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Thursday, 14 October 2010

आप हो गए क्या परीक्षा में पास?

ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग निराशा के गर्त में घिरे इससे पहले ही वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप उनकी पीड़ा से आंखें चुरा रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है।
सारे बच्चे कतार से खाना खाने बैठे थे। एक बच्चे के आगे रखी थाली कुछ गीली थी। मैंने रूमाल से वह थाली साफ कर के वापस उसकी टेबल पर रख दी। उसने थाली उठाई और कुछ देर सूंघता रहा। पड़ोस में बैठे उसके साथी ने हंसते हुए इसका कारण पूछा तो वह थाली दोस्त की नाक तक ले जाते हुए बोला देख इसमें से सुगंध आ रही है। सभी की थालियों में खाना परोसा जा चुका था, उन सब बच्चों ने आंखें बंद की, हाथ जोड़े और भोजन शुरू करने से पूर्व की जाने वाली प्रार्थना ऊं सह नाव वतु, सहनौ भुनक्तु, सहवीर्यम करवाव है, तेजस्विनी नावधीतमस्तु, मां विद्विषावहे के सामूहिक स्वर से आश्रम गूंज उठा।
कुछ पल तो मुझे उन बच्चों की थाली सूंघने वाली बात समझ नहीं आई, फिर याद आया आदत के मुताबिक परप्यूम लगाते वक्त रूमाल पर भी स्प्रे किया था। जाहिर है थाली पोंछने के कारण शायद उसमें भी खुशबू फैल गई थी। कितना अजीब है जो चीजें हमें आसानी से मिल जाती हैं हमें यह अहसास ही नहीं होता कि बाकी लोगों के लिए ऐसी साधारण सी चीजें भी एक बड़ी हसरत पूरी होने जैसी भी हो सकती है। करीब पचास बच्चे वो हैं जो शिमला के रॉकवुड में महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित किए गए सर्वोदय बाल आश्रम में रहते हैं। किसी के माता पिता नहीं हैं, किसी के परिजनों की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, किसी की मां नहीं है। इस आश्रम के हर बच्चे के साथ एक कहानी जरूर जुड़ी है। इनमें से कुछ के रिश्तेदार संपन्न भी हैं, चाहें तो खून के रिश्ते से जुड़े इन बच्चों की अपने बच्चों के साथ परवरिश भी कर सकते हैं, इन लोगों में इतनी यादा तो नहीं पर थोड़ी सी मानवीयता है तो सही जो पूरे हिमाचल में पड़ने वाली कड़ाके की सर्दी के मौसम में इन्हें एक डेढ़ महीने के लिए अपने साथ घर ले जाते हैं। बाकी ग्यारह महीने सभी यहीं रहते हैं, जिस दिन समाज के किसी व्यक्ति के मन में कुछ दान धर्म करने की भावना हिलोरे मारने लगती है और मंदिर, लंगर, शोभायात्रा के लिए दिए जाने वाले दान से कुछ नया करने का मन करता है, उस दिन इन बच्चों को खाने में कुछ अच्छा मिल जाता है। किसी पेरेंट्स को अपने बच्चे के जन्म दिन पर ऐसे अनाथ बच्चे का चेहरा याद आ जाता है तो इन बच्चों को भी पेस्टी, चॉकलेट, पेटीस का टेस्ट पता चलता है। स्वेटर, नए जूते, नए कपड़े और दीपावली पर फु लझड़ी, पटाखे जलाने की हसरत भी किसी दयावान के कारण ही पूरी हो पाती है। सभी धर्म ग्रंथों में खरी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंदों पर खर्च करने की बात कही गई है पर हम कहां याद रख पाते हैं। दो नंबर की कमाई वाले अधिक धार्मिक शायद इसीलिए होते हैं कि उनके कामकाज में बरकत बनी रहे और बुरी नजर भी ना लगे।
