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Wednesday, 27 October 2010

हौसला बढ़ाकर तो देखिए

हमारे ही समाज, आफिस, संस्थान में ऐसे भी लोग हैं जो अपनी कार्यनिष्ठा, सूझबूझ, सजगता के कारण अलग से पहचान बना लेते हैं। समान पद, समान वेतन वाले सैकड़ों कर्मचारियों में भी दस-बीस कर्मचारी ऐसे होते ही हैं जो बिना किसी अपेक्षा के बेहतर प्रदर्शन करते हैं। घर में हमारे ही बच्चे स्कूल, कॉलेज में अपने प्रयासों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। हम हैं कि अच्छा काम करके दिखाने वालों की पीठ थपथपाने में भी कंजूसी दिखाते हैं। कवि सम्मेलन और मुशायरे में शिरकत करने वाले कवि-शायर मनमाफिक मानेदय मिलता है लेकिन उनकी भी अपेक्षा रहती है कि उनकी रचनाओं को तालियों की गड़गड़ाहट वाली सराहना तो मिले।
घर के बाकी सदस्यों की नजरें घुटनों-घुटनों चल रहे उस नन्हे की गतिविधियों का पीछा कर रही थीं। दीवार का सहारा लेकर उसने जैसे ही खड़े होने की कोशिश की, खुशी के मारे सब चिल्ला उठे। इस शोर से घबराकर वह धम्म से जमीन पर बैठकर रोने लगा। उसे चुप कराने के लिए कोई खिलौना लेकर दौड़ा तो कोई पुचकारने के साथ ही फिर से उसे प्रोत्साहित करने लगा। कुछ पल के इस प्यार-पुचकार से वह नन्हा खिलखिलाकर हंस पड़ा और फिर से दीवार का सहारा लेकर खड़े होने की कोशिश में जुट गया।
घर के बाकी सदस्य सांस रोके उसका दीवार के सहारे उठना-बैठना देखने के साथ ही इशारों-इशारों में उसकी हरकतों पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते जा रहे थे। उस नन्हे ने जैसे ही दीवार का सहारा छोड़कर डगमगाते कदम आगे बढ़ाए तो कोई मोबाइल से उसके फोटो खींचने लगा तो कोई उसी की नकल करते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
मां ने नन्हे को दौड़कर अपनी बाहों में भर लिया और उसका सिर चूम लिया। पूरा घर उत्साहित था। नन्हा पहली बार ठुमक-ठुमक कर जो चला था। खुशियों वाले इस शोर-शराबे में अब नन्हा भी खिलखिला रहा था। अपने छोटे-छोटे हाथों से मम्मी के बाल खींचकर शायद वह यह दिखाना चाह रहा था कि वह भी कितना खुश है।
यह सारे दृश्य देखते वक्त मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स में ढेर सारे पदक जीतने वाले अपने खिलाड़ियों और स्टेडियम में उनका उत्साह बढ़ाने वाले हजारों दर्शकों की याद आ गई। न तो कॉमनवेल्थ गेम्स पहली बार हुए और न ही पहली बार हमारे खिलाड़ियों को इस गेम्स में सफलता मिली। पहले भी भारत के खिलाड़ियों ने इस गेम्स में भाग लिया और पदक भी जीते। इस बार खास बात थी तो यह कि हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहद उम्दा रहा और पदक भी खूब बटोरे। यह संभव हुआ तो इसलिए कि उनका हौसला बढ़ाने के लिए स्टेडियम में हजारों दर्शक मौजूद थे। खिलाड़ी चाहे हमारे यहां का हो या अन्य किसी देश का, स्वर्ण नहीं तो रजत, कांस्य पदक जिसका भी हकदार बना तो उसकी इस उपलब्धि में दर्शकों की तालियों का भी योगदान रहा। कवि-साहित्यकार की रचना चाहे जितनी उम्दा हो लेकिन सही वक्त पर कवि-शायर को दाद न मिले, तालियों की गड़गड़ाहट उसे सुनने को न मिले तो मानदेय का भारी लिफाफा भी उसे खुश नहीं कर पाता।
स्टेडियम में मौजूद दर्शक न तो किसी खिलाड़ी के साथ दौड़े, न वजन उठाया और निशाना भी नहीं लगाया लेकिन जब खिलाड़ियों को सराहना, उत्साहवर्ध्दन की अपेक्षा थी तब ये सारे दर्शक उनकी अपेक्षा पर खरे उतरे, बदले में खिलाड़ियों ने भी अपने देश का नाम रोशन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
