैं, उस सबने हालत यह कर दी है कि हमारी कॉलोनी, मोहल्ले में एक छत के नीचे रहने वाले तीन भाइयों के परिवार की एकता पर खुशी से ज्यादा हमें इस बात का दुःख रहता है कि भाइयों में आपसी फूट, तकरार की स्थिति अब तक क्यों नहीं बनी। वो संतोषी हैं सुखी हैं, लेकिन पड़ोसी संतोषी माता का व्रत-पूजन करने के बाद भी दुखी है।
पड़ोसी की तरक्की, उसका सुख हमें रात-रात भर सोने नहीं देता। हम यह भूल जाते हैं कि ईश्वर की कृपा और अपने पुरुषार्थ से जितना कुछ हमारे पास है वह भी कम नहीं है। खिचड़ी और घी तो हमारी थाली में भी है पर क्या करें इस मन का इसे तो दूसरे की थाली में ही अधिक घी नजर आता है।
सारी परेशानी की जड़ ही यह है कि हमारी आदत ऊपर देखकर ही जीवन शैली निर्धारित करने की पड़ गई है। दूसरे की कमीज अधिक सफेद कैसे है, इस सोच में हम यह भूल जाते हैं कि हमारी कमीज भी मैली नहीं है। यदि पड़ोसी की तरक्की से इर्ष्या के पहले एक पल के लिए सोच लें कि जितना कुछ मेरे पास है उतना तो दूसरे के पास भी नहीं है तो झंझट ही खत्म हो जाए। नजरें ऊपर उठने की बजाय नीचे देखना भी सीख लें तो बात बन सकती है। किसी फिल्म का एक संवाद था, हर स्थिति में सही लगता है-जो किस्मत में है उसे कोई छीन नहीं सकता और जो नहीं है सिर पटककर भी मर जाएं नहीं मिलेगा।
अगले हपते फैरूं, खम्मा घणी-सा...

1 comment:

  1. aadarjog ranaji,
    aaj aapro aalekh padhyo. aajri in bhaagam bhag bhari jindgi me log kin bhaant duje ne sukhi dekh*r dukhi hai. aadmi ri jarurat to puri veh sake pan dhaap kadei puri ni veh. minakh jadi hiye me santosh dhaarle pheru unre kini cheej ri kami ni veh, aa seekh aapre in aalek me pratakh dekhan ne mile. pan e chikna ghada hai ina par chhant ro asar ni veh. pher bhi aapaano faraj hai liken ro so aapaa in me paachh ni rakhaalaa. aapne ghana ghana rang ne lakhdaad. aapro, vinod saraswat, bikaner

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