आश्रमों में रहने के कारण इन बच्चों की जिंदगी हम सब के दया भाव पर निर्भर है लेकिन हम है कि महीनों, साल दो साल में ही दया भाव दर्शा पाते हैं। हम दान भी करना चाहते हैं तो उसमें भी नाम, लाभ का गुणा भाग पहले कर लेते हैं। जिस ईश्वर ने हमें संपन्नता प्रदान की उसके प्रति तो सुबह शाम आभार व्यक्त करते हैं पर यह याद नहीं रखते कि उसी मालिक ने हमारी परीक्षा लेने के ऐसे सारे इंतजाम भी कर रखे हैं। ऊपर वाले ने जिन्हें संपन्नता का आशीर्वाद दिया है उन्हें भी दिल लगाया है और जिनकी राहों में मुश्किलों के कांटे बिछा रखे हैं उनके सीने में भी दिल धडक़ता है। एक वर्ग को परीक्षा में पास होने के ढेर सारे अवसर उपलब्ध करा रखे हैं तो एक वर्ग के लिए वह स्वयं कई रूपों, माध्यमों के बहाने घुप्प अंधेरे में भी जुगनू की तरह चमक उठता है। जो असहाय हैं, आशा भरी नजरों से आपकी तरफ देख भी रहे हैं और यदि फिर भी आप आंख फेर रहे हैं तो मान कर चलिए कोई और इस परीक्षा में पास होने के लिए तैयार बैठा है। कहा भी है भगवान भूखा उठाता जरूर है लेकिन भूखा सुलाता नहीं है। चींटी के लिए कण और हाथी के लिए मन भर भोजन की चिंता हमने तो कभी नहीं की। ऐसे में यह भ्रम पालना भी सही नहीं कि असहाय बच्चों की, जिंदगी का सूरज ढलने के इंतजार में वृध्दाश्रम में बाकी वक्त गुजार रहे लोगों की हम चिंता नहीं पालेंगे तो इनका बाकी बचा वक्त नहीं कटेगा। हम नहीं तो कोई और उनकी मदद को आगे आ जाएगा। हो सकता है कि हमारे जीवन का सूर्य ही अस्ताचल की ओर चल पड़े, फिर किसी मोड़ पर हमें ही जब विपरीत हालातों का सामना करना पड़े तो अफसोस करने का भी कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि अवसर बार-बार नहीं आते। अच्छा समय मुट्ठी में पकड़ी रेत की तरह कब फिसल जाता है हमें पता ही नहीं चलता और बुरा समय मकड़ी के जाले की तरह लाख कोशिशों के बाद भी कहीं ना कहीं चिपका ही रहता है।
रॉकवुड स्थित बाल आश्रम, या अपने शहर के ऐसे ही किसी आश्रम में जिस दिन भी जाने का मन करें या किसी असहाय की दशा देखकर मन दुखी हो और मदद करना चाहें तो ऐसे किसी भी शुभ कार्य को अपने बच्चों के हाथों से ही कराएं ताकि जब आप इस दुनिया में ना रहें तब भी आप के बच्चे जरूरतमंदों की मदद करते वक्त आप को याद करते हुए फक्र से आप का नाम ले सकें।
पाठकों की सुविधा के लिए सर्वोदय बाल आश्रम का फोन नंबर भी दे रहे हैं (0177-2623937, 2624489, 09816597345) उदास चेहरों पर मुस्कान के लिए आप की तिल बराबर मदद भी ताड़ जितनी हो सकती है। आप अपने परिचितों को भी तो प्रेरित कर सकते हैं।

3 comments:

  1. नमस्ते राणा जी,
    आपकी ये पोस्ट मुझे अभी तक की सबसे अच्छी और प्रेरणाभरी पोस्ट लगी हैं.
    मैं आपकी इस पोस्ट से काफी प्रभावित हूँ.
    अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ???
    क्या मैं इस संस्था के नाम का चेक या ड्राफ्ट आपको भेज सकता हूँ???
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  2. आप अच्छा कार्य कर रहे हैं ....शुभकामनायें !

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