कॉमनवेल्थ गेम्स का टीवी पर प्रसारण करोडाें लोगों की तरह मैंने भी देखा। हम सबको इस अवधि में कम से कम यह तो सीखने को मिला ही है कि उपलब्धि चाहे छोटी हो या बड़ी वह तभी संभव है जब उसकी समय रहते सराहना हो और खिलाड़ी को भी यह महसूस हो कि उसके प्रयास की गंभीरता को मैदान के बाहर बैठे हजारों लाखों लोग देख समझ रहे हैं।
अन्य देशों में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहा लेकिन पदक इस बार जैसे नहीं बटोर पाए तो उसका एक मुख्य कारण वहां के स्टेडियम में बैठे दर्शकों ने हमारे खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए दिल्ली जैसा उत्साह नहीं दिखाया। अपने देश और अपने लोगों के बीच खेलना, जीतना, सम्मान पाना इसका कुछ अलग ही सुरूर होता है।
चाहे घर हो, ऑफिस हो या हजारों कर्मचारियों वाला संस्थान। हर जगह कुछ लोग तो ऐसे होते ही हैं जो समान उपलब्ध संसाधनों में भी बाकी लोगों से बेहतर काम करके दिखाते हैं। इनमें से यादातर ऐसे होते हैं जो अपेक्षा भी नहीं करते कि उनके बेहतर कार्य की सराहना की जाए क्योंकि किसी भी कर्मचारी को वेतन देने का मतलब ही है बदले में बेहतर काम की अपेक्षा। वेतन और काम के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता है वह है सराहना का। सौ कर्मचारियों के बीच यदि पांच बेहतर काम कर रहे हैं या पांच ऑफिस बॉय में कोई एक अधिक सजगता से काम कर रहा है तो क्यों नहीं उसकी सराहना की जानी चाहिए, क्यों नहीं उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए? तनख्वाह तो सब एक समान ले रहे हैं। फिर भी उसने अपेक्षा से अधिक बेहतर काम किया है तो उसके काम का ईनाम सराहना क्यों नहीं होना चाहिए?
बड़े घरों में जहां हर दिन सैकड़ों लोगों की आवाजाही रहती है जब मोबाइल फोन, घड़ी, पर्स, गहने आदि निर्धारित स्थान पर नहीं मिलते तो पहली नजर में घर के वर्षों पुराने नौकर को भी शक की नजर से देखा जाने लगता है क्योंकि समाज की यह प्रवृत्ति बन गई है कि छोटा आदमी यानी ईमानदारी- विश्वसनीयता-समर्पण-सेवा से उसका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसी किसी घटना के वक्त हम यह भी भुला देते हैं कि घर की सफाई के दौरान पलंग के नीचे पड़ी अंगूठी लाकर उसने ही हमारी हथेली पर रखी थी और यह भी कि जब हमें आधी रात में सपरिवार अन्य शहर में रहने वाले दूर के किसी रिश्तेदार के यहां जाना पड़ा था तब पूरा घर तिजोरी ऐसे ही वर्षों पुराने रामू काका के भरोसे छोड़ कर गए थे।
ऐसा नहीं है कि अच्छा काम करने वाले समाज में नहीं हैं, दरअसल हमारी नजर कमजोर होती जा रही है। हम तो अपने बच्चों की छोटी-छोटी उपलब्धियों पर उनका ही उत्साह नहीं बढ़ाते तो फिर ऑफिस, संस्थान, दुकान पर बेहतर प्रदर्शन करने वालों की सराहना तो दूर की बात है।

2 comments:

  1. आपकी बात गौर करने लायक है , इस विषय पर कम ही लोगों ने लिखा है ! शुभकामनायें !

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  2. excellent post sir excellent.
    meri beti bhi ab thodaa-thodaa binaa-sahaare chalne lagi hain.
    aapne jo likhaa hain same wohi ehsaas ham sabhi ko bhi huaa.
    thanks.
    bahut-bahut thanks.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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